(लिबरेशन, जुलाई 1995 का संपादकीय)

1996 के संसदीय चुनावों के लिए उलटी गिनती शुरू हो चुकी है. तेजी से घूमते राजनीतिक घटनाचक्र में, मनुष्य और घटनाएं खुद को दुहराते प्रतीत होते हैं. लेकिन परिस्थिति की द्वंद्वात्मक गति में वे प्रहसन और यहां तक कि हास्यास्पद से दिखने लगते हैं.

सामाजिक न्याय के मौजूदा फैशनेबुल चलन में हमें अनेक पिछड़े मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री और एक दलित उपराष्ट्रपति भी मिल चुके हैं. अतं में एक चमत्कार हुआ और देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तरप्रदेश में हमें एक दलित और वह भी महिला मुख्यमंत्री देखने का सौभाग्य मिला. सुश्री मायावती को वाजपेयी, राव और तिवारी – ब्राह्मणवादी लॉबी की तिकड़ी – का एक समान आशीर्वाद मिला है. यह भी अपने आप में किसी चमत्कार से कम नहीं है. श्रीमान् कांशी राम का समूचा अंकगणित गड़बड़ा गया. दुश्मन नं. 1, दुश्मन नं. 2, दुश्मन नं. 3 और दुश्मन नं. 4 का कुल योगफल दोस्त नं. 1 से कम खतरनाक है.

मंडल मसीहा श्रीमान वीपी सिंह एक गहरी दुविधा में फंस गए हैं. पिछले दिनों अगर वैचारिक-राजनीतिक सोच-समझ को दरकिनार करते हुए, उपराष्ट्रपति के पद पर के. आर. नारायणन के निर्वाचन को उनके सामाजिक न्याय के मंच की जीत के बतौर सराहा गया, और अगर 1996 में एक दलित राष्ट्रपति पाने की संभावना से (क्योंकि इसी वर्ष राष्ट्रपति का अगला चुनाव होना है) श्रीमान वीपी सिंह रोमांचित हो रहे हैं, तो वे मायावती के सत्ता में पहुंचने की भर्त्सना भला कैसे कर सकते हैं! इसके अलावे, वे पिछले कई महीनों से कांशीराम के साथ इश्कबाजी तो करते ही रहे हैं.

समूचा उदारवादी ढांचा, जो दलित-पिछड़ा संश्रय के सीधे एकरेखीय विकास की कल्पना कर रहा था और सांप्रदायिकता के खिलाफ स्वाभाविक व कारगर प्रतिरोधक के निर्माण से मगन हो रहा था, पूरी तरह ध्वस्त हो गया है. और स्पष्टतः इसने आनेवाले दिनों में भाजपा को एक बढ़त प्रदान कर दी है. महाराष्ट्र और गुजरात में इसकी क्रमिक जीतों ने तथा अन्य राज्यों में भी आमतौर पर इसके सुधरे प्रदर्शन ने इसके मनोबल को पर्याप्त ऊंचा उठाया है. और अब उत्तर प्रदेश में जो कुछ हुआ उससे पहलकदमी स्पष्टतः उसके हाथों में आ गई है.

उसने अपने खुले एकसूत्रीय एजेंडा को ‘स्वदेशी’ के आवरण में छुपा लिया है. जहां वाम मोर्चा सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अमेरिका को रिझाने में मशगूल है, वहीं महाराष्ट्र में इसकी सरकार पर एनरॉन समझौता की समीक्षा करने का सेहरा बांधा जा रहा है. बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद लगे आरंभिक धक्कों को संभालते हुए, भाजपा ने ठिक वहीं पर अपना रास्ता पकड़ा है, जहां 1990 में उसने उसे छोड़ा था. कांग्रेस(आइ) को भी, बस यूं ही, खारिज नहीं किया जा सकता है. अर्जुन-तिवारी ग्रुप उछाल लेने की स्थिति में नहीं दिखता है. राव कांग्रेस भी धीरे-धीरे लेकिन लगातार अपने संगठन को संभाल रही है और नई आर्थिक व औद्योगिक नीतियों के आधार पर – जिस पर नरसिंहा राव राष्ट्रीय सहमति का दावा करते हैं (और विपक्ष-शासित राज्यों के बीच इसे लागू करने की पागल होड़ ने इस नीति के प्रति विपक्ष के तेवर को सचमुच कुंद कर दिया है) – तथा सरकार में होने के नाते अनेक कल्याण-कार्यक्रमों के बल पर मतदाताओं का सामना करने को तैयार हो रही है. इसके अलावे, भाजपा के सत्ता में आने का खतरा अपने आप में कांग्रेस(आइ) के लिए एक उपलब्धि है. क्योंकि उदारवादी विचारों का एक बड़ा खेमा, जिसमें वामपंथ का भी अच्छा-खासा हिस्सा शामिल है, खासकर किसी सक्षम विकल्प की अनुपस्थिति में कांग्रेस(आइ) के बिखराव के विचार से ही भयभीत हो उठता  है और “सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता हथियाने से रोकने” की अपनी कोशिश में कांग्रेस के पीछे खड़ा हो जाता है.

सांप्रदायिक ताकतों द्वारा सत्ता हथियाने का खतरा बनाम पुराने शासन की बरकरारी – इस द्वंद्व से भरी परिस्थिति में ही समकालीन राजनीतिक एजेंडा में एक बार फिर तीसरे मोर्चे की चर्चा सर्वोच्च प्राथमिकता ग्रहण कर चुकी है.

ऐतिहासिक संदर्भों को देखने से पता चलेगा कि इमर्जेन्सी के विरोध के दौरान 1977 में एक कांग्रेस-विरोधी महागठबंधन उभरा था और उसने कांग्रेस को सत्ता से हटा भी दिया. जहां आज की भाजपा उस गठबंधन का एकीकृत अंग थी, वहीं मुख्य वामपंथी पार्टियां या तो उसकी विरोधी थीं या उससे एक दोस्ताना दूरी बनाए हुई थीं. 1989 में बोफोर्स के खिलाफ आंदोलन के क्रम में फिर एक व्यापक एकता बनी. इसबार, वामपंथ राष्ट्रीय मोर्चा के ज्यादा करीब था और भाजपा एक स्वतंत्र अस्तित्व के बतौर उभरी. दोनों प्रयोग अपने खुद के बोझ तले ढह गए.

