का० विनोद मिश्र के अंतिम लेख के प्रमुख अंश ( इसे उन्होंने 15 दिसंबर 1998 को समकालीन लोकयुद्ध के विशेषांक के लिए लिखा था)
भारी अनिश्चयता के इस काल में 1998 का वर्ष उथल-पुथल से भरा एक और वर्ष रहा. हालांकि, अगर गहराई से जांच की जाए तो चारों ओर फैली इस अव्यवस्था की तह में छिपी कुछ ऐसी प्रवृत्तियों का पता चलेगा जो बहुत संभव है, शताब्दी का मोड़ आते-आते जबर्दस्त उथल-पुथल का रूप ले लें.
भूमंडलीकरण के पैरोकार कल तक शेखी बघार रहे थे कि पूंजीवाद का ‘स्वर्णिम युग’ अब स्थायी रहेगा और उनके पास विश्व अर्थव्यवस्था की सारी समस्याओं का हल मौजूद है. लेकिन 1998 ने सब कुछ बदल डाला. दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के ‘शेयर’ अर्थतंत्रों के भहराकर गिरने तथा इस संकट के तेजी से लातिन अमरीका तक फैल जाने से सबके चेहरों पर हवाइयां उड़ रही हैं. अब विश्वव्यापी मंदी का साया मंडराते देख अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक के नीति-निर्माता संशय में पड़ गए हैं, और अब वे पुराने आत्मविश्वास के साथ जाने-पहचाने नुस्खे नहीं पेश कर पा रहे हैं. विश्व अर्थतंत्र के इन व्यवस्थापकों को न तो संकट का कोई कारण समझ में आ रहा है, न उसके समाधान का रास्ता सूझ रहा है. ऐसे में ये व्यवस्थापक कई विकल्प सुझा रहे हैं, जिनमें आर्थिक नियोजन में राज्य की बढ़ी भूमिका भी शामिल है. अभी हाल तक नव-उदारवाद के कट्टर सूत्रकारों को यह बात कितनी नागवार गुजरती थी! पिछले लगभग एक दशक से कायम मानदंड को धता बताते हुए इस साल अर्थशास्त्र का नेबोल पुरस्कार अमर्त्य सेन को दिया गया. यह महाशय ऐसे दार्शनिक आर्थशास्त्री हैं, जो ‘कहीं कुछ गड़बड़ हो जाने’ की स्थिति में गरीब और धनी दोनों के लिए सुरक्षा कवच बनाने की पैरवी करते हैं. कोई ताज्जुब नहीं कि 1930 के दशक के संकट का खौफ और पहले से बचाव की तैयारी की जरूरतों के मद्देनजर नोबेल कमेटी ने कीन्स के तीसरी दुनिया के अवतार को महिमामंडित करने का फैसला लिया हो!
भूमंडलीकरण परियोजना को लगे इन आघातों के चलते दुनिया का वैचारिक व राजनीतिक माहौल एक बार फिर बदल रहा हैं. हालांकि मौजूदा दौर में मार्क्सवादी विचारधारा की सामाजिक जनवादी व्यवस्था ही जोर पकड़े हुए है, लेकिन समूची दुनिया में गहराते संकट और नौजवानों व श्रमिक वर्गों की जोर पकड़ रही राजनीतिक कार्रवाइयां क्रांतिकारी मार्क्सवाद की ताकतों के फिर से एकजुट होने के लिए यकीनन अनुकूल स्थिति मुहैया करा रही हीं.
इस साल की शुरूआत में स्थिरता, जो अभी तक छलावा बनी हुई है, की तलाश में चुनाव कराए गए. लेकिन महज आठ महीने बीतते-बीतते राजनीतिक माहौल फिर एक और मध्यावधि चुनाव की संभावना से सरगर्म हो उठा है. संयुक्त मोर्चे की खिचड़ी सरकार का मजाक उड़ाने वाली भाजपा आज उससे भी रद्दी खिचड़ी गठजोड़ के जरिये सत्ता में आई. ‘स्थिर सरकार और योग्य नेता’ का उसका नारा साल का बेहतरीन मजाक माना गया है. सोनिया गांधी के नेतृत्व में पुनरुज्जीवित कांग्रेस जहां एक ओर सत्तारूढ़ गठबंधन को अपदस्थ करने की धमकी दे रही है वहीं दूसरी ओर ‘तीसरी ताकतों’ को, जो कांग्रेस के ध्वंसावशेषों पर पली-बढ़ी थीं, हाशिये पर ठेल रही है. परिस्थिति ने नए सिरे से वामपंथ की कार्यनीति पर बहस को सामने ला दिया है.
