हम सभी जानते हैं कि पूंजीपतियों में उत्पादन की गति तेज करने और श्रम की लागत पर खर्च घटाने के मकसद से अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में और बेहतर मशीनरी का इस्तेमाल करने का रुझान होता है. मार्कसवादी सिद्धांत में इसे चल पूंजी की अपेक्षा स्थिर पूंजी का अनुपात बढ़ाना कहते हैं. (संयंत्र और मशीनरी, कच्चा माल, विभिन्न स्थिर परिसम्पत्तियां, इत्यादि को स्थिर पूंजी कहते हैं. मगर श्रमशक्ति को खरीदने में खर्च होने वाली पूंजी को चल पूंजी कहते हैं, जो इसलिये “चल” यानी परिवर्तनीय होती है कि “स्थिर” पूंजी के विपरीत अपने मूल्य से अधिक मूल्य पैदा कर देती है, यानी जो उत्पादन की प्रक्रिया में अतिरिक्त मूल्य का सृजन करती है). चल और स्थिर पूंजियों के बीच के अनुपात को पूंजी की दैहिक संरचना कहते हैं. चूंकि जीवित श्रम ही अतिरिक्त मूल्य अथवा मुनाफे का स्रोत है, अतः श्रम की जगह मशीनरी को लाने का मतलब होगा उत्पादन में लगी कुल पूंजी (चल और स्थिर का योगफल) की हर इकाई के लिये मुनाफे की दर में अनुपाती गिरावट आना. मान लीजिये कि 100 करोड़ रुपये की पूंजी में 60 करोड़ रुपये स्थिर पूंजी है और 40 करोड़ रुपये चल पूंजी, और अतिरिक्त मूल्य की दर 50 प्रतिशत है तो इसमें अतिरिक्त मूल्य की मात्रा 20 करोड़ रुपये (चल पूंजी के बतौर खर्च 40 करोड़ रुपये का 50%) हुई, और मुनाफे की दर (जिसकी गणना कुल पूंजी 100 करोड़ रुपये पर होगी) 20% होगी. अब कहिये कि 10 वर्ष बाद, पूंजी की दैहिक संरचना को बढ़ा दिया जाता है -- स्थिर पूंजी को 80 करोड़ रुपये कर दिया जाता है और चल पूंजी को घटाकर 20 करोड़ रुपये कर दिया जाता है. अगर अतिरिक्त मूल्य की दर वही रहे, तो उसकी मात्रा होगी 10 करोड़ रुपये (20 करोड़ रुपये का 50%) और मुनाफे की दर घटकर 10 प्रतिशत हो जायेगी.
इस उदाहरण को जानबूझकर सरलीकृत शक्ल में पेश किया गया है, लेकिन तथ्य यही है कि पूंजी की आंगिक संरचना में वृद्धि और उसके फलस्वरूप मुनाफे की औसत दर के गिरने की प्रवृत्ति पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के विकास के सामान्य नियम हैं. मगर मुनाफे की दर में कमी होने के बावजूद कुल मुनाफे की मात्रा बढ़ सकती है अगर मुनाफे के लिये निवेश की जाने वाली कुल पूंजी की मात्रा में पर्याप्त बढ़ोत्तरी कर दी जाय, और वास्तविक जीवन में होता भी यही है. जैसा कि मार्कस ने कहा है,
“... श्रम की सामाजिक उत्पादकता
इसका एक और परिणाम है जिसने विकास पर चल रही बहस के समकालीन संदर्भ में बहुत व्यावहारिक-राजनीतिक महत्व ग्रहण कर लिया है:
“... जैसे-जैसे पूंजीवादी उत्पादन पद्धति का विकास होता जाता है, वैसे-वैसे श्रम-शक्ति की, अगर बढ़ी मात्रा की बात न भी की जाय तो, पहले जितनी मात्रा को ही उत्पादन में नियुक्त करने के लिये पूंजी की सदैव बढ़ती जाती मात्रा की आवश्यकता होती है. इस प्रकार पूंजीवादी नीव पर, श्रम की बढ़ती उत्पादकता आवश्यक रूप से और स्थायी रूप से मेहनतकश जनता की अतिरिक्त प्रतीत होने वाली आबादी का सृजन करती है. अगर पहले चर पूंजी कुल पूंजी का आधा हिस्सा होने के बजाय अनुपात में घटकर केवल छठवां हिस्सा रह जाती है, तो श्रम-शक्ति की पहले जितनी मात्रा को उत्पादन में नियुक्त करने के लिये कुल पूंजी की मात्रा को तीन गुना बढ़ाना होगा. और अगर पहले से दुगनी श्रम-शक्ति को नियुक्त करना है तो कुल पूंजी को कम-से-कम छह गुना बढ़ा देना होगा.” (वही, जोर हमारा).
इस प्रकार हम देखते हैं कि औसत मुनाफे की दर के गिरते जाने की प्रवृत्ति का नियम कोई सीधे-सादे, रेखीय ढंग से काम नहीं करता. व्यवहार में वह केवल पूंजी की चक्रीय गतियों के क्रम में; संतुलनों के टूटकर बिखरने और पुनः कायम होने के जरिये आकार लेता है. उसके अपने ही “अंदरूनी अंतरविरोध” होते हैं और वह ढेर सारी प्रतिसंतुलनकारी शक्तियों अथवा “प्रतिसंतुलनकारी प्रभावों” को उन्मुक्त करता है, जैसे श्रम का और तीखा शोषण, मजदूरी को मूल्य से नीचे गिरा देना, स्थिर पूंजी के तत्वों को सस्ता कर देना, अपेक्षाकृत अतिरिक्त आबादी (बेरोजगारों की संरक्षित सेना), विदेश व्यापार (व्यापार-शर्तों का असमान होना और साम्राज्यवादी अति-मुनाफे), शेयर पूंजी का विस्तार -- और मार्कस द्वारा तैयार की गई इस सूची में हमें एकाधिकारी मूल्य निर्धारण जैसी अपेक्षाकृत आधुनिक तकनीकों को भी जोड़ना होगा. इसलिये हमें उपरोक्त नियम को देखना होगा “एक प्रवृत्ति के रूप में, यानी, एक ऐसे नियम के रूप में, जिसकी निरपेक्ष क्रियाशीलता प्रतिसंतुलनकारी स्थितियों द्वारा प्रतिबंधित, अवरुद्ध और कमजोर की गई हो.” (वही, पृ. 234-35). दूसरे शब्दों में, इसका प्रभाव केवल चंद विशेष परिस्थितियों में और सुदीर्घ समयावधियों में ही निर्णायक होता है.