समग्र रूप से पूंजीवादी प्रणाली में साख या ऋण की भूमिका का विस्तार होता गया और आधुनिक साम्राज्यवाद, जो एक परजीवी और क्षयमान प्रणाली है, के आगमन के साथ वह एक गुणात्मक रूप से नई मंजिल पर पहुंच गया. इस आधुनिक साम्राज्यवाद के कई नये लक्षण हैं, जैसे सर्वव्यापी एकाधिकार, मालों के निर्यात से कहीं ज्यादा बड़ा पूंजी का निर्यात, वित्तीय अल्पतंत्र का उदय, इत्यादि. अब मौद्रिक पूंजी वित्तीय पूंजी में रूपांतरित हो गई और उसने और ज्यादा प्रभावशाली स्थिति हासिल कर ली.
“साम्राज्यवाद, या वित्तीय पूंजी का बोलबाला, पूंजीवाद का सर्वोच्च रूप है जिसमें [“औद्योगिक अथवा उत्पादक पूंजी से ... मौद्रिक पूंजी का”] अलगाव व्यापक पैमाने पर पहुंच जाता है. पूंजी के अन्य तमाम रूपों के ऊपर वित्तीय पूंजी की प्रमुखता का अर्थ होता है किरायाखोरों (रेन्टियर) और वित्तीय अल्पतंत्र का वर्चस्व; इसका अर्थ होता है कि वित्तीय रूप से “शक्तिशाली” राज्यों की छोटी सी तादाद अन्य राज्यों से अलग, विशेष महत्व अख्तियार कर लेते हैं.”
“... बीसवीं सदी पुराने पूंजीवाद से नये पूंजीवाद में, सामान्य तौर पर पूंजी के वर्चस्व से वित्तीय पूंजी के वर्चस्व में रूपांतर का मोड़ बिंदु है.” (लेनिन, साम्राज्यवाद, जोर हमारा)
तो यह वित्तीय पूंजी है क्या बला? लेनिन के कथनानुसार यह बुनियादी तौर पर बैंक पूंजी और औद्योगिक पूंजी का संलयन है, और आज शायद हमें इसमें वाणिज्यिक पूंजी को भी जोड़ देना चाहिये. मगर यह संलयन अपनी विशिष्ट पहचान और अपने विशिष्ट हितों को बरकरार रखने वाले विभिन्न सेक्टरों के बीच के तनावों और अंतरविरोधें का अच्छी-खासी हद तक समावेशीकरण कर देता है.लेनिन ने दिखाया कि आधुनिक बैंकों ने अपने हाथों में मुद्रा की सामाजिक सत्ता को संकेन्द्रित कर लिया है और किसी “एकल पूंजीपति” के बतौर काम करना शुरू कर दिया है, और इस प्रकार वे “न सिर्फ समस्त वाणिज्यिक एवं औद्योगिक कार्यकलापों को बल्कि समूची सरकारों तक को अपनी अधीनता में ले आये हैं”. इस संदर्भ में उद्योग, बैंकों और सरकार के बीच तितरफा “व्यक्तिगत जुड़ाव” भी महत्वपूर्ण था.
इस नई मंजिल की व्याख्या करते हुए लेनिन ने लिखा था --
“पुंजीवाद का विकास एक ऐसी मंजिल पर आ पहुंचा है जब, यद्यपि मालों का उत्पादन अभी भी “राज करता है” और उसे ही आर्थिक जीवन का आधार माना जाता है, मगर वास्तविकता में उसे खोखला कर दिया गया है और मुनाफे का बड़ा हिस्सा वित्तीय चालबाजी की “प्रतिभाओं” के सुपुर्द हो जाता है. इन चालबाजियों और जालसाजियों की नीव के बतौर रहता है, समाजीकृत उत्पादन, मगर इस समाजीकरण के जरिये हासिल मानवजाति की अपरिमित प्रगति से लाभ पहुंचता है ... सट्टेबाजों को.”
उत्पादक पूंजी से मौद्रिक पूंजी का अलगाव और मौद्रिक पूंजी का वर्चस्व बढ़ता ही गया, और उसका नतीजा यह है कि आज हम देख रहे हैं कि “विश्व अर्थतंत्र एवं उसकी अधिकांश राष्ट्रीय इकाइयों के सिर पर बैठ जाता है ... अपेक्षाकृत स्वाधीन वित्तीय ऊपरी ढांचा”. अर्थात्, अब “वित्तीय और वास्तविक के बीच उलटा रिश्ता” कायम हो गया है, जहां “वित्तीय विस्तार किसी स्वस्थ अर्थतंत्र से खुराक नहीं पाता बल्कि ठहराव में फंसे अर्थतंत्र से अपनी खुराक पाता है.” (पाॅल स्वीजी, “द ट्रायम्फ आॅफ फिनांशियल कैपिटल”, मंथली रिव्यू, जून 1994).