इसबार वैसा कोई आंदोलन नहीं है, कोई मिलन-बिंदु भी नहीं है. हमने ‘सामाजिक न्याय’ या मंडल फलक के दुहरे चरित्र पर गौर कर लिया है. इस संदर्भ में तीसरे मोर्चे की तलाश तमाम तरह की भ्रामक और अवसरवादी बोलियों के साथ शुरू हुई है. अगर सीपीआई(एम) की कांग्रेस ने ‘ज्यादा खतरनाक-कम खतरनाक’ आधार पर बहस शुरू की है, जिसका तात्पर्य है भाजपा के खिलाफ कांग्रेस के साथ कोई समझौता करना, तो दूसरी ओर जनता दल के अंदर से रामकृष्ण हेगड़े लंबी छलांग लगाते हुए सुझाते हैं कि इस सांप्रदायिक सत्ता-हड़प के खतरे से बचने के लिए नरसिंहा राव के नेतृत्व में धर्मनिरपेक्ष ताकतों की मिलीजुली सरकार बनानी चाहिए. यह अच्छी तरह जानते हुए कि इस मोड़ पर कांग्रेस(आइ) या जनता दल कोई भी उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेगा, हेगड़े महोदय ने चुनाव के बाद की स्थिति को ध्यान में लाते हुए यह एजेंडा पेश किया होगा. जद अध्यक्ष श्रीमान बोम्मई ने पार्टी के अंदर “लोकतांत्रिक मतविरोध को पर्याप्त सम्मान” देकर इस संभावना के लिए द्वार खुला छोड़ रखा है.

यहां यह बात दिमाग में रखनी चाहिए कि प्रख्यात समाजवादी विचारक मधुलिमये ने अपनी मृत्यु के पहले कांग्रेस के पतन पर अपनी चिंता जाहिर की थी और कांग्रेस(आइ) के प्रति रुख बदलने की अपील की थी. हमें नहीं मालूम कि मधुलिमये से प्रभावित समाजवादियों का कितना बड़ा हिस्सा उनकी इस सलाह पर चिंतन कर रहा है.

तब, बीजू पटनायक वीपी सिंह पर बरस उठे, उन्हें इंदिरा गांधी की कठपुतली करार दिया, जिन्हें बाद में उनके पुत्र राजीव गांधी ने ठोकर मारकर निकाल दिया था. बीजू ने अफसोस जाहिर किया कि वीपी सिंह की जातीय राजनीति ने जनता दल को नष्ट कर दिया और वीपी सिंह को सर पर बिठाकर जनता दल ने गलती की थी. उनके विचार से चंद्रशेखर बेहतर विकल्प होते. वीपी सिंह के सहयोगियों के कड़े दबाव से वे अपने वक्तव्य से पीछे हट गए. फिर भी, उन्होंने वीपी सिंह का कद छोटा करने की कीमत पर चंद्रशेखर और मुलायम सिंह के पुनर्प्रवेश की ओर इशारा करते हुए अपना विचार संप्रेषित कर ही दिया. इसी तर्क के सहारे राष्ट्रीय मोर्चा में डीएमके, एमडीएमके और अन्नाद्रमुक को लाने तथा जीत दिलाने वाले चुनावी संयोजन के निर्माण की भी वकालत की जा रही है.  

जनता दल के बंगलोर शिविर में लिए गए आर्थिक नीति प्रस्ताव में दरअसल नई आर्थिक नीति को स्वीकृति प्रदान की गई है और ‘रोजगार के अधिकार’ की मांग की खिल्ली उड़ाई गई है. दूसरे तमाम प्रस्ताव बिलकुल घिसेपिटे हैं. प्रधानमंत्री पद की ढेर सारी दावेदारियां अपने-अपने दावे के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए सामाजिक न्याय के वादे ही दुहरा रही हैं और वे “बहुत जोगी, मठ उजाड़” वाले मुहावरे की याद ताजा कर रही हैं.

इस प्रकार न तो कोई विशेष मुद्दा उभर सका है, न आंदोलन का कोई आह्वान है और न कोई रैडिकल कार्यक्रम ही पेश हुआ है. खोखली जुगाली, अंतरविरोधी अवधारणाएं, अवसरवादी गठजोड़ और गुटीय अतंर्कलह – यही सब तो है जो राष्ट्रीय स्तर की मध्यमार्गी पार्टी हमें मुहैया कर रही है!

जाहिर है, क्रांतिकारी वामपंथ इन कवायदों का अंग नहीं बन सकता. हर जगह वामपंथी और जनवादी कतारों का मोहभंग हो रहा है और हमारा सर्वोपरि कर्तव्य है कि हम वेश्वीकरण की नकाब में राष्ट्रीय संप्रभुता पर मंडरा रहे खतरे के खिलाफ और सांप्रयादिक ताकतों द्वारा सत्ता हथिया लिए जाने के खतरे के खिलाफ एक राष्ट्रीय अभियान संगठित करें. हमलोग खासकर दलितों और अन्य ग्रामीण गरीबों पर बढ़ते अत्याचार, मजदूरों की दुर्दशा तथा रोजगार के अधिकार को अपना केंद्रबिंदु बनाएंगे.

इस मोड़ पर तीसरे मोर्चे की तलाश व्यापकतर बहस-मुबाहिसे के लिए एजेंडा तय करने की मांग करती है. आमतौर पर वामपंथ और खासकर क्रांतिकारी वामपंथ को चाहिए कि वह खुद को आंकड़ों के खेल और चुनावी संयोजन से अलग रखे और अपने ऐक्शन-प्रयोग के साथ एजेंडा निर्धारित करने में प्रमुख भूमिका निभाए. राजनीतिक संयोजन उसके बाद ही सामने आएंगे.

[14 अक्टूबर 1993 को सीपीआई(एमएल) ‘न्यू डेमोक्रेसी’ द्वारा डंकल मसविदा पर आयोजित कन्वेंशन में भाषण. लिबरेशन, नवंबर 1993 से]

सबसे पहले मैं जरूरी और समयोचित पहलकदमी लेने के लिए इस कन्वेंशन के आयोजकों को बधाई देना चाहूंगा.

डंकल मसविदा पर लगभग दो वर्षों से बहसें चल रही हैं और इस वर्ष के अंत तक आशा की जाती है कि इसे ‘गैट’ की मंजूरी मिल जाएगी.

इसके शुरूआती चरणों में, भारत सरकार ने उरुग्वे चक्र के दौरान मोलतोल में कठोर रुख दिखलाने की कोशिश की थी. बाद में उसका रुख नम्र हो गया और वह मसविदा के एक-दो प्रावधानों में छोटी-मोटी रियायतें मांगने तक सीमित रह गई और अब ऐसा लगता है कि सरकार इस मसविदा पर ज्यों का त्यों हस्ताक्षर करने की तैयारियां कर रही है.

शुरू-शुरू में मसविदा स्वीकार किए जाने की संभावना को परिस्थितियों की बाध्यता के बतौर बताया जा रहा था. अब यह बताया जा रहा है कि इससे भारत को किस-किस तरह के लाभ मिल सकते हैं.

कुछ लोग यह भी दलील दे रहे हैं कि डंकल मसविदा पश्चिमी देशों के हितों के विपरीत है. जो लोग इस मसविदा का विरोध कर रहे हैं, उन्हें ‘बेवकूफ’ और न जाने क्या-क्या कहा जा रहा है.