संयुक्त मोर्चा के पतन और भाजपा के गद्दीनशीन होते ही वामपंथ के मौकापरस्त हिस्से ने फौरन अपना सुर बदल दिया और उसने कांग्रेस से दोस्ती का राग अलापना शुरू कर दिया. सच तो यह है कि चुनाव के अंतिम परिणाम आने से पहले ही कामरेड सुरजीत कांग्रेस से अनुनय-विनय करने लगे थे कि वह सरकार बनाने में पहल करे. केंद्र में बनने वाली कांग्रेस सरकार को सीपीआई(एम) के समर्थन की व्याख्या तो कार्यनीतिक कदम के बतौर की गई, लेकिन उसके बाद से दोनों पार्टियों के बीच रिश्ते जिस तरह गहरे हो रहे हैं ओर सीपीआई(एम) के सिद्धांतकार जिस तरह इसे वैचारिक रंग दे रहे हैं, उससे साफ जाहिर है कि दोनों पार्टियां एक किस्म के रणनीतिक सहयोग की ओर बढ़ रही हैं. सीपीआई और सीपीआई(एम) दोनों के महाधिवेशनों में प्रतिनिधियों के बड़े हिस्से ने नेतृत्व के इस कदम का विरोध किया था और यहां तक कि भाकपा(माले) तथा इसी तरह की अन्य ताकतों के साथ तीसरा मोर्चा बनाने के औपचारिक प्रस्ताव भी इन कांग्रेसों में पारित हुए. लेकिन ऐसा लगता है कि नेतृत्व उसी घिसी-पिटी लीक पर चलते रहने के लिए आमादा है.
अक्तूबर 1997 में संयुक्त मोर्चा सरकार के सत्तारूढ़ रहते-रहते संपन्न हुई हमारी पार्टी की छठी कांग्रेस में हमने कहा था, “मौजूदा राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थिति में हमें दृढतापूर्वक भाजपा-विरोधी, कांग्रेस-विरोधी दिशा आख्तियार करनी चाहिए. फिर भी, हम मानते हैं कि भारत में केसरिया शक्तियों के सत्ता हड़पने का खतरा मौजूद है. ऐसा होने पर व्यापक भाजपा-विरोधी संश्रय बनाने के लिए नीतियों में कुछ पुनर्संयोजन करने पड़ सकते हैं. लेकिन इन पुनर्संयोजनों को तीन बुनियादी शर्तों का अनिवार्य रूप से पालन करना होगा – (1) पार्टी की स्वतंत्रता व पहल बरकरार रखनी होगी, (2) किसी भी धर्मनिरपेक्ष या लोकतांत्रिक भाजपा-विरोधी संश्रय से कांग्रेस को अलग किया जाना होगा, और (3) हमें गैर-भाजपा, गैर कांग्रेस सरकारों की तमाम जनविरोधी नीतियों और कदमों का विरोध करना जारी रखना होगा.”
क्रांतिकारी सर्वहारा की पार्टी के लिए एकमात्र यही सही नीति हो सकती थी और हमारी पार्टी इसी नीति पर डटी रही.
पुनरुज्जीवित कांग्रेस चंद मुख्य मध्यमार्गी पार्टियों के अस्तित्व के लिए भी खतरा पैदा कर रही है और इसीलिए हाल-फिलहाल इन पार्टियों ने भी कांग्रेस के खिलाफ अपनी आलोचना तीखी कर दी है. हाल के विधानसभा चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करते हुए यह भी कहा जा रहा है कि राष्ट्रीय राजनीति भाजपा और कांग्रेस के दो ध्रुवों के बीच सिमटती जा रहा है और तीसरे मार्चे की पूरी अवधारणा ही अप्रासंगिक हो गई है. इससे संकटग्रस्त तीसरा खेमा आतंकित हो उठा है और हाल में पुराने संयुक्त मोर्चे के टुकड़ों को ही बटोर कर किसी तरह तीसरा मोर्चा खड़ा करने की कोशिशे तेज हो गई हैं. मौजूदा ठोस हालात में ऐसे मोर्चे का एकमात्र मकसद कांग्रेस के साथ अपनी सौदेबाजी की स्थिति को मजबूत बनाना है.
