(लिबरेशन, मई 1993 से)
हमारी कलकत्ता कांग्रेस ने वाम एकता के लिए अपने प्रयासों को तेज करने की शपथ ली है, जिसका अंतिम उद्देश्य है भारत की एक ही कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण.
पार्टी कांग्रेस के बाद गुजरे तीनेक महीनों में मैं जहां कहीं भी गया, हमारे आंदोलन से जुड़े लोगों व अखबार वालों ने मुझसे बार-बार इस सपने को साकार करने की संभावनाओं के बारे में और इस दिशा में उठाए जा रहे ठोस कदमों के बारे में पूछा है. जैसा कि मुझे बताया गया, पश्चिम बंगाल में सीपीआई(एम) के एक प्रवीण संभ्रांत कम्युनिस्ट ने इस विचार को काल्पनिक घोषित करके ठुकरा दिया, जबकि कुछ अन्य व्यक्तियों का कहना है कि पुराने महारथी यद्यपि इसका अवश्य विरोध करेंगे, लेकिन कम्युनिस्टों की नौजवान पीढ़ी द्वारा इस विचार का व्यापक तौर पर समर्थन करने की ही सबसे ज्यादा संभावना है.
का० हरकिशन सिंह सुरजीत और का० इंद्रजीत गुप्ता के साथ बातचीत में मैंने इस बिंदु पर जोर देने की कोशिश की कि संघ परिवार ने बड़े सोचे-समझे ढंग से वामपंथ के गढ़ों – अर्थात् पश्चिम बंगाल और केरल – में प्रवेश किया है, जबकि अपने तई वामपंथ हिंदी क्षेत्र के भाजपाई किलों में पर मारने में भी असफल रहा है. वामपंथ के रणनीतिक चिंतन में भी हिंदीभाषी राज्यों में भाजपाई चुनौती का सामना करने का कार्यभार मध्यमार्गी विपक्षी शक्तियों, यहां तक कि कांग्रेस(आइ) के कंधों पर डाल दिया गया है और वामपंथ को केवल तबलची की भूमिका में रख छोड़ा गया है. यह रणनीति राजनीतिक व संसदीय दावपेंचों के जरिए भाजपा द्वारा सत्ता पर कब्जा करने के खतरे की रोकथाम करने में एक हद तक जरूर कामयाब हो सकती है, लेकिन जहां तक लोगों के दिमाग में सांप्रदायिकता के वाइरस के फैलाव को रोकने का सवाल है तो इस मामले में इसे शायद ही कोई सफलता मिल सकेगी. आज की सांप्रदायिकता मेहनतकश अवाम की व्यापक बहुसंख्या पर फासीवादी हिंदू राज्य थोप देना चाहती है और इस किस्म की सांप्रदायिकता के विरुद्ध फिलहाल कोई जनगोलबंदी नहीं नजर आती है. सांप्रदायिकता के विरुद्ध कांग्रेस का समूचा प्रचार केवल सांप्रदायिक सौहार्द्र के निरपेक्ष उपदेश भर रह जाते हैं. जबकि यथार्थ जीवन में वह हर कठिन मोड़ पर सांप्रदायिक शक्तियों का तुष्टीकरण करती है और उनके साथ गठजोड़ कर लेती है.
कांग्रेस को भाजपा से लड़ाने की कार्यनीति पर जरूरत से ज्यादा जोर देने और इस तर्क के आधार पर उसके साथ धर्मनिरपेक्ष मोर्चा का निर्माण करने के औचित्य के बारे में मुझे भारी संदेह है. वस्तुतः यह एक अर्थ में नुकसानदेह साबित हो सकती है, क्योंकि यह जनता की चेतना को कुंद कर देती है, जनवादी धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की कतारों में फूट पैदा कर देती है और सांप्रदायिकता के विरुद्ध जनगोलबंदी को कमजोर करती है.