फार्मरों का एक खास संगठन डंकल मसविदा को स्वीकार किए जाने की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आया है -- वह ऐसे फार्मरों का संगठन है, जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ जुड़कर फौरी आर्थिक फायदों की आशा कर रहे हैं. कुछ मोंड़े मार्क्सवादी डंकल के पक्ष में “मुक्त बाजार” और “मुक्त व्यापार” के गुणों का बखान कर रहे हैं. कुछ बुर्जुआ मसखरे मसविदा के ‘नासमझ’ विरोधियों को पाठ पढ़ाने के लिए डंकल अक्षरमाला लेकर हाजिर हुए हैं.

जो हो, डंकल के साथ एक अच्छी बात भी है. नई विश्व व्यवस्था की व्याख्या करने वाला प्रमुख दस्तावेज होने के नाते इसने बुद्धिजीवियों के बीच काफी बहसें खड़ी कर दी हैं. ये बहसें धीरे-धीरे नीचे किसानों तक पहुंच गई हैं, और वे भी डंकल के हानिकारक प्रभावों से लगातार सचेत हो रहे हैं. यह चेतना अभिव्यक्त हो रही है बहुराष्ट्रीय कंपनियों के क्रियाकलापों के खिलाफ फार्मरों के जुझारू प्रतिवादों में, जैसा कि हमने कर्नाटक में नंजुन्दास्वामी के संगठन के जरिए देखा है. अंकल डंकल किसानों के मंझोले और संपन्न तबकों को मंडल-कमंडल के प्रभाव से बाहर निकलने में भी मदद कर रहे हैं.

फार्मरों के संगठनों के को-आर्डिनेशन में एक जरूरी और सकारात्मक टूट के बाद अब उसका एक शक्तिशाली हिस्सा वामपंथ को, और खासकर क्रांतिकारी वामपंथ को अपना स्वाभाविक मित्र समझ रहा है. इस विकास के लिए क्या हमें डंकल को धन्यवाद नहीं देना चाहिए?

लगभग एक महीना पहले मैं संडे में मणिशंकर आय्यर की डंकल-अक्षरमाला पढ़ रहा था, जिसमें उन्होंने अपने चरित्रगत मसखरेपन और उद्दंड लहजे में डंकल-विरोधियों को फटकार लगाई थी. इसीलिए, मुझे लगता है कि अगर हममें से कोई हमारे किसान भाइयों की बेहतर समझदारी के लिए लोकप्रिय शैली में कुछ लिखता तो काफी अच्छा रहता. हो सकता है, किसी ने ऐसा लिखा हो, या लिख रहा हो, लेकिन इस बारे में मैं कुछ नहीं जानता.

डंकल मसविदा के विभिन्न प्रावधानों के बारे में काफी कुछ लिखा-कहा गया है और यहां कामरेड यतीन्द्र ने काफी विस्तार से चीजों को बताया है. मैं यहां कुछ बिंदुओं पर चर्चा करूंगा.

पहला, चूंकि मौजूदा विश्व अर्थतंत्र पर पारदेशीय निगमों का वर्चस्व है, इसीलिए एक नई विश्व व्यवस्था के लिए संगठित प्रयास चल रहा है. सोवियत ब्लॉक के ध्वंस के बाद यह प्रक्रिया और भी तेज हो गई है. तदनुरूप, आइएमएफ, विश्व बैंक, और ‘गैट’ जैसी संस्थाएं एक नया और हमलावर चरित्र अपनाने की कोशिश कर रही हैं. पारदेशीय निगमों के स्वार्थ में राष्ट्रीय सीमाओं को खत्म कर देने के प्रयास किए जा रहे हैं. डंकल प्रस्ताव असमान देशों के बीच व्यापार की समान शर्तों को लादने की दिशा में एक प्रमुख प्रयास है.

दूसरे, भारत जैसे देशों के लिए विकास-रणनीति के मामले में बहुराष्ट्रीय कंपनियां ऊपर से आर्थिक प्रक्रिया को दिशा-निर्देशित करेंगी, वहीं स्वयंसेवी संगठन कल्याण-कार्य संचालित करने के जरिए लोगों को नीचे से इच्छित आधुनिकीकरण के लिए तैयार करेंगे. सरकार महज बिचौलियों की भूमिका तक सीमित रह जाएगी और शासक राजनेता कमीशन, घूस और दलाली खाया करेंगे. यह नव-उपनिवेशीकरण की ही पूरी योजना है, जिसे हम लैटिन अमेरिका में देख चुके हैं. वह दिन दूर नहीं जब मंत्री और सरकारों के प्रमुख तस्करी और नशीले पदार्थं के व्यापार में संलग्न पाए जाएंगे.

अंत में, मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि अगर भारत को विदेशी पूंजी पर पूर्णतः निर्भर बना दिया जाएगा तो लोकप्रिय मोर्चेंबंदियां और गुरिल्ला सेनाएं सुदूर की चीजें नहीं रह जाएंगी.

(लिबरेशन, सितम्बर 1993 से)

सीपीआई(एम) के केन्द्रीय मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी (इसके बाद से पीडी) के 15 अगस्त के अंक में राष्ट्रीय एकता अभियान (राएअ) की हमारी समीक्षा पर टिप्पणी करते हुए हमारी पार्टी के खिलाफ वस्तुतः एक निन्दा अभियान छेड़ दिया गया है. उनका यही लेख उनके अन्य पार्टी मुखपत्रों में भी छपा है और पंजाब में, जहां सीपीआई(एम) का अपना कोई मुखपत्र नहीं है, यह लेख पंजाबी ट्रिब्यून नामक पत्रिका में छपवाया गया है. पीपुल्स डेमोक्रेसी संयुक्त मंचों के प्रति ‘नक्सलवादियों’ के अत्यधिक संकीर्णतावादी और नौसिखुआ रवैये पर विलाप करता है. इस लेख का अंत हमें यह कड़ी चेतावनी देने के साथ होता है कि हम “फैसला कर लें कि मुख्यधारा में रहेंगे या फिर पुरानी हाशिये की राजनीति में वापस चले जायेंगे.”

