पूंजीवादी संचय के एक बुनियादी अंतरविरोध की ओर ध्यान खींचते हुए मार्कस ने कहा था, “साख (ऋण) प्रणाली ही अति-उत्पादन और वाणिज्य में अति-सट्टेबाजी की मुख्य धुरी प्रतीत होती है, बस इसीलिये क्योंकि पुनरुत्पादन की प्रक्रिया, जो अपने स्वभाव से ही लोचदार होती है, यहां अपनी चरम सीमाओं तक बलपूर्वक खींच दी जाती है, और इतना बलपूर्वक इसलिये खींची जाती है क्योंकि सामाजिक पूंजी के एक बड़े हिस्से का निवेश ऐसे लोग करते हैं जो उसके मालिक नहीं होते, और परिणामस्वरूप वे चीजों के साथ उनके मालिक से बिल्कुल भिन्न ढंग से व्यवहार करते हैं, जबकि ये मालिक, जहां तक वे अपनी पूंजी को खुद लगा पाते हैं, बड़ी बेचैनी के साथ अपनी निजी पूंजी की सीमाओं की शिनाख्त करते रहते हैं.”
वित्तीय संस्थाएं अपने ग्राहकों के धन का इतना गैर-जिम्मेदाराना ढंग से क्यों इस्तेमाल करती हैं, इसकी यह सचमुच कितनी यथार्थपरक व्याख्या है! मार्कस आगे कहते हैं:
“यह स्पष्टतः इसी तथ्य को प्रदर्शित करता है कि पूंजीवादी उत्पादन की स्वविरोधी प्रकृति पर आधारित पूंजी का आत्म-विस्तार वास्तविक रूप से स्वतंत्र विकास को केवल एक खास बिंदु तक सीमित कर देता है, ताकि वास्तव में वह उत्पादन का एक अंतर्निहित बंधन और बाधा बन जाता है, जिन्हें साख प्रणाली के जरिये लगातार तोड़ा जाता है. अतः, साख प्रणाली उत्पादक शक्तियों के भौतिक विकास और विश्व-बाजार की स्थापना की गति तीव्र करती है. ... साथ ही, साख इस अंतर्विरोध के उग्र विस्फोटों -- संकटों के आने की रफ्तार भी तेज कर देती है और इस प्रकार उत्पादन की पुरानी पद्धति के विघटन के तत्वों की गति भी तीव्र कर देता है.” (वही, पृ. 441, जोर हमारा)