(समकालीन लोकयुद्ध, अप्रैल 1998 से)
हमारी पार्टी की वाराणसी कांग्रेस ने केंद्र की सत्ता में भाजपा के आरूढ़ होने के मंडराते खतरे पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी. रिपोर्ट में कहा गया था कि “हम केसरिया शक्ति द्वारा भारत पर कब्जे के खतरे को यकीनन स्वीकार करते हैं. संयुक्त मोर्चे का पतन ऐसे किसी परिणाम के लिए उत्प्रेरक सिद्ध हो सकता है. यद्यपि भाजपा की अपनी भी समस्याएं हैं, जैसे उनके अंदरूनी झगड़े और देश के कई भागों में उनकी सीमित पहुंच, मगर यह खतरा सचमुत वास्तविक खतरा है, और हमें इसे कत्तई घटाकर नहीं देखना चाहिए. अगर ऐसा होता है, तो फिर उस समय जो ठोस परिस्थिति हमारे सामने आएगी, उसके अनुसार नीति में कुछ खास समायोजन करने पड़ सकते हैं.”
यह बात हमने अक्टूबर 1997 में कही थी, जब संयुक्त मोर्चा की सरकार कांग्रेस के आश्वस्त समर्थन के सहारे बदस्तूर चल रही थी. लेकिन पांच महीनों के भीतर ही हमारी आशंकाएं सही साबित हो गई. रिपोर्ट में देश के अनेक भागों में भाजपा की कमजोर स्थिति का भी जिक्र था, और 1998 के चुनावी नतीजों ने यह दिखा भी दिया कि संसद में उसकी अपनी ताकत में कोई उल्लेखनीय इजाफा नहीं हुआ. लेकिन तब भी अगर हमने इसे एक वास्तविक खतरा समझा था तो ऐसा मूलतः इस अवधारणा के चलते कि संयुक्त मोर्चा का संभावित पतन इस तरह के परिणाम के लिए उत्प्रेरक साबित हो सकता है. हुआ भी ठीक ऐसा ही.
विडंबना यह है कि इस पूरे उपाख्यान में खलनायक की भूमिका निभाने वाली कांग्रेस, जो दो सालों से भी कम समय के अंदर देश को फिर से चुनावी उथल-पुथल में झोंक देने के लिए मुख्यतः जिम्मेवार थी और जो भाजपा के सशक्त हमलों के सामने तेजी से बिखरती प्रतीत हो रही थी, अंततः सही सलामत निकल आई. इसने न केवल अपनी ताकत को बरकरार रखा बल्कि महाराष्ट्र और राजस्थान में इसने भाजपा को जबर्दस्त चोट भी पहुंचाई. संयुक्त मोर्चे का कोई भी घटक कहीं भी भाजपा को ऐसी चोट देने में कामयाब न रहा. अकेले इसी एक धक्के ने भाजपा के शासन करने के नैतिक प्राधिकार को काफी हद तक कमजोर बना दिया.
दूसरी और संयुक्त मोर्चा इस बार शहीदी छवि और साझा घोषणापत्र के साथ चुनाव में उतरकर भी अपनी आधी ताकत ही बचा सका. उसका बाकी आधा हिस्सा भाजपा के खाते में चला गया.