आइये हम उनके तर्कों को बारी-बारी से परखें. राष्ट्रीय एकता अभियान (राएअ) से वापसी के हमारे प्रस्ताव में जो बुनियादी कारण दर्शाया गया है, वह है ठोस परिस्थिति में लक्षणीय परिवर्तन – जब हमें संघर्ष के मुख्य निशाने को केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार के खिलाफ मोड़ देना होगा. पीडी खुद इस बात को स्वीकार करता है कि “ठोस स्थिति की मांग पर समय-समय पर राएअ जैसे मंचों का गठन किया जायेगा”, जो बिल्कुल सही बात है! अब, क्या ठोस परिस्थिति सचमुच बदल नहीं गई है? सीपीआई(एम), जो अब तक संसद के सदन में भाजपा के मुकाबले कांग्रेस का बचाव करती आ रही थी, उसे न चाहने पर भी अविश्वास प्रस्ताव लाने में प्रमुख भूमिका निभानी पड़ी और भाजपा के साथ मिलकर वोट देना पड़ा है? पीडी ने फरवरी-मार्च के महीनों में, “जब मुख्य जोर संघ परिवार को निशाना बनाने पर था”, सीपीआई(एम) द्वारा प्रतिबंध के उल्लंघन से इन्कार को जायज ठहराते हुए अनचाहे स्वीकार किया है कि अब प्राथमिकताएं बदल गई हैं. पीडी का तर्क है कि “प्रतिबंध का उल्लंघन करके सरकार के साथ टकराव पर जोर देने से हम साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ गोलबंदी के प्राथमिक लक्ष्य से भटक जाते.” यह किसी मार्क्सवादी का नहीं बल्कि उदारपंथी का तर्क है. फिर भी यहां एक पूर्वानुमान छिपा है कि यह स्वतः आरोपित सीमा अब नहीं लागू होती. 19 अगस्त और 9 सितम्बर के कार्यक्रमों ने इस बात को स्प­ष्टतः सिद्ध कर दिया है. पीडी के राजनीतिक टीकाकार महोदय, अब मुख्य जोर के रूप में इस बदलाव के चलते आप राएअ के लिये क्या भूमिका निर्धारित करते हैं? पीडी इस सवाल का जवाब नहीं देता और इस प्रकार समूची बहस व्यर्थ के झूठे निंदा अभियान में बदल जाती है. न्यू एज (सीपीआई का मुखपत्र) ने इस सवाल का जवाब देने की जरूर कोशिश की, मगर उन्होंने वर्तमान परिस्थिति में राएअ की ठीक-ठीक भूमिका तय नहीं की. आईपीएफ ने एक वैकल्पिक सुझाव पेश किया कि राएअ को जानी-मानी सांस्कृतिक एवं धर्मनिरपेक्ष हस्तियों द्वारा चलाने दिया जाय, और राजनीतिक पार्टियां पीछे से उसकी मदद करें. इस सवाल पर एक स्वस्थ बहस हो सकती थी. लेकिन पीडी ने अपने अति-उत्साही अंदाज में हमारी बात काटने के लिये खुद उसी बिंदु को नजरअंदाज कर दिया. जो बुढ़ापे में सठिया गये हों, उनके नौसिखुआ रवैये पर तो बस तरस ही आता है!

अब अगर संयुक्त मंचों पर कामकाज के संदर्भ में खुद राएअ की समीक्षा की जाय, तो पीडी ने “व्यापक सतरंगी” शक्तियों और वामपंथियों के अपने मंचों के बीच चीन की दीवार खड़ी करने की कोशिश की है. यह सब केवल उदार पूंजीवादी कूड़ा-करकट है. ‘व्यापक सतरंगी’ शक्तियों, उदार पूंजीवादी मूल्यों का प्रचार करने के लिये बना संयुक्त मंच, पूंजीवादी पार्टियों की उपलब्धियों को उछालने के लिये बना संयुक्त मंच! तो फिर भला वामपंथियों के अस्तित्व की जरूरत ही क्या है -- बस केवल जनता को बुर्जुआ मसखरों की नाटकबाजी देखकर तालियां बजाने के लिये गोलबंद करने हेतु? हमें दृढ़ विश्वास है कि जन-पहलकदमी का द्वार खोलना और वामपंथी विचारधारा का प्रचार करना साम्प्रदायिकता के खिलाफ किसी गंभीर और सच्चे संघर्ष के लिये अत्यावश्यक है और वामपंथ को अवश्य ही किसी संयुक्त मंच का उपयोग, चाहे जिस हद तक मुमकिन हो, इसी मकसद को पाने के लिये करना चाहिये.

उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालय चुनावों में आइसा की विजय न सिर्फ हमारे लिये बल्कि समग्र रूप से धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक शक्तियों के लिये एक उपलब्धि थी और देश भर की सभी किस्म की धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक शक्तियों ने उसे इसी दृष्टि से देखा. विडम्बना यह है कि साम्प्रदायिकता-विरोधी राष्ट्रीय मंच ने उत्तर प्रदेश की इतनी महत्वपूर्ण घटना को नजरअंदाज करना बेहतर समझा और 14 अप्रैल की रैली में आइसा के वक्ता को मंच से बोलने की इजाजत नहीं दी. इस किस्म के तर्क कि “आईपीएफ अन्य संगठनों की तुलना में सीमित शक्ति रहने के बावजूद उम्मीद करता है कि अधिकांश पार्टियों से ज्यादा उसके वक्ताओं को बोलने का अवसर मिलेगा” ऐसी तुच्छ बातें हैं, जिनका इस्तेमाल असली मुद्दे से कतराने के लिये किया गया है. हम वक्ताओं की संख्या अथवा कैमरे में सामने की कतार पर रहने के प्रश्न पर मोलभाव की आदत नहीं पोसते – यह सब बस आपकी इजारेदारी में है. उत्तर प्रदेश के चुनावों में आइसा की विजय के भारी महत्व को देखते हुए यह पहली बार था कि हमने मांग की कि आइसा के एक वक्ता को बोलने दिया जाय. हम पर इस मंच पर चालाकी से काम निकालने का आरोप लगाया जा रहा है और सलाह दी जा रही है कि हम अपनी उपलब्धियों का प्रचार अपने मंचों से करें. बहुत खूब, तो फिर इसी तर्क के आधार पर राम विलास पासवान को भी अपने मंच का इस्तेमाल क्यों नहीं करना चाहिये? क्या उन्हें इस बात की अनुमति नहीं दी गई, बल्कि इससे भी बढ़कर खुल्लमखुल्ला मंच ही उनके हवाले नहीं कर दिया गया, कि वह कार्यक्रम को आम्बेडकर की जन्मवार्षिकी के उत्सव आयोजन में बदल दे? लालू के पास भी अपना मंच है. फिर भला उनको, जिन्होंने उस कार्यक्रम के लिये कोई गोलबंदी ही नहीं की थी, अपनी छवि का प्रचार करने के लिये राएअ की रैली की भावना को क्षतिग्रस्त करने की इजाजत दे दी गई? हो सकता है कि कामरेड सुरजीत को बिहार में लालू के अलावा और कोई नजर ही न आता हो, मगर हम इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि अगर बिहार साम्प्रदायिक दंगों से अपेक्षाकृत मुक्त रहा है, तो इसमें बिहार की जनता और वाम शक्तियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. फिर भला बिहार में किसान समुदाय की भूमिका पर और उत्तर प्रदेश में छात्रों की भूमिका पर जोर देना “सतरंगी शक्तियों” के अथवा राएअ की 19 दिसम्बर की घोषणा के खिलाफ कैसे जाता है, यह हमारी समझ के बाहर है.

