(लिबरेशन, अक्टूबर 1998 से)

दो सप्ताह पहले कांग्रेस की पंचमढ़ी सभा पर टिप्पणी करते हुए हमने कहा था, “खासकर सरकारी वाम ने इस मंत्रणा सभा द्वारा आर्थिक नीति पर किए जानेवाले पुनर्विचार पर भारी उम्मीदें टिका रखी थीं. वे बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे कि इस सिलसिले में कोई सकारात्मक संकेत मिले ताकि वे कांग्रेस के साथ घनिष्ठ संयोग की अपनी लाइन बेच सकें. सीपीआई व सीपीआई(एम) की आगामी कांग्रेसों के मद्देनजर इसकी खास तौर से अहमियत थी, क्योंकि वहां प्रतिनिधियों की ओर से कांग्रेस के साथ तालमेल का कड़ा प्रतिरोध किए जाने की उम्मीद थी.” और यह भी कि “बहरहाल, वाम नेताओं को लगा कि वे बुरी तरह ठगे गए, क्योंकि ‘गरीबी हटाओ’ जैसे चंद पुराने फिकरों और समाजवादी ढांचे आदि की परंपरागत सूक्तियों को दुहराने के सिवा वहां और कुछ नहीं किया गया. आर्थिक प्रस्तावों पर मनमोहनॉमिक्स पूरी तरह छाई रही.” (माले समाचार, 9-09-1998)

अब जबकि सीपीआई की चेन्नई कांग्रेस संपन्न हो चुकी है, हम यही बात उसके दिग्गजों के मुंह से सुन रहे हैं. 19 सितंबर के हिंदुस्तान टाइम्स ने वर्धन महाशय को यह कहते हुए उद्धृत किया कि “कांग्रेस से यह आशा की जा रही थी कि उसका पंचमढ़ी अधिवेशन अपनी नीतियों की समीक्षा करेगा ... (लेकिन) वहां आर्थिक नीति के बुनियादी मुद्दे पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया.” बहरहाल, आर्थिक नीति के प्रति यह चिंता सरकारी वाम और कांग्रेस के बीच विभेद का प्रमुख बिंदु होने के बजाय एक दिखावा ज्यादा है. अंतिम तौर पर, संयुक्त मोर्चा सरकार अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में कोई भिन्न आर्थिक कार्यक्रम तो पेश नहीं कर सकी. विवाद का विषय यह है कि संयुक्त मोर्चा प्रयोग के ध्वस्त हो जाने के बाद कांग्रेस और सरकारी वाम के बीच सहयोग का नया दौर वास्तव में शुरू हो चुका है. हां, इसकी रफ्तार जरूर धीमी है क्योंकि पंचमढ़ी से पर्याप्त सकारात्मक संकेत नहीं मिले और नतीजतन वाम नेतृत्व कांग्रेस के साथ सक्रिय सहयोग की लाइन चालू करवा पाने में सक्षम भी नहीं हो सका. अच्छी-खासी संख्या में प्रतिनिधियों ने ‘उपर-उपर दांवपेंच खेलने’ की इस नीति का विरोध किया और इस बात पर जोर दिया कि कठिन-कठोर काम का कोई विकल्प नहीं है. प्रतिनिधियों के इस सक्रिय प्रतिरोध के देखते हुए चेन्नई कांग्रेस कोई आम गठबंधन या साझा धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाने के बजाय कांग्रेस को बाहर से समर्थन देने तक सीमित रह गई.

सीपीआई(एम) नेतृत्व भी उसी दिशा में आगे बढ़ रहा है. कामरेड ज्योति बसु कांग्रेस के और करीब जाने की काफी उत्सुक हैं, लेकिन सीपीआई की कांग्रेस के अनुभवों और कलकत्ता में अपनी पांतों के बीच से और अधिक प्रतिरोध होने की संभावनाओं को देखते हुए पार्टी नेतृत्व सतर्कता से अपना कदम उठा रहा है. दिल्ली में हाल-फिलहाल आयोजित माकपा की रैली में ज्योति बसु अपनी बीमारी के बहाने अनुपस्थित रहे और सुरजीत ने इस मौके पर कांग्रेस को काफी लानतें भेजीं. जो भी हो, अपनी पांतों की फीकी प्रतिक्रिया और खुद नेतृत्व के अंदर गहरे विभाजनों के मद्देनजर तथा उससे भी अधिक कांग्रेस के अंदर वामपंथ के साथ पुरजोर दोस्ती करने के जोश का अभाव देखकर भाकपा और माकपा दोनों के नेतृत्व ने धीमी चाल चलने का फैसला लिया है. लेकिन मूल संदेश स्पष्ट है. तीसरे मोर्चे की जुगाली बस यूं ही बंद कर दी गई है और कांग्रेस के साथ घनिष्ठतर सहयोग का नया दौर शुरू हो गया है.

इस तरह एक चक्र पूरा हो गया. आपको याद होगा कि ठीक दो वर्ष पहले ये ही वामपंथी नेता संयुक्त मोर्चा सरकार के लिए कांग्रेस का समर्थन स्वीकार करने के बारे में लंबी-चौड़ी हांक रहे थे. उस वक्त वे कांग्रेसी समर्थन उसकी बाध्यता बता रहे थे. इन्द्रजीत गुप्त ने तो कांग्रेस को चुनौती ही दे डाली थी कि वह अपना समर्थन वापस लेने के बाद मजा चख लेगी. लेकिन जब समर्थन वापसी का खतरा सचमुच उत्पन्न हो गया तो संयुक्त मोर्चा ने देवगौड़ा की कुर्बानी दे दी. जब यह खतरा पुनः पैदा हुआ, उन्होंने डीएमके के दो मंत्रियों को बर्खास्त करने के बजाय सरकार की बलि देने की बहादुरी दिखाई – ऐसी बहादुरी जिसके लिए आज उन्हें गहरा पछतावा हो रहा है. नतीजतन, मध्यावधि चुनावों में भाजपा सत्ता में आई, कांग्रेस को पुनर्जीवन मिला और संयुक्त मोर्चा की खाट घड़ी हो गई. राजनीति भाजपा और कांग्रेस के बीच ध्रुवीकृत हो गई और तीसरे मोर्चे की चिरवांछित धारणा – जनता के जनवादी मोर्चे की ओर जाने वाले तथाकथित संक्रमणकारी कदम की धारणा – लुट-पिट गई. जिस डीएमके की खातिर वह शौर्यपूर्ण बलिदान दिया गया, वही आज भाजपा सरकार और भाजपा के बीच फर्क करने जैसा अनूठा विचार लेकर सामने आ रहा है. और वही इन्द्रजीत पुक्त चेन्नई में अपने उदघाटन भाषण के दौरान सरकार बनाने के कांग्रेसी प्रयासों को समर्थन देने की पैरोकारी करते नजर आए – क्योंकि वामपंथ कमजोर है.

कांग्रेस वामपंथ की इस दुविधा को समझती है. इसीलिए उसने पंचमढ़ी में एक संधि संकेत दिया. लेकिन अपनी आर्थिक नीति के बुनियादी जोर को जरा भी कमजोर किए बगैर ही. साथ ही, उसने लालू-मुलायम जोड़ी से दूरी बनाने की भी कोशिश की. उत्तरप्रदेश और बिहार के अपने पुराने मजबूत गढों में पार्टी को फिर से खड़ा करने और अपने परंपरागत सवर्ण व अल्पसंख्यक समर्थन को पुनः हासिल करने की चिंताओं के अलावा इस चतुराई भरी चाल का लक्ष्य यह था कि अपने और भाजपा के बीच ऐसी हर ताकत को हटा दिया जाए जो उनके बीच की सीधी टक्कर में आड़े आती हो.

सभी संकेत साफ हैं. अवसरवादी वाम हठपूर्वक कांग्रेस की ओर चल पड़ा है और एक तरह से यह कांग्रेस के साथ उसके दीर्घकालीन खुले-छिपे संबंधों का ही औपचारिक स्वरूप है. दूसरी ओर विश्व व्यापार संगठन के हमलों से भारतीय कृषि को बचाने के बहाने अपने प्रचलित अ-राजनीतिवाद के झंडे तले अराजकतावादी वाम धनी फार्मरों की लॉबी के साथ गठजोड़ बना रहा है.

क्रांतिकारी जनवादी आधार पर तीसरे मोर्चे के निर्माण का एजेंडा क्रांतिकारी वाम की ताकतों को अपने ही हाथों में लेना चाहिए. बदलती राजनीतिक परिस्थिति में काफी सामाजिक और राजनीतिक ताकते इस आह्वान का प्रत्युत्रर देंगी. सीपीआई की कांग्रेस में भी व्यापक वाम संश्रय बनाने के पक्ष में एक आम भावना व्याप्त थी जिसे नेतृत्व ने माकपा के साथ तथाकथित कम्युनिस्ट एकता के दायरे मे कैद कर भट्का दिया. पुरनी समाजवादी ताकते भाजपा के साथ समता के साथ हाथ मिला लेना के बाद अस्तव्यस्त हैं और यही हाल उन असंख्य ताकतों का है जो तीसरे मोर्चे की संपूर्ण धारणा को पुनर्जीवित करने के ताजा प्रयासों का पूरी उत्सुकता से इंतजार कर रही हैं. हमने वाम महासंघ बनाने की अपनी अपील पुन: जारी की है और “ केसरिया हटाओ, देश बाचाओ” के वर्तमान अभियान को निश्चय ही तीसरे मोर्चे के लिए एक सकारात्मक अभियान में बदल देना चाहिए.

(सीलीगुड़ी में 4 अगस्त 1998 को हुए एक सेमिनार में दिया गया भाषण, लिबरेशन, सितम्बर 1998 से)

पोखरान के विस्फोट ने परमाणु विरोधी आंदोलन के नये दौर के लिए आवश्यक आवेग प्रदान किया है और हिरोशिमा दिवस को मनाने के महत्व को बढ़ा दिया है. इसने हमारे ग्रह के सारे परमाणु अस्त्रों के जखीरे के सम्पूर्ण विनाश के मकसद से चल रहे तमाम संघर्षों में एक नई जान फूंक दी है. परमाणु विरोधी आंदोलन के क्षेत्र में हम एक शांतिवादी प्रवृत्ति का अस्तित्व भी पाते हैं, जो समस्त परमाणु बमों का तथा सभी तरह के युद्धों का विरोध करती है. हम उनके संघर्ष में तहेदिल से हिस्सेदार हैं. मगर हमें बम के पीछे छिपी राजनीति को भी समझना होगा.

6 अगस्त 1945 को हिरोशिमा में हुआ विस्फोट जितना  जापान को आत्मसमर्पण के लिए बाध्य करने हेतु था, उससे कहीं ज्यादा वह विश्व राजनीति में, खासकर एशिया में, अमरीका के हिंसापूर्ण आगमन की घोषणा था. हिरोशिमा में यह निष्ठुर प्रयोग इसी मनहूस अमरीकी योजना को लागू करने के उद्देश्य से किया गया था और आज हम जानते हैं कि इसका हमारे लिये क्या तात्पर्य है. अतः यह सर्वथा जरूरी है कि हम जितना बम की विनाशकारी क्षमता को समझें, उससे कहीं ज्यादा बमों के पीछे छिपी राजनीति को समझें.

आज बम के उत्पादन के पीछे छिपी वैज्ञानिक दक्षता और तकनीकी बारीकी के बारे में खूब प्रचार हो रहा है. लेकिन परमाणु बम के आविष्कारक राबर्ट ओपनाहाइमर ने अपनी उपलब्धि को ज्यादा-से-ज्यादा कहा जाय तो औसत दर्जे की चीज माना था. अन्य कई वैज्ञानिकों के साथ उन्होंने भी परमाणु शस्त्रों का जखीरा कायम करने के खिलाफ आवाज उठाई थी और आइंस्टीन ने भी बारम्बार अपने संताप को व्यक्त किया था. आइंस्टीन ने परमाणु अस्त्रों के खतरे का हर प्रकार से मुकाबला करने के लिए एक वैश्विक सरकार, एक वृहद्-न्यायिक संस्था कायम करने का प्रस्ताव भी पेश किया था.

अस्त्र-शस्त्रों के विकास के इतिहास में हमेशा से हमलावर शस्त्रों की खोज के साथ-साथ प्रतिरक्षा की उपयुक्त प्रणालियों की भी खोज होती आई है. मगर परमाणु अस्त्रों के बारे में विशेष बात यही है कि यहां प्रतिरक्षा अथवा निवारण (डिटरेंस) का सवाल ही नहीं पैदा होता. परमाणु बम का एकमात्र निवारण दूसरों के पास परमाणु बम की मौजूदगी ही है. इसीलिये हिरोशिमा ने ऐसी प्रतिक्रियाओं की शृंखला (चेन रिएक्शन) को आरंभ किया जिसमें ज्यादा से ज्यादा देशों ने परमाणु अस्त्रों का रास्ता अपना लिया.

आज अमरीका के पास सात लाख बमों का जखीरा है और वह अपने परमाणु प्रतिष्ठान के रख-रखाव के लिये प्रति वर्ष 35 अरब डालर (यानी 9 करोड़ 60 लाख डॉलर प्रति दिन) खर्च करता है. पिछली आधी सदी में अमरीका द्वारा अपने परमाणु कार्यक्रमों पर कुल मिलाकर 5,500 अरब डॉलर खर्च किया गया है. अपनी कल्पना में भी हमारे लिये इस गगनचुम्बी आंकड़े का साफ-साफ अंदाज लगाना बहुत मुश्किल है. अगर आप इसे एक डॉलर के नोट में बदल कर सिलसिलेवार ढंग से चिपकाते जाएं तो इस जंजीर से चांद तक जाने और लौटने का रास्ता नप जायेगा!

अमरीका एक साम्राज्यवादी देश है और दुनिया भर के औपनिविशिक एवं अर्ध-औपनिवेशिक देशों के शोषण के जरिए भारी मात्रा  में अतिरिक्त मूल्य का दोहन करता है और इसीलिये वह इतनी बड़ी राशि को बिना ज्यादा समस्या के खर्च कर सकता है. लेकिन सोवियत संघ के मामले में (1989 तक). चुंकि उसके पास ऐसी कोई सुविधा नहीं उपलब्ध थी, अतः उसके लिये धीरे-धीरे इतना भारी खर्च उठाना असम्भव होता जा रहा था. और हमने यही देखा कि उन्होंने साम्राज्यवाद से समाजवाद की रक्षा के लिये जो परमाणु अस्त्रों का भारी जखीरा बटोर रखा था, वह अंततः विपरीत फलदायक सिद्ध हुआ और उसने खुद समाजवादी राज्य के लिये दीर्घकालिक रूप से परमाणु प्रतिष्ठान की भूख मिटाने लायक जरूरी सामग्री जुटाना असम्भव हो गया. और इसकी पूर्ति करने के प्रयास में उन्होंने प्राथमिकता वाले औद्योगिक क्षेत्रों की खतरनाक ढंग से उपेक्षा की, जिसके परिणामस्वरूप अर्थतंत्र में पूरी तरह से विकृतियां आ गई और अंततः समाजवाद की पराजय हो गई.

हमारे देश में सत्ता ग्रहण करने के बाद भाजपा सरकार का पहला काम था परमाणु परीक्षण करना. इस कदम के पीछे कुछेक मकसद छिपे थे और कुछ मजबूरियां भी थीं.

जहां तक भाजपा के फौरी मकसद का सवाल है, वे उसे पूरा करने यानी परमाणु विस्फोट को पूंजी बनाने में पूरी तरह से नाकाम रहे हैं. उन्होंने देश भर में राष्ट्रवादी उन्माद पैदा करना चाहा था, उन्होंने पाकिस्तान को धमकी देना और इस प्रकार दक्षिण एशिया में अपनी श्रेष्ठता कायम करना चाहा था. माओ ने परमाणु बम को कागजी बाघ कहा था. मैं अन्य बमों के बारे में नहीं जानता मगर भारत के परमाणु बम के मामले में माओ की भविष्यवाणी जरूर सच साबित हुई है. वे इस बार राष्ट्रोन्माद भड़काने में नाकाम रहे. उल्टे, उन्हें इसके खिलाफ प्रतिवाद की लहरों का सामना करना पड़ा. अब तक राष्ट्रोन्माद नामक शब्द कम्युनिस्टों के, खासकर सीपीआई(एमएल) के ही शब्दकोष में पाया जाता था. यहां तक कि अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी कुछ अरसे से इस शब्द का इस्तेमाल करना बंद ही कर दिया है. वे पाकिस्तान के खिलाफ पूंजीपति वर्ग द्वारा मचाये जा रहे कश्मीर सम्बंधी होहल्ले में शामिल हो जाती थीं. यह पहली बार है कि आडवाणी के उकसावामूलक पाक-विरोधी वक्तव्यों के खिलाफ बुद्धिजीवियों के बड़े हिस्से ने अखबारों में लिखा है. सरकार के अंधराष्ट्रवादी उन्माद के खिलाफ संसद में भी प्रतिवाद हुए हैं. बाजपेयी को भी ऐसे हालात में आत्मरक्षात्मक स्थिति अख्तियार करते पाया गया. ये तमाम बाते दिखलाती हैं कि उन्होंने जैसी उम्मीद की थी, वैसी सर्वसम्मति का निर्माण करने में वे असफल रहे. विश्व हिंदू परिषद को भी शक्तिपीठ इत्यादि का निर्माण करने जैसे अपने कार्यक्रमों से पीछे हटना पड़ा. और जब पाकिस्तान ने अपने बमों का विस्फोट किया (भारत से एक ज्यादा) तो भाजपा की समूची योजना पर जैसे ठंडा पानी पड़ गया. भाजपा ने अमरीका से समर्थन प्राप्त करने के लिए विस्फोट के पहले और बाद के दौर में सुनियोजित तरीके से चीन-विरोधी भावनाएं भड़काने की कोशिशे कीं. लेकिन उसके चकित करते हुए अमरीका और चीन ने भारत के परमाणु विस्फोट के खिलाफ संयुक्त वक्तव्य जारी किया और भारत अंतरराष्ट्रीय राजनीति में बुरी तरह से अलगाव में पड़ गया. कुछ दिनों पहले मैंने जर्मनी के विदेश मंत्री द्वारा भारत और पाकिस्तान के बारे में की गई तल्ख टिप्पणी को देखा था, जिसमें उनका कहना था कि ये दोनों देश, जो अपनी जनता को भोजन और पेयजल की आपूर्ति तक नहीं कर पाते और भीख का कटोरा लेकर दर-दर मागंते फिरते हैं, परमाणु बम बना रहे हैं. उनका खयाल है कि बमों से उनकी छवि में निखार आयोग, मगर हुआ इसका उल्टा है. हर जगह उनकी हंसी उड़ाई जा रही है.

भाजपा मध्यमवर्गीयों पर अच्छा-खासा असर रखती है. मगर बमों के खिलाफ प्रचार अभियान के दौरान हमने देखा कि इसमें एक बदलाव आया है. अब लोग खुद ही कुछेक प्रासंगिक सवाल उठा रहे हैं, जैसे कि क्या हम अपने पड़ोसियों के खिलाफ लगातार लड़ाई चलाते हुए जिन्दा रह सकते हैं. वे अभूतपूर्व महंगाई के लिये बम विस्फोटों को जिम्मेवार ठहरा रहे हैं, और भाजपा की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से नीचे उतर रहा है. इसी लिहाज से मैंने कहा था कि भाजपा के फौरी मकसद नहीं पूरे हुए हैं और वे रक्षात्मक स्थिति में पड़ गये हैं.

लेकिन परमाणु परीक्षणों का एक दीर्घकालिक लक्ष्य और तात्पर्य होता है, जिसे हमें उसके समुचित संदर्भ में समझना होगा. दीर्घकालीन लक्ष्य है भारतीय अर्थतंत्र का सैन्यीकरण. अब परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष आर चिदम्बरम कह रहे हैं कि भारत को सैनिक-औद्योगिक कांप्लेक्स बनाना होगा. एक बार इसे बना लिया जाय तो वह न सिर्फ प्रतिरक्षा के लिये बल्कि आर्थिक विकास के लिये भी नई रणनीति बन जायेगा. इसी बीच उन्होंने इस दिशा में कदम उठाना शुरू भी कर दिया है. इस रास्ते पर अमरीका और इजरायल पहले ही चल चुके हैं और अब यही रास्ता भारत भी अपनायेगा! जब भारतीय उद्योग मंदी के दलदल में फंसे हैं तब उद्योगपति प्रतिरक्षा उद्योग में अपने लिये रास्ता बनाना चाहते हैं और इस प्रकार औद्योगिक वृद्धि में बढ़ोत्तरी करना चाहते हैं! यही समूची योजना का सबसे दुखद अंश है. इसका अर्थ है कि बजट के भारी हिस्से को सैन्यीकरण की भट्ठी में झोंक दिया जायेगा, निजी पूंजी और प्रतिरक्षा के बीच सम्बंध और घनिष्ठ हो जायेंगे और इसके नतीजे के तौर पर सबसे बुरा आघात नागरिक जीवन को लगेगा. नागरिक समाज की बेहतरी अब राज्य की प्राथमिकता नहीं रह जायेगी, और इसकी जगह सैनिक-औद्योगिक कांप्लेक्स को प्राथमिकता मिलेगी : सेना के लिये उद्योग, हथियारों के लिये उद्योग. सैनिक अफसरशाहों, वैज्ञानिक अफसरशाहों अर निजी पूंजी के बीच यह गठजोड़, एक नया वर्गीय गठजोड़ – भारतीय उद्योग एवं अर्थतंत्र को सम्पूर्णतः नई दिशा देने का प्रयास करेगा.

वामपंथियों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे बम विस्फोट का विरोध करते समय इस वर्गीय यथार्थ का पर्दाफाश करें. बम का विरोध करने हेतु उन्हें सारी शक्तियों के साथ एकताबद्ध होना होगा, लेकिन इस राजनीति के बारे में, भाजपा सरकार के इस दीर्घकालिक लक्ष्य के बारे में जनता को शिक्षित करने का जिम्मा केवल वामपंथी ताकतों के कंधे पर है. उन्हें इस आधार पर परमाणु विरोधी आंदोलन को एकताबद्ध करने के लिये कड़ी मेहनत करनी होगी.


(15 जून 1998 को नई दिल्ली में फोरम फॉर डेमोक्रेटिक इनिशिएटिव्स द्वारा आयोजित सेमिनार में दिया गया भाषण. वक्ता द्वारा कुछ संशोधनों के साथ लिबरेशन, जुलाई 1998 में प्रकाशित)

मैं नहीं जानता कि पोखरन में जो परमाणु विस्फोट किया गया उससे कितना नाभिकीय विकिरण निकला. लेकिन यह तथ्य काफी स्पष्ट है कि पूरे देशभर में इसने काफी वैचारिक प्रदूषण फैला दिया है.

अब इस विस्फोट के कारणों को लेकर अनेक मत-मतांतर मौजूद हैं. पहले तो जैसा कि चतुरानन मिश्र जी ने भी बताया, यह कहा गया कि जब परमाणु बम फूटा तो गौतम बुद्ध मुस्कुराए. इस हिसाब से शायद बुद्ध दिल खोलकर तब हंसेंगे जब बम दसियों लाख लोगों को मार गिराएगा. कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि इस बम का इस्तेमाल दो मानव बमों – यानी, भाजपा-तीन शासक संश्रय में ममता बनर्जी और जयललिता – को बेअसर बनाने के लिए किया गया था. अगर आज की सरकार ऐसे गैर जिम्मेदाराना विचारों से शासित होती है तो इसका मतलब देश के सामने सचमुच एक बड़ा खतरा पैदा हो जाना है. एक दूसरा विचार यह कहता है कि (परमाणु) परीक्षण भाजपा के उन्मादी कार्यकर्ताओं के सामने एक वैकल्पिक एजेंडा फेंकने के लिए किए गया था, क्योंकि वे राम मंदिर वाले मुद्दे के स्थगन से काफी विक्षुब्ध थे. लेकिन यह भी बड़ी चिंता की बात है, क्योंकि आप जानते हैं कि भाजपा की कतारों का मिजाज सांप्रदायिक है : जब उन्होंने यह नारा लगाया कि “गर्व से कहो, हम हिंदु हैं” तो इसका चरम रूप बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बतौर देखा गया. आज बम को केंद्र करके एक बार फिर शक्तिपीठ, शौर्य दिवस जैसे हिंदू रूपक उछाले जा रहे हैं. मैं चिंतित हूं कि ये चीजें स्थिति को कहां ले जाएंगी.

राम मंदिर का नारा मुसलमानों के खिलाफ निर्देशित था और परमाणु बम का नारा पाकिस्तान के खिलाफ लक्षित है. इस पृष्ठभूमि में भाजपाई कार्यकर्ताओं के लिए, चूंकि वे ऐसी पार्टी के सदस्य हैं जिसके एजेंडे में राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता के बीच कोई फर्क नहीं है और मुस्लिम-विरोध ही जिसकी मूल दिशा है, यह परमाणु बम और कुछ नहीं, एक हिंदू बम है.

बम के साथ उत्पन्न होने वाले इस वैचारिक प्रदूषण ने देश के समस्त आकाशमंडल को दूषित कर दिया है और नाभिकीय विस्फोट   के खतरनाक परिणामों में से यह भी एक है. फिर भी, मैं समझता हूं कि इस बम ने धरती पर जो अपशकुन पैदा किए हैं, वह और अधिक खतरनाक हैं. अव्वल तो मुझे यह चिंता है कि परीक्षणों से उपजा यह अति राष्ट्रवादी उन्माद, यह अंधराष्ट्रवाद हमें कहां ले जाएगा? पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों में तनाव चरम पर पहुंचा दिए गए हैं, सुव्यवस्थित ढंग से युद्धोन्माद पैदा किया जा रहा है, और हमलोग वस्तुतः युद्ध-तैयारियों की ओर बढ़ रहे हैं. अब, जब आप तमाम चीजों को राष्ट्रवादी उन्माद की ओर मोड़ देते हैं, और इसी के साथ जब सैनिक तैयारियां भी शुरू कर देते हैं, तो यकीनन राष्ट्रीय राजनीति पर भी इसका कुप्रभाव पड़ेगा. 1974 में पोखरान में पहले परमाणु परीक्षण के बाद हमने यही देखा था, जब उसके ठीक एक वर्ष बाद देश में इमर्जेंसी लाद दी गई थी. इसीलिए हमारे दिमाग में सही तौर पर एक सवाल उभरता है. परमाणु विस्फोटों के साथ जुड़ा हुआ मौजूदा अति राष्ट्रवादी उन्माद का यह फैलाव अभी तक हमारे देश में मौजूद लोकतांत्रिक प्रक्रिया के किस हद तक बर्दाश्त कर पाएगा? और एक बार फिर हम इस तर्क को उभरते देख रहे हैं कि हमारे देश में राष्ट्रपति प्रणाली की जरूरत है. वे कहते हैं कि वर्तमान संसदीय प्रणाली हमारे राजनीतिक तंत्र में स्थायित्व नहीं पैदा कर रही है, यहां बार-बार चुनाव कराए जा रहे हैं, जो अच्छी बात नहीं है, क्योंकि इसमें भारी राष्ट्रीय व्यय होता है. और तब वे एक महान और योग्य नेता की महान व्यक्तित्व की जरूरत की चर्चा करते हैं. इन तमाम मध्यम वर्गीय चिंताओं और आकांक्षाओं के साथ देश में जनवादी प्रक्रिया को खत्म कर डालने और एक तानाशाही प्रणाली लाद देने के लिए जन मानस बनाने की कोशिशे चलाई जा रही हैं. जैसा कि मैं देखता हूं, परमाणु विस्फोट, तनाव-पैदा करने की कोशिशों और  हमारे पड़ोसी देशों के खिलाफ युद्ध-तैयारियों के साथ जुड़े इस अति राष्ट्रवादी उन्माद के पीछे यह सबसे बड़ा खतरा मंडरा रहा है.

