(देशब्रती के विशेषांक, अक्टूबर 1996 से)
यह लेख लिखते वक्त कांग्रेसी राजनीति में एक महत्वपूर्ण फेरबदल हो चुका है. नरसिम्हा राव ने इस्तीफा दे दिया और उनकी जगह सीताराम केसरी को कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुन लिया गया है. यह फेरबदल कांग्रेस के फिर से एकीकरण की प्रक्रिया पर कैसा असर डालेगा अभी कहा नहीं जा सकता. अर्जुन सिंह से लेकर वीपी सिंह तक, सभी लोगों के कांग्रेस में लौट आने की बातें हो रही हैं. नरसिम्हा राव के पदत्याग की खबर सुनते ही प्रधानमंत्री देवगौड़ा खुद ही राव के घर दौड़े चले आए और वहां उनसे अकेले में पैंतालिस मिनट तक बातचीत की – इससे जाहिर है कि कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में होने वाले इस फेरबदल से देवगौड़ा सरकार का अस्तित्व कितने घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है. अखबारों के मुताबिक, इसे लेकर पिछले साढ़े तीन माह की अवधि में प्रधानमंत्री कुल जमा चौबीस बार राव से मिलने उनके घर पहुंचे हैं.
उत्तरप्रदेश में होने वाले चुनाव के परिणामों पर भी सारे देश की नजरें टिकी हुई हैं. यद्यपि वहां मुलायम ने पहले ही अपनी पसंद के राज्यपाल की नियुक्ति करवा ली है, ताकि अगर त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति आए तो सरकार बनाने की उन्हें ही सुविधा मिले. फिर भी, उनकी पराजय से संयुक्त मोर्चा सरकार का संकट बढ़ेगा. दूसरे शब्दों में, कांग्रेस पर उसकी निर्भरता बढ़ेगी, यहां तक कि कांग्रेस के प्रत्यक्ष रूप से सरकार में शामिल होने का सवाल भी उठ खड़ा होगा. शायद राव के इस्तीफे से इस संभावना का दरवाजा भी खुल गया है. ऐसे हालात में वामपंथ की क्या कर्यनीति हो? लगता है जल्द ही हमें इस सवाल से दो चार होना पड़ेगा. जो हो, इस समय तो हम मौजूदा संयुक्त मोर्चे के प्रति विभिन्न वामपंथी धाराओं के रुख का विश्लेषण करने तक सीमित रहेंगे.
पिछले लोकसभा चुनाव में तीन मुख्य शक्तियों में से किसी को भी बहुमत नहीं नसीब हुआ. इन तीनों से अलग, कई क्षेत्रीय पार्टियों एवं छोटे-छोटे राजनीतिक दलों ने भी कुल मिलाकर अच्छी-खासी तादाद में सीटें जीत ली हैं. त्रिशंकु संसद में भाजपा सरकार का तेरह दिन का जादू उतरते ही एक अन्य अभूतपूर्व घटना हुई. तेरह पार्टियों के संयुक्त मोर्चे ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बना ली और एकदम अप्रत्याशित रूप से देवगौड़ा जी भारत के प्रधानमंत्री बन गए.
सरकार में शामिल होने के सवाल पर वामपंथी पार्टियों के बीच मतभेद उभरे और उन पार्टियों के अंदर इस सवाल पर बहसें चलने लगीं. सबसे ज्यादा गर्मागर्म बहस चली भाकपा के अंदर, और फिर उनके निर्णय को मुद्दा बनाकर समूचे वामपंथी खेमे के अंदर बहस तेज हुई.
याद रहे कि बहस छिड़ने की मुख्य वजह भाकपा-माकपा का संयुक्त मोर्चे में शामिल हो जाना ही है. 1989 में ये पार्टियां राष्ट्रीय मोर्चे का अंग नहीं थीं. वाम मोर्चे का स्वतंत्र रूप से अस्तित्व बरकरार था. सरकार राष्ट्रीय मोर्चे ने बनाई थी, वाम मोर्चा और भाजपा उसे बाहर से समर्थन दे रहे थे. ठीक वैसा ही समर्थन, जैसा आज कांग्रेस संयुक्त मोर्चा सरकार को दे रही है. यद्यपि माकपा के सिद्धांतकार गाहे-बगाहे अपने समर्थन को कोंग्रेस द्वरा बाहर से दिए जा समर्थन के सम्तुल्य दिखाने की कोशिश करते रहते हैं, पर इसे शुतुरमुर्गी हरकत के सिवा क्या कहा जा सकता है. वाम मोर्चे के स्वतंत्र अस्तित्व को, उसके एकीकृत स्वरूप को संयुक्त मोर्चे के भीतर जाकर तिलांजलि दे दी गई है. संयुक्त मोर्चा और उसकी सरकार के बीच चीन की दीवार खड़ी करना सिर्फ कोरी गप्पें हांकना है. आप सरकार के अभिन्न अंग हैं; फर्क प्रत्यक्ष रूप से या परोक्ष रूप से सरकार में शामिल होने का भले हो; इस बिना पर संयुक्त मोर्चे के भीतर रहकर सरकार को बाहर से समर्थन करने की बात राजनीतिक चालबाजी ही कही जाएगी, राजनीतिक ईमानदारी हरगिज नहीं. यह स्वविरोध लोगों के सामने स्पष्ट नहीं हो पा रहा है, इसलिए सरकार में शामिल न होने का माकपा का फैसला लोगों को अस्वाभापिक और अतार्किक लग रहा है. और इसी कारण इस सवाल पर पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व भी विभाजित हो गया था.