जाहिर है कि हमारी पार्टी इस तरह की कोशिशों में फंसने से इनकार करती है. संसद में पूंजीवादी विपक्ष की पार्टियों के साथ सदन के अंदर तालमेल, यहां तक कि खास समय व खास परिस्थितियों में अस्थायी किस्म के कार्यनीतिक संश्रय की इजाजत तो दी जा सकती है, लेकिन किसी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष या तीसरे मोर्चे में उनके साथ अनालोचनात्मक रणनीतिक संश्रय कायम करना क्रांतिकारी कम्युनिस्टों की कार्यनीति नहीं हो सकती. ‘राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा’ के संदेहास्पद सिद्धांत की आड़ में सीपीआई लंबे अरसे यही कार्यनीति अपनाती रही और राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग की तलाश ने उसे कांग्रेस की गोद में बैठा दिया. नतीजा क्या निकला? कांग्रेस तो आज भी बरकरार है पर सीपीआई तेजी से अजायबघर की चीज में तब्दील हो रही है. तथाकथित धर्मनिरपेक्ष मोर्चे की राह से ‘जनता का जनवादी मोर्चा’ कायम करने का सीपीआई(एम) का सूत्रीकरण पार्टी को कांग्रेस के पंजे की ओर धकेल रहा है. और यही लाजिमी है, क्योंकि जब धर्मनिरपेक्ष मोर्चा आपकी कार्यनीति का लक्ष्य बन जाए तो कांग्रेस के सिवा भला कौन आपका स्वाभाविक मित्र बन सकता है! लेकिन तब सीपीआई का जो अंजाम हुआ, उससे भी आप नहीं बच सकते.
इसके विपरीत, हम ‘जनता के जनवादी मोर्चे’ की धुरी के बतौर वाम ध्रुव का निर्माण करना चाहते हैं और इसीलिए हमने वाम महासंघ का नारा दिया है – ऐसा महासंघ, जिसमें कम्युनिस्टों, सोशालिस्टों से लेकर नये सामाजिक आंदोलनों के वामपंथी दिशा वाले हिस्सों तक, क्रांतिकारी जनवाद की तमाम शक्तियां शामिल रहेंगी. रेडिकल जनवाद की शक्तियां जमीनी स्तर से उभर रही हैं और वे संसदवाद के दायरे में शायद ही मिलेंगी. इसके अलावा, सारी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकते लोकतांत्रिक ही होंगी, ऐसा कत्तई जरूरी नहीं है, बल्कि कई मामलों में वे चरम दक्षिणपंथी ताकतों भी हो सकती हैं. जब और जहां कहीं उन्हें अपने फायदे में दिखता है तो वे सांप्रदायिक राजनीति के पक्ष में अपना रंग बदल सकती हैं. अस्सी के दशक में और नब्बे के दशक की शुरूआत में कांग्रेस ने ऐसा ही किया था और पिछले साल चंद्रबाबू नायडू ने भी यही राह अख्तियार की.
संयुक्त मोर्चे की बेआबरू मौत के बाद हमने वाम महासंघ के निर्माण के लिए ताजा प्रस्ताव भेजा, लेकिन सीपीआई व सीपीआई(एम) नेतृत्व ने उसे ठुकरा दिया. ऐसा होना उम्मीद के कत्तई विपरीत न था. इसके विपरीत, हम वाम कतारों और मेहनतकश जनता के बीच पैदा हुई इस एकजुटता को वाम महासंघ की दिशा में बढ़ाने के पक्षधर हैं.