दूसरी बात मैं कहना चाहूंगा कि यह कोई एक बम परीक्षण का मामला नहीं है. एक परमाणु परीक्षण के परिणामस्वरूप एक बड़ा परमाणु जखीरा भी बनाना पड़ता है. पिछले 30 वर्षों से परमाणु शक्ति के शांतिपूर्ण प्रयोग के नाम पर एक पूरी परियोजना अमल में लाई जा रही है और एक के बाद दूसरे बजटों मे इस मद में भारी-भरकम निधि आबंटित की जा रही है – एक ऐसा व्यय जो कभी सार्वजनिक नहीं किया जाता है और जो किसी खाते में दर्ज नहीं होता है. धीरे-धीरे करके एक समूचा ढांचा, एक विशालकाय नौकरशाही-वैज्ञानिक प्रतिष्ठान निर्मित किया गया है और अब समूचे राष्ट्रीय अर्थतंत्र के सैन्यीकरण के प्रयास किए जा रहे हैं!

मैं यहां परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष आर चिदंबरम के इन शब्दों का उल्लेख करना चाहूंगा जो कुछ दिनों पूर्व एक राष्ट्रीय दैनिक में छपे थे : “विज्ञान और टेकनॉलजी की ताकत, जो विकास को द्रुत बनाती है, वह बुनियाद है जिसपर राष्ट्रीय सुरक्षा आधारित होती है; और सुरक्षा गारंटी के बिना विकास के कदम भी लड़खड़ा जाते हैं. भारत में एक औद्योगिक-सैनिक कम्प्लेक्स का निर्माण जरूरी है जो एक ओर सुरक्षा की गारंटी करे और दूसरी ओर विकास को भी उत्प्रेरित करे.” यह एक बिलकुल भिन्न परिकल्पना है, विकास की एकदम उल्टी दृष्टि, उस तरह की दृष्टि से भारी विचलन जिसके साथ पिछले 50 वर्षों के अधिकांश समय में विकास के प्रयास संचालित थे. यह नई दृष्टि कहती है कि हथियार के कारखानों के निर्माण, परमाणु ऊर्जा, बम-विस्फोट आदि के जरिए आप जिस हद तक अपने औद्योगिक-सैनिक कम्प्लेक्स को मजबूत बनाएंगे, विकास का रास्ता उतना ही प्रशस्त होगा. मैं समझता हूं कि यह एक खतरनाक प्रस्थापना है. अब इसे हमारी विकास रणनीति से अलग-थलग सिर्फ एक-दो बमों के परीक्षण या हथियार के रूप में बमों व मिसाइलों के उत्पादन के बतौर ही नहीं देखा जा रहा है. इसे एक विकास-मॉडल के अंग के रूम में भी नहीं लिया जा रहा है, बल्कि इसे हमारे सपूर्ण विकास-चिंतन का केंद्रीय सार बना दिया गया है. अब से इस औद्योगिक-सैनिक कम्प्लेक्स के इर्द-गिर्द ही विकास की पूरी रणनीति चक्कर काटेगी. यही विकास की चिदंबरम थीसिस है.

यह दुर्भाग्यपूर्ण और क्षोभजनक है. अल्बर्ट आइन्स्टीन जैसे वैज्ञानिक भी, जिनके सिद्धांतों के आधार पर परमाणु बम बनाए गए हैं, जन विनाश के इस हथियार से खुश नहीं थे. यहां तक कि परमाणु बम के जनक के रूप में विख्यात वैज्ञानिक रॉबर्ट ओपेनहेमर भी हाइड्रोजेन बम बनाए जाने के विरोधी थे. उन्होंने इसे अभूतपूर्व विनाश का हथियार बताया है. परिणामतः 1953 में अमेरिकी परमाणु ऊर्जा विभाग ने उन्हें सुरक्षा के लिए एक जोखिम करार किया दिया. लेकिन यहां भारत में, और साथ ही पाकिस्तान में भी, हम देखते हैं कि वैज्ञानिक-नौकरशाह विजय-प्रतीक रहराते हुए प्रेस-सम्मेलन कर रहे हैं और गर्व के साथ अपनी तैयारियों की उदघोषणा करते हैं कि आदेश मिलने पर वे और भी अधिक विनाश-क्षमता से लैस बम बना सकते हैं. मेरी समझ से यह बात विज्ञान की पूरी भावना के खिलाफ जाती है, ज्ञान की भावना के विपरीत जाती है. और मुझे सचमुच दुख है कि हर पार्टी इन बैज्ञानिकों की उनकी तथाकथित उपलब्धियों के लिए प्रशंसा करने में मशगूल है. बहरहाल, जहां तक मेरी जानकारी है, काफी तादाद में ऐसे भी वैज्ञानिक हैं जिन्होंने इस कार्रवाई का विरोध किया है.

मैं चाहता था कि बम विस्फोटों से उत्पन्न होने वाले इन जुड़वां बड़े खतरों को आपके सामने रखूं-व्यवस्थित ढंग से फैलाए जा रहे अंधराष्ट्रवादी उन्माद से देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए उत्पन्न खतरा, तथा सैनिक-औद्योगिक कम्प्लेक्स के सिद्धांत से पैदा होने वाला देश के अर्थतंत्र व विकास-प्रक्रिया के सैन्यीकरण का खतरा.

बहरहाल, एक संबंधित सवाल यह खड़ा होता है कि भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में बड़ी शक्तियों द्वारा अपनाई गई धौंस-धमकी की कार्यनीति के प्रति हमारा रुख क्या होना चाहिए. पांच बड़ी परमाणविक ताकतों, पी-5 या सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों की ओर से सीटीबीटी पर दस्तखत करने के लिए भारत और पाकिस्तान पर दबाव डालना, जबकि खुद अमेरिकी कांग्रेस ने इस समझौते को संपुष्ट नहीं किया है, कहां तक प्रासंगिक और वैध है? आशा की जाती है कि कांग्रेस इस समझौता के सन् 2000 में ही संपुष्ट करेगी. इन दोशों ने खुद तो भारी परमाणविक जखीरे तैयार कर लिए हैं और सैकड़ों परीक्षणों के जरिए ऐसी स्थिति में पहुचं गए हैं, जहां सिर्फ कम्प्यूटर-अनुरूपण के द्वारा वे आगे के परीक्षण कर ले सकते हैं. फिर, सीटीबीटी में भी एक प्रावधान है कि जरूरत पड़ने पर ये देश अपने सर्वोच्च राष्ट्रीय हितों में पुनः परीक्षण शुरू कर सकते हैं. जब ये देश हम पर और पाकिस्तान पर सीटीबीटी पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डालते हैं, तो यह और कुछ नहीं सिर्फ पाखंड है. मैं समझता हूं कि शांति आंदोलन को अपना मुख्य निशाना इन्हीं बड़ी परमाणविक ताकतों को, पी-5 को बनाना चाहिए. अन्य चीजों में यह भी लगता है कि इन परीक्षणों ने इन पुराने समझौतों को केंद्र कर दुनियाभर में नया विवाद शुरू कर दिया है. नई पहलकदमियों के द्वार खुले हैं, लोग इन शक्तियों से यह जानना चाहते हैं कि उनके पास परमाणविक निःशस्त्रीकरण का क्या कार्यक्रम है. हम समझते हैं कि हमारे देश में शांति आंदोलन को इस पहलकदमी के साथ जोड़ा जाना चाहिए.  

कभी-कभी ऐसा होता है कि जब चीजें अपनी अति पर पहुंचती हैं, तो वे अपने विपरीत में बदलने लगती हैं. हालांकि भारत और पाकिस्तान ने एक दूसरे के खिलाफ बम बनाए और उनका परीक्षण किया, अब जबकि दोनों समान स्तर पर आ पहुंचे हैं और दोनों को प्रतिबंधों का निशाना बनाया जा रहा है, दोनों बड़ी ताकतों के दबाव का सामना कर रहे हैं, तो शायद वह ऐतिहासिक मौका आ गया है, जब भारत और पाकिस्तान कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हो सकते हैं. जैसा कि हमने देखा भी है, परमाणु विस्फोट के बाद दोनों ओर से वार्ता के प्रस्ताव लिए-दिए गए हैं और मुझे आशा है कि वार्ता का एक नया दौर शुरू होगा और अपनी-अपनी पहचान के साथ ये दो देश बड़ी ताकतों के खिलाफ कोई संयुक्त स्थिति विकसित कर सकते हैं. अगर ऐसा होता है, तो निश्चय ही यह अच्छी शुरूआत होगी. इस तरह के घटनाक्रमों के लिए स्थितियां सचमुच तैयार हो रही हैं. बहरहाल, नई दिल्ली की बागडोर जबतक भाजपा जैसी शक्तियों के हाथों में रहेगी तबतक मुझे डर है कि यह प्रक्रिया अधिक आवेग नहीं ग्रहण कर पाएगी. स्थितियां तो हैं, लेकिन भारत और पाकिस्तान की ये सरकारे उन्हें साकार नहीं कर सकती हैं. मैं खासकर नई दिल्ली की भाजपा सरकार की बात कर रहां हूं, क्योंकि इसका समूचा एजेंडा ही पाकिस्तान के खिलाफ निर्देशित है. भारत और पाकिस्तान के बीच शांति और सहयोग का प्रश्न अनिवार्य रूप से इस सरकार को हटाने के कार्यभार से जुड़ा हुआ है. इस सेमिनार को संबोधित करने के लिए यहां विभिन्न राजनीतिक पार्टियों और विभिन्न विचार-प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि आए हुए हैं. मुझे आशा है कि हम देश के सैन्यीकरण के खिलाफ और हमारे लोकतंत्र पर बढ़ते खतरे के खिलाफ एकताबद्ध ढंग से संघर्ष कर सकेंगे.

(समकालीन लोकयुद्ध, अप्रैल 1998 से)

संयुक्त मोर्चे का पतन और भाजपा का उत्थान

हमारी पार्टी की वाराणसी कांग्रेस ने केंद्र की सत्ता में भाजपा के आरूढ़ होने के मंडराते खतरे पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी. रिपोर्ट में कहा गया था कि “हम केसरिया शक्ति द्वारा भारत पर कब्जे के खतरे को यकीनन स्वीकार करते हैं. संयुक्त मोर्चे का पतन ऐसे किसी परिणाम के लिए उत्प्रेरक सिद्ध हो सकता है. यद्यपि भाजपा की अपनी भी समस्याएं हैं, जैसे उनके अंदरूनी झगड़े और देश के कई भागों में उनकी सीमित पहुंच, मगर यह खतरा सचमुत वास्तविक खतरा है, और हमें इसे कत्तई घटाकर नहीं देखना चाहिए. अगर ऐसा होता है, तो फिर उस समय जो ठोस परिस्थिति हमारे सामने आएगी, उसके अनुसार नीति में कुछ खास समायोजन करने पड़ सकते हैं.”

यह बात हमने अक्टूबर 1997 में कही थी, जब संयुक्त मोर्चा की सरकार कांग्रेस के आश्वस्त समर्थन के सहारे बदस्तूर चल रही थी. लेकिन पांच महीनों के भीतर ही हमारी आशंकाएं सही साबित हो गई. रिपोर्ट में देश के अनेक भागों में भाजपा की कमजोर स्थिति का भी जिक्र था, और 1998 के चुनावी नतीजों ने यह दिखा भी दिया कि संसद में उसकी अपनी ताकत में कोई उल्लेखनीय इजाफा नहीं हुआ. लेकिन तब भी अगर हमने इसे एक वास्तविक खतरा समझा था तो ऐसा मूलतः इस अवधारणा के चलते कि संयुक्त मोर्चा का संभावित पतन इस तरह के परिणाम के लिए उत्प्रेरक साबित हो सकता है. हुआ भी ठीक ऐसा ही.

विडंबना यह है कि इस पूरे उपाख्यान में खलनायक की भूमिका निभाने वाली कांग्रेस, जो दो सालों से भी कम समय के अंदर देश को फिर से चुनावी उथल-पुथल में झोंक देने के लिए मुख्यतः जिम्मेवार थी और जो भाजपा के सशक्त हमलों के सामने तेजी से बिखरती प्रतीत हो रही थी, अंततः सही सलामत निकल आई. इसने न केवल अपनी ताकत को बरकरार रखा बल्कि महाराष्ट्र और राजस्थान में इसने भाजपा को जबर्दस्त चोट भी पहुंचाई. संयुक्त मोर्चे का कोई भी घटक कहीं भी भाजपा को ऐसी चोट देने में कामयाब न रहा. अकेले इसी एक धक्के ने भाजपा के शासन करने के नैतिक प्राधिकार को काफी हद तक कमजोर बना दिया.

दूसरी और संयुक्त मोर्चा इस बार शहीदी छवि और साझा घोषणापत्र के साथ चुनाव में उतरकर भी अपनी आधी ताकत ही बचा सका. उसका बाकी आधा हिस्सा भाजपा के खाते में चला गया.

संयुक्त मोर्चा का सबसे बड़ा घटक–जनता दल– कर्नाटक में साफ हो गया और उड़ीसा में उसका प्रमुख अंश भाजपा के संश्रयकारी बीजद में सामिल हो गया. चरम मौकापरस्ती का प्रदर्शन करते हुए उसके प्रधानमंत्री अकाली दल के समर्थन पर चुनाव लड़ रहे थे और उसके दूसरे दिग्गज श्रीमान रामविलास पासवान ने समता पार्टी के साथ गुपचुप समझौता कर लिया. डीएमके-टीएमसी गठबंधन को तमिलनाडु में सर्वाधिक अनपेक्षित पराजय का सामना करना पड़ा. फिर भी, भाजपा जब बहुमत की जादुई संख्या से पीछे रह गई तो और कोई नहीं बल्कि संयुक्त मोर्चा के संयोजक चंद्रबाबू नायडू ने विलक्षण कलाबाजी के सहारे यह कमी भी पूरी कर दी. संयुक्त मोर्चा के कुछ अन्य घटक, मसलन नेशनल कांफ्रेंस और अगप भी भाजपा की ओर झुक चुके हैं. संयुक्त मोर्चे के ये सभी घटक अपनी इस कलाबाजी के पीछे अपने-अपने राज्य की विशिष्टताओं (बाध्यताओं!) की दुहाई दे रहे हैं. अंततः असलियत जाहिर हो ही गई है. विशिष्ट आंचलिक हितों ने उन्हें संयुक्त मोर्चे में एकजुट किया था और उन्हीं हितों ने बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में उनके रास्ते जुदा कर दिए. धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत तो महज वह धुएं की दीवार थी जिसे हमारे सामाजिक जनवादी लफ्फाजों ने खड़ा कर रखा था.

सामाजिक जनवादी वामपंथ के लिए भी यह पारी खराब ही रही, और बंगाल के परिणाम खतरे की घंटी ही साबित हुए हैं. चुनाव के पहले सीपीआई(एम) के नेतागण कांग्रेस में हुई टूट-फूट का फायदा उठाते हुए तमाम सीटें जीत लेने का दम भर रहे थे. वस्तुतः वे अपनी पुरानी संख्या बचा पाने में ही सफल हो सके. जीत का फासला और प्राप्त मतों का प्रतिशत काफी कम हो गया.

बहरहाल, शुतुरमुर्ग की भांति वे तब भी 1996 जैसी स्थिति के दुहराव की आशा पाल रहे थे और काफी आतुरता से केंद्र की सत्ता संभालने की तैयारी कर रहे थे. आहत बंगाली स्वाभिमान को सहलाने के लिए ज्योति बसु ने दिल्ली जाने की अपनी तत्परता घोषित कर दी. ‘ऐतिहासिक भूल’ को सुधारने की पुरजोर कोशिश में सीपीआई (एम) ‘ऐतिहासिक मूर्खता’ के दलदल में फंस गई.

चलिए मूल बात पर लौटें. संयुक्त मोर्चा के पतन ने राजनीति और संख्या दोनों ही लिहाज से भाजपा को सीधा फायदा पहुंचाया है. लेकिन संयुक्त मोर्चा के पतन और भाजपा के शासन में आने के बीच के इस सीधे रिश्ते पर बहुत कम राजनीतिक विश्लेषकों का ध्यान गया है. कारण भी बहुत साफ है. चूंकि भाजपा और कांग्रेस ही दो प्रमुख खिलाड़ी थे, सो तमाम विश्लेषण भाजपा बनाम कांग्रेस ढांचे तक ही सिमट कर रह जाते हैं.

मजेदार बात यह है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ही ‘स्थिर सरकार और योग्य नेतृत्व’ के नारे को उछाला था. यह संयुक्त मोर्चे पर लगाया गया एक प्रत्यक्ष आरोप था. क्योंकि वह अस्थिरता और अक्षम नेतृत्व का पर्याय बन चुका था. शासक अभिजात्यों द्वारा अपने पक्ष में मोड़ लिए जाने की सीमाओं का ध्यान रखते हुए भी यह कहा जा सकता है कि जनता का जनादेश इस बार निर्णायक रूप से संयुक्त मोर्चा के खिलाफ चला गया. चुनाव के बाद संयुक्त मोर्चा में जारी बिखराव इसी बात की पुष्टि करता है.

संयुक्त मोर्चा से गलती कहां हुई?

संयुक्त मोर्चा से कहां गलती हुई है और उसके पतन के तात्पर्य क्या हैं? वामपंथ के दृष्टिबिंदु से इस सवाल की पड़ताल करना कार्यवाहियों का अगला दौर निर्धारित करने के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है.

प्रथमतः, भाजपा विरोधी व कांग्रेस विरोधी मंच के बतौर – यहां तक कि भाजपा विरोधी गैर कांग्रेसी मोर्चा के विरल संस्करण के बतौर भी – संयुक्त मोर्चे का प्रस्तुतीकरण एक सामाजिक जनवादी मिथक ही प्रमाणित हुआ. उसी तरह, संयुक्त मोर्चे का यह वर्णन कि वह जनता के जनवादी मोर्चा की ओर जानेवाला एक संक्रमणशील कदम है, जिसके अंदर मजदूर वर्ग और प्रगतिकामी बुर्जुआ के बीच एकता और संघर्ष के जरिए सर्वहारा वर्चस्व स्थापित होगा, एक दूसरा सामाजिक जनवादी सैद्धांतिक शब्दजाल साबित हुआ, जिसका मूल मकसद था अपने अवसरवादी संश्रय को जायज ठहराना. 1996 से 1998 के बीच कांग्रेस को किसी भी कीमत पर सत्ता से बाहर रखने की स्थिति से लेकर किसी भी तरह कांग्रेस को सत्ता में ले आने की स्थिति तक, सामाजिक जनवादियों का यह संक्रमण अवश्य ही काफी गौरतलब है.

दूसरे, व्यावहारिक धरातल पर संयुक्त मोर्चा प्रगतिशील कानूनों को लाने में पूरी तरह विफल रहा. खेत मजदूरों से संबंधित बिल विचाराधीन रह गया और दलितों पर अत्याचारों के खिलाफ भी, जिसमें बिहार में होने वाले जनसंहार भी शामिल हैं, सरकार कोई कदम नहीं उठा सकी. ‘कम्युनिस्ट गृहमंत्री’ कश्मीर और उत्तर-पूर्व की बगावतों में उलझे रहे और उनके पास इन अत्याचारों के खिलाफ कोई विशेष उपाय करने का न तो वक्त रहा और न ही संकल्प. इसके विपरीत, रक्षामंत्री मुलायम सिंह यादव सवर्ण जातियों को संतुष्ट करने के लिए दलित ऐक्ट का घोर विरोध करते रहे.

संयुक्त मोर्चे ने ‘राजनीति के अपराधीकरण’ को रोकने के लिए कुछ नहीं किया सबकि चंद्रशेखर की हत्या के बाद यह शक्तिशाली मुद्दा बन गया था. मोर्चा न तो बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि मसले के समाधान की दिशा में एक भी कदम आगे बढ़ सका और न ही उसने बाबरी मस्जिद के ध्वंस के लिए जिम्मेवार दोषियों को कोई सजा दिलाने की पहल की. वह लालू और महंत के भ्रष्ट शासन के साथ तमाम किस्म के समझौते करता रहा.

तीसरे, सत्ता में बने रहने के लिए उसने अपने पहले प्रधानमंत्री को कुर्बान कर दिया और इसीलिए बाद के दौर में डीएमके के दो मंत्रियों के मुद्दे पर दिखाई गई बहादुरी लोगों को कोई खास प्रभावित नहीं कर सकी.

डेढ़ साल का संयुक्त मोर्चे का शासन चिदंबरम के ‘स्वप्निल बजट’ और वीडीआइएस स्कीम के लिए याद किया जाएगा. आर्थिक प्रगति के संकेतको में आई चौतरफा गिरावट के मद्देनजर जहां बजट एक दिवास्वप्न बन गया था, वहीं वालंटरी डिस्क्लोजर ऑफ इनकम स्कीम काले को सफेद बनाने के लिए दी गई अब तक की सबसे उदार पेशकश थी.

यह भी विडंबना ही है कि संयुक्त मोर्चे की छवि बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रति मित्रवत ही बनी, हालांकि उसे साम्राज्यवाद विरोधी जुगाली करने में अग्रणी वामपंथ के शक्तिशाली हिस्सों का समर्थन प्राप्त था. बहुराष्ट्रीय निगमों के चहेते के हाथ में वित्तीय मामलों की बागडोर होने की वजह से ‘राष्ट्रवादी’ नारे को बिना किसी प्रतिरोध के भाजपा को समर्पित कर दिया गया. ‘राष्ट्रवादी सरकार’ के लिए और बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ प्रतिद्वंद्विता में ‘समान धरातल’ के लिए सरमायेदार शोर मचा रहे थे. इस माहौल में स्वदेशी के नारे के साथ भाजपा की प्रचार मशीनरी को पूरे जोश-खरोश के साथ उतरने का मौका मिला.

संयुक्त मोर्चे का एकमात्र मजबूत बिंदु और इसकी मूलभूत पहचान थी – संघवाद के उसूल के प्रति इसकी निष्ठा. ‘राज्यों को अधिक अधिकार’ से लेकर ‘मजबूत राज्य और कमजोर केंद्र’ तक के नारे उछाले गए. हां, संयुक्त मोर्चा के शासन काल में केंद्र जरूर कमजोर और अस्थायी दिखाई पड़ा, और ठीक इसी बिंदु पर मोर्चे की शिकस्त भी हुई. उसका सबसे मजबूत पक्ष उसकी प्रमुख विफलता बन गया. यह भारतीय राज्य-व्यवस्था के मूलभूत चरित्र को भी रेखांकित करता है. जब कभी कोई मजबूत केंद्र निरंकुशता की ओर प्रवृत्त होता है, तो शक्तिशाली आंचलिक आर्थिक हित विरोध में खड़े होने लगते हैं. बदले में, जब कभी केंद्र कमजोर और अस्थिर प्रतीत होता है, तो मजबूत केंद्र की चाहत जोर मारने लगती है. भारतीय राज्य-व्यवस्था का गतिविज्ञान  शक्तिशाली आंचलिक आर्थिक ग्रुपों के हितों और एकीकृत राष्ट्रीय अर्थतंत्र की जरूरतों के बीच परस्पर निर्भरता के साथ जुड़ा हुआ है. कमजोर केंद्र की वकालत करने के चलते ही तो चंद्रबाबू नायडू संयुक्त मोर्चा के संयोजक बना दिए गए थे, खुद वही भाजपा सरकार के नेतृत्व में एक मजबूत केंद्र को सुस्थिर करने वाले कारक भी बन गए. चूंकि राजनीतिक तर्क ही संयुक्त मोर्चा के खिलाफ चला गया, सो उसे किसी न किसी बहाने जाना ही था. लेकिन यह अहम बात नहीं है. विवाद का विषय यह है कि वह कोई ऐसी छाप नहीं छोड़ सका जो भविष्य में उसकी वापसी में मददगार साबित हो सके.

सामाजिक जनवादी वामपंथ ‘ऐतिहासिक भूलों और मूर्खताओं’ के बीच डोलता रहा, लेकिन वह कभी भी इस दौरान आए ‘ऐतिहासिक अवसरों’ का फायदा उठाने के बारे में नहीं सोच सका. उसके विचारकों की मुख्य चिंता तमाम किस्म की ‘मध्यस्थता’, ‘मान-मनौव्वल’, ‘समझौतों’ और ‘गुप्त संधियों’ के जरिए संयुक्त मोर्चा को टिकाए रखने तक ही सीमित थी. सुरजीत ने यह शर्मनाक वक्तव्य दिया कि वामपंथ ने अपने किसी भी एजेण्डा के लिए सरकार पर दबाव नहीं डाला ताकि संयुक्त मोर्चा को कोई परेशानी न हो. वे कांग्रेस और संयुक्त मोर्चा के अन्य घटकों से भी वैसी ही आशा कर रहे थे. लेकिन किसी ने उन्हें उपकृत नहीं किया. इस प्रकार मजबूत वामपंथी धड़ों के द्वारा समर्थित भारत की पहली सरकार, जिसमें एक धड़े को महत्वपूर्ण मंत्रालय भी मिले हुए थे कोई वामपंथी छाप नहीं छोड़ सकी.

भाजपा सरकार : फासीवादी तानाशाही का खतरा

हर अवसरवादी पाप अपनी कीमत वसूलता है. संयुक्त मोर्चा के ध्वंसावशेषों पर भाजपा की खुल्लामखुल्ला सांप्रदायिक सरकार खड़ी है. आजादी की आधी सदी के बाद केंद्र सरकार की रहनुमाई वह पार्टी और वह शाख्सियत कर रही है, जिनकी भूमिका स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान कम से कम भी कहा जाए तो संदेहास्पद तो जरूर रही है और तब भी भारत पर घिर आई इस त्रासदी से गलत शिक्षा ली जा रही है. उदारवादियों का अच्छा-खासा हिस्सा, जिनमें वामपंथी बुद्धिजीवियों के कई हिस्से भी शामिल हैं, उस ‘महान संस्था, जिसका नाम कांग्रेस है’ के क्षय पर आंसू बहा रहा है. यह खुद को ही नकारने की कवायद है जो प्रगति और लोकतंत्र के लिए कांग्रेस विरोधी संघर्ष के इतिहास को खारिज कर देती है.