भाकपा ने सरकार में शामिल होने का फैसला लेने में देर नहीं की. थोड़ा-मोड़ा विरोध जैसी बातें आई थीं, पर वह कोई महत्वपूर्ण बात नहीं लगती. 1967 के बाद से भाकपा कुछेक राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों में शामिल हुई, और बाद में केरल में तो उसने कांग्रेस के साथ भी मिलीजुली सरकार में हिस्सा लिया. उन्होंने केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार का कई बार समर्थन किया है, जिसकी चरम परिणति इमर्जेंसी के दौरान इंदिरा सरकार का समर्थन करना था. पूंजीपति वर्ग के प्रगतिशील हिस्से के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनवाद और समाजवाद में संक्रमण करने की भाकपाई लाईन का चरम बिन्दु था इमर्जेन्सी का समर्थन. इसीलिए भटिंडा कांग्रेस में आत्मलोचना के बाद भाकपा ने इस कलंक को धोने-पोछने और कांग्रेस के साथ दूरी बनाए रखने की लाइन अपनाई. भाकपा-माकपा के बीच संबंधों में सुधार आने की प्रक्रिया इसी समय शुरू हुई. 1977 से लेकर 1996 की अवधि में राजनीति का एक चक्र पूरा हुआ है, अब भाकपा फिर से किसी गैर कांग्रेसी सरकार में – और वह भी केंद्र सरकार में शामिल हुई है, ऐसी सरकार में जो कांग्रेसी समर्थन के बल पर टिकी हुई है. मगर इस बार माकपा किसी भी किस्म का तीखा प्रतिवाद नहीं कर पा रही है, उल्टे, वह खुद इस प्रश्न पर विभाजित है. भाकपा के सिद्धांतकार तो इसे अपनी राष्ट्रीय जनवाद की लाइन की विजय मान रहे हैं. जोश के मारे चतुरानन बाबू माकपा को कांग्रेस का भी पुनर्मूल्यांकन करने की सीख देने में नहीं हिचकते.
माकपा ने अतीत में कांग्रेस की कई नीतियों का समर्थन किया है; कई बार राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेसी उम्मीदवार को अपने वोट भी दिए हैं. पिछली कांग्रेस सरकार की संकट की घड़ियों में रक्षा भी की है. लेकिन फिर भी उसने कांग्रेस के साथ कभी कोई औपचारिक रिश्ता कायम नहीं किया है. 1977 में कांग्रेस-विरोध के आधार पर उसने जनता पार्टी सरकार का समर्थन किया था, यद्यपि तत्कालीन भारतीय जनसंघ उसी जनता पार्टी का अभिन्न अंग था. मोरारजी सरकार के पतन में माकपा की भूमिका यकीनन संदिग्ध रही, जो जगजाहिर ‘जुलाई संकट’ के रूप में पार्टी के अंदर बहस का विषय बनी. 1989 में भी कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए माकपा ने भाजपा के साथ खड़े होकर राष्ट्रीय मोर्चा सरकार का समर्थन किया था. यह पहला मौका है जबकि माकपा बड़े धर्मसंकट में पड़ गई है – जब उसे ऐसी गैर कांग्रेसी सरकार का समर्थन करना पड़ रहा है जो खुद कांग्रेस के समर्थन पर बुरी तरह से निर्भर है.
माकपा को उम्मीद थी कि तिवारी कांग्रेस या कांग्रेस के अन्य विक्षुब्ध धड़े मिल-जुलकर अच्छी-खासी तादाद में सीटें जीत लेंगे, फलतः उन्हें राव कांग्रेस का समर्थन हासिल करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं हुआ. चुनाव के नतीजों की घोषणा के बाद भी कामरेड सुरजीत ने यही आस लगा रखी थी कि राव कांग्रेस के अंदर कोई बड़ी किस्म का विभाजन होगा और विक्षुब्धों को कांग्रेस का प्रगतिशील हिस्सा मानकर मिला लेने पर बहुमत जुटाया जा सकेगा. ऐसा भी न हुआ. देवगौड़ा को राव साहब के दरबार में हाथ फैलाना ही पड़ा. अब माकपा की समूची प्रचार मशीनरी निचले स्तर की कतारों की महज धुलाई कर रही है. कतारों को समझाया जा रहा है कि देवगौड़ा सरकार को समर्थन देने के सिवा कांग्रेस के पास कोई चारा भी नहीं था, यह समर्थन उन्होंने बिलाशर्त, खुद-ब-खुद दिया है; न्यूनतम साझा कार्यक्रम (सीएमपी) में राव कांग्रेस की सरकार की नई आर्थिक नीतियों को रद्द कर दिया गया है वगैरह-वगैरह. अपनी सैद्धांतिक व राजनीतिक शुचिता साबित करने के लिए माकपा ने आत्मगत विश्लेषणों की बाढ़ ला दी है.
जबकि और कोई नहीं, देश में बुर्जुआ राजनीति की सबसे दूरदर्शी शख्सियत वीपी सिंह ने खुद ही सच्चाई बयां कर दी है! उन्होंने कहा कि अब संयुक्त मोर्चा और कांग्रेस के बीच सहयोग की नई मंजिल शुरू हुई है. साफ तौर पर उन्होंने कह दिया कि कोई कुछ भी बोले, नई आर्थिक नीति पर राष्ट्रीय स्तर की एक अलिखित सर्वसम्मति बन चुकी है. नई आर्थिक नीति के पक्ष में देवगौड़ा के बयान लोगों को पहले से पता हैं. यह कोई आकस्मिक बात नहीं कि उसी चिदंबरम को भारत का वित्तमंत्री बनाया गया, जो व्यक्तिगत तौर पर राव सरकार की आर्थिक नीति के रचनाकार रहे हैं. हम इस विषय पुनः लौटेंगे.