संयुक्त मोर्चे के पतन और इसके अलावा सीपीआई व सीपीआई(एम) की शक्ति बढ़ना तो दूर, उल्टे कुछेक राज्यों में उनके पुराने आधार के क्षय होने के चलते इन पार्टियों के अंदर पूंजीवादी विपक्ष के प्रति कार्यनीति को लेकर गंभीर सवाल उठ खड़े हुए हैं. फिर, कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने के सवाल पर भी गहरा विक्षोभ मौजूद है. वाम कतारों के विशाल बहुसंख्यक हिस्से ने उनकी पार्टी कांग्रेसों में अपनी भावना इसी रूप में अभिव्यक्त की है कि वामपंथ को एकताबद्ध होना चाहिए और उसे स्वतंत्र रूप से काम करना चाहिए. इसीलिए वाम महांसंघ का नारा वामपंथी कतारों और व्यापक मेहनतकश जनता – दोनों की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करता है.
यह बात साफ तौर पर समझ ली जानी चाहिए कि वाम महासंघ का नारा महज वामपंथ की तमाम ताकतों को जैसे-तैसे एक छतरी तले लाने की पवित्र आकांक्षा नहीं है. इसके विपरीत यह ‘संयुक्त मोर्चा’ किस्म की अवसरवादी कार्यनीति के खिलाफ क्रांतिकारी कम्युनिस्टों की ओर से दिया गया विशिष्ट कार्यनीतिक जवाब है. इसीलिए हमें इस नारे पर डटे रहना चाहिए, और वामपंथ की दो कार्यनीतियों के बीच इस लड़ाई को व्यापक वामपंथी कतारों व महेनतकश जनता के बीच ले जाना चाहिए और उन्हें क्रांतिकारी कम्युनिस्ट के पक्ष में जीत लेना चाहिए. यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि यह लंबी प्रक्रिया है, लेकिन यह सामाजिक जनवाद के खिलाफ हमारे ऐतिहासिक संघर्ष का अविभाज्य हिस्सा है. साथ ही यह कार्यनीति अराजकतावाद के खिलाफ सबसे प्रभावकारी प्रतिरोधक का भी काम करेगी, क्योंकि सामाजिक जनवादियों की ‘संयुक्त मोर्चा’ कार्यनीति में जो संसदीय बौनापन छिपा हुआ है, वही क्रांतिकारी नौजवानों को संगठित वामपंथी आंदोलन से परे हटाता है और उन्हें अराजकतावादी कतारों में शामिल होने के लिए प्रेरित करता है.
बिहार के ग्रामीण इलाकों, खासकर भोजपुर व जहानाबाद जिलों में हमारे सामाजिक आधार पर जमींदारों की भाड़े की सेनाओं के हमलों के चलते हम काफी कठिन स्थिति का सामना करते आ रहै हैं. दिसम्बर 1997 में बाथे जनसंहार हुआ, जिसमें करीब 60 लोगों की नृशंस हत्या कर दी गई. लेकिन यही घटना आंदोलन की राह में एक मोड़ भी साबित हुई. राजनीतिक प्रतिवाद संगठित करने के अलावा चंद जवाबी कार्रवाइयां भी की गईं और उसके बाद हुए संसदीय चुनाव में हम ग्रामीण गरीबों के बीच अपने सामाजिक आधार को टिकाए रखने तथा उसे सक्रिय करने में कमोबेश कामयाब रहे. हाल के दिनों में रणवीर सेना अपने सामाजिक आधार में बढ़ते आपसी झगड़ों के कारण ठहराव एवं बिखराव का शिकार हो रही है. दूसरी ओर, भोजपुर जिले में हाल में हुई पुार्टी की ‘नवजागरण’ रैली काफी शानदार रही. इसका तात्पर्य है कि जन सक्रियता में फिर से उभार आ रहा है. लेकिन आत्मसंतोष की कोई वजह नहीं है क्योंकि रणवीर सेना की प्रहार क्षमता अभी तक बरकरार है. इस अतिदुष्ट सेना पर – जो बिहार में हमारे आंदोलन के लिए अब तक की सबसे बड़ी चुनौती बन कर आई है – आखिरी जीत हासिल करने के लिए हमें अभी भी लंबा संघर्ष चलाना है.