कांग्रेस अध्यक्ष नरसिम्हा राव ने हाल ही में संपन्न एआइसीसी अधिवेशन में अपने एक महत्वपूर्ण भाषण में कहा, “अब भाजपा के पास बच ही क्या गया है? केवल धर्म ही तो. वह उससे छीन लीजिए और वह कहीं की न रहेगी?” इसका मतलब है कि भाजपा के आर्थिक कार्यक्रम और विदेश नीति को कांग्रेस ने पहले ही अपना लिया है. केवल धर्म ही शेष रह गया है और अब कांग्रेस उसे भी अपनाने जा रही है.
बाबरी मस्जिद ढाहे जाने के पहले ऐसी खबरें आई थीं कि कांग्रेस(आइ) विहिप को अंधेरे में रखकर साधुओं और महंतों को यह आश्वासन देकर उनके साथ अपनी पटरी बैठा रही थी कि अपने पक्ष में न्यायिक आदेश हासिल करके वह राम मंदिर विवादास्पद स्थल पर ही बनाएगी. इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं है. 1949 में बाबरी मस्जिद के अंदर राम की प्रतिमा स्थापित करने से लेकर, जिसने उसे ‘मुसलमानों द्वारा परित्यक्त विवादास्पद ढांचा’ बना दिया, उसका ताला खुलवाने के जरिए शिलान्यास तक, कांग्रेस की एक के बाद दूसरी आनेवाली सरकारों ने अयोध्या विवाद के समूचे विकास में संदेहास्पद और कपटभरी भूमिका ही निभाई है. दरअसल मंदिर के सवाल पर कांग्रेस द्वारा पहलकदमी छीन लेने के इसी डर के चलते भाजपा बाबरी मस्जिद को ढाह देने की निराशोन्मत्त कार्यवाही करने को उतारू हुई. तथापि, खेल जारी है और ट्रस्टों को बनाने तथा संत समुदाय के अंदर घुसपैठ करने और समानांतर कदम उठाने के जरिए कांग्रेस अपनी चालबाजियां जारी रखे हुए है. मुसलमान इसे समझते हैं और यही कारण है कि वे अपने को कांग्रेस(आइ) से बुरी तरह अलग-थलग महसूस करते हैं.
लिहाजा, गौरतलब बात तो यह है कि एक ऐसी पार्टी के साथ धर्मनिरपेक्ष मोर्चा भला सांप्रदायिकता के खिलाफ किसी सच्चे संघर्ष को कैसे ताकतवर बना सकता है? कांग्रेस(आइ) और भाजपा के बीच के अंतरविरोधों का इस्तेमाल करने अथवा आवश्यक प्रशासकीय कदम उठाने हेतु सरकार पर दबाव डालने के लिए कांग्रेस(आइ) को धर्मनिरपेक्ष मोर्चे में खींच लाना क्या सचमुच जरूरी है?
भाजपाई किस्म के सांप्रदायिक फासीवाद और कांग्रेस(आइ) की सांप्रदायिक चालबाजियों, दोनों का विरोध करने वाला धर्मनिरपेक्ष मोर्चा इस संघर्ष को नई आर्थिक व विदेश नीतियों के खिलाफ संघर्ष के साथ भी जोड़ सकता है, क्योंकि ये नीतियां कांग्रेस(आइ) और भाजपा दोनों का साझा आधार हैं तथा इस प्रकार यह मोर्चा धीरे-धीरे एक व्यापक जनवादी मोर्चे में विकसित हो सकता है. इस मुद्दे पर सैद्धांतिक-राजनीतिक समझ में मतभेद मौजूद हैं तथा जिन साझे मंचों और संयुक्त कार्यवाहियों में हम और सीपीआई(एम) सभी मौजूद हैं वहां हमारे और उनके बीच का संघर्ष तीखे रूप से प्रतिबिंबित होता है. तथापि, अन्य राजनीतिक शक्तियों के दबाव और मुस्लिम प्रतिक्रिया के भय ने उन्हें अपनी लाइन को व्यावहारिक रूप देने से अबतक रोक रखा है.