संयुक्त मोर्चे में शामिल होते ही माकपा पर सरकार में शामिल होने के लिए दबाव पड़ने लगा था और उस वक्त तो यह दबाव काफी बढ़ गया जब ज्योति बाबू को प्रधानमंत्री बनाने पर सर्वसम्मति हो गई. पार्टी-कतारों, उनके समर्थक बुद्धिजीवियों तथा वामपंथी रुझान वाले बहुतेरे लोगों को यह सुनहरा मौका खोने के पीछे कोई तर्क ढूंढ़े नहीं मिला. सरकार से बाहर बने रहने का कोई तर्क उन्हें इसलिए नहीं पचा, क्योंकि अव्वल तो माकपा संयुक्त मोर्चे में शामिल है ही; दूसरे, उनको ही प्रधानमंत्री की कुर्सी भी मिल रही थी; और तीसरे, तेरह पार्टियों के संयुक्त मोर्चे में तो सभी अल्पमत में हैं, बल्कि कहिए तो वाम सांसदों का समूह ही उनमें सबसे बड़ा है. अतः माकपा का परंपरागत तर्क, कि वह अल्पमत में रहने पर या नीति-निर्धारण करने में मुख्य भूमिका में न रहने की स्थिति में सरकार में शामिल नहीं होगी, इस मामले में प्रासंगिक नहीं हो सकता. ऐसे हालात ने, लाजिमी तौर प नेतृत्व के बीच विभाजन को तीव्र कर दिया, और जैसा पता चला है, उसके अनुसार महज चंद वोटों के अंतर से ही पार्टी का सरकार में शामिल न होने का फैसला कायम रह गया. अगर सवाल यह होता है कि सरकार के कांग्रेस पर अत्यधिक निर्भर रहने के कारण उसकी आर्थिक नीतियों को बरकरार रखना उनकी मजबूरी होगी, फिर तो सरकार में शामिल न होने का तर्क समझ जा सकता है, और तब तो संयुक्त मोर्चा सरकार की समूची प्रासंगिकता ही कठघरे में खड़ी हो जाती है. लेकिन जब माकपा नेतृत्व लगातार दावा किए जा रहा है कि कांग्रेस का समर्थन बिलाशर्त है, उनके पास और कोई चारा नहीं है, उनकी मजबूरी है, और न्यूनतम साझा कार्यक्रम में पिछली कांग्रेस सरकार की नई आर्थिक नीति को रद्द कर दिया गया है – तब तो माकपा के सरकार में शामिल न होने के तर्क को समझ पाना सचमुच टेढ़ी खीर है. माकपा की केंद्रीय कमेटी में बहस के बिंदु अभी तक स्पष्ट तौर पर जाहिर नहीं हुए हैं, शायद अगली पार्टी कांग्रेस में उनका इजहार होगा. मगर यहां हम कुछेक मतों पर गैर करेंगे.
सरकार में शामिल होने के खिलाफ तर्क देते हुए एक नामी-गिरामी बुद्धिजीवी ने लिखा है कि ज्योति बाबू के प्रधानमंत्री बनते ही फासिस्ट शक्तियां गुस्से से आग-बबूला होकर देश भर में प्रतिक्रांति छेड़ देतीं, सरमायेदार देशव्यापी हड़ताल कर देते, फिर राज्य मशीनरी का तो चरित्र ही ऐसा है कि वह उनका ही पक्ष लेती. चूंकि ऐसी परिस्थिति का मुकाबला करने लायक ताकत – हथियारबंद शक्तियों समेत – माकपा के पास है नहीं, अतः उसने फासिस्टों के छत्ते में हाथ न डालकर अच्छा ही किया. ऐसे तर्क कुर्सीनशीन महाविद्वानों को ही शोभा देते हैं. पिछले बीस साल से ज्योति बसु पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री हैं, ऐसी कोई प्रतिक्रांति होती वहां तो दिखाई नहीं पड़ी, उल्टे देशी-विदेशी पूंजीपति ज्योति बसु को शरीफ कम्युनिस्ट का चरित्र प्रमाणपत्र (कैरेक्टर सार्टिफिकेट) देते फिर रहे हैं. सच कहा जाए तो ज्योति बसु के नाम पर सर्वसम्मति उनकी किसी क्रांतिकारी छवि के कारण नहीं बल्कि उदार एवं व्यवस्था के लिए ग्रहणयोग्य होने के कारण ही हुई थी.
इन स्वनामधन्य बुद्धिजीवी महोदय ने यह भी लिखा है कि अकेले ज्योति बसु प्रधानमंत्री बन जाने से क्या कर पाते, संयुक्त मोर्चे में जिन चोर-गिरहकटों को मंत्री बनाना पड़ता उससे माकपा की ही छवि धूमिल होती. लेकिन इन तमाम चोर-गिरहकटों को महान लोकतंत्री और क्रांतिकारी के बतौर पेश करके माकपा लंबे अरसे से अनके साथ एक ही परिवार में गुजर कर रही है. इसके अलावा, इस किस्म के कुछ मंत्री-संत्रियों को लेकर तो पश्चिम बंगाल सरकार में भी ज्योति बाबू को तमाम परेशानी झेलनी ही पड़ रही है. सरकार में नहीं जाएं, तो भी संयुक्त मोर्चे में बने रहने पर ही भला इस बदनामी से कैसे बचा जा सकता है?