छठी कांग्रेस के फैसलों की रोशनी में बिहार तथा अन्य राज्यों में हमारे आंदोलन के कई क्षेत्रों में खेत मजदूर संगठन उभर रहे हैं. बिहार में इन इकाइयों को राज्य स्तर पर समन्वित करने के लिए पहलकदमी ली जा रही है. नए साल में राज्यस्तरीय संगठन खड़ा करना हमारा एक मुख्य कार्यभार होगा. कृषि क्रांति के दौरान ग्रामीण सर्वहारा को उनके अपने वर्ग-संगठन में संगठित करना और उनमें वर्ग-चेतना विकसित करना पार्टी के सामने एक बड़ी चुनौती है.
बिहार में पुरानी किसान सभा अभी भी मृतप्राय पड़ी है. लेकिन चंद इलाकों में व्यापक किसान समुदाय को स्थानीय स्तर पर और स्थानीय मुद्दों पर संगठित करने के कुछेक प्रयास जरूर चल रहे हैं. किसान प्रतिरोध के इलाके पश्चिम बंगाल, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश व उड़िसा के हिस्सों में भी विकसित हो रहे हैं. उड़ीसा में का० नागभूषण पटनायक के देहांत के बावजूद जमींदारों के हमलों का मुंहतोड़ जवाब दिया गया है.
भारतीय कृषि पर विश्व व्यापार संगठन के बढ़ते दबाव के कारण उपजे कृषि संकट का बहाना बनाकर सामाजिक जनवादी लोग ग्रामीण गरीबों को अपना संघर्ष त्याग कर धनी किसानों के पीछे गोलबंद होने की नसीहत दे रहे हैं. इसी किस्म के तर्कों की आड़ लेकर अराजकतावादियों ने भी धनी किसान संगठनों के साथ साझा मंच बना लिया है. यह दो चरम धाराओं के एक ही बिंदु पर मिलने की एक शास्त्रीय मिसाल है. चंद भूतपूर्व मार्क्सवादी, जो पहले ही मार्क्सवाद के वर्ग दृष्टिकोण का परित्याग कर चुके हैं, अब जातिगत भेदभाव के खिलाफ लड़ाई को ही अंतिम लक्ष्य बताते हैं. अतः वे तमाम चीजों की व्याख्या केवल जाति को श्रेणी मानकर करते हैं, बसपा मार्का राजनीति में फंस जाते हैं और गरीब उत्पीड़ित जनता का नेतृत्व दलित व पिछड़ी जातियों से उभरे सुविधाभोगी तबके के नेताओं को समर्पित कर देते हैं. और ये नेता संसदीय प्रतिष्ठान के अंदर लूट में अपना हिस्सा निकालने के लिए जनता का चारे के रूप में इस्तेमाल करते हैं. इस किस्म के रुझानों का आंध्र प्रदेश के मार्क्सवादी-लेनिनवादी हल्कों में खासा जोर रहा है और वहां इसके परिणामस्वरूप आंदोलन हाशिए पर चला गया और कुछेक ग्रुप बिखराव के शिकार हुए हैं. तामिलनाडु में भी इसी प्रवृत्ति ने अच्छा-खासा भ्रम फैला रखा है और वहां तमाम संभावनाओं के बावजूद आंदोलन जोर नहीं पकड़ पा रहा है तो उसके पीछे यह एक खास वजह है. बिहार में भी ऐसे विचारों के चलते एमसीसी व पार्टी यूनिटी जैसे ग्रुप पिछड़ी जातियों के शक्तिशाली गुटों व शासक पार्टी के मोहरे बन गए.