सांप्रदायिक खतरे के खिलाफ जनता दल और इसके विभिन्न गुटों के साथ संश्रय का निर्माण करने पर भला किसी को क्या ऐतराज हो सकता है, किंतु विचारधारात्मक धरातल पर मंडलवाद को प्रधानता देना और किसी लालू यादव अथवा किसी मुलायम सिंह को युगपुरुष के रूप में स्थापित करना आत्मघाती ही सिद्ध होगा. इससे केवल यही साबित होगा कि इस महत्वपूर्ण हिंदीभाषी क्षेत्र में भाजपा की चुनौती का वामपंथ के पास अपना खुद का कोई जवाब नहीं है और यह भारत के परिधीय राज्यों में वामपंथ का अच्छा आधार बने रहने के बावजूद भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में उसे अप्रासंगिक ही बना देगा, खासकर तब जबकि इन परिधीय राज्यों में घुसपैठ करने की अपनी कूबत भाजपा ने भलीभांति प्रदर्शित की है.
अगर उत्तर प्रदेश में हमारी हाल की पहलकदमियों और कुछ विश्वविद्यालय चुनावों में हमारी जीतों की हर ओर प्रशंसा की गई और उन्होंने नई उम्मीदें जगाई हैं तो इसका कारण वह संदेश है जो इन पहलकदमियों और जीतों से उभरता है. अर्थात् अगर दृढ़निश्चय हो तो वामपंथ निस्संदेह भाजपा को उसके गढ़ों में पराजित कर सकता है. सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि हमारी जीतें न केवल भाजपा की हमलावर सांप्रदायिक विचारधारा के ठुकराए जाने का प्रतीक हैं, बल्कि वे मंडलवाद का सकारात्मक निषेध भी हैं. उत्तर प्रदेश विश्वविद्यालय परिसर मंडल विरोधी आंदोलन से बुरी तरह उद्वेलित थे जिसके चलते छात्र समुदाय साफ-साफ बंटे हुए थे. जाति आधारित आरक्षण के मूलाधार को स्वीकार करने के साथ-साथ हमने बेरोजगारी के आम मुद्दे पर सबों का ध्यान केंद्रित किया. नतीजे के तौर पर छात्रों के हर तबके ने हमारा समर्थन किया.
हिंदी क्षेत्रों, खासकर उत्तर प्रदेश में जनता दल के साथ संयुक्त कार्यवाहियां करने पर सर्वाधिक ध्यान देते हुए भी हम समानांतर वाम पहल को शक्तिशाली बनाने की हिमायत करते हैं. अभी शुरूआत करते वक्त हम एक तुच्छ शक्ति जरूर लग सकते हैं, लेकिन यह रणनीतिक कार्यभार है और मौजूदा परिस्थिति वामपंथ के विकास के लिए पर्याप्त मौका दे रही है. इस मौके का एक इससे भी अहम कारण है लोहिया और जयप्रकाश के समाजवादी भाववाद के अवसान के बाद इन इलाकों में विचारधारात्मक शून्य का निर्माण. मुलायम सिंह और लालू यादव भाजपा के उत्थान का अल्पकालीन परिणामवादी प्रत्युत्तर प्रदान कर ही सकते हैं. लेकिन विचारधारा के धरातल पर उनके पास देने के लिए कुछ भी नहीं है. प्रगतिशील जनवादी बुद्धिजीवी विचारधारात्मक विकल्प और ऐसी शक्तियों की तलाश में हैं जो ईमानदार, समर्पित और जुझारू हो. नई राजनीतिक शक्तियों के उदय के लिए परिस्थितियां परिपक्व हो रही हैं और वामपंथ अपने हाथों में नेतृत्व ले सकता है.
दीर्घकालीन रणनीति प्रेक्षकों पर हमारे जोर को अक्सरहां हमारे “मार्क्सवादी” आलोचक अलगाववादी नीतियां करार देते हैं. उनका आरोप है कि हमारी इन नीतियों में पूंजीवादी खेमे के अंतरविरोधों और फूटों का इस्तेमाल करने की कार्यनीति को अहमियत नहीं दी गई है. बेशक, अपने रणनीतिक लक्ष्यों को पाने के लिए हम तथाकथित व्यापक संश्रय में अपनी स्वाधीनता को क़ुर्बान करने की जगह कभी-कभी अलगाव को तरजीह देते हैं, लेकिन हम पूंजीवादी विपक्ष का प्रतिनिधित्व करनेवाली राजनीतिक शक्तियों की विभिन्न धाराओं के साथ कार्यनीतिक और यहां तक कि अल्पजीवी संश्रयों में भी बंधने की कभी उपेक्षा नहीं करते हैं. अपनी स्वतंत्रता और पहलकदमी पर खड़ा होकर हम धीरे-धीरे व कदम-ब-कदम इस मामले में अपनी नीतियां विकसित कर रहे हैं. पूंजीवादी विपक्ष के खेमे में नेताओं के साथ संयुक्त कार्यवाहियों का हमारा दायरा निस्संदेह काफी बढ़ा है.