पता चला है कि केंद्रीय कमेटी के फैसले में वरिष्ठ नेता ईएमएस नम्बूदरीपाद की भूमिका ही अंततः निर्धारक थी. पीपुल्सडेमोक्रेसी तथा अन्य अखबारों में उन्होंने हाल में कुछेक लेख लिखे हैं, जिनमे हम विभिन्न प्रश्नों पर माकपा के रवैये और पार्टी के अंदर चल रही बहस को समझने की कोशिश कर सकते हैं. नम्बूदरीपाद ने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की मोर्चा संबंधी नीति और 1951 में हुई पार्टी कांग्रेस में कांग्रेस सरकार को सत्ता से हटाने की लाइन – इन दो पूर्वाधारों पर अपने तर्क गढ़े हैं.
नम्बूदरीपाद मानते हैं कि मौजूदा संयुक्त मोर्चा कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के प्रगतिकामी पूंजीपति वर्ग के साथ मजदूर वर्ग के मोर्चे से संबंधित नीति का भारत की ठोस स्थिति में प्रयोग है. उनके मुताबिक, संयुक्त मोर्चा दो अंशों से मिलकर बना है. एक अंश धर्मनिरपेक्ष व जनवादी पार्टियों से बना है जिनको वर्गीय आधार पर प्रगतिशील पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधि कहा जा सकता है; और दूसरा अंश वामपंथी पार्टियों तथा वामपंथ की ओर झुकाव रखने वाली मध्यपंथी पार्टियों से बना है जो मजदूर, किसान एवं मेहनतकशों के प्रतिनिधि हैं. इन दोनों अंशों के बीच नाजुक संतुलन कायम है – थोड़ी – बुहत रस्साकशी का उल्लेख भी उन्होंने किया है और उसके कारण मोर्चा के स्थायित्व पर भी उन्होंने शक जाहिर किया है, मगर यह उनके विश्लेषण का गौण पहलू है. राव सरकार की नई आर्थिक नीति के सवाल पर ‘प्रगतिशील पूंजीपति वर्ग’ के हिस्से में कुछ ढ़लमुलपन जरूर दिखाई पड़ा था, मगर ईएमएस के अनुसार इससे गंभीरतापूर्वक निपटा गया तथा उस आर्थिक नीति को रद्द करके सर्वसम्मति के आधार पर न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय किया गया. चलिए मान लिया, फिर तो संघर्ष इस बात पर चलेगा कि सरकार खुद सीएमपी से भटक तो नहीं रही है. लेकिन ऐसा नहीं है, इसके तुरंत बाद ईएमएस बताते हैं कि पिछली राव सरकार की जनविरोधी, राष्ट्रविरोधी नीतियों के अवशेष सीएमपी में रह गए हैं. यह कैसी बात हुई? तो फिर सर्वसम्मति कैसे बनी? क्या आपने नीति के सवाल पर समझौता कर लिया? या फिर जनविरोधी एवं राष्ट्रद्रोही नीतियों के अंश आपके अपने कार्यक्रम का भी अंग हैं? यदि आप सोचते हैं कि मौजूदा ठोस स्थिति में जनवादी कार्यक्रम की ये सीमाएं अनिवार्य हैं, तो यह बात साफ-साफ कहने और उस संपूर्ण कार्यक्रम की पैरवी करने का राजनीतिक साहस आप क्यों नहीं दिखाते? एक ओर आप कार्यक्रम को साझा बता रहे हैं, फिर दूसरी ओर उसके कुछ हिस्से को जनविरोधी एवं राष्ट्रद्रोही बता रहे हैं, क्या यह स्पष्टतः आत्मविरोधी नहीं है? इस आत्मविरोध में ही माकपा के राजनीतिक अवसरवाद की अंतर्वस्तु छिपी हुई है. वीपी सिंह से लेकर देवगौड़ा एवं नरसिम्हा राव, सभी नई आर्थिक नीति पर सर्वसम्मति की बात कह रहे हैं. और यह सभी को मालूम है कि सीएमपी की मुख्य दिशा इसी नीति का पक्षपोषण करती है. थोड़ा-बहुत जो हेर-फेर है, वह इसी नीति को मानवीय मुखौटा पहनाने के लिए उसमें छोटा-मोटा आवश्यक सुधार मात्र है. सरकार जिस पूंजीपति वर्ग का राजनीतिक प्रतिनिधि है, वह किसी भी सूरत में बड़े इजारेदार पूंजीपतियों के खिलाफ खड़ा गैर इजारेदार पूंजीपति वर्ग नहीं है. और न ही पूंजीपति वर्ग के अंदर प्रतिक्रियावादी और प्रगतिशील अंशों के बीच कोई फूट हुई है.
आप उसे चाहे अग्रमुखी कहें या प्रगतिशील, इस संयुक्त मोर्चे का नेतृत्व उसी बड़े पूंजीपति वर्ग के हाथों में है; और उसकी प्रेरक शक्ति वही नई आर्थिक नीति है. चंद छोटे-मोटे मुद्दों पर हल्ला मचाने के अतिरिक्त वामपंथी साझीदार वहां कुछ भी करने में असमर्थ हैं, यह इसी बीच कई-कई बार साबित हो चुका है. कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने इस किस्म की सरकार में शामिल होने को वर्ग समझौता बता कर उसकी भर्त्सना की है – इस तथ्य का भी अगर ईएमएस उल्लेख कर देते तो बेहतर होता.
