एक समय था जब ऋण की भूमिका -- कर्ज के कारोबारियों अथवा वित्त पोषकों (फिनांसियर) की भूमिका- बुनियादी रूप से उस उद्योग और वाणिज्य के “पहिये में तेल देना” था, जिससे वास्तविक माल, आधारभूत ढांचा और सेवाएं हासिल होती थीं. लेकिन धीरे-धीरे उनकी भूमिका का विस्तार हुआ और आज हम देखते हैं कि वे दोहरी भूमिकाएं निभाते हैं: वृद्धि की गति को तीव्र करने की भूमिका और साथ ही संकट के अग्रदूत की भूमिका. नवउदारवादी व्यवस्था में अमरीकी अनुभव इसको भलीभांति दिखलाता है.
1970 के दशक में मांग के अभाव से उपजी आर्थिक मंदी का मुकाबला करने की एक रणनीति के बतौर, अमरीकी मजदूर वर्ग को इस बात के लिए उत्साहित किया गया कि वे आसानी से मिल रहे कर्ज से अपने उपभोग के स्तर को ऊंचा उठायें -- जो कर्ज डटकर वितरित किये जा रहे क्रेडिट कार्डों, नए और बेलगाम बंधकी कारोबार, तथा अन्य साधनों के जरिये उपलब्ध कराया जा रहा था. इस नीति का भारी राजनीतिक लाभ भी था: सर्वहारा को कर्ज की जंजीरों में बांधकर गुलाम बनाये रखना और उन्हें गतिहीन कर देना. जैसा कि लेनिन ने बहुत पहले अपने लेख “साम्राज्यवाद, और समाजवाद में फूट” में लिखा था, साम्राज्यवादी पूंजीपति वर्ग ने उपनिवेशों में हासिल अतिमुनाफे के एक छोटे से हिस्से को घूस के बतौर देकर, यानी उन्हें अपेक्षाकृत बेहतर वेतन देकर, अपने-अपने देशों में मजदूर वर्ग के अंदर एक कुलीन श्रमिक तबके का सृजन करने की कार्यनीति खोज ली है. आज उन्होंने इस कार्यनीति को और सुधार लिया है. अब वे वेतन पर प्रतिबंध लगाकर भारी मात्रा में कर्ज देते हैं, और इस तरह वे मजदूरों पर कर्ज की गुलामी का आधुनिक संस्करण लाद देते हैं और उसके साथ ही वे उपभोक्तावाद
जब वर्ष 2000 में “डॉट काॅम” या “नव अर्थतंत्र” के शेयर बाजार का बुलबुला फूटा, तो अमरीकी अर्थतंत्र ने मंदी में पदार्पण किया. 11 सितम्बर (9/11) के हमले के बाद वह और भी दुर्बल हो गया. वित्तीय विध्वंस के भय को दूर करने के लिये फेडरल रिजर्व (अमरीकी केन्द्रीय बैंक) ने अल्पकालीन ऋणों पर सूद की दर को घटा दिया. लेकिन वर्ष 2003 के मध्य तक रोजगार के अवसर घटते गये, इसलिये फेडरल रिजर्व (फेड) ने अल्पकालीन कर्ज के सूद की दर को गिराना जारी रखा. अक्टूबर 2002 की शुरूआत से लेकर पूरे तीन साल तक, वास्तविक (यानी मुद्रास्फीति के अनुसार संशोधित” फेडरल धनराशियों (फंड्स) की दर वस्तुतः ऋणात्मक थी. इसने बैंकों को अन्य बैंकों से धनराशियां उधार लेने, फिर इन धनराशियों को कर्ज के रूप में देने और तब, मुद्रास्फीति को हिसाब में रखते हुए, पहले लिये गये कर्ज का अपेक्षाकृत कम धनराशि से भुगतान करने में सक्षम बना दिया.
इस “सस्ती मुद्रा, सस्ता ऋण” की रणनीति ने एक नया बुलबुला पैदा किया -- इस बार इसका आधार आवासों की बंधकी था. इस “विशाल बुलबुले के स्थानांतरण” की प्रक्रिया में उपभोक्ता ऋण का और भी विस्तार तथा वित्तीय क्षेत्रा में बेशुमार मुनाफे का विस्फोट निहित था, जिसे और अधिक जोखिम वाले ग्राहकों तक बंधकी वित्तपोषण के विस्तार के जरिये हासिल किया गया. निस्संदेह इस तरीके से मंदी में पतन को कुछ देर के लिये टाल दिया गया, मगर उसके साथ ही और उसी उपाय के जरिये मंदी के आने को और अधिक अनिवार्य बना दिया गया और उसकी तीव्रता भी बढ़ा दी गई.
