बोल्शेविक पार्टी की नेता और महिला आंदोलन की प्रणेताओं में से एक अलेक्सांद्रा कलन्ताय ने 1920 में लिखा कि “संसद को और जनवादी बनाने का प्रश्न, अर्थात्, मताधिकार को व्यापक बनाने और महिलाओं तक उसका विस्तार करने का प्रश्न” शुरूआती दिनों में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के “प्रमुख मुद्दों” में से एक था. प्रतिनिधिमूलक संस्थाओं का और जनवादीकरण आज भी एक चुनौती बनी हुई है, इनमें महिलाओं का प्रतिनिधित्व आज भी वैश्विक स्तर पर काफी कम है. भारत में यह स्थिति विशेष रूप से शर्मसार करने वाली है कि पिछले एक दशक में संसद व विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग पर एक के बाद एक सभी सरकारों ने वादाखिलाफी की है. 8 मार्च 2010 को यूपीए-II सरकार ने काफी शोर-शराबे के साथ राज्य सभा में महिला आरक्षण बिल पास तो किया, लेकिन उसके तत्काल बाद कांग्रेस, यूपीए और उसके साथ भाजपा जैसी पार्टियां भी इस बिल को फिर से टालने के लिए सपा, राजद आदि के विरोध के उसी पुराने बहाने के नाम पर पीछे हट गयीं.
महिला बिल का यह हश्र क्या हमें 1940-50 के दशक में हिन्दू कोड बिल की याद नहीं दिला रहा? तब महिलापक्षीय हिन्दू कोड बिल को टालने और कमजोर बनाने में कांग्रेस और साम्प्रदायिक ताकतों ने जो खेल खेला था, ठीक वैसा ही राजनीतिक खेल आज कांग्रेस, भाजपा और सपा, राजद आदि 33 प्रतिशत महिला आरक्षण बिल को टालने व उसकी अंतर्वस्तु को कमजोर करने के लिए खेल रहे हैं? महिला आंदोलन को इस साजिश को ध्वस्त करना होगा. हमें कोटा के अंदर अनुसूचित जाति/जनजाति, ओबीसी या अल्पसंख्यकों के लिए कोटा दिये जाने से कोई परहेज नहीं है – लेकिन संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण में देरी और इसकी मूल अवधारणा में कोई क्षरण हम बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं करेंगे!
फिर, पंचायतों में चुनी गईं महिलाओं के साथ भेदभाव और हिंसा लगातार हो रही है. खासकर दलित, मेहनतकश या समाज के अन्य वंचित तबकों से आयी महिलाओं के साथ. पंचायतों में चुन कर आयीं महिलाओं को प्रायः निरुत्साहित किया जाता है, और यहां तक कि उन्हें खुद फैसले लेने से रोका तक जाता है – उनकी जगह परिवार के पुरुष सदस्य या सामंती ताकतें ‘खुदमुख्तार बन’ पंचायत प्रतिनिधि के रूप में काम करते हैं.
जहां ग्राम सभाओं में भूमि अधिग्रहण, वन अध्किारों आदि से संबंधित प्रश्नों पर निर्णय लिये जाने होते हैं, तो आम तौर पर जनता को, और महिलाओं को तो खास तौर पर, इनमें हिस्सेदारी करने से रोका जाता है. नरेगा के तहत योजनायें बनाने के मामले में भी ऐसा ही देखने को मिलता है. चाहे जनवादी निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की हिस्सेदारी हो या संसद व विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण का सवाल, महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी के अधिकार का हनन हो रहा है.