भाजपा की सरकार विश्वासमत हासिल कर चुकी है और वह तथाकथित राष्ट्रीय एजेंडा के आधार पर सरकार चलाने का संकल्प जाहिर कर रही है. अटल बिहारी वाजपेयी राष्ट्र को बारंबार आश्वस्त कर रहे हैं कि जब तक वे प्रधानमंत्री रहेंगे, उनकी सरकार किसी गुप्त एजेंडे पर अमल नहीं करेगी. यह विपक्ष को बहला-फुसलाकर शांत करने, उनके बीच तोड़फोड़ करने तथा वहां से और अधिक संश्रयकारी प्राप्त करने की ही एक चालाक कोशिश है.

कुछ समाजवादी और वामपंथी बुद्धिजीवियों ने यह तर्क देना शुरू कर दिया है कि भाजपा का राज्यरोहण फासीवाद के उदय का पर्याय नहीं है. कुछ लोग यह भी तर्क देते हैं कि शास्त्रीय अर्थों में फासीवाद की जो आर्थिक बुनियाद समझी जाती है, वह भारत में मौजूद नहीं है.

कठोर आर्थिक अर्थों में, यह सच है कि भारतीय बुर्जुआ, जो खुद एक पराश्रयी बुर्जुआ है, विश्व बाजार को हड़पने और उपनिवेश बनाने के हिटलरी एजेंडे पर नहीं चल सकता है. लेकिन भला यह कह ही कौन रहा है! बनारस कांग्रेस की रिपोर्ट में भारतीय संदर्भ में फासिस्ट तानाशाही को इन शब्दों में पारिभाषित किया गया है – “भाजपा के एजेंडा में भारत के पड़ोसियों, खासकर पाकिस्तान के खिलाफ उग्र राष्ट्रवादी नीति अपनाना, नाभिकीय अस्त्रों की दौड़ में गर्मी लाना, भारत को ऐसा हिंदू राष्ट्र बनाना जहां धार्मिक अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाएगा, संघीय राज्य-व्यवस्था को क्षतिग्रस्त करना, ग्रामीण गरीबों के आंदोलनों को कुचलने के लिए पाशविक दमन ढाना और भूस्वामियों की निजी सेनाएं संगठित करना, राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के आंदोलनों का सेना द्वारा दमन करना तथा बौद्धिक, सौन्दर्यशास्त्रीय व शैक्षणिक क्षेत्रों में तमाम किस्म की असहमति को कुचल देना शामिल है. संक्षेप में, भारत में फासिस्ट अधिनायकवाद थोप देना उनके एजेंडा में है.” इस तानाशाही के आंतरिक आयाम और क्षेत्रीय महाशक्ति बनने की इसकी आकांक्षा ठीक वही चीज है जिसे लोकप्रिय शैली में फासिस्ट तानाशाही कहा जाता है.

यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा बस्तुतः एक भिन्न किस्म की पार्टी है. जहां तमाम अन्य राजनीतिक पार्टियां अपने-आप में स्वतंत्र शक्तियां हैं, वहीं केवल भाजपा ही ऐसी पार्टी है जिसे आरएसएस के गैर संवैधानिक प्राधिकार के तहत महज कुछ राजनीतिक स्वायत्तता हासिल है. राष्ट्रीय एजेंडा जिसका हमने ऊपर जिक्र किया है, बस्तुतः आरएसएस का एजेंडा है और उसका राजनीतिक उपकरण – भाजपा – अनिवार्यतः इसी दिशा में आगे बढ़ेगी. इसके साथ-साथ आरएसएस के पास एक व्यापक नेटवर्क है और उसके अन्य बहुतेरे संगठन हैं, जिनके जरिए वह अपने एजेंडा को आगे बढ़ाएगा.

वाम-लोकतांत्रिक शक्तियों के महागठबंधन की ओर

फासिस्ट तानाशाही की ओर भाजपा की अग्रगति को उसके तथाकथित नरमपंथी नेतृत्व की शुभेच्छाओं या भाजपा के संश्रयकारियों  के तथाकथित नरमकारी प्रभावों पर निर्भरता के जरिए नहीं रोका जा सकता है. संयुक्त मोर्चा को विस्तारित करने के नाम पर तमाम बदनाम ताकतों को इकट्ठा करके या कांग्रेस के पीछे उन्हें गोलबंद करके भगवा खतरे का मुकावला नहीं किया जा सकता है.

हम वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष ताकतों के बीच व्यापकतर समझदारी की जरूरत से इनकार नहीं करते हैं और बनारस कांग्रेस ने खासतौर पर ‘नीतियों में कुछ खास समायोजन’ का आह्वान किया है. नीति समायोजन का अनिवार्य मतलब है विपक्षी सरकारों पर दबाव डालने, उन्हें ब्लैकमेल करने या बर्खास्त करने की भाजपा सरकार की कोशिशों का विरोध करना; तमाम किस्म के सांप्रदायिक हमलों और अलोकतांत्रिक कदमों के खिलाफ विपक्षी ताकतों के साथ हाथ मिलाना; भाजपा की साजिशों को शिकस्त देने के लिए संसद और विधानसभाओं के सदनों में समन्वय स्थापित करना आदि. लेकिन, उदाहरण के लिए, बिहार में राजद के साथ या पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के साथ सीधा-सीधी संश्रय बनाना इस जटिल समस्या का कोई उत्तर नहीं हो सकता है.

कुछ टिप्पणीकारों ने इस बात के लिए वामपंथ को डांट पिलाई है कि वह लालू प्रसाद के खिलाफ भ्रष्टाचार के मुद्दे को हद से अधिक खींचकर क्यों ले गया और बाद में लालू से अलग क्यों हो गया. सामाजिक जनवादी इस सलाह को स्वीकार करने और पुनः लालू की शरण में चले जाने के लिए काफी तत्पर दिख रहे हैं. लेकिन इस सच्चाई को कैसे झुठलाया जा सकता है कि लालू और सरकारी वामपंथ के बीच मधुर-मिलन की अवधि में ही तो बिहार में अन्यथा हाशिए पर खड़ी भाजपा केंद्रस्थल में पहुंच गई? किन्हीं महान सिद्धांतों के चलते नहीं, बल्कि 1996 के संसदीय चुनावों में भाजपा-समता के शक्तिशाली हमलों के सम्मुख लालू की सीटें में गिरावट और वामपंथ पर पड़ी गहरी चोटों के कारण ही सामाजिक जनवादी खेमे को पुनर्विचार के लिए बाध्य होना पड़ा था और तब उन्होंने लालू से अलग होने का निर्णय लिया.

लालू यादव का शासन सर्वव्यापी भ्रष्टाचार और चौतरफा अपराधीकरण का पर्याय बन चुका है. तमाम लोकतांत्रिक परंपराओं को तिलांजलि दे दी गई है और बिहार लंबे आर्थिक गतिरोध में फंस चुका है. वस्तुतः इन स्थितियों ने ही भाजपा-समता गठबंधन के उत्थान के लिए उपजाऊ जमीन तैयार की है, जिसने सामंती और ‘सवर्ण प्रत्याक्रमण’ को गोलबंद करने के साथ-साथ पिछड़ी और अतिपिछड़ी जातियों के भी बड़े हिस्से को अपने पक्ष में मोड़ लिया है. सारतः लालू के कुकृत्यों के खिलाफ वामपंथ के विरोध ने नहीं बल्कि एकीकृत व संगठित ढंग से इस विरोध के अभाव ने ही भाजपा को कई लोकतांत्रिक मुद्दों को भुनाने का मौका दिया है और खुद वामपंथ को हाशिए पर धकेल दिया है.

उसी तरह, वाममोर्चा सरकार का बचाव करना हमारा दायित्व नहीं है, जबकि इसकी प्रबंधन-परस्त नीतियों के चलते खुद मजदूर वर्ग इससे अलग हो रहा है; जब कलकत्ता की सड़कों पर मेहनतकश अवाम को उनकी आजीविका के क्षुद्र साधनों से निर्दयतापूर्वक वंचित कर दिया गया है, ताकि नव धनाढ्यों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुश किया जा सके.

बुर्जुआ विपक्ष की पार्टियों के साथ राजनीतिक संश्रय और चुनावी समझौता किसी क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों की आधारशिला नहीं हो सकते हैं. हमें मुख्यतः जनांदोलनों पर ही निर्भर रहना होगा तथा भारत की लोकतांत्रिक राजनीति की धारा में अपनी जगह तलाशनी होगी तथा उसे और व्यापक बनाना होगा.

भाजपा का राष्ट्रीय एजेंडा विशेषकर छात्रों-नौजवानों को अपना लक्ष्य बना रहा है. वह शैक्षणिक पाठ्यक्रम में बड़ा बदलाव लाकर उनके मानस पटल को साम्प्रदायिक बनाना चाहता है. बेरोजगारी के मुद्दे का इस्तेमाल कर भाजपा तथाकथित ‘राष्ट्रीय पुनर्निर्माण कोर’ का गठन करना चाहती है जो दरअसल आरएसएस की शाखाओं का ही सरकारी संस्करण होगा. इसीलिए हमारी पार्टी को सांप्रदायीकरण के खिलाफ छात्रों और नौजवानों को गोलबंद करने तथा रोजगार देने के लंबे-चौड़े वादों पर सरकार को कटघरे में खड़ा करने पर सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी.  

महिलाओं के लिए आरक्षण के मुद्दे पर भाजपा के पांव निश्चित रूप से कांपेंगे और महिलाओं के संदर्भ में वह तमाम किस्म के पुरातनपंथी एजेंडों का अनुसरण करेगी. भगवा शासन के खिलाफ महिलाओं को गोलबंद करना पार्टी के सामने दूसरा प्रमुख फौरी एजेंडा है.

हर विशिष्ट मोर्चे पर भाजपा से दो-दो हाथ करने के लिए तमाम जनसंगठनों को गतिशील बनाना होगा ताकि वे स्वतंत्र ढंग से और तमाम वामपंथी व प्रगतिशील संगठनों के साथ मिलकर संयुक्त रूप से पहलकदमी ले सकें.

भाजपा सरकार के हर नीति संबंधी वक्तव्य का और उसकी हर कमी-खामी का भंडाफोड़ करने के लिए पार्टी की प्रचार मशीनरी को भी चुस्त-दुरुस्त करना होगा. भाजपा सरकार द्वारा लोकतांत्रिक अधिकारों व बोलने की आजादी पर होने वाले हर हमले को और यहां तक कि संसदीय लोकतंत्र की संस्थाओं का अवमूल्यन करने के हर प्रयास को चुनौती देनी होगी और उसका प्रतिवाद करना होगा. और अंततः भाजपा की सरकार बनने से चुंकि हर जगह सामंती ताकतों का हौसला बुलंद हुआ है, इसलिए खेत मजदूरों और गरीब किसानों पर हमले तथा दलित समुदाय पर अत्याचार और भी तीव्र होंगे. ऐसे तमाम हमलों को नाकाम कर देने के लिए पार्टी को अपनी लड़ाकू तैयारी मजबूत बना लेनी होगी.

संक्षेप में, देश में फासिस्ट तानाशाही लादने के प्रयासों को रोकने के लिए तमाम वामपंथी व प्रगतिशील ताकतों के सामने यही राष्ट्रीय एजेंडा है. और जनसमुदाय की चेतना विकसित करने तथा जन आंदोलनों को बढ़ाने की इसी प्रक्रिया में हमलोग वामपंथी व लोकतांत्रिक ताकतों के महासंघ की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं – और यही जनता के जनवादी मोर्चा के निर्माण के लक्ष्य की ओर जानेवाला सच्चा संक्रमणशील कदम होगा.

(लिबरेशन, जनवरी 1998 से)

संयुक्त मोर्चा-कांग्रेस सहयोग की पहली मंजिल अचानक खत्म हो गई – उम्मीद से भी पहले. राष्ट्रपति द्वारा दिमाग ठंढा कर लेने का मौका दिए जाने के बावजूद संयुक्त मोर्चा और कांग्रेस न तो बिगड़ी बना सके और न ही कोई अन्य व्यावहारिक शासन-समझौता हो सका. नतीजे के तौर पर दो सालों के भीतर ही राष्ट्र को दूसरे आम चुनाव का सामना करना पड़ रहा है.

संयुक्त मोर्चे का भूरि-भूरि अभिनन्दन कि उसने कांग्रेस भयादोहन के सामने घुटने टेकना दृढ़ता के साथ नामंजूर कर दिया. मगर दुर्भाग्यवश शायद यह उसकी अंतिम एकताबद्ध कार्यवाही हो. मोर्चे के कुछ हिस्से तो पहले ही कांग्रेस का बगलगीर होना चाहते थे. अब चुनाव सिर पर आते ही वे कांग्रेस के साथ खुल्लामखुल्ला या अघोषित संश्रय कायम करने की सोच रहे हैं. बहाना है – कुछ राज्यों की विशेष परिस्थितियां. ऐसी ही सोच के चलते उड़ीसा में जद के मुख्य हिस्से ने भाजपा को गले से लगा लिया है. यहां तक कि संयुक्त मोर्चा के प्रधानमंत्री श्री गुजराल भी, जो राजद के मंत्रियों को मंत्रिमंडल से बाहर निकालने के संयुक्त मोर्चा के हुक्म की तामील करने से मुकर गए थे, लोकसभा में घुसने के लिए अकाली दल का आशीर्वाद चाह रहे हैं. इसके अतिरिक्त ऐन चुनाव के समय पर रिहा हो गए लालू आमतौर पर संयुक्त मोर्चा के लिए और खासतौर पर जनता दल के लिए एक बड़ा सिरदर्द साबित हो रहे हैं.

एक साझा कार्यक्रम और एक साझी अपील के बावजूद संयुक्त मोर्चा एक विभाजित शक्ति नजर आ रहा है जिसके पास न कोई नेतृत्व है और न ही कोई दिशा. लिहाजा इस संसदीय चुनाव समर में एक संश्लिष्ट राजनीतिक इकाई के बतौर जनभावनाओं का इस्तेमाल कर पाना इसके लिए दुष्कर ही है.

कांग्रेस ने यद्यपि जैन आयोग की रिपोर्ट के मुद्दे पर समर्थन वापस लिया, मगर इस रपट की अहमियत कांग्रेस के वंशवादी राज को सामने लाने और इसी के गिर्द उसे एकताबद्ध करने से अधिक कुछ भी नहीं है और इस तरह यह संयुक्त मोर्चा से कांग्रेस के दूर हटने का कारण बन गया.

जैसा कि हमारी छठी पार्टी कांग्रेस ने गौर किया है, “गठजोड़ की ऐसी व्यवस्था जिसमें दोनों राष्ट्रीय पार्टियां, भाजपा और कांग्रेस, जो कुल मिलाकर संसद की दो तिहाई सीटों पर काबिज हों, सत्ता से बाहर रहें – नियम नहीं बल्कि अपवाद ही हो सकती है. देर-सबेर दोनों में से एक अपने पीछे सरकार चलाने लायक समर्थन जुटा ही लेगी.”

संयुक्त मोर्चा और कांग्रेस द्वारा सत्ता और विपक्ष दोनों ही जगह साझेदारी करने के वीपी सिंह के सूत्र पर टिप्पणी करते हुए रिपोर्ट कहती है, “इस तर्क में बुनियादी भ्रांति यह है कि यह लगातार चल रहे परस्पर संघातों को, और परिणामतः भाजपा-विरोधी व्यापक वर्णक्रम का निर्माण करनेवाली विभिन्न पार्टियों की आपेक्षिक शक्तियों में होनेवाले परिवर्तनों को पूरी तरह दरकिनार कर देता है. यह तर्क इस पूर्वानुमान पर आधारित है कि कांग्रेस केंद्रीय शासन में स्थायी तौर पर गौण भूमिका निभाती रहेगी. कांग्रेस, जो अब भी एक प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी है, अपनी वर्तमान स्थिति से कत्तई संतुष्ट नहीं हो सकती है. भाजपा और सीपीएम दोनों का विरोध करने के अपने एजेंडे को सुस्पष्ट रूप से जाहिर कर देने के जरिए, वह संयुक्त मोर्चे की खाट खड़ी करने के लिए मध्यमार्गी खेमे पर अपना जोर लगाए हुए है.”

रपट में टिप्पणी की गई है, “वर्तमान में संयुक्त मोर्चा सरकार किसी योजना के बजाए उसके अभाव द्वारा संचालित हो रही है और कांग्रेस खुद सिंहासन पर चढ़ने के लिए अगले मौके का इंतजार कर रही है.”

यह कांग्रेसी कार्यनीति ऊपर से 1979 में चरण सिंह सरकार के खिलाफ और 1990 में चंद्रशेखर सरकार के खिलाफ अपनाई गई कार्यनीति जैसी ही है. मगर यह बिलकुल भिन्न नतीजे तक ले जा सकती है. यह कांग्रेस के पतन की मंजिल है और कांग्रेस का लक्ष्य हद-से-हद मध्यपंथी खेमे के साथ गठजोड़ कायम करना हो सकता है जिसमें उसकी नेतृत्वकारी भूमिका है. इस लक्ष्य को पाने के लिए कांग्रेस कार्यनीतिक खेलों का सहारा लेगी.

जैसा कि पार्टी कांग्रेस की रिपोर्ट में वर्णन किया गया है, “कांग्रेस आस लगाए बैठी है कि अगले चुनाव में बहुमत पाने के लिए वह संयुक्त मोर्चा में उभरने वाले अंतरविरोधों का इस्तेमाल करके मध्यपंथी और आंचलिक शक्तियों के भीतर से अपने संश्रयकारी जुटा सकेगी. अब भी उसके पास ऐसे दांव-पेंच खेलने की पर्याप्त क्षमता मौजूद है कि वह वामपंथी, मध्यपंथी तथा आंचलिक संगठनों को मिलाकर बने तथाकथित तीसरे खेमे में भ्रम और विभाजन पैदा करके कांग्रेस के नेतृत्ववाले संश्रय के बतौर सत्ता पर फिर से काबिज हो सके.” कांग्रेस के बारे में रपट में साफ-साफ शब्दों में कहा गया है, “उसने राष्ट्रीय जनता दल से अच्छा रिश्ता बना ही लिया है, वह मुलायम से समीकरण बैठा रही है और तमिल मनिला कांग्रेस और द्रमुक की रास्ते पर लाने के लिए पूरी मेहनत से काम कर रही है. संयुक्त मोर्चा को कांग्रेस की आलोचना धीमी करने पर मजबूर करने के बाद, अब वह धर्मनिरपेक्षता और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर अपनी छवि सुधरने, अपने से दूर हुए मुस्लिमों को जीत लेने और अगले चुनाव तक एक भाजपा-विरोधी गठजोड़ के शीर्ष नेतृत्व पर पहुंच जाने की उम्मीद रखती है.”

संयुक्त मोर्चा को भाजपा और कांग्रेस दोनों के व्यावहारिक विकल्प के बतौर एक आदर्श गठजोड़ के बतौर, धर्मनिरपेक्ष तथा संघीय मोर्चे के बतौर तथा जनता के जनवादी मोर्चे के पूर्ववर्ती आदि के बतौर भी व्याख्यायित करने की समूची कसरत सुस्पष्टतः ऊटपटांग थी. अजीब विरोधाभास है कि 1996 के चुनाव में कांग्रेस का विकल्प कांग्रेस-संयुक्त मोर्चा गठबंधन के बतौर उभरा, क्योंकि इस बीच भाजपा सत्ता की कुर्सी तक ईंच-दर-ईंच खिसकती-खिसकती सबसे बड़ी पार्टी के बतौर उभर गई. यह राजनीतिक तर्क अभी भी सच है. मध्यावधि चुनाव संयुक्त मोर्चा-कांग्रेस संबंधों को नया आकार देने में बड़ा भेदभावनाशी सिद्ध होगा. इस प्रक्रिया में निस्संदेह दोनों ही भारी आंतरिक उलट-पुलट के शिकार होंगे जो पार्टी छोड़ देने, उसके टूट जाने और नए सामाजिक समीकरणों के निर्माण का रूप लेंगे. मगर यह संयुक्त मोर्चा और कांग्रेस के बीच गठजोड़ के आधार को और पुख्ता ही करेगा.

मौजूदा उथल-पुथल से सबसे ज्यादा फायदा बटोरनेवाली पार्टी सचमुत भाजपा है. अपने ऊपर चिपके ‘अछूत’ के धब्बे को मिटाने में यह कामयाब रही है और इसने नए-नए दोस्त और संश्रयकारी बनाए हैं. बहरहाल, इस दौरान ‘मूल्य आधारित राजनीति’ के लंबे-चौड़े दावों को फूंक मारकर उड़ा दिया गया है. कांग्रेस की विरासत हड़पने की कोशिश में यह अपराधियों और भ्रष्ट शिरोमणियों को आश्रय देने की कुख्यात कांग्रेसी संस्कृति को भी अपना रही है.

अब यह कारपोरेट जगत की पहली पसंद बन चुकी है तथा जैसा कि हमारी पार्टी की छठी कांग्रेस की रपट में कहा गया है, “भारतीय शासक वर्ग-व्यवस्था, अगर पहले संभव न हो तो अगले चुनाव में भाजपा की ताजपोशी के लिए तैयार खड़ी है.”

भाजपा जानती है कि यह उसके लिए बेहतरीन मौका है. लिहाजा, दिल्ली पर कब्जा करने के लिए भयंकर वेग से वह दौड़ रही है. उसका मोटो है, ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’. दुविधाजनक राजनीतिक परिदृश्य और स्थिरता की तीव्र ललक के साथ-साथ भाजपा द्वारा उत्तरप्रदेश के दुर्ग पर कब्जा कर लेना और रणवीर सेना जैसे अपराधी गिरोहों का पालन करने के जरिए बिहार में बरतरी हासिल कर लेना-इन सबने केसरिया खतरे को एकदम वास्तविक खतरा बना दिया है. वामपंथी और प्रगतिशील शक्तियां अपने लिए  भारी खतरे के दावत देकर ही इसकी उपेक्षा कर सकती हैं.

हमारी पार्टी की वाराणसी कांग्रेस की रपट में बताया गया है, “हम केसरिया शक्ति द्वारा भारत पर कब्जे के खतरे को यकीनन स्वीकार करते हैं. संयुक्त मोर्चे का सर्वनाश ऐसे किसी परिणाम के लिए उत्प्रेरक सिद्ध हो सकता है. यद्यपि भाजपा की भी अपनी समस्याएं हैं, जैसे उनके अंदरूनी झगड़े और देश के कई हिस्सों में उसकी सीमित पहुंच, मगर यह खतरा सचमुच वास्तविक खतरा है और हमें इसे कत्तई घटाकर नहीं देखना चाहिए. अगर ऐसा होता है तो फिर उस समय जो ठोस परिस्थिति हमारे सामने आएगी, उसके अनुसार नीति में कुछेक खास समायोजन करने पड़ सकते हैं.”

1995 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान समता पार्टी के साथ तात्कालिक संश्रय के प्रयत्न पर विचार करते हुए पार्टी कांग्रेस की रिपोर्ट में कहा गया है, “व्यावहारिक राजनीति में, अपने दुश्मनों को कमजोर करने वाले कार्यनीतिक संश्रय अक्सर बेहद अस्थायी हो सकते हैं. अगर यह सच्चाई हमारी नजरों से ओझल हो जाए, तो राजनीतिक दांव-पेंच खेलने की पार्टी की क्षमता और बदलती राजनीतिक परिस्थिति के दौरान कार्यनीति में लचीलापन काफी हद तक कमजोर हो जाएगा.”

इस तरह हम मौजूदा चुनाव में आमतौर पर वामपंथ की और खासतौर पर, हमारी पार्टी की कार्यनीति के सबसे अहम सवाल पर आ पहुंचते हैं.

पहले तो, तथाकथित स्थिरता का नारा एक फरेब है और केवल यथास्थितिवादी शक्तियों के लिए दिया गया है. इंदिरा गांधी की स्थिरता केवल अतिशय केंद्रीकरण और आपातकाल की ओर ले गई. नरसिम्हा राव की स्थिरता भारत के लिए आज तक का सबसे भ्रष्ट शासन साबित हुआ, और भाजपा की स्थिरता केवल राम मंदिर की ओर ले जाएगी और इस तरह भारतीय समाज के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को छिन्न-विच्छिन्न कर देगी और रणवीर सेना सरीखे अपराधी गिरोहों को नैतिक प्रोत्साहन प्रदान करेगी. भारत में वामपंथी आंदोलन की प्रगति के लिए सर्वाधिक अनुकूल है संयुक्त मोर्चा-कांग्रेस जैसे गठजोड़ पर आधारित एक ढीली-ढाली और अस्थिर किस्म की सरकार. यहां संयुक्त मोर्चे को व्यापक अर्थों में लेना चाहिए जिसमें लालू यादव द्वारा अपने तथाकथित धर्मनिरपेक्ष मोर्चे में सटा ली गई शक्तियों समेत हर किस्म की मध्यपंथी शक्तियां शामिल हैं.

बहरहाल, सरकारी वामपंथ का नेतृत्ब भिन्न ढंग से सोचता है. एबी बर्द्धन बार-बार जोर दे रहे हैं कि ज्योति बसु बेहतर प्रधानमंत्री साबित होते और उनके प्रधानमंत्रित्व में संयुक्त मोर्चा-कांग्रेस गठजोड़ नहीं टूटा होता. अगले ही दिन, भगवान ही जाने, भला क्यों दबाव की कार्यनीति अपनाने के लिए कांग्रेस को आड़े हाथों लेते हुए अपनी पीठ आप ठोंकी कि वामपंथ ने बहुतेरे मुद्दों पर गंभीर मदभेदों के बावजूद किसी भी मुद्दे पर सरकार पर कोई दबाव नहीं डाला. कितनी बेशर्मी भरी दावेदारी है! चाहे चिदंबरम का ‘सपनीला बजट’ हो, खेत मजदूरों संबंधी और महिलाओं के 33 प्रतिशत आरक्षण संबंधी विधेयकों पर पालथी मारकर बैठ जाना हो, वामपंथ ने किसी सवाल पर सरकार पर दबाव डालना जरूरी नहीं समझा. सीपीएम नेतृत्व जनता की जनवादी जनगोलबंदी के मुद्दे हाथों में लेने की बजाय पूरी तरह ‘संख्या के खेल’ और ‘कांग्रेस के मान-मनौव्वल’, यानी शिखर पर राजनीतिक दावं-पेंच आजमाने में व्यस्त रहा. निश्चय ही, सामाजिक जनवादियों को भाजपा के लिए बेरोकटोक खुली जगह प्रदान कर दिए जाने में उनके द्वारा निभाई गई भूमिका का जवाब देना होगा. मौजूदा संगीन राजनीतिक मोड़ पर, जबकि हर राजनीतिक कार्यवाही अहम है, बिहार विधान परिषद् चुनाव में 17 दलों के मोर्चे के निर्णय को बिलकुल ठुकराते हुए राबड़ी देवी के खिलाफ साझा उम्मीदवार देने और भाजपा के साथ मतदान करने में भी वे नहीं हिचकिचाए.