संयुक्त मोर्चा का सबसे बड़ा घटक–जनता दल– कर्नाटक में साफ हो गया और उड़ीसा में उसका प्रमुख अंश भाजपा के संश्रयकारी बीजद में सामिल हो गया. चरम मौकापरस्ती का प्रदर्शन करते हुए उसके प्रधानमंत्री अकाली दल के समर्थन पर चुनाव लड़ रहे थे और उसके दूसरे दिग्गज श्रीमान रामविलास पासवान ने समता पार्टी के साथ गुपचुप समझौता कर लिया. डीएमके-टीएमसी गठबंधन को तमिलनाडु में सर्वाधिक अनपेक्षित पराजय का सामना करना पड़ा. फिर भी, भाजपा जब बहुमत की जादुई संख्या से पीछे रह गई तो और कोई नहीं बल्कि संयुक्त मोर्चा के संयोजक चंद्रबाबू नायडू ने विलक्षण कलाबाजी के सहारे यह कमी भी पूरी कर दी. संयुक्त मोर्चा के कुछ अन्य घटक, मसलन नेशनल कांफ्रेंस और अगप भी भाजपा की ओर झुक चुके हैं. संयुक्त मोर्चे के ये सभी घटक अपनी इस कलाबाजी के पीछे अपने-अपने राज्य की विशिष्टताओं (बाध्यताओं!) की दुहाई दे रहे हैं. अंततः असलियत जाहिर हो ही गई है. विशिष्ट आंचलिक हितों ने उन्हें संयुक्त मोर्चे में एकजुट किया था और उन्हीं हितों ने बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में उनके रास्ते जुदा कर दिए. धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत तो महज वह धुएं की दीवार थी जिसे हमारे सामाजिक जनवादी लफ्फाजों ने खड़ा कर रखा था.
सामाजिक जनवादी वामपंथ के लिए भी यह पारी खराब ही रही, और बंगाल के परिणाम खतरे की घंटी ही साबित हुए हैं. चुनाव के पहले सीपीआई(एम) के नेतागण कांग्रेस में हुई टूट-फूट का फायदा उठाते हुए तमाम सीटें जीत लेने का दम भर रहे थे. वस्तुतः वे अपनी पुरानी संख्या बचा पाने में ही सफल हो सके. जीत का फासला और प्राप्त मतों का प्रतिशत काफी कम हो गया.
बहरहाल, शुतुरमुर्ग की भांति वे तब भी 1996 जैसी स्थिति के दुहराव की आशा पाल रहे थे और काफी आतुरता से केंद्र की सत्ता संभालने की तैयारी कर रहे थे. आहत बंगाली स्वाभिमान को सहलाने के लिए ज्योति बसु ने दिल्ली जाने की अपनी तत्परता घोषित कर दी. ‘ऐतिहासिक भूल’ को सुधारने की पुरजोर कोशिश में सीपीआई (एम) ‘ऐतिहासिक मूर्खता’ के दलदल में फंस गई.
चलिए मूल बात पर लौटें. संयुक्त मोर्चा के पतन ने राजनीति और संख्या दोनों ही लिहाज से भाजपा को सीधा फायदा पहुंचाया है. लेकिन संयुक्त मोर्चा के पतन और भाजपा के शासन में आने के बीच के इस सीधे रिश्ते पर बहुत कम राजनीतिक विश्लेषकों का ध्यान गया है. कारण भी बहुत साफ है. चूंकि भाजपा और कांग्रेस ही दो प्रमुख खिलाड़ी थे, सो तमाम विश्लेषण भाजपा बनाम कांग्रेस ढांचे तक ही सिमट कर रह जाते हैं.
मजेदार बात यह है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ही ‘स्थिर सरकार और योग्य नेतृत्व’ के नारे को उछाला था. यह संयुक्त मोर्चे पर लगाया गया एक प्रत्यक्ष आरोप था. क्योंकि वह अस्थिरता और अक्षम नेतृत्व का पर्याय बन चुका था. शासक अभिजात्यों द्वारा अपने पक्ष में मोड़ लिए जाने की सीमाओं का ध्यान रखते हुए भी यह कहा जा सकता है कि जनता का जनादेश इस बार निर्णायक रूप से संयुक्त मोर्चा के खिलाफ चला गया. चुनाव के बाद संयुक्त मोर्चा में जारी बिखराव इसी बात की पुष्टि करता है.
संयुक्त मोर्चा से कहां गलती हुई है और उसके पतन के तात्पर्य क्या हैं? वामपंथ के दृष्टिबिंदु से इस सवाल की पड़ताल करना कार्यवाहियों का अगला दौर निर्धारित करने के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है.
