कम्युनिस्ट घोषणापत्रा में जोर देकर कहा गया है कि पिछले कई दशकों से उद्योग और वाणिज्य का इतिहास आधुनिक उत्पादक शक्तियों का, सम्पत्ति के उन सम्बंधों के खिलाफ विद्रोह का ही इतिहास है, जो पूंजीपति वर्ग और उसके शासन के अस्तित्व की शर्तें हैं. यहां पर उन वाणिज्यिक संकटों का जिक्र कर देना ही काफी है जिनके नियतकालिक आवर्तन द्वारा सम्पूर्ण पूंजीवादी समाज के अस्तित्व की परीक्षा होती है, जो हर बार पहले से ज्यादा सख्त हो जाती है ... इन संकटों के समय एक महामारी फैल जाती है, जो पिछले तमाम युगों में एक बेतुकी बात समझी जाती थी -- अति-उत्पादन की महामारी. समाज अचानक अपने को क्षणिक बर्बरता की अवस्था में लौटा हुआ पाता है ... और यह सब क्यों ? इसलिये कि समाज में सभ्यता का, जीवन-निर्वाह के साधनों का, उद्योग और वाणिज्य का अजीर्ण हो गया है ... और पूंजीपति वर्ग इन संकटों से किस तरह अपने को उबारता है ? एक ओर उत्पादक शक्तियों के एक बड़े भाग को जबरदस्ती नष्ट करके और दूसरी ओर नये-नये बाजारों पर कब्जा जमाकर, और साथ ही पुराने बाजारों को भी मुकम्मल तौर पर शोषण के एक जरिये के बतौर इस्तेमाल करके. यानी, और भी वृहत् एवं विनाशकारी संकटों के लिये रास्ता साफ करके और जिन साधनों से इन संकटों को रोका जा सकता है, उनको भी नष्ट करके.”
मार्कस-एंगेल्स “अति-उत्पादन की महामारी” के बारे में बात करते हैं. यह वास्तविक क्रियाशील मांग की अपेक्षा मालों का अति-उत्पादन है, यानी जितना बिक सकता है उससे कहीं ज्यादा का उत्पादन किया जाना. जनसाधारण की अपर्याप्त क्रय-क्षमता के चलते बड़ी भारी मात्रा में माल विक्रय योग्य ही नहीं रह जाते और वे अपने मालिकों (उत्पादकों, व्यापारियों) को तबाही की ओर ले जाते हैं. पूंजीवाद की इस चारित्रिक विशिष्टता ने मार्कस को यह टिप्पणी करने पर मजबूर किया कि “उत्पादक शक्तियों का विकास करने के लिये पूंजीवादी उत्पादन द्वारा चलाये गये अभियान के विपरीत, समस्त वास्तविक संकटों का चरम कारण हमेशा जनसमुदाय की गरीबी और उनके द्वारा सीमित मात्रा में उपभोग ही होता है, इस कदर मानो समाज की केवल मात्र निरपेक्ष उपभोग शक्ति [जो क्रय शक्ति से अलग है -- लेखक] ही उनकी सीमा हो. (पूंजी, खंड 3, पृ. 484, जोर हमारा).
इस प्रकार समस्या सरल रूप में केवल वसूली (पुर्नप्राप्ति) का संकट प्रतीत होती है और यह पूछने की इच्छा होती है कि: इस दुनिया में व्यवहार कुशल व्यवसायी लोग भला यह गलती कैसे करते हैं कि जितना बेच सकें उससे कहीं ज्यादा का उत्पादन कर बैठते हैं?
गहराई में जाने पर हम पाते हैं कि संकट इसलिये नहीं आते क्योंकि पूंजीपति मूर्खता करते हैं, न ही संकट आसमान से गिरा करते हैं. उनका जन्म व्यापार/व्यवसाय के चक्रों में होता है, जो कई आंशिक तौर पर प्रभावित करने वाले स्वतंत्र कारकों की जटिल अंतःक्रिया का परिणाम होते हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण कारक है मुनापफे की औसत दर का घटना-बढ़ना. जैसा कि मार्कस ने पूंजी के तीसरे खंड के तीसरे भाग में दिखलाया है, किसी समयावधि में और समूचे अर्थतंत्र में, इस दर में घटने की प्रवृत्ति होती है. यहां संक्षेप में बताया जा रहा है कि ऐसा कैसे होता है.