माकपा नेतृत्व किसी भावी सरकार में भागीदारी के लिए पार्टी को तैयार कर रहा है तथा ज्योति बसु एक बार फिर बोरिया-बिस्तर समेत दिल्ली जाने के लिए तैयार हैं. लिहाजा, वामपंथ की कार्यनीति के विषय पर बहस अवश्य तेज कर देनी चाहिए. हमें उम्मीद है कि हमें माकपा नेतृत्व के एक हिस्से का समर्थन मिलेगा.

आनेवाले चुनाव में हमें अपनी तमाम ताकत झोंक देनी होगी और जनसमुदाय के व्यापक हिस्सों तक पहुंच सकें, ऐसा व्यापक स्वतंत्र अखिल भारतीय अभियान चलाना होगा. हम अपने आंदोलन के उन तमाम प्रमुख क्षेत्रों से अवश्य लड़ेंगे, जो हमारी पार्टी-पहचान के प्रतीक हैं. फिर, हमें बिहार और असम जैसे राज्यों में अपने मोर्चा के साझीदारों के साथ, जहां तक व्यवहारसंगत हो सकेगा, एक राजनीतिक समझ पर पहुंचने और सीटों का तालमेल करने का प्रयत्न करना चाहिए. और अंततः अधिकांश मतदान क्षेत्रों में जहां न हम और न हमारे मोर्चे के साझीदार लड़ रहे हैं, अथवा जहां मोर्चे के कुछ साझीदारों ने भाजपा से गुपचुप संश्रय कायम कर लिया है, वहां हम भाजपा के खिलाफ और कांग्रेस को छेड़कर अन्य राजनीतिक शक्तियों का समर्थन करेंगे. और जहां कांग्रेसी उम्मीदवार ही भाजपा के खिलाफ एकमात्र व्यावहारिक उम्मीदवार होगा, वहां बेहतर है कि हम मतदान ही न करें.
धर्मनिरपेक्षता, जनवाद और पारदर्शिता के लिए!

पूंजीवादी सरकार में भागीदारी के खिलाफ, वाम विपक्ष के लिए!!
केसरिया खतरे के खिलाफ हर कोई, हर कोई चुनावी मोर्चे पर !!!

(छठी पार्टी कांग्रेस की रिपोर्ट से)

1996 के संसदीय चुनावों में, भारतीय शासक वर्गों की मुख्य राजनीतिक पार्टी कांग्रेस(इ) हारकर सत्ता से बाहर हो गई. संसद में उसकी सीटों की संख्या रिकार्ड हद तक गिर गई, और उसके बाद ही प्रधानमंत्री समेत उसके अधिकांश मंत्रीगण एक-के-बाद-एक घोटालों में चार्जशीट पाने लगे. जिस सरकार ने उदारीकरण की नई आर्थिक नीति लागू की थी, वह भ्रष्टाचार के मामले में ही सबसे उदार साबित हुई, और तब भांडा फूटा कि वह कांग्रेस(इ) सरकार भारत में अब तक सत्तारूढ़ हुई केंद्रीय सरकारों में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचारी सरकार थी.

स्वभावतः आज कांग्रेस पूरे तौर पर साख खो बैठी है. खासकर भारत के दो सर्वाधिक आबादी वाले हिंदी-भाषी राज्यों, उत्तरप्रदेश व बिहार में हाशिए पर चले जाने के कारण, फौरी तौर पर उसके पुनरुज्जीवन की संभावना गंभीर सवालिया निशानों के घेरे में आ गई है. फिर उसके अंदर कभी न खत्म होने वाले गुटीय संघर्ष बदस्तूर जारी है और महत्वपूर्ण धड़ों के विभाजन का खतरा भी मौजूद है. नेतृत्व में बदलाव लाने और नेहरू खानदान की अपील के जरिए वह अपनी छवि सुधारने की कोशिश कर रही है. मगर अब तक जनता के बीच उसे लोकप्रियता हासिल होने के कोई लक्षण नहीं दिखाई पड़ते.

यद्यपि राजनीतिक प्रभाव और संगठनात्मक नेटवर्क के लिहाज से वही एकमात्र पार्टी है, जो अखिल-भारतीय रूप से मौजूद है, पर वह खुद अपने बल पर केंद्रीय सत्ता हासिल करने के कहीं नजदीक भी नहीं लगती.

इस मायने में, परिस्थिति 1977 से अथवा यहां तक कि 1989 से बिलकुल भिन्न है. इसीलिए संयुक्त मोर्चा सरकार को उसका समर्थन लंबी अवधि वाला, रणनीतिक चरित्र का समर्थन है. कांग्रेस आस लगाए बैठे है कि अगले चुनाव में बहुमत पाने के लिए वह संयुक्त मोर्चे में उभरते वाले अंतरविरोधों का इस्तेमाल करके मध्यपंथी और आंचलिक शक्तियों के खेमें से संश्रयकारी जुटा सकेगी. अब भी उसके पास ऐसे दांव-पेंच खेलने की पर्याप्त क्षमता मौजूद है कि वह वामपंथी, मध्यपंथी तथा आंचलिक संगठनों को मिलाकर बने तथाकथित तीसरे खेमे में भ्रम और विभाजन पैदा करके कांग्रेस के नेतृत्व वाले संश्रय के बतौर सत्ता पर फिर से काबिज हो सके.

भाजपा का खतरा

भाजपा ने पिछले चुनाव में काफी महत्वपूर्ण उपलब्धियां हालिस की. फिर भी वह बहुमत से दूर रह गई. सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद वह बहुमत नहीं जुटा पाई. लेकिन उसे शिव सेना के अलावा बसपा, समता, अकाली और हरियाणा विकास पार्टी जैसे संश्रयकारी जुटाने में सफलता जरूर मिली है. संतुलन को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए वह कुछेक आंचलिक शक्तियों को जीतने की जी-तोड़ कोशिश कर रही है, और अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय जनवादी मोर्चे का विचार भी पेश किया है. कहीं-न-कहीं उन्होंने यह जरूर महसूस कर लिया है कि वे अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गए हैं, फिर भी उत्तर व पश्चिम भारत से ज्यादा दूर तक विस्तार करने में सफल नहीं हुए हैं. फिर उनके पास अपने बघेला और खुराना भी हैं.

अपनी साख और ग्रहणयोग्यता बढ़ाने के लिए, जो बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद गोता खा गई थी, भाजपा ने दुतरफा रणनीति अपनाई है. पहले तो वह स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत को हड़प लेने की जी-जान से कोशिश कर रही है. इसके जरिए वह खुद को कांग्रेस की गांधी-पटेल परंपरा की एकमात्र वारिस के बतौर पेश कर रही है. उसे उम्मीद है कि इस तरह कांग्रेस के आधार में धावा मारने में ज्यादा आसानी होगी. दूसरे, वह अपनी बनिया-सवर्ण छवि को पोंछ डालने का प्रयास चला रही है. वह उत्तर भारत में दलितों, पिछड़ों व अन्य सामाजिक समुदायों के बीच घुसपैठ करने की जी-तोड़ कोशिश कर ही है. जो पहले चरण सिंह का आधार होते थे. इसके लिए वह समता व बसपा जैसी पार्टियों से रणनीतिक साझीदारी की पैरवी कर रही है. खुद अपने अंदर वह अन्य समुदायों से राज्य-स्तरीय नेतृत्व को सामने ला रही है.

स्वदेशी नारा देकर वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों से भारतीय उद्योगपतियों के पक्ष में बेहतर मोलतोल करने का वादा कर रही है और लगातार शुचिता और भय-मुक्त समाज का राग छेड़कर उसने अपनी साख को बुद्धिजीवियों और शहरी मध्यवर्गों के हिस्सों में काफी हद तक सुधार लिया है. लेकिन ठीक जैसे पहले एनरॉन के मुद्दे पर पल्टी खाने के चलते केसरिया स्वदेशी की चमक फीकी पड़ गई थी, वैसे ही उत्तर प्रदेश के मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम के दौरान, जिसमें कल्याण सिंह ने सर्वाधिक निर्लज्जता से विधायकों की, जिनमें अपराधियों की पूरी कतार शामिल है, खरीदारी का सहारा लिया, भाजपा के एक भिन्न किस्म की पार्टी होने के दावे की पोल खोल दी है. वास्तव में कल्याण सिंह का दूसरी बार उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ होना पहले ही दिन से आंख खोल देने वाला महत्वपूर्ण अनुभव साबित हो रहा है. मुख्यमंत्री की गद्दी संभालते ही उन्होंने समय जाया किए बिना अयोध्या के मुद्दे को उछालना शुरू कर दिया, यद्यपि वे खुद अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले में मुख्य अभियुक्त बने खड़े हैं. जब कल्याण सिंह को पदभार की शपथ दिलाई जा रही थी, तब उत्तर प्रदेश में हमारे कामरेडों ने विधान सभा के सामने सुप्रचारित धरना आयोजित करके समयोचित ढंग से प्रतिवाद की आवाज उठाई थी.

संक्षेप में, भारतीय राज्य-व्यबस्था का दक्षिणपंथ की ओर झुकाव, जो 80 के दशक के अंतिम वर्षों में मौजूद आर्थिक संकट व राजनीतिक उथल-पुथल का परिणाम था, भाजपा में अपनी केंद्रित अभिव्यक्ति पा चुका है. और यह हकीकत है कि पहली बार भारत के आकाश पर केसरिया खतरे के बादल छा गए हैं. इसके पूर्वसंकेत शायद सबसे बेहतर ढंग से उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के दुबारा मुख्यमंत्री बनने की घटना में देखे जा सकते हैं.

भाजपा के एजेंडा में भारत के पड़ोसियों, खासकर पाकिस्तान के खिलाफ उग्र-राष्ट्रवादी नीति अपनाना, नाभिकीय अस्त्रों की दौड़ में गर्मी लाना, भारत को ऐसा हिंदू राष्ट्र बनाना जहां अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाएगा, संघीय राज्य-व्यवस्था को क्षतिग्रस्त करना, ग्रामीण गरीवों के आंदोलनों को कुचलने के लिए पाशविक राज्य दमन ढाना और भूस्वामियों की निजी सेनाएं संगठित करना, राष्ट्रीय आत्म निर्णय के आंदोलनों का सेना द्वारा दमन करना तथा बौद्धिक, सौंदर्यशास्त्रीय व शैक्षणिक क्षेत्रों में तमाम किस्म की असहमति को कुचल देना शामिल है. संक्षेप में, भारत में फासिस्ट अधिनायकत्व थोप देना उनके एजेंडा में है.

यह कत्तई नहीं भूलना चाहिए कि देश में व्याप्त अराजकता, संसदीय जनवाद की संस्थाओं की साख का खत्म होना, कांग्रेस का सर्वांगीण रूप से पतन, तथाकथित सामाजिक न्याय के खेमे का विघटन, वामपंथ के विचारधारात्मक मानदंडों का स्खलन और वर्तमान संयुक्त मोर्चा ढांचे की व्यर्थताएं -- इन तमाम चीजों ने भाजपा के लिए मनचाही जगह मुहैया कर दी है. यथार्थ में भारतीय शासक वर्ग-व्यवस्था, अगर पहले न संभव हो तो अगले चुनाव में, भाजपा की ताजपोशी के लिए तैयार खड़ी है.

संयुक्त मोर्चा परिघटना  

राजनीतिक गतिरोध की स्थिति में 13 पार्टियों का संयुक्त मोर्चा बना, और कांग्रेसी समर्थन के बल पर वह शासन में आया. उसे सत्तारूढ़ हुए डेढ़ साल ही रहे हैं. यद्यपि सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी ने श्री ज्योति बसु के लिये प्रधानमंत्रित्व के आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया, पर संयुक्त मोर्चा सरकार के पहले दौर में हरकिशन सिंह सुरजीत पद से परे प्रधानमंत्री की जिम्मेवारी ओढ़े रहे. फिर कांग्रेस ने नये अध्यक्ष के निर्देशन में अपने आपको सुदृढ़ किया और एक शानदार तख्तपलट के जरिए संयुक्त मोर्चा को प्रधानमंत्री बदलने पर मजबूर कर दिया, और पहलकदमी अपने हाथ में ले ली. रातोंरात कांग्रेस के प्रति संयुक्त मोर्चे के नेताओं की जुबान ही बदल गई. वर्तमान में संयुक्त मोर्चा सरकार किसी योजना के बजाय उसके अभाव द्वारा संचालित हो रही है, और कांग्रेस खुद सिंहासन पर बैठने के लिए अपने अगले मौके का इंतजार कर रही है.

संयुक्त मोर्चे की परिघटना को कई तरह से परिभाषित किया गया है. आइये हम उनकी वैधता की जांच करें.

पहले, यह कहा जा रहा है कि संयुक्त मोर्चा भारतीय राजनीति में गठजोड़ के युग के आगमन का संकेत है. निश्चय ही, भारत की बहुआयामी विविधता अपने आपको पूर्णरूपेण प्रदर्शित कर रही है, तो इससे किसी एक पार्टी द्वारा अपने बलबूते पर बहुमत पाना मुश्किल हो सकता है, और इस मायने में गठजोड़ का युग अब आ ही गया प्रतीत होता है. लेकिन गठजोड़ की ऐसी व्यवस्था, जिसमें दोनों राष्ट्रीय पार्टियां, कांग्रेस और भाजपा, जो कुल मिलाकर संसद की करीब दो-तिहाई सीटों पर काबिज हों, सत्ता से बाहर रहें, नियम नहीं बल्कि अपवाद ही हो सकती है. देर-सबेर दोनों में से एक अपने पिछे सरकार चलाने लायक पर्याप्त समर्थन जुटा ही लेगी.

दूसरे, संयुक्त मोर्चे को राज्य व्यवस्था में अधिकाधिक संघीकरण के आगमन का सूचक बताया जा रहा है, जिससे आंचलिक पार्टियों को केन्द्र सरकार चलाने में ज्यादा प्रभावकारी स्थिति हासिल है. भारतीय राज्य व्यवस्था में आंचलिक पार्टियों की भूमिका, खासकर नई आर्थिक नीतियों के आगमन के बाद, जरूर बढ़ी है. केन्द्रीय नियंत्रणों में ढील देने के जरिये इस नीति ने राज्यों को सीधा-सीधी निजी निवेश को निमंत्रण देने की काफी ज्यादा आजादी दे दी है. राज्यों के मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्यों के लिये विदेशी पूंजी को लुभाने के उद्देश्य से पश्चिम की ओर यात्रा की लाइन लगाये हुए हैं. वे निवेशकों को करों में छूट देने के वास्ते आपस में प्रतियोगिता कर रहे हैं.

नवीं योजना (1997-2002) में, सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश घटाकर पहले का महज 36 प्रतिशत रखा गया है और माना गया है कि उसका मुख्य भाग निजी कारपोरेट क्षेत्र से आयेगा. निजी क्षेत्र द्वारा निवेश का कोटा अगर हकीकतन पूरा भी हो जाये, तो उस निवेश के लाभजनक हिस्सों व क्षेत्रों में लगने की संभवना ही ज्यादा है. इससे राज्यों के बीच असंतुलन अनिवार्यतः और तीखा होगा.

ताकतवर आंचलिक शक्तियां अपन-अपने राज्यों में उप-राष्ट्रीय समुदायों द्वारा राज्य का दर्जा अथवा स्वायत्त शासन हासिल करने के लिये उटई गई मांगों को मानने के लिये बिल्कुल ही तैयार नहीं हैं. अधिकांश मामलों में आंचलिक शक्ति-समूह भूस्वामी-कुलक समुदायों पर निर्णायक रूप से निर्भर हैं और इसीलिये वे भूमि सुधार लागू करने में कोई रुचि नहीं दिखलाते.

इसीलिये भारतीय संदर्भ में संघवाद निरपेक्ष मायनों में जनवादी सुधार करने के मामले में उतना प्रभावशाली नहीं है. इसके अलावा, शक्तिशाली और दुर्बल राज्यों के लिये संघवाद का परिप्रेक्ष भी अलग-अलग है. यदि पंजाब में अलग खालिस्तान की मांग उभरी, अथवा यदि अकाली ही मांग करते हैं कि मुद्रा, विदेश विभाग, रक्षा और संचार के चार विभागों को छोड़कर अन्य तमाम शक्तियां राज्यों के हाथों सौंप दी जायं, तो यह समृद्धि के बल पर देश से अलग होने की ही घटना होगी. वहीं, असम के मामले में दिल्ली के शासकों द्वारा दिखाई गई उपेक्षा के फलस्वरूप ऐसी मांगें उभरती हैं.

तीसरे, संयुक्त मोर्चा को भाजपा-विरोधी, गैर-कंग्रेस मोर्चे के बतौर, मजदूरों-किसानों तथा प्रगतिशील/अग्रगामी पूंजीपति वर्ग के संयुक्त मोर्चे के बतौर पेश किया जाता है, जो सर्वहारा प्रभूत्व के विकास की प्रक्रिया में, समय होने पर जनता के जनवादी मोर्चे में रूपांतरित हो जायेगा. इसको वामपंथी एवं गांधीवादी परम्पराओं के सर्वोत्तम तत्वों की एकता के बतौर भी चिन्हित किया जाता है. ये विचार और किसी के द्वारा नहीं, खुद कामरेड नम्बूदिरीपाद  द्वारा सीपीआई(एम) के आधिकारिक मुखपत्र में पेश किये गये थे. ये विचार संयुक्त मोर्चे के शुरूआती दौर में आये थे, जब सीपीआई(एम) नेतृत्व बड़ी महेनत-मशक्कत से यह मिथक फैला रहाथा कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम में राव सरकार की नई आर्थिक नीति को ठुकरा दिया गया है, और कांग्रेस ने अपना समर्थन बिलाशर्त, मजबूरी में दिया है.

तब से यमुना में काफी पानी बह चुका है. कांग्रेस ने पहलकदमी छीन ली है और अब वह संयुक्त मोर्चा सरकार पर पहले से कहीं ज्यादा असर रखती है. दूसरी ओर, सीपीआई(एम) खुद को हाशिये पर फेंका गया महसूस कर रही है और अपने बयानों में ज्यादा आलोचनात्मक हो गई है. विडम्बना यह है कि अब यह सीपीआई(एम) की मजबूरी हो गई है कि वह संयुक्त मोर्चा में बनी रहे.

यह तो मालूम नहीं कि सीपीआई(एम) नेतृत्व किस तरह अपने पिछले सूत्रीकरण की सत्यता को परखता है, मगर जो भी कहा जाये, संयुक्त मोर्चे को जनता के जनवादी मोर्चे में रूपांतरित करने की उसकी उम्मीद चकनाचूर हो गई है और अब वह महज राजनीतिक अनिवार्यता का सवाल रह गया है.

जोड़-तोड़ और पक्ष-परिवर्तन

भारतीय राजनीति के सबसे दूरन्देश पूंजीपति दृष्टा वीपी सिंह ने दो महत्वपूर्ण प्रेक्षण किये हैं. पहला, तमाम प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के बीच नई आर्थिक नीति पर एक राष्ट्रीय सहमति बन गई है; और दूसरा, संयुक्त मोर्चा और कांग्रेस के बीच सहयोग के एक नये दौर की शुरूआत हो चुकी है. वे एकदम सही कह रहे हैं.  

व्यावहारिक राजनीति के दायरे में इस प्रस्थापना को लाने के लिये वे एक नुस्खा पेश करते हैं, जिसमें विभिन्न राज्यों में संयुक्त मोर्चे के साझीदारों, कांग्रेस तथा व्यापक रूप से सामाजिक न्याय के खेमे में मौजूद अन्य शक्तियों के बीच, शासक एवं विरोधी, दोनों पक्षों की साझीदारी रहेगी.  

इस तर्क में बुनियादी भ्रांति है कि यह लगातार चल रहे परस्पर-संघातों को, और परिणामतः भाजपा-विरोधी व्यापक वर्णक्रम का निर्माण करने वाली विभिन्न पार्टियों की शक्तियों में होने वाले आपेक्षित परिवर्तनों को दरकिनार कर देता है. यह तर्क इस पूर्वानुमान पर आधारित है कि कांग्रेस केन्द्रीय शासन में स्थायी तौर पर गौण भूमिका निभाती रहेगी. कांग्रेस, जो अब भी एक प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी है, अपनी वर्तमान स्थिति से कत्तई संतुष्ट नहीं रह सकती. भाजपा और सीपीआई(एम) दोनों का विरोध करने के अपने एजेंडा को सुस्पष्ट तौर पर जाहिर कर देने के जरिये वह संयुक्त मोर्चे की खाट खड़ी करने के लिये मध्यपंथी खेमे पर अपना जोर लगाये हुए है. उसने राष्ट्रीय जनता दल से अच्छा रिश्ता बना ही लिया है, मुलायम के साथ समीकरण बैठा रही है और तमिल मानिल कांग्रेस एवं द्रमुक को रास्ते पर लाने के लिये पूरी मेहनत से काम कर रही है. संयुक्त मोर्चे को कांग्रेस की आलोचना को नरम कर देने पर मजबूर करने के बाद, अब वह धर्मनिरपेक्षता और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर अपनी छवि सुधारने, अपने से दूर हुए मुस्लिम समुदाय को जीत लेने तथा अगले चुनाव तक एक भाजपा-विरोधी गठजोड़ के शीर्ष नेतृत्व पर पहुंच जाने की उम्मीद रखती है.

भाजपा-विरोधी, कांग्रेस-विरोधी धारणा को तो पहले ही नरम करके भाजपा-विरोधी, गैर कांग्रेसी धारणा तक लाया जा चुका है. फिर, संयुक्त मोर्चे के कुछेक खास घटकों ने तो इसे और भी हल्का करके भाजपा-विरोधी, कांग्रेसपरस्त धारणा में बदल दिया है. मगर हमारा दृढ़ विचार यही है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों शासक वर्गों की मुख्य अखिल भारतीय पार्टियां हैं, हमें इन दोनों को अपना मुख्य दुश्मन मानना होगा और अपनी भाजपा-विरोधी, कांग्रेस-विरोधी दिशा पर डटे रहना होगा.

(देशब्रती के विशेषांक, अक्टूबर 1996 से)

यह लेख लिखते वक्त कांग्रेसी राजनीति में एक महत्वपूर्ण फेरबदल हो चुका है. नरसिम्हा राव ने इस्तीफा दे दिया और उनकी जगह सीताराम केसरी को कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुन लिया गया है. यह फेरबदल कांग्रेस के फिर से एकीकरण की प्रक्रिया पर कैसा असर डालेगा अभी कहा नहीं जा सकता. अर्जुन सिंह से लेकर वीपी सिंह तक, सभी लोगों के कांग्रेस में लौट आने की बातें हो रही हैं. नरसिम्हा राव के पदत्याग की खबर सुनते ही प्रधानमंत्री देवगौड़ा खुद ही राव के घर दौड़े चले आए और वहां उनसे अकेले में पैंतालिस मिनट तक बातचीत की – इससे जाहिर है कि कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में होने वाले इस फेरबदल से देवगौड़ा सरकार का अस्तित्व कितने घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है. अखबारों के मुताबिक, इसे लेकर पिछले साढ़े तीन माह की अवधि में प्रधानमंत्री कुल जमा चौबीस बार राव से मिलने उनके घर पहुंचे हैं.

उत्तरप्रदेश में होने वाले चुनाव के परिणामों पर भी सारे देश की नजरें टिकी हुई हैं. यद्यपि वहां मुलायम ने पहले ही अपनी पसंद के राज्यपाल की नियुक्ति करवा ली है, ताकि अगर त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति आए तो सरकार बनाने की उन्हें ही सुविधा मिले. फिर भी, उनकी पराजय से संयुक्त मोर्चा सरकार का संकट बढ़ेगा. दूसरे शब्दों में, कांग्रेस पर उसकी निर्भरता बढ़ेगी, यहां तक कि कांग्रेस के प्रत्यक्ष रूप से सरकार में शामिल होने का सवाल भी उठ खड़ा होगा. शायद राव के इस्तीफे से इस संभावना का दरवाजा भी खुल गया है. ऐसे हालात में वामपंथ की क्या कर्यनीति हो? लगता है जल्द ही हमें इस सवाल से दो चार होना पड़ेगा. जो हो, इस समय तो हम मौजूदा संयुक्त मोर्चे के प्रति विभिन्न वामपंथी धाराओं के रुख का विश्लेषण करने तक सीमित रहेंगे.

वामपंथी खेमे में बहस क्यों?

पिछले लोकसभा चुनाव में तीन मुख्य शक्तियों में से किसी को भी बहुमत नहीं नसीब हुआ. इन तीनों से अलग, कई क्षेत्रीय पार्टियों एवं छोटे-छोटे राजनीतिक दलों ने भी कुल मिलाकर अच्छी-खासी तादाद में सीटें जीत ली हैं. त्रिशंकु संसद में भाजपा सरकार का तेरह दिन का जादू उतरते ही एक अन्य अभूतपूर्व घटना हुई. तेरह पार्टियों के संयुक्त मोर्चे ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बना ली और एकदम अप्रत्याशित रूप से देवगौड़ा जी भारत के प्रधानमंत्री बन गए.

सरकार में शामिल होने के सवाल पर वामपंथी पार्टियों के बीच मतभेद उभरे और उन पार्टियों के अंदर इस सवाल पर बहसें चलने लगीं. सबसे ज्यादा गर्मागर्म बहस चली भाकपा के अंदर, और फिर उनके निर्णय को मुद्दा बनाकर समूचे वामपंथी खेमे के अंदर बहस तेज हुई.

याद रहे कि बहस छिड़ने की मुख्य वजह भाकपा-माकपा का संयुक्त मोर्चे में शामिल हो जाना ही है. 1989 में ये पार्टियां राष्ट्रीय मोर्चे का अंग नहीं थीं. वाम मोर्चे का स्वतंत्र रूप से अस्तित्व बरकरार था. सरकार राष्ट्रीय मोर्चे ने बनाई थी, वाम मोर्चा और भाजपा उसे बाहर से समर्थन दे रहे थे. ठीक वैसा ही समर्थन, जैसा आज कांग्रेस संयुक्त मोर्चा सरकार को दे रही है. यद्यपि माकपा के सिद्धांतकार गाहे-बगाहे अपने समर्थन को कोंग्रेस द्वरा बाहर से दिए जा समर्थन के सम्तुल्य दिखाने की कोशिश करते रहते हैं, पर इसे शुतुरमुर्गी हरकत के सिवा क्या कहा जा सकता है. वाम मोर्चे के स्वतंत्र अस्तित्व को, उसके एकीकृत स्वरूप को संयुक्त मोर्चे के भीतर जाकर तिलांजलि दे दी गई है. संयुक्त मोर्चा और उसकी सरकार के बीच चीन की दीवार खड़ी करना सिर्फ कोरी गप्पें हांकना है. आप सरकार के अभिन्न अंग हैं; फर्क प्रत्यक्ष रूप से या परोक्ष रूप से सरकार में शामिल होने का भले हो; इस बिना पर संयुक्त मोर्चे के भीतर रहकर सरकार को बाहर से समर्थन करने की बात राजनीतिक चालबाजी ही कही जाएगी, राजनीतिक ईमानदारी हरगिज नहीं. यह स्वविरोध लोगों के सामने स्पष्ट नहीं हो पा रहा है, इसलिए सरकार में शामिल न होने का माकपा का फैसला लोगों को अस्वाभापिक और अतार्किक लग रहा है. और इसी कारण इस सवाल पर पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व भी विभाजित हो गया था.