प्रथमतः, भाजपा विरोधी व कांग्रेस विरोधी मंच के बतौर – यहां तक कि भाजपा विरोधी गैर कांग्रेसी मोर्चा के विरल संस्करण के बतौर भी – संयुक्त मोर्चे का प्रस्तुतीकरण एक सामाजिक जनवादी मिथक ही प्रमाणित हुआ. उसी तरह, संयुक्त मोर्चे का यह वर्णन कि वह जनता के जनवादी मोर्चा की ओर जानेवाला एक संक्रमणशील कदम है, जिसके अंदर मजदूर वर्ग और प्रगतिकामी बुर्जुआ के बीच एकता और संघर्ष के जरिए सर्वहारा वर्चस्व स्थापित होगा, एक दूसरा सामाजिक जनवादी सैद्धांतिक शब्दजाल साबित हुआ, जिसका मूल मकसद था अपने अवसरवादी संश्रय को जायज ठहराना. 1996 से 1998 के बीच कांग्रेस को किसी भी कीमत पर सत्ता से बाहर रखने की स्थिति से लेकर किसी भी तरह कांग्रेस को सत्ता में ले आने की स्थिति तक, सामाजिक जनवादियों का यह संक्रमण अवश्य ही काफी गौरतलब है.
दूसरे, व्यावहारिक धरातल पर संयुक्त मोर्चा प्रगतिशील कानूनों को लाने में पूरी तरह विफल रहा. खेत मजदूरों से संबंधित बिल विचाराधीन रह गया और दलितों पर अत्याचारों के खिलाफ भी, जिसमें बिहार में होने वाले जनसंहार भी शामिल हैं, सरकार कोई कदम नहीं उठा सकी. ‘कम्युनिस्ट गृहमंत्री’ कश्मीर और उत्तर-पूर्व की बगावतों में उलझे रहे और उनके पास इन अत्याचारों के खिलाफ कोई विशेष उपाय करने का न तो वक्त रहा और न ही संकल्प. इसके विपरीत, रक्षामंत्री मुलायम सिंह यादव सवर्ण जातियों को संतुष्ट करने के लिए दलित ऐक्ट का घोर विरोध करते रहे.
संयुक्त मोर्चे ने ‘राजनीति के अपराधीकरण’ को रोकने के लिए कुछ नहीं किया सबकि चंद्रशेखर की हत्या के बाद यह शक्तिशाली मुद्दा बन गया था. मोर्चा न तो बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि मसले के समाधान की दिशा में एक भी कदम आगे बढ़ सका और न ही उसने बाबरी मस्जिद के ध्वंस के लिए जिम्मेवार दोषियों को कोई सजा दिलाने की पहल की. वह लालू और महंत के भ्रष्ट शासन के साथ तमाम किस्म के समझौते करता रहा.
तीसरे, सत्ता में बने रहने के लिए उसने अपने पहले प्रधानमंत्री को कुर्बान कर दिया और इसीलिए बाद के दौर में डीएमके के दो मंत्रियों के मुद्दे पर दिखाई गई बहादुरी लोगों को कोई खास प्रभावित नहीं कर सकी.
डेढ़ साल का संयुक्त मोर्चे का शासन चिदंबरम के ‘स्वप्निल बजट’ और वीडीआइएस स्कीम के लिए याद किया जाएगा. आर्थिक प्रगति के संकेतको में आई चौतरफा गिरावट के मद्देनजर जहां बजट एक दिवास्वप्न बन गया था, वहीं वालंटरी डिस्क्लोजर ऑफ इनकम स्कीम काले को सफेद बनाने के लिए दी गई अब तक की सबसे उदार पेशकश थी.
यह भी विडंबना ही है कि संयुक्त मोर्चे की छवि बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रति मित्रवत ही बनी, हालांकि उसे साम्राज्यवाद विरोधी जुगाली करने में अग्रणी वामपंथ के शक्तिशाली हिस्सों का समर्थन प्राप्त था. बहुराष्ट्रीय निगमों के चहेते के हाथ में वित्तीय मामलों की बागडोर होने की वजह से ‘राष्ट्रवादी’ नारे को बिना किसी प्रतिरोध के भाजपा को समर्पित कर दिया गया. ‘राष्ट्रवादी सरकार’ के लिए और बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ प्रतिद्वंद्विता में ‘समान धरातल’ के लिए सरमायेदार शोर मचा रहे थे. इस माहौल में स्वदेशी के नारे के साथ भाजपा की प्रचार मशीनरी को पूरे जोश-खरोश के साथ उतरने का मौका मिला.