जब अपने हाल के एक वक्तव्य में मैंने विक्षुब्ध कांग्रेसियों का उल्लेख किया और भविष्य में एक व्यापक सांप्रदायिकता विरोधी संश्रय में उनके शामिल किए जाने की संभावना से इनकार नहीं किया तो हमारे अनेक कामरेड दिग्भ्रमित हो गए. लेकिन मुझे लगता है कि कांग्रेस में विक्षोभ बढ़ रहा है और भाजपा संबंधी कार्यनीति के सवाल के गिर्द वह ठोस शक्ल ले रहा है, इसलिए राष्ट्रीय एकता अभियान जैसे किसी व्यापक सांप्रदायिकता विरोधी मंच में उनके शामिल होने के सवाल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. मुझे ऐसा नहीं लगता कि इससे इस संश्रय का कांग्रेस विरोधी पहलू घट जाएगा, अपितु इससे यह पहलू और ताकवर ही होगा.
एक शब्द में, सीपीआई और सीपीआई(एम) के साथ हमारा मतभेद साम्प्रदायिक खतरे के खिलाफ व्यापक आधार वाले मंच के सवाल पर नहीं है. हमारा मतभेद वहां शुरू होता है जहां वे कांग्रेस के साथ संश्रय कायम करने के बहाने के बतौर इस मंच के स्वाभाविक भाजपा विरोधी जोर का इस्तेमाल करते हैं. हम राजनीतिक साजिशों के अड्डे के बतौर इस मंच का इस्तेमाल करने का भी विरोध करते हैं और इसके बदले हम जनगोलबंदी पर जोर देते हैं. हम पूंजीवादी विपक्ष की शक्तियों के सामने अपनी पहलकदमी समर्पित करने और पूंजीवादी नायकों का गुणगान करने का विरोध करते हैं. जहां तक दिशा का सवाल हो तो हम मानते हैं कि केवल जनवादी राज्य ही सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष राज्य हो सकता है और इस लिहाज से धर्मनिरपेक्षता के लिए संघर्ष एक ही साथ राज्य के जनवादीकरण के लिए भी संघर्ष है. लिहाजा, हमारे लिए धर्मनिरपेक्ष मोर्चा दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य से रहित कोई परिणामवादी कार्यनीति नहीं है, बल्कि यह भारत में जनवादी मोर्चे के निर्माण के रणनीतिक कार्यभार का अभिन्न अंग है और इसे निस्संदेह यही होना चाहिए.
अपनी ओर से हमने हमेशा जनहित से संबंधित मुद्दों पर संयुक्त कार्यवाहियां करने पर जोर दिया है, चाहे वह बिहार में भूमि के प्रश्न पर वामपंथी पार्टियों की संयुक्त कार्यवाही हो अथवा नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ संयुक्त ट्रेड यूनियन संघर्ष हो. हमने छात्रों, नौजवानों, महिलाओं और सांस्कृतिक मंचों को इसमें शामिल करने के लिए इस साझा संघर्ष के क्षितिज को विस्तारित करने में गहरी दिलचस्पी ली है.
इस संदर्भ में, हमने ट्रेड यूनियनों की स्पांसरिंग कमेटी को विस्तृत करके नई आर्थिक नीति व सांप्रदायिकता के विरुद्ध सभी किस्म के जन संगठनों के मंच की शक्ल देने के प्रस्ताव का हार्दिक स्वागत किया. यह मंच प्रथमतः वाम झुकाव रखनेवाले जन संगठनों को लेकर बना है. इसका केंद्रीय जोर सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ है और इसने निरपवाद रूप से जन कार्यवाहियां संचालित करने का निर्णय किया है जिसकी परिणति ‘भारत बंद’ के रूप में होगी. इन सब कारणों से ऐसा मंच वामपंथी पार्टियों के राजनीतिक महासंघ के लिए भौतिक आधार को मजबूत बनाने में काफी हद तक कारगर हो सकता है.