भाकपा ने सरकार में शामिल होने का फैसला लेने में देर नहीं की. थोड़ा-मोड़ा विरोध जैसी बातें आई थीं, पर वह कोई महत्वपूर्ण बात नहीं लगती. 1967 के बाद से भाकपा कुछेक राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों में शामिल हुई, और बाद में केरल में तो उसने कांग्रेस के साथ भी मिलीजुली सरकार में हिस्सा लिया. उन्होंने केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार का कई बार समर्थन किया है, जिसकी चरम परिणति इमर्जेंसी के दौरान इंदिरा सरकार का समर्थन करना था. पूंजीपति वर्ग के प्रगतिशील हिस्से के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनवाद और समाजवाद में संक्रमण करने की भाकपाई लाईन का चरम बिन्दु था इमर्जेन्सी का समर्थन. इसीलिए भटिंडा कांग्रेस में आत्मलोचना के बाद भाकपा ने इस कलंक को धोने-पोछने और कांग्रेस के साथ दूरी बनाए रखने की लाइन अपनाई. भाकपा-माकपा के बीच संबंधों में सुधार आने की प्रक्रिया इसी समय शुरू हुई. 1977 से लेकर 1996 की अवधि में राजनीति का एक चक्र पूरा हुआ है, अब भाकपा फिर से किसी गैर कांग्रेसी सरकार में – और वह भी केंद्र सरकार में शामिल हुई है, ऐसी सरकार में जो कांग्रेसी समर्थन के बल पर टिकी हुई है. मगर इस बार माकपा किसी भी किस्म का तीखा प्रतिवाद नहीं कर पा रही है, उल्टे, वह खुद इस प्रश्न पर विभाजित है. भाकपा के सिद्धांतकार तो इसे अपनी राष्ट्रीय जनवाद की लाइन की विजय मान रहे हैं. जोश के मारे चतुरानन बाबू माकपा को कांग्रेस का भी पुनर्मूल्यांकन करने की सीख देने में नहीं हिचकते.

माकपा ने अतीत में कांग्रेस की कई नीतियों का समर्थन किया है; कई बार राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेसी उम्मीदवार को अपने वोट भी दिए हैं. पिछली कांग्रेस सरकार की संकट की घड़ियों में रक्षा भी की है. लेकिन फिर भी उसने कांग्रेस के साथ कभी कोई औपचारिक रिश्ता कायम नहीं किया है. 1977 में कांग्रेस-विरोध के आधार पर उसने जनता पार्टी सरकार का समर्थन किया था, यद्यपि तत्कालीन भारतीय जनसंघ उसी जनता पार्टी का अभिन्न अंग था. मोरारजी सरकार के पतन में माकपा की भूमिका यकीनन संदिग्ध रही, जो जगजाहिर ‘जुलाई संकट’ के रूप में पार्टी के अंदर बहस का विषय बनी. 1989 में भी कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए माकपा ने भाजपा के साथ खड़े होकर राष्ट्रीय मोर्चा सरकार का समर्थन किया था. यह पहला मौका है जबकि माकपा बड़े धर्मसंकट में पड़ गई है – जब उसे ऐसी गैर कांग्रेसी सरकार का समर्थन करना पड़ रहा है जो खुद कांग्रेस के समर्थन पर बुरी तरह से निर्भर है.

माकपा को उम्मीद थी कि तिवारी कांग्रेस या कांग्रेस के अन्य विक्षुब्ध धड़े मिल-जुलकर अच्छी-खासी तादाद में सीटें जीत लेंगे, फलतः उन्हें राव कांग्रेस का समर्थन हासिल करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं हुआ. चुनाव के नतीजों की घोषणा के बाद भी कामरेड सुरजीत ने यही आस लगा रखी थी कि राव कांग्रेस के अंदर कोई बड़ी किस्म का विभाजन होगा और विक्षुब्धों को कांग्रेस का प्रगतिशील हिस्सा मानकर मिला लेने पर बहुमत जुटाया जा सकेगा. ऐसा भी न हुआ. देवगौड़ा को राव साहब के दरबार में हाथ फैलाना ही पड़ा. अब माकपा की समूची प्रचार मशीनरी निचले स्तर की कतारों की महज धुलाई कर रही है. कतारों को समझाया जा रहा है कि देवगौड़ा सरकार को समर्थन देने के सिवा कांग्रेस के पास कोई चारा भी नहीं था, यह समर्थन उन्होंने बिलाशर्त, खुद-ब-खुद दिया है; न्यूनतम साझा कार्यक्रम (सीएमपी) में राव कांग्रेस की सरकार की नई आर्थिक नीतियों को रद्द कर दिया गया है वगैरह-वगैरह. अपनी सैद्धांतिक व राजनीतिक शुचिता साबित करने के लिए माकपा ने आत्मगत विश्लेषणों की बाढ़ ला दी है.

जबकि और कोई नहीं, देश में बुर्जुआ राजनीति की सबसे दूरदर्शी शख्सियत वीपी सिंह ने खुद ही सच्चाई बयां कर दी है! उन्होंने कहा कि अब संयुक्त मोर्चा और कांग्रेस के बीच सहयोग की नई मंजिल शुरू हुई है. साफ तौर पर उन्होंने कह दिया कि कोई कुछ भी बोले, नई आर्थिक नीति पर राष्ट्रीय स्तर की एक अलिखित सर्वसम्मति बन चुकी है. नई आर्थिक नीति के पक्ष में देवगौड़ा के बयान लोगों को पहले से पता हैं. यह कोई आकस्मिक बात नहीं कि उसी चिदंबरम को भारत का वित्तमंत्री बनाया गया, जो व्यक्तिगत तौर पर राव सरकार की आर्थिक नीति के रचनाकार रहे हैं. हम इस विषय  पुनः लौटेंगे.

माकपा सरकार में शामिल क्यों न हुई?

संयुक्त मोर्चे में शामिल होते ही माकपा पर सरकार में शामिल होने के लिए दबाव पड़ने लगा था और उस वक्त तो यह दबाव काफी बढ़ गया जब ज्योति बाबू को प्रधानमंत्री बनाने पर सर्वसम्मति हो गई. पार्टी-कतारों, उनके समर्थक बुद्धिजीवियों तथा वामपंथी रुझान वाले बहुतेरे लोगों को यह सुनहरा मौका खोने के पीछे कोई तर्क ढूंढ़े नहीं मिला. सरकार से बाहर बने रहने का कोई तर्क उन्हें इसलिए नहीं पचा, क्योंकि अव्वल तो माकपा संयुक्त मोर्चे में शामिल है ही; दूसरे, उनको ही प्रधानमंत्री की कुर्सी भी मिल रही थी; और तीसरे, तेरह पार्टियों के संयुक्त मोर्चे में तो सभी अल्पमत में हैं, बल्कि कहिए तो वाम सांसदों का समूह ही उनमें सबसे बड़ा है. अतः माकपा का परंपरागत तर्क, कि वह अल्पमत में रहने पर या नीति-निर्धारण करने में मुख्य भूमिका में न रहने की स्थिति में सरकार में शामिल नहीं होगी, इस मामले में प्रासंगिक नहीं हो सकता. ऐसे हालात ने, लाजिमी तौर प नेतृत्व के बीच विभाजन को तीव्र कर दिया, और जैसा पता चला है, उसके अनुसार महज चंद वोटों के अंतर से ही पार्टी का सरकार में शामिल न होने का फैसला कायम रह गया. अगर सवाल यह होता है कि सरकार के कांग्रेस पर अत्यधिक निर्भर रहने के कारण उसकी आर्थिक नीतियों को बरकरार रखना उनकी मजबूरी होगी, फिर तो सरकार में शामिल न होने का तर्क समझ जा सकता है, और तब तो संयुक्त मोर्चा सरकार की समूची प्रासंगिकता ही कठघरे में खड़ी हो जाती है. लेकिन जब माकपा नेतृत्व लगातार दावा किए जा रहा है कि कांग्रेस का समर्थन बिलाशर्त है, उनके पास और कोई चारा नहीं है, उनकी मजबूरी है, और न्यूनतम साझा कार्यक्रम में पिछली कांग्रेस सरकार की नई आर्थिक नीति को रद्द कर दिया गया है – तब तो माकपा के सरकार में शामिल न होने के तर्क को समझ पाना सचमुच टेढ़ी खीर है. माकपा की केंद्रीय कमेटी में बहस के बिंदु अभी तक स्पष्ट तौर पर जाहिर नहीं हुए हैं, शायद अगली पार्टी कांग्रेस में उनका इजहार होगा. मगर यहां हम कुछेक मतों पर गैर करेंगे.

सरकार में शामिल होने के खिलाफ तर्क देते हुए एक नामी-गिरामी बुद्धिजीवी ने लिखा है कि ज्योति बाबू के प्रधानमंत्री बनते ही फासिस्ट शक्तियां गुस्से से आग-बबूला होकर देश भर में प्रतिक्रांति छेड़ देतीं, सरमायेदार देशव्यापी हड़ताल कर देते, फिर राज्य मशीनरी का तो चरित्र ही ऐसा है कि वह उनका ही पक्ष लेती. चूंकि ऐसी परिस्थिति का मुकाबला करने लायक ताकत – हथियारबंद शक्तियों समेत – माकपा के पास है नहीं, अतः उसने फासिस्टों के छत्ते में हाथ न डालकर अच्छा ही किया. ऐसे तर्क कुर्सीनशीन महाविद्वानों को ही शोभा देते हैं. पिछले बीस साल से ज्योति बसु पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री हैं, ऐसी कोई प्रतिक्रांति होती वहां तो दिखाई नहीं पड़ी, उल्टे देशी-विदेशी पूंजीपति ज्योति बसु को शरीफ कम्युनिस्ट का चरित्र प्रमाणपत्र (कैरेक्टर सार्टिफिकेट) देते फिर रहे हैं. सच कहा जाए तो ज्योति बसु के नाम पर सर्वसम्मति उनकी किसी क्रांतिकारी छवि के कारण नहीं बल्कि उदार एवं व्यवस्था के लिए ग्रहणयोग्य होने के कारण ही हुई थी.

इन स्वनामधन्य बुद्धिजीवी महोदय ने यह भी लिखा है कि अकेले ज्योति बसु प्रधानमंत्री बन जाने से क्या कर पाते, संयुक्त मोर्चे में जिन चोर-गिरहकटों को मंत्री बनाना पड़ता उससे माकपा की ही छवि धूमिल होती. लेकिन इन तमाम चोर-गिरहकटों को महान लोकतंत्री और क्रांतिकारी के बतौर पेश करके माकपा लंबे अरसे से अनके साथ एक ही परिवार में गुजर कर रही है. इसके अलावा, इस किस्म के कुछ मंत्री-संत्रियों को लेकर तो पश्चिम बंगाल सरकार में भी ज्योति बाबू को तमाम परेशानी झेलनी ही पड़ रही है. सरकार में नहीं जाएं, तो भी संयुक्त मोर्चे में बने रहने पर ही भला इस बदनामी से कैसे बचा जा सकता है?

नम्बूदरीपाद की मध्यपंथी स्थिति

पता चला है कि केंद्रीय कमेटी के फैसले में वरिष्ठ नेता ईएमएस नम्बूदरीपाद की भूमिका ही अंततः निर्धारक थी. पीपुल्सडेमोक्रेसी तथा अन्य अखबारों में उन्होंने हाल में कुछेक लेख लिखे हैं, जिनमे हम विभिन्न प्रश्नों पर माकपा के रवैये और पार्टी के अंदर चल रही बहस को समझने की कोशिश कर सकते हैं. नम्बूदरीपाद ने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की मोर्चा संबंधी नीति और 1951 में हुई पार्टी कांग्रेस में कांग्रेस सरकार को सत्ता से हटाने की लाइन – इन दो पूर्वाधारों पर अपने तर्क गढ़े हैं.

नम्बूदरीपाद मानते हैं कि मौजूदा संयुक्त मोर्चा कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के प्रगतिकामी पूंजीपति वर्ग के साथ मजदूर वर्ग के मोर्चे से संबंधित नीति का भारत की ठोस स्थिति में प्रयोग है. उनके मुताबिक, संयुक्त मोर्चा दो अंशों से मिलकर बना है. एक अंश धर्मनिरपेक्ष व जनवादी पार्टियों से बना है जिनको वर्गीय आधार पर प्रगतिशील पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधि कहा जा सकता है; और दूसरा अंश वामपंथी पार्टियों तथा वामपंथ की ओर झुकाव रखने वाली मध्यपंथी पार्टियों से बना है जो मजदूर, किसान एवं मेहनतकशों के प्रतिनिधि हैं. इन दोनों अंशों के बीच नाजुक संतुलन कायम है – थोड़ी – बुहत रस्साकशी का उल्लेख भी उन्होंने किया है और उसके कारण मोर्चा के स्थायित्व पर भी उन्होंने शक जाहिर किया है, मगर यह उनके विश्लेषण का गौण पहलू है. राव सरकार की नई आर्थिक नीति के सवाल पर ‘प्रगतिशील पूंजीपति वर्ग’ के हिस्से में कुछ  ढ़लमुलपन जरूर दिखाई पड़ा था, मगर ईएमएस के अनुसार इससे गंभीरतापूर्वक निपटा गया तथा उस आर्थिक नीति को रद्द करके सर्वसम्मति के आधार पर न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय किया गया. चलिए मान लिया, फिर तो संघर्ष इस बात पर चलेगा कि सरकार खुद सीएमपी से भटक तो नहीं रही है. लेकिन ऐसा नहीं है, इसके तुरंत बाद ईएमएस बताते हैं कि पिछली राव सरकार की जनविरोधी, राष्ट्रविरोधी नीतियों के अवशेष सीएमपी में रह गए हैं. यह कैसी बात हुई? तो फिर सर्वसम्मति कैसे बनी? क्या आपने नीति के सवाल पर समझौता कर लिया? या  फिर जनविरोधी एवं राष्ट्रद्रोही नीतियों के अंश आपके अपने कार्यक्रम का भी अंग हैं? यदि आप सोचते हैं कि मौजूदा ठोस स्थिति में जनवादी कार्यक्रम की ये सीमाएं अनिवार्य हैं, तो यह बात साफ-साफ कहने और उस संपूर्ण कार्यक्रम की पैरवी करने का राजनीतिक साहस आप क्यों नहीं दिखाते? एक ओर आप कार्यक्रम को साझा बता रहे हैं, फिर दूसरी ओर उसके कुछ हिस्से को जनविरोधी एवं राष्ट्रद्रोही बता रहे हैं, क्या यह स्पष्टतः आत्मविरोधी नहीं है? इस आत्मविरोध में ही माकपा के राजनीतिक अवसरवाद की अंतर्वस्तु छिपी हुई है. वीपी सिंह से लेकर देवगौड़ा एवं नरसिम्हा राव, सभी नई आर्थिक नीति पर सर्वसम्मति की बात कह रहे हैं. और यह सभी को मालूम है कि सीएमपी की मुख्य दिशा इसी नीति का पक्षपोषण करती है. थोड़ा-बहुत जो हेर-फेर है, वह इसी नीति को मानवीय मुखौटा पहनाने के लिए उसमें छोटा-मोटा आवश्यक सुधार मात्र है. सरकार जिस पूंजीपति वर्ग का राजनीतिक प्रतिनिधि है, वह किसी भी सूरत में बड़े इजारेदार पूंजीपतियों के खिलाफ खड़ा गैर इजारेदार पूंजीपति वर्ग नहीं है. और न ही पूंजीपति वर्ग के अंदर प्रतिक्रियावादी और प्रगतिशील अंशों के बीच कोई फूट हुई है.

आप उसे चाहे अग्रमुखी कहें या प्रगतिशील, इस संयुक्त मोर्चे का नेतृत्व उसी बड़े पूंजीपति वर्ग के हाथों में है; और उसकी प्रेरक शक्ति वही नई आर्थिक नीति है. चंद छोटे-मोटे मुद्दों पर हल्ला मचाने के अतिरिक्त वामपंथी साझीदार वहां कुछ भी करने में असमर्थ हैं, यह इसी बीच कई-कई बार साबित हो चुका है. कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने इस किस्म की सरकार में शामिल होने को वर्ग समझौता बता कर उसकी भर्त्सना की है – इस तथ्य का भी अगर ईएमएस उल्लेख कर देते तो बेहतर होता.

ईएमएस ने और भी आगे बढ़कर इस संयुक्त मोर्चे को जनता की जनवादी एकता तक पहुंचने के लिए आवश्यक मंजिल बताया है. यह संक्रमण कैसे होगा? उनके ही शब्दों में, “संयुक्त मोर्चा और सरकार में मौजूद दो अंशों के बीच व्यापक एकता तथा बिरादराना संघर्ष मजदूर-किसानों की स्वतंत्र स्थिति को लगातार उन्नत और शक्तिशाली बनाता जाएगा. इससे सर्वहारा के प्रभुत्व का विकास हो सकता है. यही वह प्रक्रिया है जिसके जरिए वामपंथी, धर्मनिरपेक्ष एवं जनवादी शक्तियों की वर्तमान एकता जनता की जनवादी एकता में बदल जाएगी.”

इस किस्म का संयुक्त मोर्चा और उसकी सरकार, जो निहायत तात्कालिक राजनीतिक अनिवार्यता की उपज है, जिसका जन्म किसी जनवादी आंदोलनों से नहीं हुआ (नई आर्थिक नीति के खिलाफ आंदोलन के दौरान हम वामपंथियों की इनमें से किसी ने कोई मदद न की थी, इसे भूलना उचित न होगा) और जो निहायत संक्रमणकालीन, अस्थायी चरित्र का मोर्चा है, उसके विभिन्न अंश पूंजीवादी हमले के सामने किस-किस घाट की शरण लेंगे, बताना मुश्किल है. उसे जनवादी मोर्चे का अग्रदूत, उसके लिए अनिवार्य मंजिल इत्यादि बताना मार्क्सवाद के क्रांतिकारी सिद्धांत की चरम विकृति के अलावा और क्या है? इससे भी बड़ी बात यह है कि ईएमएस ने इस संक्रमण को सरल रेखा के बतौर समझ लिया है, व्यापक एकता और बिरादराना संघर्ष की सहज-सुगम प्रक्रिया के बतौर देख लिया है, जिसमें तीखे वर्ग संघर्ष व तद्जनित रप्चर (संबंध विच्छेद) की संभावना ही नहीं है. नेतृत्व के सवाल पर सर्वहारा से वहां किसी से तीखा टकराव भी नहीं है. काफी हद तक इसमें खुश्चेव के ‘शांतिपूर्ण क्रमविकास’ की प्रतिध्वनि ही सुनाई दे रही है. अलबत्ता, इसे ‘सर्वहारा प्रभुत्व के संचय’ जैसी ग्राम्शी की शब्दावली में जरूर पेश किया गया है. जब ‘क्रांति’ शब्द के इस्तेमाल पर पाबंदी लगी हुई हो, तब ऐसे गोलमटोल शब्दों का ही इस्तेमाल करना पड़ता है.

1951 की पार्टी लाइन का उल्लेख करते हुए ईएमएस ने कहा है, “चुनाव प्रक्रिया के जरिए कांग्रेस को सत्ता से हटाने का फैसला हुआ (उन्होंने इस लाइन में गैर संसदीय संघर्षों की चर्चा सिर्फ पूरक के बतौर की है), इसीलिए माकपा की उसूली स्थिति यह रही हैः “हालांकि हमारी पार्टी कांग्रेस को हटाकर किसी अन्य पूंजीवादी सरकार को सत्ता में लाने को उत्सुक रहती है, पर वह ऐसी सरकार में अत्यंत सूक्ष्म अल्पमत की स्थिति रहने पर शामिल नहीं हो सकती.” ईएमएस के अनुसार भाकपा की नीति वर्ग समझौतावादी है, क्योंकि वह “अत्यंत सूक्ष्म अल्पमत की स्थिति में रहने पर भी सरकार में शामिल हो रही है.” तो फिर, यहां फर्क पूंजीवादी सरकार में शामिल होने-न-होने के सवाल पर नहीं है, यहां तक कि बहुमत या अल्पमत में रहने की स्थितियों के बीच भी नहीं है, मतभेद यहां इस सवाल पर है कि अल्पमत अत्यंत सूक्ष्म है या दिखाई देने लायक.

ईएमएस ने खुद जिस मार्क्सवादी-लेनिनवादी उसूल का जिक्र किया है, उसके अनुसार वैकल्पिक पूंजीवादी सरकार को समर्थन दिया जा सकता है, मगर उसमें शामिल नहीं हो सकते. लेकिन ‘अत्यंत सूक्ष्म अल्पमत’ की श्रेणई का ईजाद करके नम्बूदरीपाद ने भाकपा और माकपा के बीच फर्क को महज मात्रा का फर्क ही रख छोड़ा है.  जब सरकार पूंजीपति वर्ग की है, तो कम्युनिस्टों का उसमें अल्पमत में रहना ही स्वाभाविक है. यह अल्पमत यदि अत्यंत सूक्ष्म न होकर स्थूल या काम चलाऊ, दिखाई पड़ने लायक रहे तो ईएमएस को पूंजीवादी सरकार में शामिल होने से उज्र न होगा.

इस तरह, केंद्रीय कमेटी के अंदर आपस में बहस चला रहे दोनों धड़ों के बीचों-बीच खड़ी ईएमएस की मध्यपंथी स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है और यह भी समझा जा सकता है कि कैसे इस स्थिति के द्वारा दोनों पक्षों के बीच समायिक तैर पर एक किस्म की एकता भी कायम रखी गई है.

कांग्रेस-समर्थित पूंजीवादी सरकार में शामिल नहीं होना बनाम बड़े वामपंथी समूह (ब्लॉक) के आधार पर प्रधानमंत्री पद हासिल करके सरकार में शामिल होना – इन दो विरोधी मतों के बीच ‘स्थूल या कामचलाऊ अल्पमत के अभाव’ की धारणा पेश करके नम्बूदरीपाद ने पहले एक पक्ष द्वारा पेश किए गए सरकार में हिस्सा न लेने के सिद्धांत का खंडन किया, फिर दूसरे पक्ष द्वारा पेश की गई सरकार में शामिल होने की व्यावहारिकता को भी खारिज कर दिया.

सरकार में शामिल होने या न होने के मुद्दे पर भाकपा और माकपा के बीच बहस में इस बार वह तीखापन नहीं है. यही स्वाभाविक है, क्योंकि मुद्दा महज अल्पमत की मात्रा का है. यहां तक कि इस मामले में दोनों पार्टियों के बीच कायम शराफत का रिश्ता भी काबिले गौर है.

ईएमएस के इन बयानों पर गौर करें – “देश के इतिहास में पहली बार भूतपूर्व कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों के संयुक्त मोर्चे ने मिलकर सरकार बनाई है, जो न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर काम कर रही है.”

“जबकि संयुक्त मोर्चे के सभी तेरह संघटक दल किसी भी ओर से आने वाले किसी भी हमले से इस सरकार की रक्षा करने के लिए कृतसंकल्प हैं, चार वामदलों में से एक (यानी भाकपा) सरकार में शामिल हो गया है, जबकि माकपा समेत अन्य तीन दलों ने बाहर से सरकार का समर्थन करना उचित समझा है.”

यहां उल्लेखनीय है कि ईएमएस ने हमेशा इस संयुक्त मोर्चे को कम्युनिस्टों और भूतपूर्व कांग्रेसियों के बीच संयुक्त मोर्चा बताया है. टाइम्स ऑफ इंडिया  के एक लेख में उन्होंने आचार्य कृपलानी से लेकर कई भूतपूर्व कांग्रेसियों को गांधी का सच्चा शिष्य बताया है, और उसी जमाने से कम्युनिस्टों एवं भूतपूर्व कांग्रेसियों अथवा असली गांधीवादियों के बीच सहयोग के इतिहास की शुरूआत की है. ईएमएस के विश्लेषण के मुताबिक, आज उस विरासत के उत्तराधिकारी, गांधी के सच्चे शिष्य जनाब देवगौड़ा हैं, और  “सरकार वामपंथी व गांधीवादी दोनों परंपराओं के सर्वोत्कृष्ट मानदंडों के मिलन का प्रतीक” है. इन चरम श्रेणी के विशलेषणों का इस्तेमाल करते समय शायद नम्बूदरीपाद को यह ध्यान नहीं रहा होगा कि देवगौड़ा के राजनीतिक गुरू मशहूर सिन्डीकेट नेता निजलिंगप्पा महोदय थे. जोश में उन्हें होश ही नहीं रहा कि कम्युनिस्टों (भूतपूर्व कम्युनिस्टों) और भूतपूर्व कांग्रेसियों का यह संयुक्त मोर्चा अपने अस्तित्व के लिए वर्तमान कांग्रेसियों पर ही निर्भर है.

इन सरकारों के प्रति माले का रवैया

इस सरकार के प्रति भाकपा(मा-ले) के रुख के बारे में भी यहां कुछ कहना जरूरी है क्योंकि इस सवाल पर पार्टी के भीतर और बाहर काफी भ्रांतियां मौजूद हैं. इस सवाल पर स्पष्ट रहना उचित है कि संसदीय दायरे में हमारी मूल स्थिति क्रांतिकारी विरोध पक्ष की भूमिका निभाना है. चाहे भाजपा-कांग्रेस की चरम दक्षिणपंथी सरकार हो, या लालू-मुलायम की मध्यपंथी सरकार, या फिर माकपा-भाकपा की वाममोर्चा सरकार ही क्यों न हो, हमारी इस मूल स्थिति के बदलने का कोई सवाल नहीं पैदा होता.

फिर भी, महज मूल नीतियों को रटकर उन्हें मशीनी ढंग से लागू करते रहने से हम कठमुल्लावाद के शिकार होंगे और लोग हमें बेवकूफ ही कहेंगे. व्यावहारिक राजनीति में इस मूल नीति पर अमल करते वक्त कार्यनीतिक लचीलापन अपनाना जरूरी होता है. भिन्न-भिन्न परिस्थितियों, भिन्न-भिन्न सरकारों, और भिन्न-भिन्न मुद्दों के बीच हमें फर्क करना सीखना होगा. अक्सर संसद या विधानसभा में हमारे प्रतिनिधियों को भाजपा या कांग्रेस के खिलाफ, वामपंथी या मध्यपंथी शक्तियों के पक्ष में मतदान करना पड़ सकता है. दोनों पक्षों के बीच कोई ध्रुवीकरण की स्थिति आने पर हमारे प्रतिनिधि उदासीन या निरपेक्ष नहीं रह सकते, क्योंकि ऐसी निरपेक्षता से मुख्य दुश्मन को मदद मिल सकती है, और पार्टी की छवि धूमिल हो सकती है. किसी संक्रमणकालीन दौर में, किसी मध्यपंथी या वामपंथी सरकार को आलोचनात्मक समर्थन देने से शुरू कर कदम-ब-कदम विरोध पक्ष की भूमिका में संक्रमण हो सकता है, ताकि जनता के सामने हमारी स्थिति तर्कपूर्ण, जायज और काबिले-समर्थन लगे.