दरअसल मूल बात कहीं और है. सीपीआई(एम) को उत्तर प्रदेश में विश्वविद्यालय चुनावों में आइसा की जीत हजम नहीं  हुई और अपने मुखपत्रों में इस खबर को दबा जाने हेतु वह जिस हास्यास्पद हद तक चली गई उससे लगा कि उसे भाजपा से भी बढ़कर धक्का लगा है. फिर भी वे हम पर संकीर्णतावादी होने का ठप्पा लगाने की जुर्रत करते हैं!

यह सामान्यबोध की बात है कि राएअ का मुख्य जोर संघ परिवार के खिलाफ था. लेकिन राएअ ने केवल गैर-कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष शक्तियों का मोर्चा बने रहने का फैसला बिला वजह यूं ही नहीं लिया. सीपीआई(एम) ने जरूर राएअ में कांग्रेस को शामिल करने का प्रस्ताव पेश किया था, मगर उसे मोर्चे के घटकों के बहुमत ने ठुकरा दिया. साम्प्रदायिकता विरोधी अभियान के लिये मार्च और अप्रैल के महीने महत्वपूर्ण थे मगर सीपीआई(एम) ने “साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ गोलबंदी के लक्ष्य” से किनारा काटने के बहाने चुपचाप बैठे रहना पसंद किया. वास्तव में वे कांग्रेस पर पूरी उम्मीद लगाये थे कि वह भाजपा के खिलाफ लड़ेगी और इसी के चलते उन्होंने साम्प्रयादिकता-विरोधी गोलबंदियों पर भी सरकारी प्रतिबंध को राजीखुशी स्वीकार कर लिया. यह दावा बिल्कुल झूठा है कि “संभवतः आईपीएफ को छोड़कर राएअ के सभी घटकों के बीच इस मामले पर पूरी बातचीत हुई थी और सभी इस पर राजी थे”. जनता दल और सीपीआई अंत-अंत तक राएअ की वाराणसी रैली में भाग लेने को राजी थे और केवल अंतिम क्षणों में सीपीआई(एम) की साजिश के चलते उन्हें अपना फैसला बदलना पड़ा.

पीडी हमें यह भी बताता है कि “उन्होंने [यानी सीपीआई(एमएल) और आईपीएफ ने] जन संगठनों के कन्वेंशन में पारित साझा चार्टर में बाहर के मुद्दों को घुसाने की कोशिश की थी, मगर उन्हें झिड़क दिया गया”. यह हमारे लिये एक नई खबर है कामरेड! हमारे जन संगठनों के वक्ताओं को तो उपस्थित भागीदारों की खूब तालियां मिल रही थीं, और केवल आपकी पार्टी वालों ने, जो अध्यक्षता कर रहे थे, तमाम लोकतांत्रिक रीति-नीति का उल्लंघन करते हुए हमारे वक्ताओं को दिये गये समय में कटौती करने की कोशिश की थी.

हम धर्मनिरपेक्षता के लिये संघर्ष को केवल लोकतंत्र के लिये संघर्ष का एक अभिन्न अंग मानते हैं. अगर हम साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ सचमुच गंभीरता से संघर्ष चला रहे हों तो धर्मनिरपेक्ष मोर्चा के साझीदारों का कर्तव्य बनता है कि वे आपस में लोकतांत्रिक बरताव की रीति-नीति का पालन करें. अगर लालू यादव आईपीएफ के विधायकों की खरीद-फरोख्त कर रहे हों और आप आईपीएफ के समर्थक खेत मजदूरों का कत्लेआम संगठित कर रहे हो, तो आम जनता के पास इससे क्या संदेश जायेगा? कामरेड, आप गलत समझ रहे हैं. हम लालू यादव द्वारा हमारे विधायक ग्रुप में “फूट डालने” पर गुस्सा नहीं जाहिर कर रहे हैं. हर व्यक्ति अपने विचार बदलने के लिये स्वतंत्र है और यकीनन अपनी पसंद की पार्टी में शामिल हो सकता है. हम तो केवल प्रारंभिक संसदीय नैतिकता के अनुसार यही मांग कर रहे हैं कि इन विधायकों को पहले सीट से पदत्याग करने और तब नये सिरे से चुनाव लड़ने को कहना उचित था. यह विल्कुल उचित लोकतांत्रिक मांग है और लालू के लोकतंत्र-विरोधी बरताव को जायज ठहराकर आप बहुत बुरा उदाहरण रच रहे हैं. चलो अच्छा है, हमें अपने विधायकों की राजनीतिक गुणावत्ता और शिक्षा की गारंटी करने के लिये दीगई आपकी बेशकीमती सलाह के लिये हम आपके आभारी हैं, मगर हमें यह जानकर और भी बहुत फायदा होगा अगर आप अपने कुछेक विधायकों का सट्टा डॉन राशिद खान के साथ, और आपके कुछेक मंत्रियों का कोलकाता के भ्रष्ट उद्योगपतियों के साथ गठजोड़ से निपटने का अनुभव भी बतायें. मगर हम वाम मोर्चा – प्रकाश करात के शब्दों में सबसे बड़ी वामपंथी संरचना – के उन सात विधायकों के बारे में दिक्कततलब सवाल नहीं उठायेंगे, जिन्होंने राज्य  सभा के चुनाव में प्रणब मुखार्जी के पक्ष में मतदान किया था. क्या उस पार्टी को, जो भारत की एकमात्र कम्युनिस्ट पार्टी होने का दम भरती हो, “चोरों के मंत्रिमंडल” की अपेक्षा बेहतर सरकार नहीं प्रदान करना चाहिये? इन शब्दों के लिये खेद है कामरेड, लेकिन इस शब्दावली का इस्तेमाल आपके ही प्रेस द्वारा कामरेड बुद्धदेब भट्टाचार्य के लिये किया गया है.

पीडी के अनुसार, “उनका सीपीआई(एम) को मुख्य निशाना बनाना और कुछ नहीं बस चारु मजुमदार की उसी पुरानी थीसिस का अवशेष है” और “ऐसा लगता है कि इस ग्रुप ने हाल में जो धक्के झेले हैं, उनके फलस्वरूप इसमें वही पुरानी अशांतिकारी स्थिति लौट आई है.” पीडी दोनों मामलों में गलत है. धक्का नहीं बल्कि हाल के महीनों में हमारी पार्टी द्वारा पश्चिम बंगाल समेत हर जगह किये गये विस्तार ने हमारे खिलाफ सीपीआई(एम) के गुस्से को न्यौता दिया है. जमीनी स्तर पर यही गुस्सा करंदा के जनसंहार में प्रतिबिम्बित हुआ है (पीडी को इससे कोई मतलब नहीं है. जो कुछ दिक्कततलब है, उसे दबा जाने की परम्परा को कायम रखते हुए पार्टी ने करंदा का नाम तक लेना निषिद्ध कर दिया है) और स्थूल स्तर पर हमें राजनीतिक गतिविधियों की मुख्यधारा से अलगाव में डालने के मकसद से उन्होंने अपनी पूरी शक्ति लगाकर निंदा अभियान चला रखा है. उत्तर प्रदेश में हाल में सीपीआई(एम) के राज्य सचिव ने आईपीएफ के साथ जनता दल की संयुक्त कार्यवाहियों के लिये वार्ता का विरोध करते हुए एक वक्तव्य जारी किया है और आईपीएफ पर आरोप लगाया है कि वह सीपीआई(एम) की कीमत पर आगे बढ़ने की योजना बना रहा है. इस किस्म के असामान्य वक्तव्य को तमाम विवेकशील शक्तियों ने, जिनमें सीपीआई से हमदर्दी रखने वाले लोग भी शामिल हैं, खारिज कर दिया और सीपीआई की राज्य परिषद ने तो इस वक्तव्य की निंदा करते हुए एक प्रस्ताव भी पारित किया. वास्तव में सीपीआई(एम) के हाथ से वाम मोर्चे का नियंत्रण फिसलता जा रहा है और इसके विपरीत पश्चिम बंगाल समेत हर जगह वाम मोर्चे के साझीदारों से हमारी बढ़ती अंतःक्रिया ने सीपीआई(एम) को आतंकित कर दिया है जिससे वे हमारे खिलाफ जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया जाहिर कर रहे हैं.