संयुक्त मोर्चे का एकमात्र मजबूत बिंदु और इसकी मूलभूत पहचान थी – संघवाद के उसूल के प्रति इसकी निष्ठा. ‘राज्यों को अधिक अधिकार’ से लेकर ‘मजबूत राज्य और कमजोर केंद्र’ तक के नारे उछाले गए. हां, संयुक्त मोर्चा के शासन काल में केंद्र जरूर कमजोर और अस्थायी दिखाई पड़ा, और ठीक इसी बिंदु पर मोर्चे की शिकस्त भी हुई. उसका सबसे मजबूत पक्ष उसकी प्रमुख विफलता बन गया. यह भारतीय राज्य-व्यवस्था के मूलभूत चरित्र को भी रेखांकित करता है. जब कभी कोई मजबूत केंद्र निरंकुशता की ओर प्रवृत्त होता है, तो शक्तिशाली आंचलिक आर्थिक हित विरोध में खड़े होने लगते हैं. बदले में, जब कभी केंद्र कमजोर और अस्थिर प्रतीत होता है, तो मजबूत केंद्र की चाहत जोर मारने लगती है. भारतीय राज्य-व्यवस्था का गतिविज्ञान शक्तिशाली आंचलिक आर्थिक ग्रुपों के हितों और एकीकृत राष्ट्रीय अर्थतंत्र की जरूरतों के बीच परस्पर निर्भरता के साथ जुड़ा हुआ है. कमजोर केंद्र की वकालत करने के चलते ही तो चंद्रबाबू नायडू संयुक्त मोर्चा के संयोजक बना दिए गए थे, खुद वही भाजपा सरकार के नेतृत्व में एक मजबूत केंद्र को सुस्थिर करने वाले कारक भी बन गए. चूंकि राजनीतिक तर्क ही संयुक्त मोर्चा के खिलाफ चला गया, सो उसे किसी न किसी बहाने जाना ही था. लेकिन यह अहम बात नहीं है. विवाद का विषय यह है कि वह कोई ऐसी छाप नहीं छोड़ सका जो भविष्य में उसकी वापसी में मददगार साबित हो सके.
सामाजिक जनवादी वामपंथ ‘ऐतिहासिक भूलों और मूर्खताओं’ के बीच डोलता रहा, लेकिन वह कभी भी इस दौरान आए ‘ऐतिहासिक अवसरों’ का फायदा उठाने के बारे में नहीं सोच सका. उसके विचारकों की मुख्य चिंता तमाम किस्म की ‘मध्यस्थता’, ‘मान-मनौव्वल’, ‘समझौतों’ और ‘गुप्त संधियों’ के जरिए संयुक्त मोर्चा को टिकाए रखने तक ही सीमित थी. सुरजीत ने यह शर्मनाक वक्तव्य दिया कि वामपंथ ने अपने किसी भी एजेण्डा के लिए सरकार पर दबाव नहीं डाला ताकि संयुक्त मोर्चा को कोई परेशानी न हो. वे कांग्रेस और संयुक्त मोर्चा के अन्य घटकों से भी वैसी ही आशा कर रहे थे. लेकिन किसी ने उन्हें उपकृत नहीं किया. इस प्रकार मजबूत वामपंथी धड़ों के द्वारा समर्थित भारत की पहली सरकार, जिसमें एक धड़े को महत्वपूर्ण मंत्रालय भी मिले हुए थे कोई वामपंथी छाप नहीं छोड़ सकी.
हर अवसरवादी पाप अपनी कीमत वसूलता है. संयुक्त मोर्चा के ध्वंसावशेषों पर भाजपा की खुल्लामखुल्ला सांप्रदायिक सरकार खड़ी है. आजादी की आधी सदी के बाद केंद्र सरकार की रहनुमाई वह पार्टी और वह शाख्सियत कर रही है, जिनकी भूमिका स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान कम से कम भी कहा जाए तो संदेहास्पद तो जरूर रही है और तब भी भारत पर घिर आई इस त्रासदी से गलत शिक्षा ली जा रही है. उदारवादियों का अच्छा-खासा हिस्सा, जिनमें वामपंथी बुद्धिजीवियों के कई हिस्से भी शामिल हैं, उस ‘महान संस्था, जिसका नाम कांग्रेस है’ के क्षय पर आंसू बहा रहा है. यह खुद को ही नकारने की कवायद है जो प्रगति और लोकतंत्र के लिए कांग्रेस विरोधी संघर्ष के इतिहास को खारिज कर देती है.
