18 सितम्बर 2008. अमरीकी ट्रेजरी सचिव बेन बर्नान्के का चेहरा उदास था और उन्होंने विधि-निर्माताओं (अमरीकी कांग्रेस के सदस्यों) से कह दिया कि अगर सरकार ने (वित्तीय) बाजारों की रक्षा नहीं की तो हो सकता है कि भविष्य में कोई बाजार ही न बचे.
वे एक सच्चाई बयान कर रहे थे: वर्ष 2007 और 2008 के दौरान 100 से ज्यादा बंधकी कर्जदाता दिवालिया घोषित हो चुके थे. निवेशक बैंक बीयर स्टीयर्न्स का भी पतन हो जायेगा, इसी चिंता का परिणाम हुआ कि उस बैंक की परिसम्पत्तियों को बेहद कम दामों में जेपी मार्गन चेज के हाथों मार्च 2008 में बेच दिया गया. वित्तीय संकट सितम्बर और अक्टूबर के महीनों में शिखर पर जा पहुंचा. कई प्रधान संस्थाएं या तो चैपट हो गईं, या फिर दबाव में उनका अधिग्रहण कर लिया गया, अथवा सरकार ने उनकी पूरी जिम्मेदारी अपने हाथ में ले ली. इन संस्थानों में शामिल थे लेहमन ब्रदर्स, मेरिल लिंच, फैनी मे, फ्रंडी मैक, वाशिंगटन म्यूचुअल, वाचोविया, सिटीग्रुप, और एआईजी इन्श्योरेंस. ये ऐसे संस्थान थे जिन्हें “इतना विशाल माना जाता था कि उनका पतन हो ही नहीं सकता”. ऐसी स्थिति में “इमर्जेन्सी इकनाॅमिक स्टैबिलाइजेशन ऐक्ट पफ 2008” (आपातकालीन आर्थिक स्थायीकरण अधिनियम, 2008) पारित किया गया जिसके तहत संकटापन्न: परिसम्पत्ति राहत कार्यक्रम (ट्रबुल्ड एसेट रिलीफ प्रोग्राम, टीएआरपी) के माध्यम से वाल स्ट्रीट की मुटाई बिल्लियों के संकटमोचन हेतु 700 अरब डाॅलर की विशाल धनराशि निर्गत करने की स्वीकृति दी गई. इसके खिलाफ भारी जन-विरोध का इजहार हुआ, और इस विरोध में खासकर दो नोबेल पुरस्कार विजेताओं समेत कोई 400 अर्थशास्त्री भी शामिल थे. उनका मुख्य बिंदु यह था कि जो वित्त-सम्राट इस दुर्गति के लिये जिम्मेवार हैं, उन्हें सजा देने के बजाय इस पैकेज के जरिये उनके ही हाथों में विशाल मात्रा में सार्वजनिक धनराशि सौंप दी गई है और इस प्रकार आने वाले दिनों के लिये एक गलत उदाहरण, एक “नैतिक विध्वंस” प्रस्तुत किया गया है. स्वभावतः बैंकरों की सरकार ने इन विरोधी मतों पर कान नहीं दिया.
जैसे-जैसे यह छूत का रोग बिजली की गति से अन्य धनी देशों में जा पहुंचा (वास्तव में वहां इस समस्या की शुरूआत पहले ही हो चुकी थी. अगस्त 2007 में फ्रांसीसी विशालकाय कम्पनी बीएनपी पैरिबस ने तीन हेज फंडों [हेज फंड ऐसे निवेश फंड होते हैं जो कुछेक खास संस्थानों और निवेशकों के लिये खुले होते हैं और वे विभिन्न निवेश रणनीतियां अपनाकर जोखिमों से निवेश की रक्षा करते हैं] से निवेश की निकासी यह कहते हुए समाप्त कर दी थी कि “नकदी का पूरा सफाया हो चुका है”), और इन देशों ने भी अपने-अपने यहां संकट से उबारने के लिये पैकेज देने शुरू किये. इस प्रकार सरकारों ने सम्पूर्ण वित्तीय विनाश (मेल्टडाउन) से तो बचा लिया और करदाताओं के पैसे
मगर हालात इस मुकाम पर पहुंचे तो कैसे?
सीधे-सादे शब्दों में कहा जाय तो लेहमन ब्रदर्स, एआईजी इंश्योरेंस, फैनी मे और फ्रेडी मैक (अंतिम दो कम्पनियां सरकार द्वारा प्रायोजित उद्यम हैं) इसलिये चैपट हुए क्योंकि वे जरूरत के वक्त पर अपने अल्पकालीन ऋण का भुगतान स्थगित करने या नई शर्तों के साथ वित्तीय इकरारनामे पर समझौता करने के लिये बाजार से पैसा नहीं जुटा सके. वर्ष 2004-07 के दौरान, पांच चोटी के अमरीकी निवेश बैंकों ने अपने वित्तीय लीवरेज ;पैसा उधर लेने, स्थिर परिसम्पत्तियां खरीदने तथा अन्य उपायों के जरिये लाभ-हानि को प्रतिसंतुलित करने के साधनों को लीवरेज कहते हैं) को अनैतिक ढंग से बढ़ा दिया. उन्होंने वित्तीय वर्ष 2007 के लिये 4100 अरब डाॅलर से अधिक धनराशि का कर्ज बताया, जो वर्ष 2007 में अमरीकी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का लगभग 30 प्रतिशत था, जिसने उनकी वित्तीय झटकों का शिकार बनने की संभावना को बढ़ा दिया.