ऋण और मुद्रा संकट के रूप में आई इस आर्थिक दुर्गति की शुरूआत क्यों हुई, इसे समझने के लिये मार्कस की रचनाओं से लिये गये निम्नलिखित उद्धरण, जिसको थोड़ा-बहुत अद्यतन बनाने के लिये बड़े ब्रैकेटों में कुछ सुझाव जोड़े गये हैं, मददगार हो सकते हैं.
“किसी उत्पादन प्रणाली में, जहां पुनरुत्पादन की प्रक्रिया की समूची निरंतरता ऋण पर निर्भर होती है, एक संकट का आना अनिवार्य है. भुगतान के साधनों के लिये बेतहाशा दौड़ जहां उनकी साख अचानक समाप्त हो जाती है और केवल नकदी भुगतान को ही मान्यता मिलती है. अतः पहली दृष्टि में समूचा संकट केवल ऋण और मुद्रा का संकट ही प्रतीत होता है. और वास्तव में यह केवल विनिमय की हुंडियों [यहां जोड़ लें ऋण के आधुनिक उपकरणों] की मुद्रा में परिवर्तनीयता का ही सवाल है. लेकिन अधिकांश हुंडियां वास्तविक क्रय-विक्रय को दर्शाती हैं, जिनका समाज की आवश्यकताओं की अपेक्षा बहुत अधिक विस्तार, अंततः, समूचे संकट की जड़ है. साथ ही साथ, इन हुंडियों की अतिविशाल मात्रा पूरी-की-पूरी ठगी है, जो अब दुनिया के सामने प्रकट होती है और भहराकर गिर पड़ती है ... यकीनन, पुनरुत्पादन की प्रक्रिया के बलपूर्वक विस्तार की समूची कृत्रिम प्रणाली को केवल इस तरीके से नहीं सुधारा जा सकता, कि कोई बैंक, जैसे बैंक आॅफ इंगलैंड [संभवतः आज हम इसकी जगह फेडरल रिजर्व का नाम लेना चाहेंगे] अपनी कागजी मुद्रा के जरिये सभी ठगों को कम पड़ रही पूंजी प्रदान कर दे और सारे मूल्यह्रास हो चुके (डेप्रीशियेटेड) मालों को उनके पुराने अवास्तविक मूल्यों पर खरीद ले. संयोगवश, हर चीज यहां विकृत लगती है, क्योंकि यह कागज की दुनिया है, और असली कीमत और उसका वास्तविक आधार कहीं दिखाई नहीं देता ...” [पूंजी, खंड 3, अंग्रेजी संस्करण पृ. 490, जोर हमारा].
मार्कस “एक नए वित्तीय कुलीनतंत्र, प्रमोटरों, सट्टेबाजों और महज नाम के वास्ते निदेशकों की शक्ल में परजीवियों की एक नई प्रजाति; कारपोरेट प्रमोशन, शेयर जारी करने और शेयरों की सट्टेबाजी करने के जरिये ठगी और धेखाधड़ी की एक सम्पूर्ण प्रणाली” की भी बात करते हैं, और साथ ही वे “कल्पित पूंजी, सूद अर्जित करने वाले कागज” की भी बात करते हैं जो “संकट की घड़ियों में भारी मात्रा में घट जाता है, और इसके साथ ही इसके धारकों की बाजार से मुद्रा उधार लेने की योग्यता भी बेहद घट जाती है.” (पूंजी खंड 3, पृष्ठ 493). अगर यह आज समकालीन लगता है, तो वह बेचैनी भी समकालीन लगेगी जिसका इजहार ब्रिटिश “बैंक्स कमेटी” जो आज के जमाने की विभिन्न विशेषज्ञ कमेटियों और मौद्रिक प्राधिकरणों की पूर्वज थी, ने डेढ़ सौ से ज्यादा वर्ष पहले किया था. इस तथ्य के बारे में कि इंडियों की गुणवत्ता का अन्यथा कोई उल्लेख किये बगैर, केवल बैंक की साख के बल पर, लंदन बाजार में” हुंडियों को बट्टे पर भंजाने और पुनः भंजाने के जरिये “अत्यंत विस्तारित कल्पित साख का सृजन किया गया है.” (वही, पृष्ठ 497, जोर हमारा).
तब क्या कबाड़ हो चुकी प्रतिभूतियां (जंक सिक्यूरिटीज) हमारे जमाने के वाल स्ट्रीट वालों द्वारा किया गया आविष्कार नहीं है!