जातियां अविभेदीकृत वर्ग हैं और इसीलिए हर किस्म के जातिगत भेदभाव के खिलाफ लड़ाई, जो लोकतांत्रिक आंदोलनों का अविभाज्य हिस्सा है, समूचे समाज में वर्ग विभेदीकरण की प्रक्रिया को तेज करता है. कम्युनिस्ट होने के नाते हमारी प्राथमिकता है इस महान सामाजिक मंथन के बीच से अपनी विशिष्ट पहचान के साथ उभरी सर्वहारा की वर्ग ताकतों को सुदृढ़ करना, और हमारी पार्टी यही काम कर रही है. वे सारे लोग, जो मंडल लहर की चपेट में आकर समाजवाद का संकट आते ही हमारा साथ छोड़कर भाग गए थे, आज पतित होकर या तो लालू लुटेरा के सिद्धांतकार बन बैठे हैं या फिर उसके कार्यकर्ता. हमने अपनी जमीन पकड़ी हुई है. हमने अपनी वर्ग शक्तियों को संगठित किया है, जन आंदोलनों की लपटों के बीच कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण किया और धीरे-धीरे अब हम तथाकथित सामाजिक न्याय की शक्तियों के गढ़ों पर भी धावे बाले रहे हैं. कृषि संघर्षों के क्षेत्र में हमें हर किस्म के उदारतावादी विचारों का विरोध करना होगा और पार्टी की वर्ग दिशा पर मजबूती से डटे रहना होगा. ये संघर्ष ही पार्टी की आत्मा हैं और केवल यहीं से जनता की शक्तिशाली सेनाएं उभरेंगी, जो देश का नक्शा बदल देंगी.
प्रधान शत्रु के खिलाफ राष्ट्रव्यापी अभियान संगठित करने की अपनी पार्टी की समृद्ध परंपरा के अनुरूप हमने इस साल के उत्तरार्ध में ‘केसरिया हटाओ देश वचाओ’ अभियान चलाया. ऐसे अभियानों का मुख्य मकसद जनता को राजनीतिक रूप से शिक्षित करना होता है. इसी के साथ ये अभियान समूची पार्टी को गोलबंद करते हैं कि वह राष्ट्रीय मुद्दे पर अपना ध्यान केंद्रित करे, और इस तरह पार्टी की अखंड एकता को सुनिश्चित किया जा सके. इसीलिए किसी राज्य इकाई या जन संगठन द्वारा राष्ट्रीय आह्वान को तथाकथित रचनात्मक तरीके से लागू करने के नाम पर उस आह्वान को शिथिल करने की इजाजत कत्तई नहीं दी जा सकती.
हालांकि अभियान समाप्त हो चुका है, मगर भाजपा शासन के विभिन्न पहलुओं का पर्दाफाश करने का काम बिना रुके जारी रखना चाहिए. हमें, खासकर, थोक भाव से भूमंडलीकरण और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय हितों के आगे समर्पण के उसके आर्थिक सिद्धांत को हमले का निशाना बनाना चाहिए. स्वदेशी की उसकी तिकड़म का पूरी तरह पर्दाफाश हो चुका है. अब समय आ चुका है कि वामपंथ आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था के उद्देश्य को जोरदार तरीके से बुलंद करे. मजदूर वर्ग की 11 दिसंबर की कार्रवाई इस दिशा में एक अत्यंत महत्वपूर्ण कदम थी. हमें मजदूर वर्ग के बीच, जहां अब बर्फ पिघलने लगी है और हमें बेहतर समर्थन भी मिलना शुरू हुआ है, पहले से काफी बड़ी पहल लेनी होगी. मजदूर वर्ग आंदोलन का राजनीतिकरण करने का यही उपयुक्त समय है. हमारे ट्रेड यूनियन नेताओं को कागजी कार्रवाई कम करनी चाहिए और मजदूरों के साथ सीधी अंतःक्रिया में ज्यादा जाना चाहिए.
जबकि राजनीतिक परिस्थिति में काफी उलटफेर हो रहे हैं और 1999 के वर्ष में एक और मध्यावधि चुनाव की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता, तो पार्टी को ऐसी भी स्थिति का मुकाबला करने के लिए पूरी तरह से तैयार रहना चाहिए. इसके लिए हमारे तमाम जन संगठनों को – खासकर नौजवान संगठन को – जनता के हित से जुड़े तमाम मसलों पर साहसिक पहल लेनी चाहिए और अन्य सभी से आगे निकलने की कोशिश करनी चाहिए. बंद दरवाजे के वार्तालापों में फंसे रहने के दिन लद गए. यह चौतरफा पहल लेने का वक्त है. इतिहास में प्रमुख महत्व के सवालों का समाधान केवल सड़कों पर ही हुआ है.