अगर समूचे वाम-मध्यपंथी वर्णक्रम में सीपीआई(एम) ही हमारा प्रधान राजनीतिक-विचारधारात्मक प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरी है, तो ऐसा चारु मजुमदार की किसी थीसिस के चलते नहीं हुआ और न ही हमने इसे चुना है. इसकी जड़े हमारे अपने-अपने इतिहास में हैं, हमारी दो विरोधी राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइनों में निहित हैं और आपके द्वारा हमें अलगाव में डालने, बदनाम करने और यहां तक कि हमारा शारीरिक रूप से सफाया कर देने के उन्मत्त प्रयासों में निहित हैं. हमारी हाशिये की राजनीति में बने रहने की कोई आकांक्षा नहीं है और न ही आपके पास यह कूवत है कि आप हमें मुख्य धारा से अलगाव में डाल सकें. हमें पक्का यकीन है कि सीपीआई(एम) के अंदर ऐसे विवेकवान लोग भी हैं जो हम दोनों पार्टियों के बीच वामपंथ की स्वतंत्र भूमिका के नये आधार पर कामरेडाना सहयोग का रिश्ता कायम करने को उत्सुक हैं; और इस दिशा में भविष्य में होने वाला कोई भी पुनर्संयोजन यकीनी तौर पर भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में एक नये अध्याय की शुरूआत करेगा. आखिरकार, परिस्थितियों का बल इस या उस नेता की आत्मगत इच्छा से कहीं ज्यादा शक्तिशाली होता है.

(लिबरेशन, मई 1993 से)

हमारी कलकत्ता कांग्रेस ने वाम एकता के लिए अपने प्रयासों को तेज करने की शपथ ली है, जिसका अंतिम उद्देश्य है भारत की एक ही कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण.

पार्टी कांग्रेस के बाद गुजरे तीनेक महीनों में मैं जहां कहीं भी गया, हमारे आंदोलन से जुड़े लोगों व अखबार वालों ने मुझसे बार-बार इस सपने को साकार करने की संभावनाओं के बारे में और इस दिशा में उठाए जा रहे ठोस कदमों के बारे में पूछा है. जैसा कि मुझे बताया गया, पश्चिम बंगाल में सीपीआई(एम) के एक प्रवीण संभ्रांत कम्युनिस्ट ने इस विचार को काल्पनिक घोषित करके ठुकरा दिया, जबकि कुछ अन्य व्यक्तियों का कहना है कि पुराने महारथी यद्यपि इसका अवश्य विरोध करेंगे, लेकिन कम्युनिस्टों की नौजवान पीढ़ी द्वारा इस विचार का व्यापक तौर पर समर्थन करने की ही सबसे ज्यादा संभावना है.

का० हरकिशन सिंह सुरजीत और का० इंद्रजीत गुप्ता के साथ बातचीत में मैंने इस बिंदु पर जोर देने की कोशिश की कि संघ परिवार ने बड़े सोचे-समझे ढंग से वामपंथ के गढ़ों – अर्थात् पश्चिम बंगाल और केरल – में प्रवेश किया है, जबकि अपने तई वामपंथ हिंदी क्षेत्र के भाजपाई किलों में पर मारने में भी असफल रहा है. वामपंथ के रणनीतिक चिंतन में भी हिंदीभाषी राज्यों में भाजपाई चुनौती का सामना करने का कार्यभार मध्यमार्गी विपक्षी शक्तियों, यहां तक कि कांग्रेस(आइ) के कंधों पर डाल दिया गया है और वामपंथ को केवल तबलची की भूमिका में रख छोड़ा गया है. यह रणनीति राजनीतिक व संसदीय दावपेंचों के जरिए भाजपा द्वारा सत्ता पर कब्जा करने के खतरे की रोकथाम करने में एक हद तक जरूर  कामयाब हो सकती है, लेकिन जहां तक लोगों के दिमाग में सांप्रदायिकता के वाइरस के फैलाव को रोकने का सवाल है तो इस मामले में इसे शायद ही कोई सफलता मिल सकेगी. आज की सांप्रदायिकता मेहनतकश अवाम की व्यापक बहुसंख्या पर फासीवादी हिंदू राज्य थोप देना चाहती है और इस किस्म की सांप्रदायिकता के विरुद्ध फिलहाल कोई जनगोलबंदी नहीं नजर आती है. सांप्रदायिकता के विरुद्ध कांग्रेस का समूचा प्रचार केवल सांप्रदायिक सौहार्द्र के निरपेक्ष उपदेश भर रह जाते हैं. जबकि यथार्थ जीवन में वह हर कठिन मोड़ पर सांप्रदायिक शक्तियों का तुष्टीकरण करती है और उनके साथ गठजोड़ कर लेती है.

कांग्रेस को भाजपा से लड़ाने की कार्यनीति पर जरूरत से ज्यादा जोर देने और इस तर्क के आधार पर उसके साथ धर्मनिरपेक्ष मोर्चा का निर्माण करने के औचित्य के बारे में मुझे भारी संदेह है. वस्तुतः यह एक अर्थ में नुकसानदेह साबित हो सकती है, क्योंकि यह जनता की चेतना को कुंद कर देती है, जनवादी धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की कतारों में फूट पैदा कर देती है और सांप्रदायिकता के विरुद्ध जनगोलबंदी को कमजोर करती है.

कांग्रेस अध्यक्ष नरसिम्हा राव ने हाल ही में संपन्न एआइसीसी अधिवेशन में अपने एक महत्वपूर्ण भाषण में कहा, “अब भाजपा के पास बच ही क्या गया है? केवल धर्म ही तो. वह उससे छीन लीजिए और वह कहीं की न रहेगी?” इसका मतलब है कि भाजपा के आर्थिक कार्यक्रम और विदेश नीति को कांग्रेस ने पहले ही अपना लिया है. केवल धर्म ही शेष रह गया है और अब कांग्रेस उसे भी अपनाने जा रही है.