भाजपा की सरकार विश्वासमत हासिल कर चुकी है और वह तथाकथित राष्ट्रीय एजेंडा के आधार पर सरकार चलाने का संकल्प जाहिर कर रही है. अटल बिहारी वाजपेयी राष्ट्र को बारंबार आश्वस्त कर रहे हैं कि जब तक वे प्रधानमंत्री रहेंगे, उनकी सरकार किसी गुप्त एजेंडे पर अमल नहीं करेगी. यह विपक्ष को बहला-फुसलाकर शांत करने, उनके बीच तोड़फोड़ करने तथा वहां से और अधिक संश्रयकारी प्राप्त करने की ही एक चालाक कोशिश है.
कुछ समाजवादी और वामपंथी बुद्धिजीवियों ने यह तर्क देना शुरू कर दिया है कि भाजपा का राज्यरोहण फासीवाद के उदय का पर्याय नहीं है. कुछ लोग यह भी तर्क देते हैं कि शास्त्रीय अर्थों में फासीवाद की जो आर्थिक बुनियाद समझी जाती है, वह भारत में मौजूद नहीं है.
कठोर आर्थिक अर्थों में, यह सच है कि भारतीय बुर्जुआ, जो खुद एक पराश्रयी बुर्जुआ है, विश्व बाजार को हड़पने और उपनिवेश बनाने के हिटलरी एजेंडे पर नहीं चल सकता है. लेकिन भला यह कह ही कौन रहा है! बनारस कांग्रेस की रिपोर्ट में भारतीय संदर्भ में फासिस्ट तानाशाही को इन शब्दों में पारिभाषित किया गया है – “भाजपा के एजेंडा में भारत के पड़ोसियों, खासकर पाकिस्तान के खिलाफ उग्र राष्ट्रवादी नीति अपनाना, नाभिकीय अस्त्रों की दौड़ में गर्मी लाना, भारत को ऐसा हिंदू राष्ट्र बनाना जहां धार्मिक अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाएगा, संघीय राज्य-व्यवस्था को क्षतिग्रस्त करना, ग्रामीण गरीबों के आंदोलनों को कुचलने के लिए पाशविक दमन ढाना और भूस्वामियों की निजी सेनाएं संगठित करना, राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के आंदोलनों का सेना द्वारा दमन करना तथा बौद्धिक, सौन्दर्यशास्त्रीय व शैक्षणिक क्षेत्रों में तमाम किस्म की असहमति को कुचल देना शामिल है. संक्षेप में, भारत में फासिस्ट अधिनायकवाद थोप देना उनके एजेंडा में है.” इस तानाशाही के आंतरिक आयाम और क्षेत्रीय महाशक्ति बनने की इसकी आकांक्षा ठीक वही चीज है जिसे लोकप्रिय शैली में फासिस्ट तानाशाही कहा जाता है.
यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा बस्तुतः एक भिन्न किस्म की पार्टी है. जहां तमाम अन्य राजनीतिक पार्टियां अपने-आप में स्वतंत्र शक्तियां हैं, वहीं केवल भाजपा ही ऐसी पार्टी है जिसे आरएसएस के गैर संवैधानिक प्राधिकार के तहत महज कुछ राजनीतिक स्वायत्तता हासिल है. राष्ट्रीय एजेंडा जिसका हमने ऊपर जिक्र किया है, बस्तुतः आरएसएस का एजेंडा है और उसका राजनीतिक उपकरण – भाजपा – अनिवार्यतः इसी दिशा में आगे बढ़ेगी. इसके साथ-साथ आरएसएस के पास एक व्यापक नेटवर्क है और उसके अन्य बहुतेरे संगठन हैं, जिनके जरिए वह अपने एजेंडा को आगे बढ़ाएगा.