पार्टी की छठी कांग्रेस ने पार्टी निर्माण के लिए निम्नलिखित मुख्य कामों को चिह्नित किया था : (1) पार्टी सदस्यता को सजीव व गतिशील पार्टी शाखाओं में संगठित करना, (2) सबसे निचले स्तरों तक पार्टी शिक्षा को ले जाना, (3) पार्टी मुखपत्रों को जन लोकप्रिय पत्रिकाओं के रूप में विकसित करना, (4) तमाम किस्म की गुटबंदी के खिलाफ गंभीर संघर्ष चलाना और पार्टी में स्वस्थ जीवंत लोकतांत्रिक माहौल बनाना, (5) जहां तक संभव हो, पार्टी में क्षेत्रीय और नारी-पुरुष असंतुलन को दूर करना और पार्टी की मजदूर वर्ग संरचना को सशक्त करना.
पार्टी की छठी कांग्रेस ने हमें चेतावनी दी थी : “लेकिन खुली और जन-आधारित पार्टी का मतलब कम्युनिस्ट पार्टी के आधारभूत गुणों को शिथिल करना, उसके एकीकृत चरित्र को दुर्बल करना और उसकी केंद्रीयता एवं अनुशासन को क्षतिग्रस्त करना कत्तई नहीं है. इसलिए, ऐसे तमाम किस्म के उदारतावादी विचारों के खिलाफ, जो किसी क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी को सामाजिक जनवादी संसदीय संगठन में तब्दील करना चाहते हों, लगातार संघर्ष चलाना अनिवार्य है.” इतना ही कहना काफी है कि यह चेतावनी आज ज्यादा प्रासंगिक हो उठी है.
क्रांतिकारी मार्क्सवाद की लाल पताका को दृढ़तापूर्वक बुलंद करने वाली एक मजबूत कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण, ग्रामीण गरीबों के एक सशक्त आंदोलन का निर्माण और केसरिया ताकतों की साजिशों के खिलाफ एक चौतरफा पहलकदमी – नए साल में हमारे सामने ये तीन मुख्य चुनौतियां खड़ी हैं. सामाजिक जनवादी तथा रंग-बिरंगे अराजकतावादी अपनी गलत कार्यनीतिक लाइनों के चलते गंभीर आंतरिक गड़बड़ियों का सामना कर रहे हैं. हमारी हर अग्रगति उन्हें और भी ज्यादा गड़बड़ा देगी तथा हमें वाम आंदोलन के शीर्ष पर स्थापित कर देगी. एक जनवादी मोर्चा, जो पूंजीवादी विकल्प के तमाम संस्करणों के विपरीत सच्चे मायनों में जनता का विकल्प हो, के निर्माण के लिए ऐसा होना निहायत जरूरी है.
कामरेडो,
1998 में हमने ऐसे कई महत्वपूर्ण नेताओं और कार्यकर्ताओं को खोया है, जिन्होंने वर्ग-शत्रुओं के खिलाफ संघर्ष में अपने प्राण निछावर किए हैं. हत्यारों की गोली ने हमसे केंद्रीय कमेटी के सदस्य कामरेड अनिल बरुआ को छीन लिया, जो असमिया समाज में व्यापक रूप से सम्मानित व्यक्ति थे और पार्टी और जनता के हित में सर्वोत्तम समर्पण की भावना से लैस कामरेड थे. और जब साल खत्म होने को आ रहा था, तो कामरेड नागभूषण, जो उन चंद महान नेताओं में से एक थे जिन्हें भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन ने अपने लगभग 75 साल के इतिहास में पैदा किया है, और जिनकी मौत को धता बतानेवाली भावना भाकपा(माले) की बार-बार राख से उठ खड़ा होने की भावना का प्रतीक बन चुकी थी, हमें छोड़ चले गए. अपनी मृत्यु शय्या पर उन्होंने घोषणा की थी : “जीवन हो या मृत्यु, मैं पार्टी और क्रांति के लिए समर्पित हूं.” यही एक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट की सच्ची भावना है और आने वाले दिनों में और भी बड़ी जीतें हासिल करने के लिए कठोर चेष्टा में यही भावना हमारा मार्गदर्शन करे.