अम्बेडकर कांस्टीचुएंट असेंबली में अपने चुने जाने को लेकर अनिश्चित थे, उस वक्त, मार्च 1947 में उन्होंने एक ज्ञापन तैयार किया, जो मई 1947 में ‘स्टेट्स एंड माइनार्टीज़ः व्हाट आर देयर राइट्स एंड हाऊ टू सिक्योर देम इन द काॅन्स्टिट्यूशन आॅफ द इंडिया’ के नाम से छपा. ‘काॅंन्स्टिट्यूशन आॅफ यूनाइटेड स्टेट्स आॅफ इंडिया’ नाम से तैयार किया गया यह दस्तावेज़ अपनी क्रांतिकारी लोकतान्त्रिक सामाजिक दृष्टि के लिहाज से बाद में बनने वाले हमारे संविधान से काफी आगे था. दस्तावेज कहता हैः
यह दस्तावेज भविष्यवाणी सी करते हुए कहता है कि यदि निजी उद्यमों को औद्योगिकीकरण से जोड़ा गया तो इससे “संपत्ति की वही असमानता पैदा होगी जो निजी पूंजीवाद ने यूरोप में पैदा की है और यह भारतीयों के लिए खतरे की घंटी है.” कैसे पूंजीवाद, लोकतन्त्र का विरोधी है, इस बात को चिन्हित करते हुए अम्बेडकर ने लिखाः
“निजी लाभ की खोज और निजी उद्यम पर आधारित सामाजिक अर्थव्यवस्था के काम-काज का अध्ययन करने वाला हर आदमी समझ सकता है कि कैसे यह व्यवस्था लोकतन्त्र के दो सिद्धांतों का वास्तव में उल्लंघन न करते हुए भी उन्हें खोखला बना देती है. वे दो सिद्धान्त हैं -- लाभ हासिल करने की पूर्वशर्त के रूप में कोई व्यक्ति अपना कोई भी संवैधानिक अधिकार त्याग नहीं सकता और राज्य दूसरों पर शासन के लिए किसी निजी व्यक्ति को अपनी शक्ति का नुमाइंदा नहीं बना सकता.”
(डाॅक्टर भीमराव अम्बेडकर, स्टेट्स एंड माइनार्टीज़, एपेंडिक्स-1)
उन्होने इस तर्क को शानदार ढंग से काटा कि राज्य द्वारा नियन्त्रण ‘आजादी’ पर अंकुश लगाएगाः
“यह आजादी किससे और किसके लिए? साफ ही है कि यह आजादी जमींदारों के लिए लगान बढ़ाने, पूँजीपतियों के लिए काम के घंटे बढ़ाने और पगार घटाने की आजादी है. … अर्थात जिसे राज्य के नियंत्रण से आजादी कहा जाता है, वह निजी मालिकान की तानाशाही का ही दूसरा नाम है.”
(डाॅक्टर भीमराव अम्बेडकर, स्टेट्स एंड माइनार्टज, एपेंडिक्स-1)