बाबरी मस्जिद ढाहे जाने के पहले ऐसी खबरें आई थीं कि कांग्रेस(आइ) विहिप को अंधेरे में रखकर साधुओं और महंतों को यह आश्वासन देकर उनके साथ अपनी पटरी बैठा रही थी कि अपने पक्ष में न्यायिक आदेश हासिल करके वह राम मंदिर विवादास्पद स्थल पर ही बनाएगी. इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं है. 1949 में बाबरी मस्जिद के अंदर राम की प्रतिमा स्थापित करने से लेकर, जिसने उसे ‘मुसलमानों द्वारा परित्यक्त विवादास्पद ढांचा’ बना दिया, उसका ताला खुलवाने के जरिए शिलान्यास तक, कांग्रेस की एक के बाद दूसरी आनेवाली सरकारों ने अयोध्या विवाद के समूचे विकास में संदेहास्पद और कपटभरी भूमिका ही निभाई है. दरअसल मंदिर के सवाल पर कांग्रेस द्वारा पहलकदमी छीन लेने के इसी डर के चलते भाजपा बाबरी मस्जिद को ढाह देने की निराशोन्मत्त कार्यवाही करने को उतारू हुई. तथापि, खेल जारी है और ट्रस्टों को बनाने तथा संत समुदाय के अंदर घुसपैठ करने और समानांतर कदम उठाने के जरिए कांग्रेस अपनी चालबाजियां जारी रखे हुए है. मुसलमान इसे समझते हैं और यही कारण है कि वे अपने को कांग्रेस(आइ) से बुरी तरह अलग-थलग महसूस करते हैं.

लिहाजा, गौरतलब बात तो यह है कि एक ऐसी पार्टी के साथ धर्मनिरपेक्ष मोर्चा भला सांप्रदायिकता के खिलाफ किसी सच्चे संघर्ष को कैसे ताकतवर बना सकता है? कांग्रेस(आइ) और भाजपा के बीच के अंतरविरोधों का इस्तेमाल करने अथवा आवश्यक प्रशासकीय कदम उठाने हेतु सरकार पर दबाव डालने के लिए कांग्रेस(आइ) को धर्मनिरपेक्ष मोर्चे में खींच लाना क्या सचमुच जरूरी है?

भाजपाई किस्म के सांप्रदायिक फासीवाद और कांग्रेस(आइ) की सांप्रदायिक चालबाजियों, दोनों का विरोध करने वाला धर्मनिरपेक्ष मोर्चा इस संघर्ष को नई आर्थिक व विदेश नीतियों के खिलाफ संघर्ष के साथ भी जोड़ सकता है, क्योंकि ये नीतियां कांग्रेस(आइ) और भाजपा दोनों का साझा आधार हैं तथा इस प्रकार यह मोर्चा धीरे-धीरे एक व्यापक जनवादी मोर्चे में विकसित हो सकता है. इस मुद्दे पर सैद्धांतिक-राजनीतिक समझ में मतभेद मौजूद हैं तथा जिन साझे मंचों और संयुक्त कार्यवाहियों में हम और सीपीआई(एम) सभी मौजूद हैं वहां हमारे और उनके बीच का संघर्ष तीखे रूप से प्रतिबिंबित होता है. तथापि, अन्य राजनीतिक शक्तियों के दबाव और मुस्लिम प्रतिक्रिया के भय ने उन्हें अपनी लाइन को व्यावहारिक रूप देने से अबतक रोक रखा है.

सांप्रदायिक खतरे के खिलाफ जनता दल और इसके विभिन्न गुटों के साथ संश्रय का निर्माण करने पर भला किसी को क्या ऐतराज हो सकता है, किंतु विचारधारात्मक धरातल पर मंडलवाद को प्रधानता देना और किसी लालू यादव अथवा किसी मुलायम सिंह को युगपुरुष के रूप में स्थापित करना आत्मघाती ही सिद्ध होगा. इससे केवल यही साबित होगा कि इस महत्वपूर्ण हिंदीभाषी क्षेत्र में भाजपा की चुनौती का वामपंथ के पास अपना खुद का कोई जवाब नहीं है और यह भारत के परिधीय राज्यों में वामपंथ का अच्छा आधार बने रहने के बावजूद भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में उसे अप्रासंगिक ही बना देगा, खासकर तब जबकि इन परिधीय राज्यों में घुसपैठ करने की अपनी कूबत भाजपा ने भलीभांति प्रदर्शित की है.

वामपंथ की स्वतंत्र पहलकदमी

अगर उत्तर प्रदेश में हमारी हाल की पहलकदमियों और कुछ विश्वविद्यालय चुनावों में हमारी जीतों की हर ओर प्रशंसा की गई और उन्होंने नई उम्मीदें जगाई हैं तो इसका कारण वह संदेश है जो इन पहलकदमियों और जीतों से उभरता है. अर्थात् अगर दृढ़निश्चय हो तो वामपंथ निस्संदेह भाजपा को उसके गढ़ों में पराजित कर सकता है. सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि हमारी जीतें न केवल भाजपा की हमलावर सांप्रदायिक विचारधारा के ठुकराए जाने का प्रतीक हैं, बल्कि वे मंडलवाद का सकारात्मक निषेध भी हैं. उत्तर प्रदेश विश्वविद्यालय परिसर मंडल विरोधी आंदोलन से बुरी तरह उद्वेलित थे जिसके चलते छात्र समुदाय साफ-साफ बंटे हुए थे. जाति आधारित आरक्षण के मूलाधार को स्वीकार करने के साथ-साथ हमने बेरोजगारी के आम मुद्दे पर सबों का ध्यान केंद्रित किया. नतीजे के तौर पर छात्रों के हर तबके ने हमारा समर्थन किया.

हिंदी क्षेत्रों, खासकर उत्तर प्रदेश में जनता दल के साथ संयुक्त कार्यवाहियां करने पर सर्वाधिक ध्यान देते हुए भी हम समानांतर वाम पहल को शक्तिशाली बनाने की हिमायत करते हैं. अभी शुरूआत करते वक्त हम एक तुच्छ शक्ति जरूर लग सकते हैं, लेकिन यह रणनीतिक कार्यभार है और मौजूदा परिस्थिति वामपंथ के विकास के लिए पर्याप्त मौका दे रही है. इस मौके का एक इससे भी अहम कारण है लोहिया और जयप्रकाश के समाजवादी भाववाद के अवसान के बाद इन इलाकों में विचारधारात्मक शून्य का निर्माण. मुलायम सिंह और लालू यादव भाजपा के उत्थान का अल्पकालीन परिणामवादी प्रत्युत्तर प्रदान कर ही सकते हैं. लेकिन विचारधारा के धरातल पर उनके पास देने के लिए कुछ भी नहीं है. प्रगतिशील जनवादी बुद्धिजीवी विचारधारात्मक विकल्प और ऐसी शक्तियों की तलाश में हैं जो ईमानदार, समर्पित और जुझारू हो. नई राजनीतिक शक्तियों के उदय के लिए परिस्थितियां परिपक्व हो रही हैं और वामपंथ अपने हाथों में नेतृत्व ले सकता है.