ईएमएस ने और भी आगे बढ़कर इस संयुक्त मोर्चे को जनता की जनवादी एकता तक पहुंचने के लिए आवश्यक मंजिल बताया है. यह संक्रमण कैसे होगा? उनके ही शब्दों में, “संयुक्त मोर्चा और सरकार में मौजूद दो अंशों के बीच व्यापक एकता तथा बिरादराना संघर्ष मजदूर-किसानों की स्वतंत्र स्थिति को लगातार उन्नत और शक्तिशाली बनाता जाएगा. इससे सर्वहारा के प्रभुत्व का विकास हो सकता है. यही वह प्रक्रिया है जिसके जरिए वामपंथी, धर्मनिरपेक्ष एवं जनवादी शक्तियों की वर्तमान एकता जनता की जनवादी एकता में बदल जाएगी.”
इस किस्म का संयुक्त मोर्चा और उसकी सरकार, जो निहायत तात्कालिक राजनीतिक अनिवार्यता की उपज है, जिसका जन्म किसी जनवादी आंदोलनों से नहीं हुआ (नई आर्थिक नीति के खिलाफ आंदोलन के दौरान हम वामपंथियों की इनमें से किसी ने कोई मदद न की थी, इसे भूलना उचित न होगा) और जो निहायत संक्रमणकालीन, अस्थायी चरित्र का मोर्चा है, उसके विभिन्न अंश पूंजीवादी हमले के सामने किस-किस घाट की शरण लेंगे, बताना मुश्किल है. उसे जनवादी मोर्चे का अग्रदूत, उसके लिए अनिवार्य मंजिल इत्यादि बताना मार्क्सवाद के क्रांतिकारी सिद्धांत की चरम विकृति के अलावा और क्या है? इससे भी बड़ी बात यह है कि ईएमएस ने इस संक्रमण को सरल रेखा के बतौर समझ लिया है, व्यापक एकता और बिरादराना संघर्ष की सहज-सुगम प्रक्रिया के बतौर देख लिया है, जिसमें तीखे वर्ग संघर्ष व तद्जनित रप्चर (संबंध विच्छेद) की संभावना ही नहीं है. नेतृत्व के सवाल पर सर्वहारा से वहां किसी से तीखा टकराव भी नहीं है. काफी हद तक इसमें खुश्चेव के ‘शांतिपूर्ण क्रमविकास’ की प्रतिध्वनि ही सुनाई दे रही है. अलबत्ता, इसे ‘सर्वहारा प्रभुत्व के संचय’ जैसी ग्राम्शी की शब्दावली में जरूर पेश किया गया है. जब ‘क्रांति’ शब्द के इस्तेमाल पर पाबंदी लगी हुई हो, तब ऐसे गोलमटोल शब्दों का ही इस्तेमाल करना पड़ता है.
1951 की पार्टी लाइन का उल्लेख करते हुए ईएमएस ने कहा है, “चुनाव प्रक्रिया के जरिए कांग्रेस को सत्ता से हटाने का फैसला हुआ (उन्होंने इस लाइन में गैर संसदीय संघर्षों की चर्चा सिर्फ पूरक के बतौर की है), इसीलिए माकपा की उसूली स्थिति यह रही हैः “हालांकि हमारी पार्टी कांग्रेस को हटाकर किसी अन्य पूंजीवादी सरकार को सत्ता में लाने को उत्सुक रहती है, पर वह ऐसी सरकार में अत्यंत सूक्ष्म अल्पमत की स्थिति रहने पर शामिल नहीं हो सकती.” ईएमएस के अनुसार भाकपा की नीति वर्ग समझौतावादी है, क्योंकि वह “अत्यंत सूक्ष्म अल्पमत की स्थिति में रहने पर भी सरकार में शामिल हो रही है.” तो फिर, यहां फर्क पूंजीवादी सरकार में शामिल होने-न-होने के सवाल पर नहीं है, यहां तक कि बहुमत या अल्पमत में रहने की स्थितियों के बीच भी नहीं है, मतभेद यहां इस सवाल पर है कि अल्पमत अत्यंत सूक्ष्म है या दिखाई देने लायक.
ईएमएस ने खुद जिस मार्क्सवादी-लेनिनवादी उसूल का जिक्र किया है, उसके अनुसार वैकल्पिक पूंजीवादी सरकार को समर्थन दिया जा सकता है, मगर उसमें शामिल नहीं हो सकते. लेकिन ‘अत्यंत सूक्ष्म अल्पमत’ की श्रेणई का ईजाद करके नम्बूदरीपाद ने भाकपा और माकपा के बीच फर्क को महज मात्रा का फर्क ही रख छोड़ा है. जब सरकार पूंजीपति वर्ग की है, तो कम्युनिस्टों का उसमें अल्पमत में रहना ही स्वाभाविक है. यह अल्पमत यदि अत्यंत सूक्ष्म न होकर स्थूल या काम चलाऊ, दिखाई पड़ने लायक रहे तो ईएमएस को पूंजीवादी सरकार में शामिल होने से उज्र न होगा.
इस तरह, केंद्रीय कमेटी के अंदर आपस में बहस चला रहे दोनों धड़ों के बीचों-बीच खड़ी ईएमएस की मध्यपंथी स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है और यह भी समझा जा सकता है कि कैसे इस स्थिति के द्वारा दोनों पक्षों के बीच समायिक तैर पर एक किस्म की एकता भी कायम रखी गई है.