तथापि, जिस ढंग से सांप्रदायिकता को नई आर्थिक नीति के साथ फेंटकर एक खिचड़ी तैयार कर दी गई और इस प्रकार मंच के केंद्रीय जोर को धुंधला कर दिया गया हमें उसपर ऐतराज है. वामपंथी पार्टियों द्वारा कांग्रेस(आइ) की सरकार को बचाने, संकटकालीन घड़ियों में उसका समर्थन करने और भाजपाई खतरे से सतर्क रहने के नाम पर सरकार-विरोधी जन आंदोलनों की धार को कुंद करने के सतत प्रयासों को देखते हुए मंच के मुख्य जोर को धुंधला बनाने के पीछे उनके मकसद पर कोई भी व्यक्ति जरूर शंका करेगा.
फिर, संघर्षशील संगठनों के ऐसे मंच को राज्य की बढ़ती दमनकारी प्रकृति पर चुप नहीं रहना चाहिए. निस्संदेह यह नहीं भूलना चाहिए कि आतंकवाद को परास्त करने के नाम पर राज्य जिन दानवी कानूनों से अपने को लैस कर रहा है, अंततः उनका इस्तेमाल जनसंघर्षों के खिलाफ ही होगा. लिहाजा, सुसंगत जनवाद का हिमायती होने के कारण वामपंथ का कर्तव्य हो जाता है नागरिक, मानवीय व जनवादी अधिकारों के हरेक उल्लंघन का विरोध करना. इसी प्रकार, ऐसे मंच को महिला उत्पीड़न के मुद्दे पर अवश्य ही दृढ़ स्थिति अपनानी चाहिए, खासकर तब जबकि पुलिस हाजतों में बलात्कार किए जाते हैं और जब बलात्कार वर्गीय व सांप्रदायिक उत्पीड़न के हथियार बन गए हैं.
हम यह भी महसूस करते हैं कि भारत के हर कोने में ग्रासरूट संगठन एक जनपक्षीय विकास रणनीति के लिए सकारात्मक संघर्ष चला रहे हैं. वर्तमान संदर्भ में वे आइएमएफ और विश्व बैंक के निर्देशों पर बनी आर्थिक नीतियों और सांप्रदायिकता के खिलाफ भी आवाज उठा रहे हैं. निस्संदेह ऐसी शक्तियों को भी प्रस्तावित जनमंच की छतरी तले खींच लाना चाहिए. वामपंथ को अपने एजेंडे में उन तमाम मुद्दों को शामिल करने कि लिए, जो पिछले कुछ दशकों की विकास प्रक्रिया में सतह पर उभरे हैं, अवश्य ही अपनी नीतियों की दिशा फिर से निर्धारित करनी चाहिए. ऐसा करने के लिए यह जरूरी है कि वामपंथ ऐसी शक्तियों के साथ समागम बढ़ाने में हरगिज न हिचके और अपनी विचारधारा व अपनी संगठनात्मक शक्ति पर पक्का भरोसा रखे. इन और अन्य सवालों पर हम इस मंच के अंदर अपनी लड़ाई जरूर जारी रखेंगे.
सांप्रदायिकता के विरुद्ध संयुक्त राजनीतिक मंच का और नई आर्थिक नीति के विरुद्ध एक जनमंच का उदय खुद अपने-आप में वामपंथी शक्तियों के बीच एकता के उदीयमान प्रतिरूप का सूचक है. साथ ही, वह इस बात का सूचक है कि दो कार्यनीतियों के बीच का संघर्ष संयुक्त कार्यवाहियों के दायरे में भी व्याप्त हो गया है. शुरूआत हम एकता से करते हैं और ऊंचे स्तर की एकता कायम करने के उद्देश्य से संघर्ष जारी रखते हैं. भारत में वाम आंदोलन का भविष्य इस एकता-संघर्ष-एकता पर निर्भर है.