भारत में भूमि सुधार एक ऐसा ऐजेण्डा है जिसके साथ शासक वर्ग ने सोच समझ कर गद्दारी की है. और अब उदारीकरण के वर्तमान दौर में जो थोड़े बहुत भूमि सुधार अब तक हो पाये थे उन्हें उलटने की कोशिशें चल रही हैं. इसीलिए जमीन का सवाल एक बार फिर राजनीतिक केंद्रबिन्दु बनता जा रहा है और काॅरपोरेट भूमि हड़प के खिलाफ, बासगीत जमीन के लिये और बंटाईदारी अधिकारों के लिए देश भर में जुझारु आंदोलन चल रहे हैं. भूमि संघर्षों में शामिल महिलाओं को (सिंगूर में तापसी मलिक, नंदीग्राम में बहुत सी महिलायें, हाल में उड़ीसा के नारायणपटना की आदिवासी महिलायें) राज्य द्वारा हत्या और बलात्कार का निशाना बनाया जा रहा है. पंजाब में 2009 में सैकड़ों दलित खेतमजदूर महिलाओं को जेल में डाल दिया गया क्योंकि वे बासगीत जमीन के लिये संघर्ष कर रहीं थी. भारतीय कृषि में श्रम शक्ति का 40 प्रतिशत महिलाओं का होना और समस्त कामगार महिलाओं के 75 प्रतिशत का किसी न किसी रुप में कृषि पर निर्भर होना, भूमि संघर्षों में महिलाओं की हिस्सेदारी को एक मजबूत भौतिक आधार प्रदान कर रहा है. आज जब कृषि कार्यों का बड़ा हिस्सा महिलाओं द्वारा पूरा किया जाता है, तब भी महिलाओं के नाम पर भूमि पट्टा शायद ही कभी मिल पाता है, पुरुष किसान को ही परिवार का मुखिया और जमीन का मालिक माना जाता है. बेदखली और विस्थापन महिलाओं को पुरुषों की तुलना में ज्यादा प्रभावित करते हैं. बासगीत जमीन का अभाव आवास के लिए सामंतों पर निर्भरता बढ़ा कर सामंती संबंधों को ही मजबूती प्रदान करता है और उसका खामियाजा सबसे अधिक महिलाओं को भुगतना पड़ता है.
भूमि, संपत्ति और आजीविका के मामलों में महिलाओं के साथ गैरबराबरी उनके सामाजिक उत्पीड़न का एक प्रमुख कारण है. ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित ‘कृृषि संबंधों और अपूर्ण भूमि सुधारों पर विशेषज्ञ समिति’ ने 2009 में अपनी रिपोर्ट में महिलाओं के जमीन के अधिकार की घोर उपेक्षा और विस्थापन संबंधी सरकारी नीतियों में नितांत महिला विरोधी रुख को उजागर किया.
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शताब्दी का यह वर्ष भूमि हड़प के खिलाफ, बटाईदारी अधिकारों और बासगीत जमीन के लिये संघर्षों में महिलाओं की भागीदारी को और सशक्त करने एवं भूमि संबंधों में महिलाओं की बराबरी के आंदोलन को तेज करने का सही समय है.