कांग्रेस-समर्थित पूंजीवादी सरकार में शामिल नहीं होना बनाम बड़े वामपंथी समूह (ब्लॉक) के आधार पर प्रधानमंत्री पद हासिल करके सरकार में शामिल होना – इन दो विरोधी मतों के बीच ‘स्थूल या कामचलाऊ अल्पमत के अभाव’ की धारणा पेश करके नम्बूदरीपाद ने पहले एक पक्ष द्वारा पेश किए गए सरकार में हिस्सा न लेने के सिद्धांत का खंडन किया, फिर दूसरे पक्ष द्वारा पेश की गई सरकार में शामिल होने की व्यावहारिकता को भी खारिज कर दिया.
सरकार में शामिल होने या न होने के मुद्दे पर भाकपा और माकपा के बीच बहस में इस बार वह तीखापन नहीं है. यही स्वाभाविक है, क्योंकि मुद्दा महज अल्पमत की मात्रा का है. यहां तक कि इस मामले में दोनों पार्टियों के बीच कायम शराफत का रिश्ता भी काबिले गौर है.
ईएमएस के इन बयानों पर गौर करें – “देश के इतिहास में पहली बार भूतपूर्व कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों के संयुक्त मोर्चे ने मिलकर सरकार बनाई है, जो न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर काम कर रही है.”
“जबकि संयुक्त मोर्चे के सभी तेरह संघटक दल किसी भी ओर से आने वाले किसी भी हमले से इस सरकार की रक्षा करने के लिए कृतसंकल्प हैं, चार वामदलों में से एक (यानी भाकपा) सरकार में शामिल हो गया है, जबकि माकपा समेत अन्य तीन दलों ने बाहर से सरकार का समर्थन करना उचित समझा है.”
यहां उल्लेखनीय है कि ईएमएस ने हमेशा इस संयुक्त मोर्चे को कम्युनिस्टों और भूतपूर्व कांग्रेसियों के बीच संयुक्त मोर्चा बताया है. टाइम्स ऑफ इंडिया के एक लेख में उन्होंने आचार्य कृपलानी से लेकर कई भूतपूर्व कांग्रेसियों को गांधी का सच्चा शिष्य बताया है, और उसी जमाने से कम्युनिस्टों एवं भूतपूर्व कांग्रेसियों अथवा असली गांधीवादियों के बीच सहयोग के इतिहास की शुरूआत की है. ईएमएस के विश्लेषण के मुताबिक, आज उस विरासत के उत्तराधिकारी, गांधी के सच्चे शिष्य जनाब देवगौड़ा हैं, और “सरकार वामपंथी व गांधीवादी दोनों परंपराओं के सर्वोत्कृष्ट मानदंडों के मिलन का प्रतीक” है. इन चरम श्रेणी के विशलेषणों का इस्तेमाल करते समय शायद नम्बूदरीपाद को यह ध्यान नहीं रहा होगा कि देवगौड़ा के राजनीतिक गुरू मशहूर सिन्डीकेट नेता निजलिंगप्पा महोदय थे. जोश में उन्हें होश ही नहीं रहा कि कम्युनिस्टों (भूतपूर्व कम्युनिस्टों) और भूतपूर्व कांग्रेसियों का यह संयुक्त मोर्चा अपने अस्तित्व के लिए वर्तमान कांग्रेसियों पर ही निर्भर है.
इस सरकार के प्रति भाकपा(मा-ले) के रुख के बारे में भी यहां कुछ कहना जरूरी है क्योंकि इस सवाल पर पार्टी के भीतर और बाहर काफी भ्रांतियां मौजूद हैं. इस सवाल पर स्पष्ट रहना उचित है कि संसदीय दायरे में हमारी मूल स्थिति क्रांतिकारी विरोध पक्ष की भूमिका निभाना है. चाहे भाजपा-कांग्रेस की चरम दक्षिणपंथी सरकार हो, या लालू-मुलायम की मध्यपंथी सरकार, या फिर माकपा-भाकपा की वाममोर्चा सरकार ही क्यों न हो, हमारी इस मूल स्थिति के बदलने का कोई सवाल नहीं पैदा होता.
फिर भी, महज मूल नीतियों को रटकर उन्हें मशीनी ढंग से लागू करते रहने से हम कठमुल्लावाद के शिकार होंगे और लोग हमें बेवकूफ ही कहेंगे. व्यावहारिक राजनीति में इस मूल नीति पर अमल करते वक्त कार्यनीतिक लचीलापन अपनाना जरूरी होता है. भिन्न-भिन्न परिस्थितियों, भिन्न-भिन्न सरकारों, और भिन्न-भिन्न मुद्दों के बीच हमें फर्क करना सीखना होगा. अक्सर संसद या विधानसभा में हमारे प्रतिनिधियों को भाजपा या कांग्रेस के खिलाफ, वामपंथी या मध्यपंथी शक्तियों के पक्ष में मतदान करना पड़ सकता है. दोनों पक्षों के बीच कोई ध्रुवीकरण की स्थिति आने पर हमारे प्रतिनिधि उदासीन या निरपेक्ष नहीं रह सकते, क्योंकि ऐसी निरपेक्षता से मुख्य दुश्मन को मदद मिल सकती है, और पार्टी की छवि धूमिल हो सकती है. किसी संक्रमणकालीन दौर में, किसी मध्यपंथी या वामपंथी सरकार को आलोचनात्मक समर्थन देने से शुरू कर कदम-ब-कदम विरोध पक्ष की भूमिका में संक्रमण हो सकता है, ताकि जनता के सामने हमारी स्थिति तर्कपूर्ण, जायज और काबिले-समर्थन लगे.