संसदीय राजनीति में इन तमाम कार्यनीतिक कदमों से कई बार कामरेडों के बीच कई भ्रांतियां उपजती हैं. या तो कुछ लोग कार्यनीतिक लचीलेपन को मूल स्थिति का विरोधी समझने लगते हैं, या फिर कुछ अन्य लोग विशेष स्थिति में अपनाई गई विशेष कार्यनीति को मूल नीति बनाने की मांग करने लगते हैं.

पिछले कुछेक वर्षों में हमारे संसदीय व्यवहार पर गौर करने से यह समझ में आएगा कि यद्यपि भाजपा-कांग्रेस द्वारा लाए गए अविश्वास प्रस्तावों के खिलाफ हमारे प्रतिनिधियों ने मध्यपंथी सरकारों के पक्ष में मतदान किया है, अल्प समय के लिए किसी-किसी मध्यपंथी सरकार के पक्ष में हमने आलोचनात्मक समर्थन की बात भी कही है, मगर समग्र रूप से देखा जाए तो चाहे कोई भी सरकार हो, हमने विरोध पक्ष की भूमिका ही निभाई है. इस दौरान एक स्वतंत्र वाम शक्ति समूह (ब्लॉक) का निर्माण करने की कार्यनीति हमारी नीति का महत्वपूर्ण अंग रही है. देवगौड़ा सरकार के मामले में भी, पहली बात तो यह है कि हमारे प्रतिनिधि संयुक्त मोर्चे में ही शामिल नहीं हुए. उन्होंने कांग्रेस के साथ तालमेल से जुड़े तमाम सवालों पर सरकार की आलोचना की, सरकार के हर जनविरोधी कदम के खिलाफ बयान दिया.विश्वासमत के मामले में, जब समूचा सदन सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर विभाजित हो गया; तो नई आर्थिक नीति जारी रहने की आशंका बरकरार रहेगी – इस लिहाज से हमारे प्रतिनिधि ने आलोचना करते हुए सरकार के पक्ष में वोट दिया; यानी उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि हमारा समर्थन आलोचनात्मक है, वहां हमारा जोर इसी बात पर था, कि वामपंथ के लिए संयुक्त मोर्चे से बाहर निकल कर, अपना स्वतंत्र शक्ति समूह (ब्लॉक) बनाकर स्वतंत्र स्थिति अपनाना ही उचित है. बिहार विधानसभा में भी हमने यही कार्यनीति अख्तियार कर रखी है. असम में भी एएसडीसी ने सरकार में शामिल होने से इनकार कर दिया. वे सरकार को बाहर से आलोचनात्मक समर्थन देने की घोषणा से लेकर कदम-ब-कदम स्वतंत्र जनवादी शक्ति समूह (ब्लॉक) बनाकर अपने विरोध का स्तर उन्नत कर रहे हैं. असम की ठोस स्थिति में हम इसी प्रकार आगे बढ़ना जायज समझते हैं.

संसद और विधानसभा के बाहर हम इन तमाम सरकारों के खिलाफ तमाम जनवादी मुद्दों पर तथा मेहनतकशों के हित में सदैव आंदोलन जारी रखते हैं.

सीमाएं और हाशिए का सवाल

कुछेक लोग इस वास्ते बड़े चिंतित नजर आते हैं कि हमारी पार्टी हाशिये पर खड़ी शक्ति ही बनी हुई है, वह मुख्यधारा में प्रवेश नहीं कर पा रही है. एक सज्जन, जो कभी आईपीएफ के केंद्रीय कार्यलय का दायित्व संभालते थे, अब पीछे हट चुके हैं और अपनी गुजर-बसर का बंदोबस्त करके आजकल मुलायम की तारीफों के पुल बांधने से लेकर मार्क्सवादी की विभिन्न मुद्दों पर असफलता जैसे विषयों पर एक पत्रिका भी निकाल रहे हैं, उन्होंने हाल में एक पत्रिका में लिखा है कि भाकपा(माले) हाशिये पर है और हाशिये पर रहेगी. हमारे खिलाफ उनका आरोप यह है कि दुनिया इतनी बदल गई है फिर भी हम उसी मार्क्सवाद के खेमे में अड्डा गाड़े हुए हैं. नई-नई समस्याओं पर हम चर्चा जरूर करते है, मगर जवाब उसी मार्क्सवाद के नकारा हो गए सूत्रों में खोजते रहते हैं. उनका यह  भी आक्षेप है कि जब अन्य शक्तियां आरक्षण, मंडल इत्यादि मुद्दों पर राजनीति कर रही थीं, तब हमने ‘दाम बांधो – काम दो’ के सवाल पर रैली आयोजित की, अथवा जब अन्य शक्तियां सामाजिक न्याय के नारे का परित्याग कर चुकी थीं, तब हमने उसी नारे को लोक लिया. उनके अनुसार हम समय के साथ कदम मिलाकर नहीं चल पा रहे, इसीलिए हाशिये पर बने रहना हमारी नियति बन गई है. पार्टी के किसी-किसी कामरेड को यह लेख काफी पसंद आया है. वे भी सोचते हैं कि कैसे भी हो, हमें मुख्यधारा में पर्दापण करना होगा. यह अलगाव में बने रहना उचित नहीं है. देखा जाए, तो अभी वास्तव में मार्क्सवादी-लेनिनवादी धारा के किसी भी संगठन की तुलना में पिछले दस वर्षों से ज्यादा अरसे में राजनीति की मुख्यधारा में हस्तक्षेप करने के मामले में हमारी पार्टी ने सबसे ज्यादा और सर्वांगीण प्रयास किया है. देशभर में जनवादी शक्तियों की विभिन्न धाराओं के साथ संबंध बनाना, वामपंथ की विभिन्न धाराओं के साथ विभिन्न स्तरो पर संयुक्त कार्यवाही चलाना, हमारे राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के बीच हर मतभेद या विभाजन का अपने फायदे में इस्तेमाल करने की कोशिश करना, देशव्यापी राजनीतिक अभियान चलाना तथा केंद्रीय स्तर पर गोलबंदी करना, चुनाव प्रक्रिया में सक्रिय हस्तक्षेप इत्यादि के जरिए पार्टी अपनी पहलकदमी को लगातार उन्नत बनाने में प्रयत्नशील है. इस दौरान उत्थान-पतन के दौरों से गुजर कर हमने एक हद तक सफलता भी हासिल की है. यहां यह बात स्पष्ट करना उचित होगा कि राजनीति की मुख्यधारा में हस्तक्षेप के मामले में हमारा प्रस्थानबिंदु क्या होगा. क्या वह वाम-जनवादी राजनीति की चालू धारा में समाहित हो जाना है, या फिर उसे बदल देना है? उसी धारा में समाहित हो जाने पर क्या हमेसा के लिए हाशिये की ताकत बने रहना हमारी नियति नहीं बन जाएगी? दूसरी ओर, इस धारा के बदल देने का काम लंबा और कठिन-कठोर अवश्य है, फिर भी उसी में भविष्य की वह विराट संभावना छिपी है, जिसमें हम वर्तमान के अलगाव को तोड़कर मुख्यधारा की नियामक शक्ति बन जाऐंगे.

हमें याद रखाना होगा कि हम जिस शहरी व ग्रामीण सर्वहारा का प्रतिनिधित्व करते है, वह वर्ग विशाल बहुसंख्यक होने पर भी मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में हाशिये की शक्ति ही बना हुआ है. सवाल उस वर्ग की राजनीतिक गोलबंदी के जरिए उसे राजनीति की मुख्यधारा में ले आने का है. सतही तौर पर कुछ राजनीतिक तिकड़मबाजी के जरिए यह काम नहीं बनेगा. अतः सवाल अमूर्त ढंग से पार्टी को, या कुछेक महत्वाकांक्षी व्यक्तियों को मुख्याधारा में ला बिठाने का नहीं है.

जब मैं उस वर्ग की बात कर रहा हूं तो इसका मतलब यह नहीं कि हम वहीं तक सीमित रहेंगे. जनवादी क्रांति के दौर में कम्युनिस्ट पार्टी को जनता के तमाम हिस्सों के हित का प्रतिनिधित्व करना होगा. बथानी टोला की घटना के बाद जब लालू यादव ने बिहार विधानसभा में हमारी पार्टी की काफी प्रशंसा की, यह कहते हुए कि गरीबों की असली पार्टी तो भाकपा(माले) ही है, तो दिखाई पड़ा कि कुछेक कामरेड बहुत खुश हो गए. उन्हें यह नहीं समझ में आया कि इस उदारवादी प्रशंसा में पूंजीपति वर्ग का वह षड्यंत्र छिपा है कि तुम सिर्फ ग्रामीण गरीबों के बीच पड़े रहो, समाज के अन्य हिस्सों के प्रतिनिधि बनने की कोशिश मत करो. शासक वर्ग पहले हम पर दमन करके हमें समाप्त करने की कोशिश करता है, पर जब उसमें सफल नहीं होता और हम स्थायित्व हासिल कर लेते हैं तो वह हमारे सीमित अस्तित्व को मंजूर कर लेता  है, वहीं हमें बांधे रखने की कोशिश करता है, उसके लिए बीच-बीच में हमारी प्रशंसा के गीत भी सुना देता है. हमें इस सीमा को अवश्य लांघन होगा, जनता के सभी तबकों तक पहुंचना होगा, उनके भी हितों का प्रतिनिधित्व करना होगा, संयुक्त मोर्चा का निर्माण करने के उद्देश्य से विभिन्न राजनीतिक कार्यनीतियों एवं संयुक्त कार्यवाहियों की उपयोगिता यही है. यह सब कुछ क्रांतिकारी मार्क्सवाद पर अटल विश्वास रखकर करना होगा. पार्टी की क्रांतिकारी स्थिति को बरकरार रखते हुए क्रांतिकारी आंदोलनों में डटे रहकर यह करना होगा. तभी भाकपा(माले) की, हमारी परंपरा की, हजारों शहीदों के खून की कोई सार्थकता होगी. शार्टकट से, या सिर्फ सतही राजनीतिक कार्यनीतियों पर निर्भर रहने से पार्टी एकता टूटेगी, और हम न सिर्फ हाशिये पर बने रहेंगे बल्कि भारी संकट का शिकार बन जाएंगे.

संयुक्त मोर्चा सरकार के साथ कांग्रेस की सांठगांठ के सवाल पर वामपंथी खेमे में बहस आने वाले दिनों में और तीखी होगी, और इसी के जरिए वामपंथी शक्तियों के बीच नए स्तर का ध्रुवीकरण होने की विराट संभावना छिपी हुई है. इसी लक्ष्य के साथ हमें जनता के बीच कठिन-कठोर काम जारी रखते हुए अपने जनाधार का निर्माण करना होगा, अपने राजनीतिक प्रचार को तर्कपूर्ण ढंग से व्यापक रूप से फैलाना होगा. और राष्ट्रीय राजनीति में वामपंथियों की भूमिका पर चालू बहस में हस्तक्षेप करना होगा. आज की यह तैयारी ही कल अनुकूल राजनीतिक मोड़ पर हमें वाम-जनवादी राजनीतिक धारा की मुख्य स्थिति में ला खड़ा करेगी.

(30 जुन 1996 को का० रामजी राय, सम्पादक, समकालीन लोकयुद्ध द्वारा का० विनोद मिश्र से लिया गया एक साक्षात्कार)

वर्तमान राजनीतिक स्थिति को आप किस तरह से देखते हैं?

वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति ने कई तरह के मिथकों को तोड़ा है. सत्ता की भागदौड़ में भाजपा ने उन तमाम मुद्दों को दरकिनार कर बहुमत जुटाने की कोशिश की जो मुद्दे उसकी खास पहचान बनाते थे. दूसरी ओर जनता दल और वामपंथियों ने जितनी तेजी से व जीतनी सहजता से नरसिम्हा राव की कांग्रेस व उसकी आर्थिक सुधार की दिशा से सहअस्तित्व कायम कर लिया, उसकी उम्मीद बहुतों ने न की होगी.

भारतीय जनता पार्टी का सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के रूप में उभरना और मध्यमार्गी-वामपंथी व आंचलिक पार्टियों से लेकर कांग्रेस तक के बीच ‘धर्मनिरपेक्षता व आर्थिक सुधारों’ के लिए आम सहमति का बनना भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ है. इस मोड़ पर सामाजिक न्याय के एजेंडे को पुनर्परिभाषित करना होगा व नए सिरे तीसरी ताकत के निर्माण में लगना होगा.

संसद के इस चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट जनादेश का न मिलना शासक वर्ग के किसी संकट को सूचित करता है या उसकी लोकतांत्रिक शक्ति को? अगर संकट को सूचित करता है तो किस तरह के संकट को?

भारतीय जनता पार्टी के भारतीय राष्ट्रवाद व उसकी कड़ी के रूप में हिंदुत्व की अवधारणा के बरखिलाफ हम कम्युनिस्ट हमेशा ही भारत की बहुराष्ट्रीय, बहुभाषी व बहुआयामी सांस्कृतिक विशिष्टता को चिह्नित करते रहे हैं. राष्ट्रीय एकता की कड़ी साम्राज्यवाद विरोध, लोकतंत्र व आधुनिक राष्ट्र की प्रगतिशील विचारधारा पर आधारित होनी चाहिए न कि पुरातन ब्राह्मणवादी मूल्यों पर. भारतीय संसद का वर्तमान चेहरा व अपनी उदार छवि पेश करने की तमाम कोशिशों के बावजूद बहुमत जुटाने में भाजपा की विफलता, भारतीय समाज की हमारी समझ को ही पुष्ट करती है.

संकट तो है. कांग्रेस के विघटन के बाद दूसरी किसी केन्द्रीय अखिल भारतीय राजनीतिक संरचना की सीमाएं हम देख चुके हैं. भारतीय समाज एक ‘ग्रेट कोएलिशन’ हो ही सकता है लेकिन, इसे एक स्थाई राजनीतिक कोएलिशन में रूपान्तरित कर पाना टेढ़ी खीर है, खासकर जब उसके पास कोई मजबूत केन्द्रक न हो.

इस दोहरे संकट से उबरने के लिए प्रयोगों का सिलसिला जारी रहेगा और देखना यह है कि संसदीय लोकतंत्र की संस्थाएं इस तनाव को कहां तक और कब तक झेल पाती हैं.

राजनीतिक विश्लेषक और अधिकांश बुर्जुआ दल इस स्थिति को मोर्चा सरकारों के नए दौर की शुरूआत के रूप में देख रहे हैं और अपनी कार्यनीति को उसके अनुकूल बनाने में लगे हैं. आपको नहीं लगता कि भारतीय राजनीति सचमूच मोर्चा सरकारों के नए दौर से गुजर रही है ... एक लंबे अरसे के लिए?

मोर्चा सरकारों के दौर की बात 1977 और 1989 में भी कही गई थी. लेकिन ये दौर क्षणिक ही साबित हुए. इस बार की मोर्चा सरकार में पार्टियों की तादाद काफी है, लेकिन उसके सबसे बड़े घटक के पास भी मात्र 42 सांसद हैं. भाजपा और कांग्रेस ही पहले और दूसरे नम्बर की पार्टियां हैं और दोनों ही सत्ता से बाहर हैं. पहली विपक्ष के रूप में और दूसरी बाहर से सरकार के सहयोगी के रूप में. दोनों की कार्यनीति मोर्चा सरकार के तनावों व टूट का अपने पक्ष में इस्तेमाल करना है. इसलिए मोर्चा सरकार का यह प्रयोग आनेवाले लंबे समय की आम दिशा निर्धारित करेगा, वर्तमान प्रयोग के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना जल्दबादी ही होगी.

सीपीआई(एमएल) ने सीपीएम द्वारा मोर्चा सरकार में शामिल न होने के फैसले के लिए शाबाशी दी है. यह तो उसकी पुरानी कार्यदिशा है. फिर इसमें शाबाशी देने की जरूरत क्या आ पड़ी? क्या इसमें कोई नई बात है?

सरकार मे शामिल होने के लिए इस बार सीपीआई(एम) पर दबाव बहुत अधिक था और जैसी कि खबर है कि नेतृत्व का एक हिस्सा भी इसके लिए मन बना चुका था. इन हालात में पार्टी की केन्द्रीय कमेटी द्वारा पार्टी कार्यक्रम की दिशा पर डटे रहना महत्वपूर्ण तो है ही. राजनीतिक स्तर पर ‘धर्मनिरपेक्ष विकल्प’ की सीधी-सापट लाइन की तार्किक परिणति सरकार में शामिल होने की ओर ही ले जाती है. ऐसे ही तर्कों के सहारे सीपीआई अतीत में कांग्रेस के साथ भी सरकार में गई थी. सीपीआई(एम) की केन्द्रीय कमेटी के फैसले ने इस प्रवाह में बह जाने के खिलाफ एक ब्रेक का काम किया है. आपने देखा होगा सीपीआई ने इस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है जबकि हमने इस फैसले का स्वागत किया है.

लेकिन इस फैसले के बाद बहुतेरे सवाल उभरते हैं जिनपर सीपीआई(एम) को अपना रुख स्पष्ट करना होगा. मसलन, पिछले समय राष्ट्रीय मोर्चे के साथ संश्रय बनाते वक्त वाम मोर्चे ने अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखा था. लेकिन इस बार सीपीआई(एम) व अन्य वाम पार्टियां संयुक्त मोर्चे की घटक बन गई हैं और सरकार जब संयुक्त मोर्चे की ही है तब उसमें शामिल न होने पर भी उसके दोषों के आप उतने ही भागीदार होंगे. सीपीआई द्वारा सरकार में शामिल होने के फैसले ने वाम मोर्चा की एकल सत्ता होने पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है. और भी, नए प्रधानमंत्री देवगौड़ा नरसिम्हा राव की आर्थिक नीतियों के कट्टर प्रशंसक रहे हैं. कांग्रेस शुरू से ही आर्थिक सुधारों की निरंतरता के सवाल को समर्थन की प्रमुख शर्त बनाती रही है. देवगौड़ा का प्रधानमंत्री बनना व चिदम्बरम का वित्तमंत्री बनना सभी इसी शर्त के सामने आत्मसमर्पण है. विड़ंबना यही है कि कांग्रेस बाहर से भी सरकार को अपनी दिशा पर चला रही है और सीपीआई(एम) संयुक्त मोर्चे में रहकर भी ऐसा करने में विफल है.

सीपीआई(एम) का यही विरोधाभास एक ओर उसपर सरकार में शामिल होने पर पुनर्विचार करने के लिए बाहरी दबाव बढ़ा रहा है  वहीं दूसरी ओर संयुक्त मोर्चे से बाहर रहकर आलोचनात्मक समर्थन देने की अंदरूनी मांग भी तेज हो रही है. भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस से भी दूरी बनाए रखने के लिए सीपीआई(एम) नेतृत्व के किसी भी निर्णय का हम अवश्य स्वागत करेंगे.

क्या आपको लगता है कि वामपंथ को मोर्चा सरकारों में शामिल होने की अपनी पुरानी कार्यनीति में बदलाव लाने की जरूरत है? पुरानी अर्थात् सरकार की नीतियों को प्रभावित कर पाने की स्थिति में ही मोर्चा सरकारों में शामिल होने की नीति में?

जब कहा जाता है कि हम किसी भी सरकार में तभी हिस्सा लेंगे जब हम उसकी नीतियों को निर्धारित करने लायक शक्ति रखते हों, तब अमूमन यह बात राज्य सरकारों के संबंध में ही कही जाती है. संसदीय रास्ते में केन्द्र में ऐसी कोई संभावना दूर-दूर तक नजर नहीं आती. इसबार भी जबकि वाम मोर्चा तीन-तीन राज्यों में सरकार चला रहा है तब भी संसद में उसकी उपस्थिति पुरानी संख्या के ही इर्द-गिर्द है. राज्य सरकारों के जो प्रयोग अब तक चले हैं, उससे राष्ट्रीय स्तर पर मजदूर-किसान गोलबंदी पर या वामपंथ की शक्तिवृद्धि पर शायद ही कोई असर पड़ा है. दूसरे राज्यों में, विशेषतः भारतीय राजनीति के केन्द्रस्थल हिन्दी प्रदेशों में, थोड़ी-मोड़ी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए भी वाम दल मध्यमार्गी ताकतों पर बुरी तरह निर्भरशील हैं.

इन हालात में बुर्जुआ-जोतदार सरकार में इक्का-दुक्का वामपंथी मंत्री वर्ग-शांति और वर्ग-समझौतों पर प्रवचन देने के सिवा और कुछ नहीं कर सकते. यूरोप में सामाजिक जनवादी अरसे से यह सब करते रहे हैं और उससे वामपंथी व कम्युनिस्ट आंदोलन के बिखरने व पतित होने के सिवा और कुछ हासिल नहीं हुआ.

सीपीआई के थके-हारे बुजुर्गों की बात अलग है. लेकिन कम्युनिस्ट आंदोलन की युवा कतारों को शार्टकट के इस मोह से बचना ही होगा.

इसी संदर्भ में एक जरूरी सवाल यह कि आपकी पार्टी इसबार भी किसी संयुक्त मोर्चे में जाने से वंचित रह गई. यह पार्टी की मोर्चे नीति की विफलता का संकेत है, उसकी किसी कमी का या अभी परिस्थिति के उस नीति के अनुकूल विकसित न हो पाने का? क्या आपको अपनी मोर्चा नीति पर किसी तरह के पुनर्विचार की जरूरत महसूस हो रही है?

अभी भी जिस स्तर पर हम काम कर रहे हैं उसमें हमारा प्रधान जोर अपनी ताकत के निर्माण पर ही है. सामाजिक स्तर पर जनता के विभिन्न वर्गों व तबकों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने का हमारा प्रयास लगातार जारी है. यह एक कष्टसाध्य लंबी साधना है जिसका कोई विकल्प नहीं है.

राष्ट्रीय स्तर पर हमने हमेशा भाजपा-कांग्रेस विरोधी तीसरी ताकत के खेमे से अपने आपको आइडेन्टिफाइ किया है (पहचान बनाई है) और संयुक्त कार्यवाहियों में हमेशा शरीक रहे हैं. लेकिन सांगठनिक स्तर पर ऐसे किसी संयुक्त मोर्चे से अपने को बांध लेना विभिन्न राज्यों में हमारी पहलकदमी को कुंद कर देगा और ऐसा करना अभी के स्तर में पार्टी के विकाश के लिए आत्मघाती हो सकता है. फिर भी, हम अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के बीच हर विभाजन का अपने अनुकूल इस्तेमाल करने के लिए लगातार कार्यनीति विकसित कर रहे हैं, और इस संदर्भ में और भी गहन विचार-विमर्श की आवश्यकता है.

क्या आपको लगता है कि वर्तमान परिस्थिति वामपंथ की एकता को संभव बनाने की ओर बढ़ रही है?

अपनी राख से पुनर्जीवित जिस सीपीआई(एमएल) को आज आप देख रहे हैं उसके विकास में नक्सलपंथी आंदोलन के विभिन्न गुटों व सीपीआई-सीपीएम से आई बहुत-सी कतारों का योगदान है. इसके अलावा हम हमेशा ही दूसरी वामपंथी ताकतों के साथ संवाद व संयुक्त कार्यकलाप के लिए दरवाजों को खोलने के प्रयास में लगे हुए हैं.

हम जब वामपंथी एकता की बात करते हैं तो इसका अर्थ एकता के पुराने पैमाने को तोड़ते हुए नया आधार खड़ा करना होता है. वर्तमान परिस्थिति इस दिशा में नई बहसों को जन्म दे रही है और इन अर्थों में वह वामपंथी एकता के लिए अवश्य ही अनुकूल है.

इस संसदीय चुनाव में आपके अपनी पार्टी का प्रदर्शन कैसा लगा? क्या आपकी पार्टी इससे संतुष्ट है?

इसबार के चुनाव में बिहार में हमारे पास खोने के लिए कुछ नहीं था, पाने के लिए भी आरा की एक अदद सीट और इस लाख मतों का लक्ष्य. हमारे हर साथी ने इस लक्ष्य प्राप्ति के लिए अपनी पूरी ताकत उड़ेल दी. ठोस राजनीतिक-सांगठनिक परिस्थितियों में जितना आगे बढ़ा जा सकता था उसे पाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई.

असम में हमारा प्रयोग आगे बढ़ा और देश भर में 45 स्थानों पर उम्मीदवार देकर हमने बड़े पैमाने पर राजनीतिक प्रचार संगठित किया.

लक्षय प्राप्ति में जो कमियां रह गई उन्हें पूरा करने का मौका संभवतः जल्द ही फिर आएगा.

वामपंथी और मध्य दलों में से किसी के साथ मोर्चा तो नहीं बन पाया, सामाजिक धरातल पर भी मध्य जातियों या मध्य वर्ग के किसी हिस्से से आपकी पार्टी को मोर्चा बनाने में सफलता नहीं मिल पाई. इसे आप किस रूप में देखते हैं? इसको लेकर आपकी भावी रणनीति या कार्यक्रम क्या है?

मध्य जातियां या मध्य वर्ग के कुछ हिस्सों का समर्थन हमें अवश्य मिला है अन्यथा तीन-तीन  क्षेत्रों में एक लाख से अधिक मत प्राप्त करना शायद संभव न होता. फिर भी, इस चुनाव में हमारा जोर अपने वर्ग आधार को सुदृढ़ करने पर ही रहा. हमारे जनाधार में सेंधमारी की जनता दल की कोशिशों के चलते हमारे लिए यह आवश्यक भी था. जनता दल को लगे धक्के के परिप्रेक्ष में मध्य जातियों में प्रभाव-विस्तार की अनुकूल परिस्थिति अवश्य ही तैयार हुई है और हमने योजनाबद्ध तरीके से इस काम को हाथ में लेने का फैसला किया है.

वर्तमान स्थिति वामपंथ से आज किस तरह की भूमिका की मांग कर रही है? क्या वामपंथी दल एकताबद्ध होकर उस दिशा में बढ़ पाएंगे?

वामपंथी नेताओं को कांग्रेस और मध्यमार्गी ताकतों के बीच बिचौलिए की भूमिका त्याग कर साम्प्रदायिकता और विदेशी पूंजी पर निर्भर आर्थिक विकास के दर्शन के खिलाफ आवाज बुलंद करनी चाहिए. संसद में संयुक्त मोर्चा से अलग वाम विपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए. वामपंथी कतारों की भावना यही है. वामपंथी दलों का नेतृत्व एकताबद्ध होकर इस दिशा में बढ़ेगा या नहीं, यह तो वक्त ही बताएगा.