सब-प्राइम (कम साख वाले) बंधकी बाजार के सामने अपने दरवाजे जरूरत से ज्यादा खोल देने और डेरिवेटिव्स -- किसी सुदूर स्थित परिसम्पत्ति के कार्य-व्यापार से व्युत्पन्न आर्थिक उपकरणों (इसीलिये उसका नाम “डेरिवेटिव्स” या व्युत्पन्न उपकरण पड़ा है) -- पर अत्यधिक निर्भर हो जाने के कारण इन बैंकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा और उन्होंने बाजार का विश्वास खो दिया. निवेशक इन सम्मानित वित्तीय संस्थानों तक को पैसा उधार देने में आनाकानी करने लगे. अपनी देयताओं की भरपाई न कर पाने के कारण, मूलतः वे दिवालिये हो गये, हालांकि अधिकांश मामलों में (इसका सबसे जाना-माना अपवाद लेहमन ब्रदर्स है) सरकार ने उनको संकट से उबार लिया.
यहां “सब-प्राइम बंधकी बाजार” अथवा “सब-प्राइम कर्ज” से हमारा आशय मुख्यतः उन लोगों द्वारा लिया गया आवासीय कर्ज है, जो ऐसे कर्ज का बोझ नहीं उठा सकते थे और जिन मामलों में शुरूआती सूद की दर सब-प्राइम (बहुत नीची) थी मगर बंधकी की अवधि में ही वह दर महज इस अनुमान के आधार पर काफी बढ़ गई कि चूंकि कर्ज लेने वाले की आर्थिक स्थिति में प्रगति हुई है इसलिये सूद की किश्त भरने की उनकी क्षमता में भी इजाफा हुआ है. इस अनुमान पर सब-प्राइम कर्ज के उपकरणों की ‘डाइसिंग’ और ‘स्लाइसिंग’ (फल-सब्जियों की तरह काटना-कतरना) की गई. (यानी उन्हें अन्य अधिक संभावनामय कर्जों के साथ मिलाकर फेंट दिया गया) और इसके परिणामस्वरूप उपजे डेरिवेटिव्स (व्युत्पन्न उपकरणों) को मूल बंधकी संस्थाओं द्वारा अन्य बैंकों एवं वित्तीय संस्थाओं को बेच दिया गया.
इस प्रकार एक छाया (शैडो) बैंकिंग प्रणाली का उदय हुआ. सब-प्राइम एवं अन्य जोखिमभरे कर्जों की ‘डाइसिंग’ और ‘स्लाइसिंग’ करने से पैदा हुए डेरिवेटिव्स की नई पौध से उम्मीद की गई कि इससे ढेर सारे वित्तीय संस्थानों में जोखिम का वितरण हो जायेगा और इसके फलस्वरूप प्रत्येक द्वारा वहन किये जाने वाला जोखिम घट जायेगा.
आज चाहे यह जितना आश्चर्यजनक लगे, पर हकीकतन सब-प्राइम कर्जों की अत्यधिक मात्रा को लेकर रची गई अत्यंत ऊंचे जोखिम वाली रणनीति पर, और प्रतिभूतिकरण (सिक्योरिटाइजेशन) अथवा डेरिवेटिव्स के सृजन के अंतहीन मकड़जाल पर, किसी भी सार्वजनिक अथवा निजी प्राधिकरण ने कोई प्रतिबंध नहीं लगाया अथवा उनका विनियमन नहीं किया. इसके बजाय इस रणनीति की यह कहकर खूब तारीफ की गई कि यह तो समृद्धि की ओर जाने का सुनिश्चित मार्ग है – कारपोरेशनों के लिये भी और देश के लिये भी. वर्ष 2005 के वार्षिक पुरस्कार,जो प्रतिभूति उद्योग का सर्वाधिक सम्मानित पुरस्कार है के वितरण की घोषणा करते हुए इंटरनेशनल फिनान्सिंग रिव्यू (आईएफआर) ने कहा, “[लेहमन ब्रदर्स ने] नये उत्पादों को विकसित करने तथा कर्ज लेने वालों की आवश्यकताओं की यथोचित पूर्ति करने के लिये लेन-देन में काट-छांट करने के जरिये ... न सिर्फ बाजार में अपनी समग्र उपस्थिति को बरकरार रखा है बल्कि अधिमान्य स्थान हासिल करने में अपनी नेतृत्वकारी भूमिका अदा की है. ... लेहमन ब्रदर्स अधिमान्य स्थान में सबसे कल्पनाशील संस्था है, जो ऐसे कारनामे कर रही है जिसे आप अन्यत्र नहीं देख सकते.”
हां, लेहमन ने बहुत ज्यादा चालाकी दिखाई और इसी कारण उसका यह अंजाम हुआ. चूंकि विनाशकारी भूकम्प का मूलकेन्द्र और उसके बाद लगने वाला धक्का, दोनों का स्थान वित्तीय क्षेत्रा में यानी ऋण के नेटवर्क में है, इसलिये संकट के कारणों के बारे में हमारी जांच-पड़ताल भी वहीं से शुरू होनी चाहिये.