संसदीय राजनीति में इन तमाम कार्यनीतिक कदमों से कई बार कामरेडों के बीच कई भ्रांतियां उपजती हैं. या तो कुछ लोग कार्यनीतिक लचीलेपन को मूल स्थिति का विरोधी समझने लगते हैं, या फिर कुछ अन्य लोग विशेष स्थिति में अपनाई गई विशेष कार्यनीति को मूल नीति बनाने की मांग करने लगते हैं.
पिछले कुछेक वर्षों में हमारे संसदीय व्यवहार पर गौर करने से यह समझ में आएगा कि यद्यपि भाजपा-कांग्रेस द्वारा लाए गए अविश्वास प्रस्तावों के खिलाफ हमारे प्रतिनिधियों ने मध्यपंथी सरकारों के पक्ष में मतदान किया है, अल्प समय के लिए किसी-किसी मध्यपंथी सरकार के पक्ष में हमने आलोचनात्मक समर्थन की बात भी कही है, मगर समग्र रूप से देखा जाए तो चाहे कोई भी सरकार हो, हमने विरोध पक्ष की भूमिका ही निभाई है. इस दौरान एक स्वतंत्र वाम शक्ति समूह (ब्लॉक) का निर्माण करने की कार्यनीति हमारी नीति का महत्वपूर्ण अंग रही है. देवगौड़ा सरकार के मामले में भी, पहली बात तो यह है कि हमारे प्रतिनिधि संयुक्त मोर्चे में ही शामिल नहीं हुए. उन्होंने कांग्रेस के साथ तालमेल से जुड़े तमाम सवालों पर सरकार की आलोचना की, सरकार के हर जनविरोधी कदम के खिलाफ बयान दिया.विश्वासमत के मामले में, जब समूचा सदन सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर विभाजित हो गया; तो नई आर्थिक नीति जारी रहने की आशंका बरकरार रहेगी – इस लिहाज से हमारे प्रतिनिधि ने आलोचना करते हुए सरकार के पक्ष में वोट दिया; यानी उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि हमारा समर्थन आलोचनात्मक है, वहां हमारा जोर इसी बात पर था, कि वामपंथ के लिए संयुक्त मोर्चे से बाहर निकल कर, अपना स्वतंत्र शक्ति समूह (ब्लॉक) बनाकर स्वतंत्र स्थिति अपनाना ही उचित है. बिहार विधानसभा में भी हमने यही कार्यनीति अख्तियार कर रखी है. असम में भी एएसडीसी ने सरकार में शामिल होने से इनकार कर दिया. वे सरकार को बाहर से आलोचनात्मक समर्थन देने की घोषणा से लेकर कदम-ब-कदम स्वतंत्र जनवादी शक्ति समूह (ब्लॉक) बनाकर अपने विरोध का स्तर उन्नत कर रहे हैं. असम की ठोस स्थिति में हम इसी प्रकार आगे बढ़ना जायज समझते हैं.
संसद और विधानसभा के बाहर हम इन तमाम सरकारों के खिलाफ तमाम जनवादी मुद्दों पर तथा मेहनतकशों के हित में सदैव आंदोलन जारी रखते हैं.
कुछेक लोग इस वास्ते बड़े चिंतित नजर आते हैं कि हमारी पार्टी हाशिये पर खड़ी शक्ति ही बनी हुई है, वह मुख्यधारा में प्रवेश नहीं कर पा रही है. एक सज्जन, जो कभी आईपीएफ के केंद्रीय कार्यलय का दायित्व संभालते थे, अब पीछे हट चुके हैं और अपनी गुजर-बसर का बंदोबस्त करके आजकल मुलायम की तारीफों के पुल बांधने से लेकर मार्क्सवादी की विभिन्न मुद्दों पर असफलता जैसे विषयों पर एक पत्रिका भी निकाल रहे हैं, उन्होंने हाल में एक पत्रिका में लिखा है कि भाकपा(माले) हाशिये पर है और हाशिये पर रहेगी. हमारे खिलाफ उनका आरोप यह है कि दुनिया इतनी बदल गई है फिर भी हम उसी मार्क्सवाद के खेमे में अड्डा गाड़े हुए हैं. नई-नई समस्याओं पर हम चर्चा जरूर करते है, मगर जवाब उसी मार्क्सवाद के नकारा हो गए सूत्रों में खोजते रहते हैं. उनका यह भी आक्षेप है कि जब अन्य शक्तियां आरक्षण, मंडल इत्यादि मुद्दों पर राजनीति कर रही थीं, तब हमने ‘दाम बांधो – काम दो’ के सवाल पर रैली आयोजित की, अथवा जब अन्य शक्तियां सामाजिक न्याय के नारे का परित्याग कर चुकी थीं, तब हमने उसी नारे को लोक लिया. उनके अनुसार हम समय के साथ कदम मिलाकर नहीं चल पा रहे, इसीलिए हाशिये पर बने रहना हमारी नियति बन गई है. पार्टी के किसी-किसी कामरेड को यह लेख काफी पसंद आया है. वे भी सोचते हैं कि कैसे भी हो, हमें मुख्यधारा में पर्दापण करना होगा. यह अलगाव में बने रहना उचित नहीं है. देखा जाए, तो अभी वास्तव में मार्क्सवादी-लेनिनवादी धारा के किसी भी संगठन की तुलना में पिछले दस वर्षों से ज्यादा अरसे में राजनीति की मुख्यधारा में हस्तक्षेप करने के मामले में हमारी पार्टी ने सबसे ज्यादा और सर्वांगीण प्रयास किया है. देशभर में जनवादी शक्तियों की विभिन्न धाराओं के साथ संबंध बनाना, वामपंथ की विभिन्न धाराओं के साथ विभिन्न स्तरो पर संयुक्त कार्यवाही चलाना, हमारे राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के बीच हर मतभेद या विभाजन का अपने फायदे में इस्तेमाल करने की कोशिश करना, देशव्यापी राजनीतिक अभियान चलाना तथा केंद्रीय स्तर पर गोलबंदी करना, चुनाव प्रक्रिया में सक्रिय हस्तक्षेप इत्यादि के जरिए पार्टी अपनी पहलकदमी को लगातार उन्नत बनाने में प्रयत्नशील है. इस दौरान उत्थान-पतन के दौरों से गुजर कर हमने एक हद तक सफलता भी हासिल की है. यहां यह बात स्पष्ट करना उचित होगा कि राजनीति की मुख्यधारा में हस्तक्षेप के मामले में हमारा प्रस्थानबिंदु क्या होगा. क्या वह वाम-जनवादी राजनीति की चालू धारा में समाहित हो जाना है, या फिर उसे बदल देना है? उसी धारा में समाहित हो जाने पर क्या हमेसा के लिए हाशिये की ताकत बने रहना हमारी नियति नहीं बन जाएगी? दूसरी ओर, इस धारा के बदल देने का काम लंबा और कठिन-कठोर अवश्य है, फिर भी उसी में भविष्य की वह विराट संभावना छिपी है, जिसमें हम वर्तमान के अलगाव को तोड़कर मुख्यधारा की नियामक शक्ति बन जाऐंगे.