(8 मार्च 1996 को दिल्ली में भाकपा(माले) द्वारा आयोजित ‘अधिकार रैली’ में दिया गया भाषण,
समकालीन लोकयुद्ध, 15 अप्रैल 1996 से)

नजर जितनी दूर जाती है सिर्फ लाल झंडे ही नजर आ रहे हैं. कहते हैं जनता इतिहास बनाती है. आज इस लाल किले के मैदान में आपने एक नया इतिहास कायम किया है. हमने यह कहा था कि हमारी रैली इस दशक में हुई तमाम रैलियों का रिकार्ड तोड़ेगी. हमने यह दावा किया था कि वामपंथ की यह सबसे बड़ी रैली होगी और इस सच्चाई को आपने साबित किया है. रैलियों के तमाम पुराने रिकार्ड को तोड़ते हुए आपने एक नया इतिहास यहां कायम किया.

दोस्तो, आज की इस रैली का रिकार्ड जरूर एक-न-एक दिन टुटेगा और मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि दूसरा और कोई नहीं, एक बार फिर सीपीआई(एमएल) इसी दिल्ली में इस रिकार्ड को तोड़ेगी.

हमने आपसे यह अपील की थी कि आप रास्ते की तमाम दिक्कतों को दूर करते हुए दिल्ली पहुंचें. और हमने देखा, हमारे साथी, और यहां तक कि तमाम दूसरी वामपंथी पार्टियों की कतारों के भी तमाम लोग हमारे इस आह्वान पर यहां पहुंचे. इस रैली के लिए हमने तमाम वामपंथी बुद्धिजीवियों से बातें कीं, तमाम लोकतंत्र पसंद लोगों से सहयोग मांगा और मैंने देखा कि बहुत बड़ी संख्या में वामपंथी और लोकतांत्रिक बुद्धिजीवियों ने भी हमें इस रैली में तमाम किस्म से सहयोग दिए. यह आप सबके सहयोग का नतीजा है कि आज की यह विशाल रैली संभव हुई है. आज  हम समझते हैं कि हमारा देश एक खास मुकाम पर खड़ा है, एक खास चौराहे पर खड़ा है जहां से वह एक रास्ते की तलाश कर रहा है. आज ही के दिन शायद इस लोकसभा के आखिरी सत्र का आखिरी दिन होगा और आज ही के दिन इस दिल्ली की सड़कों पर लाखों की तादाद में सारे हिंदुस्तान से किसान-मजदूर आए हुए हैं. इस संसद के सामने उनका यह सवाल है कि पिछले पांच वर्षों में इस संसद में क्या हुआ? यह एक सवाल है जिसका जवाब इस संसद के पास नहीं है. हमने यह देखा कि पिछले पांच वर्षों में एक माइनॉरिटी सरकार ने दूसरे दलों के सांसदों को पैसे देकर खरीदकर अपनी नाजायज सरकार चलाई. हमने यह देखा कि इस सरकार के मंत्रियों का बहुत बड़ा हिस्सा हवाला कांड में फंसा हुआ है, चार्जशीटेड है. कुछ तो जेल की भी हवा खा रहे हैं. तो दोस्तो, यह सवाल पैदा होता है कि ऐसा एक प्रधानमंत्री जिसका पूरा का पूरा काबीना ही भ्रष्टाचार में, घोटाले में डूबा हुआ हो, भला वह प्रधानमंत्री कितना ईमानदार हो सकता है? इसलिए सवाल उठा, हमारी पार्टी ने यह मांग उठाई कि सीबीआइ की जो जांच हो रही है वह जांच असली सरगनों के खिलाफ होनी चाहिए. तमाम दूसरों के खिलाफ तो हो रही है, लेकिन इन सभी भ्रष्टाचारियों का जो सरगना था उसे क्यों छोड़ दिया गया है? यह मांग हमारी पार्टी ने उठाई है. यही मांग इस रैली में भी उठाई गई है.

हां, जरूर राव साहब को मैं एक बात के लिए बधाई देता हूं कि उन्होंने जब देखा कि उनका सितारा गर्दिश में है तो उन्होंने कहा – इस तो डूबेंगे सनम तुमको भी ले डूबेंगे, और दिखा पड़ा कि सारी की सारी जो स्थापित राजनीतिक पार्टियां कहां हैं, आज कहा जा रहा है कि हम्माम में तो सब नंगे हैं. देश के सामने एक नई चुनौती आ खड़ी हुई है कि ऐसे हालात में हमारा देश किन रास्तों की ओर बढ़ेगा. मैं समझता हूं कि आज हमारे देश को नई राह की जरूरत है. देश को नई ताकतों की जरूरत है. यह जो पुरानी ताकतों का बोझ है, इस बोझ को सर से उठाकर फेंक देना है. इस पूरे बोझ को कूड़ेदान में फेंक देना है. नयी ताकतों को आज हिंदुस्तान में अपनी पहलकदमी बढ़ाते हुए देश की बागजोर को अपने हाथों में लेना है और इसीलिए हमारी पार्टी ने इस रैली को किया. इस रैली के प्रति हमने जितने बड़े पैमाने पर समर्थन देखा वह बात को साबित करता है कि हमारा देश एक नए रास्ते की ओर जाना चाहता है. और हमारी जिम्मेदारी है, वामपंथ की जिम्मेदारी है कि वह देश की जनता को नेतृत्व प्रदान करे.

तो साथियो, बहुत सारी बातें आ रही हैं. इस चुनौती के मुकाबले के लिए बहुत तरह के विकल्पों की बातें की जा रही हैं. पिछले कुछ दिनों में हमने देखा कि ये बातें आ रही थीं कि कुछेक ईमानदार नौकरशाह शायद हिंदुस्तान में क्रांति ला दें. लेकिन आपने देखा कि यह संभव नहीं है. दुनिया के किसी भी देश के इतिहास में नौकरशाहों ने क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं लाया है. क्रांतिकारी परिवर्तन हमेशा इन नौकरशाहों को हटाकर ही लाया गया है. फिर, यह कहा जाने लगा, अब शायद हिंदुस्तान में परिवर्तन सुप्रीम कोर्ट लाएगा. सुप्रीम कोर्ट ने अगर हवाला कांड में या भ्रष्टाचार के दूसरे मामलों में कोई पहलकदमी ली है तो हम जरूर उसका स्वागत करते हैं. लेकिन कई सवाल रह जाते हैं. हमने पिछले दिनों देखा, इसी सुप्रीम कोर्ट ने हिंदुत्व के मामले में एक फैसला लिया. हमने देखा कि महाराष्ट्र के चीफ मिनिस्टर ने अपने चुनाव में खुलेआम यह घोषणा की थी कि उनकी सरकार बनेगी तो महाराष्ट्र में पहला हिंदू राज्य होगा. मुकदमें की जब सुनवाई चल रही थी तब हर आदमी ने यह सोच रखा था कि मनोहर जोशी का चुनाव खारिज होनेवाला ही है. शिवसेना-बीजेपी वाले वहां पर नए मुख्यमंत्री का चुनाव कर रहे थे. लेकिन सारे देश ने बड़े अचरज के साथ देखा कि सुप्रीम कोर्ट ने हिंदुत्व की नई-नई परिभाषाएं दीं और उनके चुनाव को खारिज नहीं किया. और मैं कहना चाहूंगा टेलिकॉम के घोटाले पर. सरकार की नई इकॉनमिक पालिसी से जुड़े एक और बहुत बड़े घोटाले का बात आई थी. बात जब सुप्रीम कोर्ट में गई तब हमने बड़े अचरज से देखा कि कितनी तेजी से उस मामले में फैसला हुआ. हम देखते हैं, आमतौर पर मुकदमों के फैसले बड़े लंबे चलते हैं. लेकिन हमने देखा कि बहुत तेजी से वहां फैसले हुए और सुखराम जी को पूरी तरह से बरी कर दिया गया. यहां तक कि सरकार की टेलीकॉम पालिसी के पक्ष में भी, निजीकरण के पक्ष में भी बहुत सारे तर्क जुट गए. इसलिए मैं यह कहना चाहता था कि अगर कोई यह समझता हो कि देश में क्रांतिकारी परिवर्तन सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के जरिए आएंगे, तो मैं मसझता हूं कि वह एक मध्यवर्गी सपना हो सकता है, वह जमीनी सच्चाई नहीं हो सकती. देश में अगर क्रांतिकारी परिवर्तन लाने की ताकतें हैं, तो वे ताकतें इन मजदूर-किसानों की हैं, इन लाखों लोगों की हैं जिन्होंने आज दिल्ली की सड़कों पर मार्च किया है. यही वह ताकत है जो देश में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती है.

हम यह कहना चाहेंगे कि आज हमारा शासक वर्ग एक बहुत बड़े संकट में फंसा हुआ है. इस संकट से निकलने के लिए तमाम किस्म के मुद्दे उछाले जा रहै हैं. भारतीय जनता पार्टी वालों ने फिर से फैसला लिया है कि हमें हिंदुत्व का मुद्दा बड़े जोर-शोर से उछालना है. नए सिरे से पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध की बातें भी की जा रही हैं. तनाव भड़काए जा रहे हैं. हम भारतीय जनता पार्टी  वालों को यह कहना चाहते हैं कि देशप्रेम का ठेका तुमने नहीं लिया हुआ है. देश के साथ हम मोहब्बत करते हैं. देश की आजादी के लिए, देश की संप्रभुता की रक्षा के लिए संघर्ष में सबसे आगे कम्युनिस्ट पार्टी के लोग रहेंगे, सबसे आगे कम्युनिस्ट पार्टी लड़ेगी, सबसे आगे हम कुर्बानी देंगे. इन जनसंघियों को शुरू से ही हम जानते थे. शुरू से आम लोग भी यह जानते थे कि ये अमरीकी दलाल हैं. आप देखें हाल के दिनों में ही सीआइए की एक स्टडी, उनका एक शोध निकला था जिसमें उन्होंने यह कहा था कि हिंदुस्तान बहुत दल्दी टूट जाएगा. ये अमरीकियों के सपने हैं, ये सीआइए वालों के सपने हैं और हम समझते हैं कि भारत को तोड़ने की साजिश कोई यहां अगर कर रहा है तो वे भारतीय जनता पार्टी जैसा पार्टियां कर रही हैं. हिंदुत्व के नारे के साथ वे जिस तरह से हिंदुस्तानियों के दिलों को बांट रहे हैं वह एक न एक दिन फिर हमारे देश को विभाजन की ओर ले जाएगा. इसलिए मैं यह बात कहना चाहता हूं कि असल में उग्र देशप्रेम के नाम पर भारतीय जनता पार्टी जैसी ये ताकतें सीआइए के इशारे पर फिर एक बार भारत को विभाजित करने की कोशिशें कर रही हैं और हमें इन कोशिशों को जरूर नाकाम करना होगा.

विकल्प के सवाल पर तीसरे मोर्चे की बातें उठी हैं. हम तमाम लोकतांत्रिक-वामपंथी ताकतों के साथ अवश्य ही दोस्ती करना चाहते हैं. लेकिन मैं एक बात कह देना चाहूंगा कि मंडल और सामाजिक न्याय की जो ताकतें थी उनकी प्रगतिशीलता की सीमा समाप्त हो चुकी है. उत्तरप्रदेश में पिछले दिनों जब मुलायम सिंह यादव का राज था तो हमने यह देखा कि मुजफ्फरनगर में उत्तराखंड के प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलायी गई. वहां महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया. इस सिलसिले में मुलायम सिंह जी का पहला बयान था कि यह सब झूठ है. पुलिस का मनोबल गिराने के लिए यह सब कुछ प्रचार किया जा रहा है. हमारे देश में पुलिस का मनोबल बनाए रखना जरूरी होता है और पुलिस का मनोबल बनाए रखने के लिए बलात्कार करने की छूट देना ही शासक वर्गों की राजनीति है. फिर बाद में जब इस पर दबाव बढ़ा तो उन्होंने कहा कि अगर यह साबित हो जाए तो हम राष्ट्र के सामने माफी मांगेंगे. यह बात साबित हो चुकी है लेकिन उन्होंने राष्ट्र के सामने माफी नहीं मांगी, माफी उन्होंने उत्तराखंड के लोगों के सामने मांगी है. दोस्ती के कदम बढ़ाने के पहले हमारी यह मांग है कि मुजफ्फरनगर कांड में जो कुछ हुआ उसके लिए सारे राष्ट्र के सामने माफी मांगनी चाहिए.

साथियो, इस तीसरे मोर्चे की ताकत के रूप में दूसरी जिस सबसे बड़ी ताकत का नाम आता है वह लालू यादव और उनका जनता दल है. प्रेस के जरिए हो या तमाम मीडिया के जरिए, उनकी जो तस्वीर सारे देश में रखी गई है, हम समझते हैं, वह बिहार की असलियत नहीं है. बिहार के अंदर जाकर आप देखें, वहां पर सामाजिक न्याय और उसके नाम पर जो कुछ हुआ है वह सिर्फ इतना ही हुआ है कि लूट-खसोट के मामले में सवर्णों का जो मलाईदार तबका था उसमें पिछड़ों का भी एक मलाईदार तबका शामिल हो गया है. आज जिस पशुपालन घोटाले की बात हो रही है उसमें जिन दो शख्सियतों का नाम आ रहा है वे हैं जगन्नाथ मिश्र और लालू यादव. और, ये दोनों एक दूसरे को जी जान से बचाने की कोशिशें कर रहे हैं. पहले मुझे बड़ा अचरज होता था जब मैं देखता था कि लालू जी का एक ही कार्यक्रम था. वे बार-बार घोषणा करते थे कि हम गरीबों के लिए मकान बनवा देंगे. मकान बनवाने के सिवा दूसरी कोई बात वे नहीं करते थे. मुझे लगता था इतनी सारी बातें हैं, इतनी मांगे हैं, उनकी नजर में सिर्फ मकान ही क्यों घूमता रहता है. बाद में मुझे पता लगा कि असल में पशुपालन घोटाले के पैसे के बल पर पटना में बड़े-बड़े मकान बन रहे हैं – बड़े-बड़े महल बन रहे है. इसलिए मकान के सिवा दूसरा कुछ उन्हें नजर ही नहीं आ रहा. आपको हम बताना चाहते हैं कि बिहार के अंदर हमारी पार्टी के एक विधायक को, जनता के लोकप्रिय नेता को पिछले छह महीनों से जेल में बंद कर दिया गया है. वहां हमारे हजारों साथियों के खिलाफ तमाम मुकदमे चल रहे हैं. हमारे ये तमाम लोग वहां जनांदोलन कर रहे हैं, सामंती ताकतों के खिलाफ लड़ रहे हैं. हम पाते हैं कि सरकारी प्रशासन उन्हीं सामंतों के साथ गठजोड़ किए रहता है. वहां लगातार जनसंहार हो रहे हैं, बड़ी-बड़ी घटनाएं घट रही हैं. लेकिन प्रशासन के कान पर जूं तक नहीं रेंगती और हमारे हजारों हजार साथियों को या तो जेलों में बंद करके रखा गया है या उनके ऊपर वारंट जारी कर दिया गया है. उन्हें उम्मीद है कि इस दमन के जरिए वे बिहार से भाकपा(माले) को उखाड़ फेंकेंगे. लेकिन आप यह सच्चाई देखें, मैंने कई बार इस बात को कहा भी है, मैं फिर यह कहना चाहूंगा कि आज तक  ऐसी किसी बंदूक की गोली नहीं बनी है, ऐसी किसी बंदूक का आविष्कार नहीं हुआ है जो भाकपा(माले) को उखाड़ फेंक सके, आज तक ऐसे नोट नहीं छपे हैं जो भाकपा(माले) के नेताओं को खरीद सकें. साथियो, हम जिंदा हैं, हम आगे बढ़ रहे हैं, हमारे कितने साथियों को मारा गया है, हमारे हजारों लोगों को जेलों में बंद करके रखा गया है, हमारे हजारों लोगों के खिलाफ मुकदमे हैं, इसके बावजूद, हमारा जनांदोलन, हमारी ताकत लगातार बढ़ती चली जा रही है. जो लोग यह समझते थे कि लालू यादव के पिछलग्गू बने रहने से उनकी पार्टी की ताकत बढ़ेगी उनकी पार्टी का आज बिहार से, बिहार की जमीन से सफाया हो चुका है.

हम जरूर चाहते हैं कि तीसरा मोर्चा बने. हम चाहते हैं कि तमाम प्रगतिशील लोकतांत्रिक ताकतें एक साथ हाथ मिलावें. लेकिन उसके लिए सबसे पहले जनता की ओर देखना चाहिए. किसी मुलायम-लालू-जयललिता में ताकत नहीं हुआ करती. ताकत होती है आम जनता में, मजदूरों-किसानों में. सबसे पहले हमें उस ताकत के बल पर आगे बढ़ने की हिम्मत होनी चाहिए. इस हिम्मत के बल पर ही हम अपने दोस्त तलाश सकते हैं, हमें मित्र मिल सकते हैं – जिन मित्रों को हम नेतृत्व दे सकते हैं. तब हम उनके पीछे- पीछे घिसटने नहीं.

हम कहना चाहते हैं कि राजनीति में किस्म-किस्म के समझौते करने पड़ते हैं. हम इस या उस लोकतांत्रिक ताकत के साथ, इस या उस मुद्दे पर थोड़े समय के लिए, यहां-वहां दोस्ती कर भी सकते हैं, थोडे समय के लिए राष्ट्रीय पैमाने पर भी दूसरी लोकतांत्रिक शक्तियों के साथ कुछ मोर्चे बन सकते हैं. लेकिन मैं यह ऐलान करना चाहता हूं कि हम इस किस्म के किसी स्थायी मोर्चे में विश्वास नहीं करते. तमाम तथाकथित धर्मनिरपेक्ष विकल्प की जो धारणा है – ऐसी धारणा, जो कहती है कि हमेशा के लिए एक स्थायी किस्म का कोई तीसरा मोर्चा बनेगा और नेशनल फ्रंट जैसी ताकतें उसको नेतृत्व देंगी – हम इस किस्म के किसी स्थायी मोर्चे के पक्ष में नहीं हैं. वामपंथ की ताकतों को आगे बढ़ाने के लिए, लोकतांत्रिक आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए हम जरूर इससे या उससे दोस्ती कर करते हैं – सामयिक तौर पर, कुछ समय के लिए, लेकिन हम किसी भी स्थायी मोर्चे में अपने आपको कभी बांध नहीं सकते, क्योंकि यही क्रांतिकारी राजनीति हुआ करती है.

आज हमारे सामने बहुत बड़ी-बड़ी चुनौतियां हैं. हमने बार-बार अपने वामपंथी दोस्तों से अपील की है कि आइए, हमारे बीच तमाम फर्क रहते हुए भी हम एक साथ चलने की कोशिश करें. हम यह बात साफ कर देना चाहेंगे कि सीपीआई(एमएल) का जन्म ही हुआ था वामपंथ पर छाए अवसरवाद को खत्म करने के लिए. और इस सवाल पर भाकपा(माले) कभी समझौता नहीं कर सकती. यह बुनीयादी सवाल है. भाकपा(माले) अगर इस सवाल पर समझौता कर ले, अवसरवाद से समझौता कर ले, आंदोलन से समझौता कर ले तो उसके अस्तित्व की जरूरत ही खत्म हो जाती है. मैं यह बात साफ कर देना चाहूंगा कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) का जन्म ही हुआ था तमाम किस्म के अवसरवाद के सफाए के लिए और हमारा वह संघर्ष अवश्य ही जारी रहेगा. कोई भी अगर किसी भी दबाव के बल पर, किसी भी दादागीरी के बल पर, किसी भी वामपंथी एकता के नाम पर यह समझता हो कि हमारी पार्टी को क्रांतिकारी उद्देश्यों से, क्रांतिकारी लक्ष्यों से दूर हटा सकता है तो मैं सिर्फ इतना ही कह सकता हूं कि वह मूर्खों के स्वर्ग में वास कर रहा है. हां, इन बुनियादी फर्कों के रहते हुए भी देश के सामने जो संकट हैं, जो समान मुद्दे हैं उन मुद्दों पर और आज देश की जरूरत पर हम एक साथ काम कर सकते हैं. जन संगठनों के मंचों पर हम पिछले पांच बरसों से एक साथ काम कर रहे हैं और तमाम मतभेदों के बावजूद सारे देश में राजनीतिक मुद्दों को उठाते हुए एक साथ चल सकते हैं. इसके लिए हमारी पार्टी हमेशा कोशिश करती रहेगी. हमारी यह कोशिश वर्षों से जारी है, हमारी यह कोशिश अगले पांच वर्षों तक भी जारी रहेगी, हमारी यह कोशिश अगले दस वर्षों तक भी जारी रहेगी. हमने वामपंथ की विभिन्न धाराओं से, चाहे वे सीपीआई-सीपीएम हों, चाहे नक्सलबाड़ी धारा से उपजे हुए तमाम दूसरे ग्रुप हों, सबके साथ दोस्ती की बात कही है. जो सामूहिक मुद्दे हैं, सबके साथ मिलकर एक साथ लड़ने की बात कही है. इस मामले में हमारी पार्टी कभी कोई संकीर्णता नहीं करती जैसा कि जन संगठन के मंचों पर यह साबित भी हो चुका है. हमारे बुनियादी फर्क हैं और रहेंगे. कहा जाता है कि आप वाम मोर्चा सरकार की आलोचना मत करें. हम आपके सामने यह कहना चाहते हैं कि बंगाल में सिद्धार्थ शंकर राय के जमाने में (कांग्रेसी जमाने में) हजारों जवानों का खून कर दिया गया था, एनकाउंटरों में हजारों नौजवानों को ठंडे दिमाग से मार दिया गया था, हमारी पार्टी के नेता सरोज दत्त और चारु मजुमदार जैसे लोगों की भी हत्या की गई. वाम मोर्चा सरकार वहां 18 वर्षों से शासन में है, गर्व के साथ कहते हैं कि हम 18 वर्षों से शासन में हूं. ठिक है, आप 18 वर्षों क्यों, 88 वर्ष शासन कीजिए. हमें इसमें कोई गम नहीं है. लेकिन हमारा यह सवाल था – 1970 के पूरे दशक में सिद्धार्थ शंकर राय के जमाने में जो कत्लेआम हुए और आप ही ने खुद स्वीकार किया कि यहां ये कत्लेआम हुए थे, फासीवाद चला था – मैं यह जानना चाहता हूं कि अठारह वर्षों के शासन में उन अपराधियों में एक को भी क्या एक दिन की भी सजा वाम मोर्चा सरकार के जमाने में हुई है? कामरेड सरोज दत्त सिर्फ हमारी पार्टी के नेता नहीं थे. वे पूरे बंगाल के एक विशिष्ट बुद्धिजीवी थे, वामपंथी बुद्धिजीवी थे. उनकी मौत की जांच का सवाल आज भी वहां अनसुलझा पड़ा है. बंगाल के दस हजार विशिष्ट बुद्धिजीवियों ने दस्तखत करके भी ज्योति बसु के पास दिया कि आप इसकी जांच करायें. लेकिन आज तक इस सिलसिले में कुछ भी नहीं किया गया. हम इन सवालों को उठाते हैं जो सीपीएम के विरोध में नहीं हैं. ये सवाल पूरे लोकतांत्रिक आंदोलन के भविष्य के सवाल हैं क्योंकि कांग्रेस की वे काली ताकतें फिर एक बार बंगाल में अपना सर उठा रही हैं. बंगाल में सिद्धार्थ शंकर राय एक बार फिर वापस आ रहा है. उनकी ममता बनर्जी फिर एक बार लोगों में लोकप्रिय हो रही हैं. इसलिये हम यह कहते हैं कि आपने 18 वर्षों के शासन में इनमें से किसी को भी कोई सजा न दी उसी का नतीजा है कि आज ये तमाम काली ताकतें फिर एक बार वापस आने की कोशिशें कर रही हैं.

इसलिए दोस्तो, हम ये मांगें उठाते रहेंगे क्योंकि ये मांगें वामपंथी आंदोलन के स्वार्थ में हैं, क्योंकि ये मांगें लोकतांत्रिक आंदोलन के स्वार्थ में हैं. ये मांगें किसी इस या उस पार्टी के विरोध के लिए नहीं हैं, इस या उस सरकार के विरोध के लिए नहीं हैं; लोकतंत्र के लिए हैं. हम लोकतांत्रिक क्रांति की बातें करते हैं. लोकतंत्र की यह भी मांग होगी, लोकतंत्र समकालीन मांगों पर आगे बढ़ेगा. उसमें से एक भी मांग, एक भी मुद्दे को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) कभी नहीं छोड़ेगी. उससे चुनाव में हमें सीटें मिलेंगी या नहीं मिलेंगी, हमारे लोग जीतेंगे या हारेंगे इसकी हम कभी परवाह नहीं करते.  

आप यहां आएं हैं इस लालकिले के सामने, इस लालकिले पर लाल झंडा फहराने का सपना इस मुल्क के कम्युनिस्टों का बहुत पुराना सपना है. यह लालकिला वह ऐतिहासिक स्थान है, जहां 1857 में आजादी की लड़ाई का बिगुल बजा था. आज हमारे देश को एक ओर बाहर की बहुराष्ट्रीय निगमों के हाथों, दूसरी ओर हमारे देश के अंदर तमाम ये जो हवाला किस्म की ताकतें हैं, थैलीशाह हैं, माफिया हैं, इनके हाथों बेच दिया गया है. पहले हम सुना करते थे टाटा-बिड़ला की बात, टाटा-बिड़ला के हाथों एमपी-एमएलए बिका करते थे. लेकिन आज हम देखते हैं, किसी भी ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा के हाथों हमारे देश के ये सांसद बिकते चले जा रहे हैं. कहां एसके जैन, जिसके बारे में पहले कोई भी कुछ भी नहीं जानता था, आज उसी के हाथों हमारे देश के ये सांसद बिकते चले जा रहे हैं.

इसीलिए एक बार फिर देश की आजादी की लड़ाई हमें लड़नी है. देशप्रेम का झंडा एक बार फिर हम कम्युनिस्टों को बुलंद करना है. यह हमारी जिम्मेवारी है. 1857 से जो लड़ाई शुरू हुई थी वह लड़ाई अभी भी पूरी खत्म नहीं हुई है, यह लड़ाई जारी रहेगी. देशप्रेम के झंडे को हमें आगे बढ़ाना है. यह हमारा फर्ज है और इस सिलसिले में ये जो तमाम प्रगतिशील बुद्धिजीवी हैं जो तमाम किस्म के आंदोलनों में लगे हुए लोग हैं, मैं उन सबसे यह अपील करूंगा कि देश के आज के संकट के समय में आप सिर्फ अलग-अलग आंदोलनों में अलग-अलग किस्म के मुद्दों में ही सिमटे मत रहिए. आप में से बहुत ही अच्छे, बहुत योग्य लोग हैं. आज समय की मांग है कि देश के सारे ईमानदार लोग, सारे ईमानदार बुद्धिजीवी, हम सब इकट्ठा हों, हम सब नजदीक आएं और यह एलान करें कि यह देश तुम्हारा नहीं है, यह देश इन थैलीशाहों का नहीं है, यह देश इन माफियाओं का नहीं है, यह देश इन पूंजीपतियों का नहीं है, यह देश भ्रष्ट नेताओं का नहीं है. यह देश मजदूरों का है, यह देश किसानों का है, यह देश नौजवानों का है, यह देश बुद्धिजीवीयों का है, यह देश हमारा है और इस देश पर हमारा हक होगा, इस देश की बागडोर हमारे हाथों में होगी.