फासिस्ट तानाशाही की ओर भाजपा की अग्रगति को उसके तथाकथित नरमपंथी नेतृत्व की शुभेच्छाओं या भाजपा के संश्रयकारियों के तथाकथित नरमकारी प्रभावों पर निर्भरता के जरिए नहीं रोका जा सकता है. संयुक्त मोर्चा को विस्तारित करने के नाम पर तमाम बदनाम ताकतों को इकट्ठा करके या कांग्रेस के पीछे उन्हें गोलबंद करके भगवा खतरे का मुकावला नहीं किया जा सकता है.
हम वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष ताकतों के बीच व्यापकतर समझदारी की जरूरत से इनकार नहीं करते हैं और बनारस कांग्रेस ने खासतौर पर ‘नीतियों में कुछ खास समायोजन’ का आह्वान किया है. नीति समायोजन का अनिवार्य मतलब है विपक्षी सरकारों पर दबाव डालने, उन्हें ब्लैकमेल करने या बर्खास्त करने की भाजपा सरकार की कोशिशों का विरोध करना; तमाम किस्म के सांप्रदायिक हमलों और अलोकतांत्रिक कदमों के खिलाफ विपक्षी ताकतों के साथ हाथ मिलाना; भाजपा की साजिशों को शिकस्त देने के लिए संसद और विधानसभाओं के सदनों में समन्वय स्थापित करना आदि. लेकिन, उदाहरण के लिए, बिहार में राजद के साथ या पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के साथ सीधा-सीधी संश्रय बनाना इस जटिल समस्या का कोई उत्तर नहीं हो सकता है.
कुछ टिप्पणीकारों ने इस बात के लिए वामपंथ को डांट पिलाई है कि वह लालू प्रसाद के खिलाफ भ्रष्टाचार के मुद्दे को हद से अधिक खींचकर क्यों ले गया और बाद में लालू से अलग क्यों हो गया. सामाजिक जनवादी इस सलाह को स्वीकार करने और पुनः लालू की शरण में चले जाने के लिए काफी तत्पर दिख रहे हैं. लेकिन इस सच्चाई को कैसे झुठलाया जा सकता है कि लालू और सरकारी वामपंथ के बीच मधुर-मिलन की अवधि में ही तो बिहार में अन्यथा हाशिए पर खड़ी भाजपा केंद्रस्थल में पहुंच गई? किन्हीं महान सिद्धांतों के चलते नहीं, बल्कि 1996 के संसदीय चुनावों में भाजपा-समता के शक्तिशाली हमलों के सम्मुख लालू की सीटें में गिरावट और वामपंथ पर पड़ी गहरी चोटों के कारण ही सामाजिक जनवादी खेमे को पुनर्विचार के लिए बाध्य होना पड़ा था और तब उन्होंने लालू से अलग होने का निर्णय लिया.
लालू यादव का शासन सर्वव्यापी भ्रष्टाचार और चौतरफा अपराधीकरण का पर्याय बन चुका है. तमाम लोकतांत्रिक परंपराओं को तिलांजलि दे दी गई है और बिहार लंबे आर्थिक गतिरोध में फंस चुका है. वस्तुतः इन स्थितियों ने ही भाजपा-समता गठबंधन के उत्थान के लिए उपजाऊ जमीन तैयार की है, जिसने सामंती और ‘सवर्ण प्रत्याक्रमण’ को गोलबंद करने के साथ-साथ पिछड़ी और अतिपिछड़ी जातियों के भी बड़े हिस्से को अपने पक्ष में मोड़ लिया है. सारतः लालू के कुकृत्यों के खिलाफ वामपंथ के विरोध ने नहीं बल्कि एकीकृत व संगठित ढंग से इस विरोध के अभाव ने ही भाजपा को कई लोकतांत्रिक मुद्दों को भुनाने का मौका दिया है और खुद वामपंथ को हाशिए पर धकेल दिया है.