हमें याद रखाना होगा कि हम जिस शहरी व ग्रामीण सर्वहारा का प्रतिनिधित्व करते है, वह वर्ग विशाल बहुसंख्यक होने पर भी मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में हाशिये की शक्ति ही बना हुआ है. सवाल उस वर्ग की राजनीतिक गोलबंदी के जरिए उसे राजनीति की मुख्यधारा में ले आने का है. सतही तौर पर कुछ राजनीतिक तिकड़मबाजी के जरिए यह काम नहीं बनेगा. अतः सवाल अमूर्त ढंग से पार्टी को, या कुछेक महत्वाकांक्षी व्यक्तियों को मुख्याधारा में ला बिठाने का नहीं है.
जब मैं उस वर्ग की बात कर रहा हूं तो इसका मतलब यह नहीं कि हम वहीं तक सीमित रहेंगे. जनवादी क्रांति के दौर में कम्युनिस्ट पार्टी को जनता के तमाम हिस्सों के हित का प्रतिनिधित्व करना होगा. बथानी टोला की घटना के बाद जब लालू यादव ने बिहार विधानसभा में हमारी पार्टी की काफी प्रशंसा की, यह कहते हुए कि गरीबों की असली पार्टी तो भाकपा(माले) ही है, तो दिखाई पड़ा कि कुछेक कामरेड बहुत खुश हो गए. उन्हें यह नहीं समझ में आया कि इस उदारवादी प्रशंसा में पूंजीपति वर्ग का वह षड्यंत्र छिपा है कि तुम सिर्फ ग्रामीण गरीबों के बीच पड़े रहो, समाज के अन्य हिस्सों के प्रतिनिधि बनने की कोशिश मत करो. शासक वर्ग पहले हम पर दमन करके हमें समाप्त करने की कोशिश करता है, पर जब उसमें सफल नहीं होता और हम स्थायित्व हासिल कर लेते हैं तो वह हमारे सीमित अस्तित्व को मंजूर कर लेता है, वहीं हमें बांधे रखने की कोशिश करता है, उसके लिए बीच-बीच में हमारी प्रशंसा के गीत भी सुना देता है. हमें इस सीमा को अवश्य लांघन होगा, जनता के सभी तबकों तक पहुंचना होगा, उनके भी हितों का प्रतिनिधित्व करना होगा, संयुक्त मोर्चा का निर्माण करने के उद्देश्य से विभिन्न राजनीतिक कार्यनीतियों एवं संयुक्त कार्यवाहियों की उपयोगिता यही है. यह सब कुछ क्रांतिकारी मार्क्सवाद पर अटल विश्वास रखकर करना होगा. पार्टी की क्रांतिकारी स्थिति को बरकरार रखते हुए क्रांतिकारी आंदोलनों में डटे रहकर यह करना होगा. तभी भाकपा(माले) की, हमारी परंपरा की, हजारों शहीदों के खून की कोई सार्थकता होगी. शार्टकट से, या सिर्फ सतही राजनीतिक कार्यनीतियों पर निर्भर रहने से पार्टी एकता टूटेगी, और हम न सिर्फ हाशिये पर बने रहेंगे बल्कि भारी संकट का शिकार बन जाएंगे.
संयुक्त मोर्चा सरकार के साथ कांग्रेस की सांठगांठ के सवाल पर वामपंथी खेमे में बहस आने वाले दिनों में और तीखी होगी, और इसी के जरिए वामपंथी शक्तियों के बीच नए स्तर का ध्रुवीकरण होने की विराट संभावना छिपी हुई है. इसी लक्ष्य के साथ हमें जनता के बीच कठिन-कठोर काम जारी रखते हुए अपने जनाधार का निर्माण करना होगा, अपने राजनीतिक प्रचार को तर्कपूर्ण ढंग से व्यापक रूप से फैलाना होगा. और राष्ट्रीय राजनीति में वामपंथियों की भूमिका पर चालू बहस में हस्तक्षेप करना होगा. आज की यह तैयारी ही कल अनुकूल राजनीतिक मोड़ पर हमें वाम-जनवादी राजनीतिक धारा की मुख्य स्थिति में ला खड़ा करेगी.