तो साथियो, आपको यह लड़ाई लड़नी है. आप संघर्षों के खेत-खलिहानों से आए हैं, कारखानों से आए हैं. लौटने के बाद आपकी फिर एक बार वहां संघर्षों में जुटना पड़ेगा. खासकर, भोजपुर के साथियों से मैं ये कहना चाहूंगा. वहां के साथी बड़ी दिलेरी के साथ मुकाबला करते हुए आए हैं. उनके ऊपर वहां ग्रेनेड फेंके गए थे. यहां जो सामंती ताकतें हैं वे जनसंहार संगठित कर रही हैं. आप लौटेंगे और लौटकर आपकी फिर संघर्षों में उलझना है, संघर्षों को आगे बढ़ाना है. लेकिन आपको यहां से, रैली से यह सबक लेकर जाना है कि आपकी लौटकर वहां इन सामंती सेनाओं के, रणवीर सेना के छक्के छुड़ा देने हैं, इनका सफाया कर देना है. इस रैली के ऊपर कलंक हैं, जो समाज के विकास के रास्ते में रुकावट बनी हुई हैं, जो आम गरीब, निरीह, निर्दोष लोगों की हत्याएं कर रही हैं, हिम्मत के साथ इनके मुकाबले में आपको खड़ा होना है.

मैं आपसे कहना चाहूंगा कि सामने चुनाव आनेवाले हैं. ये चुनाव शायद एक दो दिनों में ही घोषित हो जाएं. इन चुनावों में आपके सामने एक बहुत बड़ा मौका है. आज तमाम राजनीतिक पार्टियों का चेहरा खुल गया है, उनकी नकाब खुल गई है. इसलिए आपके सामने यह मौका है कि आप जनता के पास जाएं, जनता को बताएं – इस पूरी व्यवस्था के बारे में बताएं, तमाम राजनीतिक पार्टियों के चेहरे के बारे में बताएं और उन्हें यह बताएं कि आज हमें और हमारे देश को एक नई राह पर चलना है, और वह नई राह कोई दूसरी ताकत नहीं सिर्फ भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) ही दे सकती है. मुझे पूरा यकीन है, मेरा यह पूरा विश्वास है और फिर मैं अपनी पहली बात दुहराते हुए कहूंगा कि आज से कुछ वर्षों बाद फिर हम दिल्ली के इस लालकिले के मैदान में मिलेंगे, आज की इस रैली के रिकार्ड को फिर एक बार तोड़ देने के लिए.

इंक्लाब जिंदाबाद!

(लिबरेशन, जनवरी 1996 से)

हाल फिलहाल दिल्ली में सीपीआई की 16वीं कांग्रेस संपन्न हुई. सीपीएम, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक के अलावा एसयूसीआई, पीजेंट्स वर्कर्स पार्टी के साथ-साथ हमारी पार्टी को भी इस कांग्रेस के खुले सत्र में शामिल होने और प्रतिनिधि सत्र को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया था. इन तमाम पार्टियों के, जो एक साथ मिलकर वामपंथी शक्तियों के विशाल बहुमत का प्रतिनिधित्व करती हैं, एक मंच पर आने से मीडिया जगत में उनके नजदीक आने को लेकर अटकलें लगने लगीं. कुछ समाचारपत्रों ने तो यहां तक भी छापा कि इन पार्टियों के बीच कुछ आपसी सहमति भी बनी है. बहुतेरे संवाददाताओं और अनेक कामरेडों की उत्सुकता का जवाब देते हुए मुझे इस भ्रम को तोड़ना पड़ा और इसे अक्सरहां यूं ही की जाने वाली बात की तरह पेश करना पड़ा. मुझे उनके उत्साह पर पानी फेरने का दुख है. लेकिन जब बात वाम एकता जैसे गंभीर और जटिल मसले पर हो तब कोई भी शब्दों से खेलने का आनन्द उठाना नहीं चाहेगा.

अब देखा जाए कि सीपीआई की कांग्रेस में वाम एकता के पूरे मसले को किस तरह से देखा गया. अक्सरहां पूंजीवादी मीडिया जगत की भी खबर बनते रहने वाले एकता के सवाल पर सीपीआई-सीपीएम के बीच चल रहे तीखे वाद-विवाद से पाठकगण संभवतः अवगत होंगे. सीपीआई अपनी इस बात पर कायम है कि 1964 का विभाजन बेबुनियाद है और इससे बचा जा सकता था. इसी आधार पर सीपीआई दोनों पार्टियों को मिलकर एक हो जाने का आह्वान करती है. दूसरी तरफ, सीपीएम 1964 के  विभाजन के पीछे बुनियादी मतभेद की बात को दोहराती रहती है. यह मतभेद मूलतः भारतीय राज्य और भारतीय क्रांति के चरित्र को लेकर था जिसे वह आज भी प्रासंगिक मानती है. इसलिए सीपीएम-सीपीआई के कार्यक्रम में पूरी तरह संशोधन की मांग करती है और इस बीच, अपनी बेहतर शक्ति और संगठन के बलबूते, सीपीआई में विभाजन कराने तथा इसके जनाधार को अपनी तरफ खींच लेने का मंसूबा बांधे हुए है. सीपीआई और सीपीएम के बीच झारखंड, उत्तराखंड तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों के क्षेत्रीय स्वायत्तता आंदोलनों पर अपनी अलग-अलग स्थितियों को लेकर तथा इसके अलावा, इस या उस प्रांत में बुर्जुआ विपक्षी पार्टीयों के बीच से अपना-अपना साझीदार चुनने को लेकर भी कुछ मतभेद हैं. विलय को लेकर सीपीएम की चिढ़ का ख्याल करते हुए इस कांग्रेस ने विलय के प्रस्ताव को फिलहाल स्थगित रखा. इस बाबत सीपीआई की सांगठनिक रिपोर्ट कहती है, “इस दरम्यान हमारी कतारों को इस सवाल पर भ्रमित हो जाने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़नी चाहिए क्योंकि सीपीएम का मंसूबा कुछ और ही है.” आगे रिपोर्ट “पार्टी की स्वतंत्र पहचान और कार्यवाही” जारी रखने तथा “सीपीएम के रूबरू पार्टी की कार्यक्रमगत एवं सांगठनिक स्थितियों” पर पार्टी के सैद्धांतिक पक्ष को उजागर करने पर जोर देती है. आखिरकार, अपने को बचाए रखने का सहजबोध एक ही पार्टी के भीतर एकताबद्ध हो जाने की पवित्र आकांक्षाओं पर हावी हो ही गया.

वाम एकता के प्रश्न की ओर रुख करते हुए कांग्रेस ने इस पूरे एजेंडे को आगामी लोकसभा चुनावों के तात्कालिक परिणामवादी संदर्भों में समेटकर पेश किया. फलतः, जो कांग्रेस वाम एकता के ढोल-नगाड़े के साथ शुरू हुई थी वह मुलायम सिंह यादव के साथ चुनावी तौर पर ज्यादा मुफीद एकता कायम करने का रास्ता साफ करते हुए खत्म हुई.

संक्षेप में, सीपीआई की यह कांग्रेस आगामी संसदीय चुनाव के लिए पार्टी को गोलबंद करने के एक अभ्यास के अलावा और कुछ नहीं थी. अपने उदघाटन भाषण में इसका टोन सेट करते हुए का० इंद्रजीत गुप्त ने कहा “जो भी इस बात से सहमत हैं कि एक समान न्यूनतम कार्यक्रम पर आधारित बहुतेरी पार्टियों की साझेदारी वाली एक वाम-जनवादी और धर्मनिरपेक्ष सरकार का केंद्र में होना न केवल अपेक्षित है बल्कि मुमकिन भी है, उन्हें अपनी पूरी ताकत और संसाधन ऐसी चुनावी एकता हासिल करने में लगा देनी चाहिए, जिसके बगैर केंद्र में सत्ता परिवर्तन असंभव है. शक्तियों का एक ऐसा संतुलन ही जनता, खासकर गरीब जनता की आकांक्षाओं और राष्ट्र के हितों का प्रतिनिधि हो सकता है.” लेकिन का० गुप्त का दुर्भाग्य यह है कि उनकी शानदार योजना पर उनकी अपनी पार्टी के अलावा और कोई वामपंथी दल सहमत नहीं है. मगर सीपीआई की इस कांग्रेस को उपरोक्त कार्यक्रम को सूत्रबद्ध करने की श्रमसाध्य कसरत से बिल्कुल नहीं डिगाया जा सका, जिसे रंगबिरंगे वामपंथी, लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष दलों का न्यूनतम साझा कार्यक्रम कहा जा रहा है.

जनवादी और खासकर धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का दायरा बेशक बेहद व्यापक है. इसका विस्तार तिवारी-अर्जुन कांग्रेस तक है जो बकौल इंद्रजीत गुप्त “प्रधानमंत्री की नीतियों और कार्यशैली को एक सैद्धांतिक चुनौती देने” के श्रेय का हकदार है. कांग्रेस की रिपोर्ट में अपनी आत्मालोचना करते हुए इस बात पर अफसोस जाहिर किया गया है कि उत्तरप्रदेश के पिछले चुनाव में पार्टी विजयी सपा-बसपा गठबंधन से गठजोड़ कायम करने से चूक गई. उड़ीसा और मणिपुर की राज्य इकाइयों को संघवाद पर अमल करने और राष्ट्रीय परिषद की सलाहों की अनदेखी करने तथा गलत घोड़े पर दांव लगाने को लेकर खिंचाई की गई है. इसके विपरीत बिहार और आंध्रप्रदेश के प्रयोग का सही चुनावी कार्यनीति के नमूनों के बतौर गुणगान किया गया है. हां, बिहार राज्य कमेटी की, लोकसभा के उपचुनाव में पटना सीट लड़ने पर दबाव डालने के लिए, आलोचना की गई है.

तामिलनाडु की राज्य इकाई में जारी संघवाद को लेकर पार्टी केंद्र अब भी चिंतित रह सकता है जो अपना रिश्ता डीएमके के साथ जारी रखे हुए है. जबकि तामिलनाडु में मजबूत ताकत एआइडीएमके है और राजनीतिक रिपोर्ट का संकेत यह है कि पार्टी उसकी ओर से एक अनुकूल चुनावी रणनीति की प्रतीक्षा में है.

तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों में से बहुतेरी फिलहाल राज्यों में सरकार चला रही हैं और पूरी तत्परता से नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ जन आंदोलन चलाने में उनकी बहुत रुचि नहीं है. फिर, उनमें से कई भ्रष्टाचार और घोटालों में, माफिया-राजनेता गठजोड़ बनाने को बढ़ावा देने, जातिवादी, सांप्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतों के साथ गलबंहियां डालने और गांव के गरीब-दलित जनता पर पुलिसिया जुल्म जारी रखने में काफी नाम कमा चुकी हैं. खुद सीपीआई की रिपोर्ट में भी इन बातों को लेकर इन दलों और सरकारों के खिलाफ कई आलोचनात्मक टिप्पणियां की गई हैं.

फिर सीपीआई उन्हें उस न्यूनतम कार्यक्रम के तहत एकताबद्ध करने की आशा किस बिना पर लगाए हुए है. जबकि कार्यक्रम अन्य बातों के अलावा तमाम दमनकारी कानूनों व अध्यादेशों की वापसी, पुलिस बल में सुधार और ऊपर से नीचे तक पूरा फेरबदल, सांप्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतों का चौतरफा प्रतिरोध, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के अधिकारों की पूरी दृढ़ता से रक्षा, सार्वजनिक क्षेत्र की सुरक्षा, सीलिंग कानूनों को जोर-शोर से लागू करना, शिक्षा का अधिकार और काम का अधिकार, आपराधिक रिकार्ड वाले व्यक्तियों को टिकट देने से मनाही और काले धन का पर्दाफास आदि-आदि पर जोर देता है?

कहना न होगा कि अगर सीपीआई इस न्यूनतम कार्यक्रम के प्रति ईमानदार बनी रहती है तो वाम-जनवादी और धर्मनिरपेक्ष मोर्चे का दायरा खुद ब खुद काफी तंग हो जाएगा. पार्टियों की संख्या के लिहाज से, खासकर उन पार्टियों की जो सीपीआई को एक बेहतर संख्या में सीटें जितवाने में सक्षम हैं, यह दायरा तो निश्चय ही तंग हो जाएगा. बेशक, इससे पार्टी का दायरा व्यापक जनसमुदाय तक जरूर फैल जाएगा जो फिलवक्त कोई चुनावी लाभ नहीं दे सकता. जहां तक सीपीआई की प्राथमिकताओं का सवाल है उसकी यह कांग्रेस किसी के लिए भ्रम की कोई गुंजइश नहीं छोड़ती. इसलिए किसी के पास यह निष्कर्ष निकालने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता कि न्यूनतम कार्यक्रम की यह पूरी कवायद महज धोखे की टट्टी है, मोर्चे और गठबंधन तो उन मजबूत बुर्जुआ सहयोगियों की तलाश के आधार पर बनाए जाएंगे जो चुनावी लाभ दिला सकें. अर्थात, सत्ता की चाहत में पार्टी अपने न्यूनतम कार्यक्रम को ताक पर रख देगी. यह बात समापन वक्तव्य से पूरी तरह साफ हो जाती है, जिसमें कहा गया है कि “न्यूनतम कार्यक्रम को जब विस्तारित, ठोस और अंतिम स्वरूप प्रदान किया जाए तो उसे वस्तुगत परिस्थितियों और वक्त के तकाजों के अनुकूल होना चाहिए.” दूसरे शब्दों में इस न्यूनतम कार्यक्रम को अनंत तक न्यूनतम किया जा सकता है.

आगे बढ़िए तो आप चकरा जाएंगे कि इस शानदार योजना में आखिरकार आप अपने को कहां फिट बैठाएंगे. रिपोर्ट कहती है, “रामो-वामो के भीतर एकताबद्ध वामपंथ चुनाव अभियान में एक प्रेरक का और गठबंधन के लिए गारा और सीमेंट का काम करेगा.”

“इसलिए यह जरूरी है कि एसयूसीआई, सीपीआई(एमएल), मार्क्सिस्ट कोअर्डिनेशन कमेटी इत्यादि जैसी पार्टियों को सीपीआई, सीपीएम, फारवर्ड ब्लाक और आरएसपी के साथ हाथ मिलाने के लिए कायल कर देने के वास्ते पूरी ताकत लगा दी जानी चाहिए ताकि देश के भविष्य के लिए बेहद गंभीर अगले आम चुनाव में वामपंथ की स्थिति को सुदृढ़ किया जा सके. वाममोर्चा सरकार के प्रति अपनी वैमनस्यता का त्याग करने के लिए उन्हें समझाना-बुझाना चाहिए.”

इस तरह वामपंथी एकता की यह पूरी कवायद हम लोगों को “समझाने-बुझाने” के एकतरफा प्रयास में विलीन हो जाती है. अर्थात, हम लोग उनके द्वारा परिभाषित रामो-वामो के दायरे में चलें और वाम मोर्चा सरकार के प्रति वैमनस्यता छोड़ दैं.

संक्षेप में, इस नजरिए में बड़े भाई वाला भाव मौजूद है. इसे उन्होंने पूर्व सोवियत संघ के अपने आकाओं से निष्ठापूर्वक सीखा है. यहां हमलोगों के पक्ष को महत्व देने की जरूरत ही नहीं समझी गई है और न मतभेदों को स्वीकृति देते हुए साझा बिंदुओं की तलाश का कोई प्रयास है जो कि एकता की तरफ बढ़ने का उचित मार्क्सवादी तौर-तरीका है. सीपीएम और सीपीआई के बीच रुख का फर्क “धौंस जमाने” और “फुसलाने” के बीच का फर्क है. हम इन दोनों रुखों को घृणापूर्वक ठुकराते हैं और ये इसी लायक हैं.

वाम मोर्चा सरकार के प्रति ‘वैमनस्यता’ की यह कैसी बेतुकी बात की जा रही है? उनके यह भले न अच्छा लगे लेकिन हमलोगों द्वारा वाम मोर्चा सरकार के प्रति अपनाई गई स्थिति पूरी तौर पर उसूली और ऐतिहासिक प्रक्रिया द्वारा अपनाई गई क्रांतिकारी वाम विपक्ष की स्थिति है. इन मतभेदों को उसूली वाद-विवाद के जरिए और राजनीतिक विकास की प्रक्रिया में ही हल किया जा सकता है, दयालु बड़े भाई के लाख समझाने-बुझाने व मान-मनौवल के जरिए नहीं. सीपीएम और वाम मोर्चा सरकार के साथ हमारे संबंधों को वैमनस्यता के तहत नहीं व्याख्यायित किया जा सकता. क्योंकि जब और जहां कहीं भी संभव हुआ है हम सीपीएम के साथ सहयोग करने से कभी नहीं हिचकिचाए हैं. यहां तक कि कांग्रेस-भाजपा की साजिशों के बरखिलाफ वाम मोर्चा सरकार का समर्थन करने तक से भी हम कभी नहीं हिचकिचाए. उन्माद के हद तक वैमनस्यता, हमलोगों के प्रति बरते जाने वाले सीपीएम के रुख की खासियत है और सीपीआई के लिए बेहतर यह होता कि वह मान-मनौवल की अपनी सर्वोत्तम प्रतिभा का इस्तेमाल वामपंथी एकता के हित में सीपीएम को मनाने के लिए करती.

कामरेड नागभूषण पटनायक ने सीपीआई की कांग्रेस को संबोधित करते हुए यह बात साफ कर दी थी कि वामपंथी एकता और संसदीय बौनापन साथ-साथ नहीं चल सकता अर्थात् चने चबाना और बंसी बजाना साथ-साथ संभव नहीं है.

हमारा यह दृढ़ मत है कि एकताबद्ध वामपंथ केंद्र में साझा सरकार बनाने के बेताब रामो-वामो ढांचे से अपने को न बांधे. उसे ऐसी किसी सरकार से दूर ही रहना चाहिए. बहुत हो तो गैर कांग्रेस, गैर भाजपा राजनीतिक संरचना को आलोचनात्मक समर्थन दे और वहीं तक अपने को महदूद रखे. तात्पर्य यह कि इस तरह की किसी भी सरकार पर वह वामपंथ के साझा कार्यक्रमों को संभव हद तक लागू करने का दबाव बनाए रखे. जो हो, आलोचनात्मक रुख का अर्थ सक्रिय आलोचना का होना चाहिए. किसी भी तरह उसकी भूमिका वैसी नहीं होनी चाहिए जैसी 1989 में रही.

वामपंथी एकता का सर्वाधिक बेहतर स्वरूप फिलहाल महासंघ ही हो सकता है जहां अलग-अलग दल अलग-अलग राज्यों में अपनी कार्यनीतियों पर अमल करने के लिए स्वतंत्र हों. सीपीआई यह कहकर कोई बड़ी भूल नहीं कर रही है कि सीपीएम नेताओं द्वारा किए गए 1964 के विभाजन से बचा जा सकता था. 1977 से लेकर अब तक 18 वर्षों से वे जिस तरह विभिन्न स्तरों पर समन्वय समितियां बनाते हुए एक साथ काम करते आ रहे हैं और कमोबेश एक जैसी कार्यनीति पर अमल कर रहे हैं उससे उनके बीच बुनियादी विरोधों की हवा निकल चुकी है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अब भी उनके बीच इस या उस राज्य में अपना सहयोगी तलाशने या कि सीटों के बंटवारे को लेकर यदा-कदा विवाद उठते रहते हैं. तब तो और, जब सीपीएम बिना किसी ना-नुकुर के मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और चंद्रबाबू जैसे ताकतवर बुर्जुआ विपक्षी मित्रों का समर्थन करने की सीपीआई की परंपरा पर चल पड़ी हो, जब दोनों साथ-साथ अंधराष्ट्रवाद का आलाप कर रही हों, गांव के गरीबों के जुझारू संघर्ष के प्रति जब दोनों एक जैसी बेरुखी दिखा रही हों, नव धनिकों, कुलकों से एक तरह से रिश्ते जोड़ रही हों और चुनावी जीत हासिल करने के लिए जात-पांत की गोटी बैठाने में दोनों समान रूप से जुटी हों, ऐसे में दोनों के विलय का प्रस्ताव इस समूची प्रक्रिया की एक तार्किक परिणति जैसा ही है.

सीपीएम, मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जनवादी क्रांति करने के 1964 की अपनी स्वीकृत नीति से बहुत दूर निकल आई है. अब वह बुर्जुआ के ताकतवर हिस्सों के साथ साझेदारी में सुधारों के लिए काम कर रही है. दूसरी तरफ सीपीआई भी गैर इजारेदार पूंजीपति के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतंत्र और समाजवाद की शुरूआत करने की अपनी स्थिति से बहुत पीछे हट गई है क्योंकि सोवियत पतन और नई विश्व व्यवस्था के इस दौर में उसे पूछने वाला कोई रह नहीं गया.

सीपीआई और सीपीएम विलय की ओर बढ़ भी सकती हैं और नहीं भी, लेकिन इस सबसे 1964 के विभाजन की प्रासंगिकता खत्म नहीं हो जाएगी. किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि 1964 के विभाजन के एक शक्तिशाली हिस्सेदार क्रांतिकारी कम्युनिस्ट भी रहे हैं जो 1967 में उसके संगत निष्कर्षों तक पहुंचे.

फिर भी असल सवाल तो यह है कि सीपीआई खुद में कितनी एकताबद्ध है? कांग्रेस से ठीक पहले सीपीआई के एक वरिष्ठ सिद्धांतकार का० चतुरानन मिश्र ने अपने एक विवादास्पद लेख में लिखा था कि जहां आर्थिक शक्ति बनने के लिए भारत को विदेशी सहायता की जरूरत है वहीं अमरीका और दूसरे विकसित देशों को भारत जैसे बाजार की. “इनके बीच यही मिलन बिदु है और यह कहीं से भी विश्व साम्राज्यवाद के सामने समर्पण नहीं है.” वे आगे कहते हैं, “भारतीय राष्ट्र विदेशी दबाव के खिलाफ अब भी संघर्ष कर रहा है. जैसा कि दिल्ली में निर्गुट देशों के सम्मेलन में दिखाई दिया जहां उसने (भारत ने) अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की स्वर्ण जयंती के अवसर पर एक विपक्ष की भूमिका अदा की. भारत ने परमाणु परिसीमन संधि और मिसाइलों के सवाल पर अमेरिकी दबाव का प्रतिरोध किया ... वर्तमान सरकार में यह धारणा प्रबल होती जा ही है कि भारत भी विदेशी दबाव का प्रतिरोध करने में कठिनाई महसूस कर रहा है.”

सीपीआई की इस कांग्रेस ने नरसिम्हा राव सरकार की इस निर्लज्ज तरफदारी को खारिज किया यह एक अच्छा और सकारात्मक पहलू है. यह पार्टी को कांग्रेस की गोद में बैठा दिए जाने से रोकेगा. फिर भी यह तो भविष्य ही बताएगा कि यह किस कीमत पर हुआ.

1993 में सीपीआई के एक वरिष्ठ नेता ने हमारे कुछ विधायकों द्वारा दलबदल कर लेने पर कटाक्ष करते हुए मुझसे इसका कारण पूछा. जवाब में मैंने कहा कि संभवतः व्यक्तिगत लाभ-लोभ की प्रवृत्ति और जनता दल के पक्ष में पिछड़ों के ध्रुवीकरण ने वैचारिक रूप से कमजोर तत्वों को दलबदल के लिए प्रेरित किया हो. मैंने इस बात पर जोर दिया कि बिहार की हमारी पार्टी की नेतृत्वकारी इकाई पूरी तरह एकताबद्ध है और इन विधायकों में से कोई भी हमारी पार्टी के किसी भी स्तर के नेतृत्वकारी पद पर नहीं था. वे संतुष्ट नहीं हुए और बोले, “व्यक्तिगत लाभ-लोभ की भावना भला किसी कम्युनिस्ट को कैसे गुमराह कर सकती है? जरा हमारे विधायकों को देखिए.” उन्होंने हमसे और गहराई में जांच करने को कहा. मैंने चुप रहना बेहतर समझा. विडंबना देखिए कि दूसरे ही दिन अखबारों में यह खबर आई कि सीपीआई की उत्तर प्रदेश इकाई के सचिव, जो विधायक भी थे, पार्टी छोड़कर मुलायम सिंह की पार्टी में चले गए. जल्दी ही दूसरे विधायक ने भी यही किया. इसलिए मैं सीपीआई की कांग्रेस में प्रस्तुत रिपोर्ट में इस परिघटना के गहरे विश्लेषण की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा था. रिपोर्ट कहती है कि “उन्होंने व्यक्तिगत लाभ-लोभ के चलते पलायन किया.” फिर रिपोर्ट इसका सामान्यीकरण करते हुए कहती है कि “ऐसा हमारे साथ ही नहीं हुआ, दूसरों के साथ भी हुआ है. ऐसा होना एक आम बात है. कुछ धर्मनिरपेक्ष पार्टियां भी ऐसी टूट-फूट का शिकार हुई हैं. इस परिघटना को सभी राजनीतिक दलों में होने वाली एक आम घटना की पृष्ठभूमि में ही समझा जा सकता है.” बहुत बढ़िया, लेकिन आप जैसी एक कम्युनिस्ट पार्टी में ऐसा क्यों? क्या राजनीतिक गतिप्रवाह का सामाजिक औचित्य नहीं होता? रिपोर्ट जाति-विचारधारा इत्यादि के प्रभाव के खिलाफ लड़ने की बात जरूर करती है लेकिन साथ ही पार्टी के भीतर पिछड़ों की मलाईदार परत और बाकी बचे पिछड़ों के बीच फर्क करने की जरूरत को बड़ी रुखाई के साथ परे हटाते हुए. क्या यह लोहियाइटों के जाति सिद्धांत के सामने पार्टी के आत्मसमर्पण का सबूत नहीं है?

मेरे सवाल अनुत्तरित हैं. और भविष्य में ऐसे दलबदल से रोकथाम का पार्टी क्या इंतजाम कर रही है? बहुत खूब! तो उत्तरप्रदेश से जो इसने सीख ली वह यह कि मुलायम से संबंध बनाने में वह असफल रही. इससे जो बात निकलती है वह यही कि कुछ का दलबदल रोकने के लिए पूरी पार्टी ही बदल दी जाए. क्या बिहार में यह नुस्खा भलीभांति अपना काम नहीं कर रहा है?