उसी तरह, वाममोर्चा सरकार का बचाव करना हमारा दायित्व नहीं है, जबकि इसकी प्रबंधन-परस्त नीतियों के चलते खुद मजदूर वर्ग इससे अलग हो रहा है; जब कलकत्ता की सड़कों पर मेहनतकश अवाम को उनकी आजीविका के क्षुद्र साधनों से निर्दयतापूर्वक वंचित कर दिया गया है, ताकि नव धनाढ्यों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुश किया जा सके.
बुर्जुआ विपक्ष की पार्टियों के साथ राजनीतिक संश्रय और चुनावी समझौता किसी क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों की आधारशिला नहीं हो सकते हैं. हमें मुख्यतः जनांदोलनों पर ही निर्भर रहना होगा तथा भारत की लोकतांत्रिक राजनीति की धारा में अपनी जगह तलाशनी होगी तथा उसे और व्यापक बनाना होगा.
भाजपा का राष्ट्रीय एजेंडा विशेषकर छात्रों-नौजवानों को अपना लक्ष्य बना रहा है. वह शैक्षणिक पाठ्यक्रम में बड़ा बदलाव लाकर उनके मानस पटल को साम्प्रदायिक बनाना चाहता है. बेरोजगारी के मुद्दे का इस्तेमाल कर भाजपा तथाकथित ‘राष्ट्रीय पुनर्निर्माण कोर’ का गठन करना चाहती है जो दरअसल आरएसएस की शाखाओं का ही सरकारी संस्करण होगा. इसीलिए हमारी पार्टी को सांप्रदायीकरण के खिलाफ छात्रों और नौजवानों को गोलबंद करने तथा रोजगार देने के लंबे-चौड़े वादों पर सरकार को कटघरे में खड़ा करने पर सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी.
महिलाओं के लिए आरक्षण के मुद्दे पर भाजपा के पांव निश्चित रूप से कांपेंगे और महिलाओं के संदर्भ में वह तमाम किस्म के पुरातनपंथी एजेंडों का अनुसरण करेगी. भगवा शासन के खिलाफ महिलाओं को गोलबंद करना पार्टी के सामने दूसरा प्रमुख फौरी एजेंडा है.
हर विशिष्ट मोर्चे पर भाजपा से दो-दो हाथ करने के लिए तमाम जनसंगठनों को गतिशील बनाना होगा ताकि वे स्वतंत्र ढंग से और तमाम वामपंथी व प्रगतिशील संगठनों के साथ मिलकर संयुक्त रूप से पहलकदमी ले सकें.
भाजपा सरकार के हर नीति संबंधी वक्तव्य का और उसकी हर कमी-खामी का भंडाफोड़ करने के लिए पार्टी की प्रचार मशीनरी को भी चुस्त-दुरुस्त करना होगा. भाजपा सरकार द्वारा लोकतांत्रिक अधिकारों व बोलने की आजादी पर होने वाले हर हमले को और यहां तक कि संसदीय लोकतंत्र की संस्थाओं का अवमूल्यन करने के हर प्रयास को चुनौती देनी होगी और उसका प्रतिवाद करना होगा. और अंततः भाजपा की सरकार बनने से चुंकि हर जगह सामंती ताकतों का हौसला बुलंद हुआ है, इसलिए खेत मजदूरों और गरीब किसानों पर हमले तथा दलित समुदाय पर अत्याचार और भी तीव्र होंगे. ऐसे तमाम हमलों को नाकाम कर देने के लिए पार्टी को अपनी लड़ाकू तैयारी मजबूत बना लेनी होगी.
संक्षेप में, देश में फासिस्ट तानाशाही लादने के प्रयासों को रोकने के लिए तमाम वामपंथी व प्रगतिशील ताकतों के सामने यही राष्ट्रीय एजेंडा है. और जनसमुदाय की चेतना विकसित करने तथा जन आंदोलनों को बढ़ाने की इसी प्रक्रिया में हमलोग वामपंथी व लोकतांत्रिक ताकतों के महासंघ की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं – और यही जनता के जनवादी मोर्चा के निर्माण के लक्ष्य की ओर जानेवाला सच्चा संक्रमणशील कदम होगा.