दीर्घकालीन रणनीति प्रेक्षकों पर हमारे जोर को अक्सरहां हमारे “मार्क्सवादी” आलोचक अलगाववादी नीतियां करार देते हैं. उनका आरोप है कि हमारी इन नीतियों में पूंजीवादी खेमे के अंतरविरोधों और फूटों का इस्तेमाल करने की कार्यनीति को अहमियत नहीं दी गई है. बेशक, अपने रणनीतिक लक्ष्यों को पाने के लिए हम तथाकथित व्यापक संश्रय में अपनी स्वाधीनता को क़ुर्बान करने की जगह कभी-कभी अलगाव को तरजीह देते हैं, लेकिन हम पूंजीवादी विपक्ष का प्रतिनिधित्व करनेवाली राजनीतिक शक्तियों की विभिन्न धाराओं के साथ कार्यनीतिक और यहां तक कि अल्पजीवी संश्रयों में भी बंधने की कभी उपेक्षा नहीं करते हैं. अपनी स्वतंत्रता और पहलकदमी पर खड़ा होकर हम धीरे-धीरे व कदम-ब-कदम इस मामले में अपनी नीतियां विकसित कर रहे हैं. पूंजीवादी विपक्ष के खेमे में नेताओं के साथ संयुक्त कार्यवाहियों का हमारा दायरा निस्संदेह काफी बढ़ा है.

जब अपने हाल के एक वक्तव्य में मैंने विक्षुब्ध कांग्रेसियों का उल्लेख किया और भविष्य में एक व्यापक सांप्रदायिकता विरोधी संश्रय में उनके शामिल किए जाने की संभावना से इनकार नहीं किया तो हमारे अनेक कामरेड दिग्भ्रमित हो गए. लेकिन मुझे लगता है कि कांग्रेस में विक्षोभ बढ़ रहा है और भाजपा संबंधी कार्यनीति के सवाल के गिर्द वह ठोस शक्ल ले रहा है, इसलिए राष्ट्रीय एकता अभियान जैसे किसी व्यापक सांप्रदायिकता विरोधी मंच में उनके शामिल होने के सवाल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. मुझे ऐसा नहीं लगता कि इससे इस संश्रय का कांग्रेस विरोधी पहलू घट जाएगा, अपितु इससे यह पहलू और ताकवर ही होगा.

एक शब्द में, सीपीआई और सीपीआई(एम) के साथ हमारा मतभेद साम्प्रदायिक खतरे के खिलाफ व्यापक आधार वाले मंच के सवाल पर नहीं है. हमारा मतभेद वहां शुरू होता है जहां वे कांग्रेस के साथ संश्रय कायम करने के बहाने के बतौर इस मंच के स्वाभाविक भाजपा विरोधी जोर का इस्तेमाल करते हैं. हम राजनीतिक साजिशों के अड्डे के बतौर इस मंच का इस्तेमाल करने का भी विरोध करते हैं और इसके बदले हम जनगोलबंदी पर जोर देते हैं. हम पूंजीवादी विपक्ष की शक्तियों के सामने अपनी पहलकदमी समर्पित करने और पूंजीवादी नायकों का गुणगान करने का विरोध करते हैं. जहां तक दिशा का सवाल हो तो हम मानते हैं कि केवल जनवादी राज्य ही सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष राज्य हो सकता है और इस लिहाज से धर्मनिरपेक्षता के लिए संघर्ष एक ही साथ राज्य के जनवादीकरण के लिए भी संघर्ष है. लिहाजा, हमारे लिए धर्मनिरपेक्ष मोर्चा दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य से रहित कोई परिणामवादी कार्यनीति नहीं है, बल्कि यह भारत में जनवादी मोर्चे के निर्माण के रणनीतिक कार्यभार का अभिन्न अंग है और इसे निस्संदेह यही होना चाहिए.

जनपक्षीय मुद्दों पर एकता

अपनी ओर से हमने हमेशा जनहित से संबंधित मुद्दों पर संयुक्त कार्यवाहियां करने पर जोर दिया है, चाहे वह बिहार में भूमि के प्रश्न पर वामपंथी पार्टियों की संयुक्त कार्यवाही हो अथवा नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ संयुक्त ट्रेड यूनियन संघर्ष हो. हमने छात्रों, नौजवानों, महिलाओं और सांस्कृतिक मंचों को इसमें शामिल करने के लिए इस साझा संघर्ष के क्षितिज को विस्तारित करने में गहरी दिलचस्पी ली है.

इस संदर्भ में, हमने ट्रेड यूनियनों की स्पांसरिंग कमेटी को विस्तृत करके नई आर्थिक नीति व सांप्रदायिकता के विरुद्ध सभी किस्म के जन संगठनों के मंच की शक्ल देने के प्रस्ताव का हार्दिक स्वागत किया. यह मंच प्रथमतः वाम झुकाव रखनेवाले जन संगठनों को लेकर बना है. इसका केंद्रीय जोर सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ है और इसने निरपवाद रूप से जन कार्यवाहियां संचालित करने का निर्णय किया है जिसकी परिणति ‘भारत बंद’ के रूप में होगी. इन सब कारणों से ऐसा मंच वामपंथी पार्टियों के राजनीतिक महासंघ के लिए भौतिक आधार को मजबूत बनाने में काफी हद तक कारगर हो सकता है.

तथापि, जिस ढंग से सांप्रदायिकता को नई आर्थिक नीति के साथ फेंटकर एक खिचड़ी तैयार कर दी गई और इस प्रकार मंच के केंद्रीय जोर को धुंधला कर दिया गया हमें उसपर ऐतराज है. वामपंथी पार्टियों द्वारा कांग्रेस(आइ) की सरकार को बचाने, संकटकालीन घड़ियों में उसका समर्थन करने और भाजपाई खतरे से सतर्क रहने के नाम पर सरकार-विरोधी जन आंदोलनों की धार को कुंद करने के सतत प्रयासों को देखते हुए मंच के मुख्य जोर को धुंधला बनाने के पीछे उनके मकसद पर कोई भी व्यक्ति जरूर शंका करेगा.

फिर, संघर्षशील संगठनों के ऐसे मंच को राज्य की बढ़ती दमनकारी प्रकृति पर चुप नहीं रहना चाहिए. निस्संदेह यह नहीं भूलना चाहिए कि आतंकवाद को परास्त करने के नाम पर राज्य जिन दानवी कानूनों से अपने को लैस कर रहा है, अंततः उनका इस्तेमाल जनसंघर्षों के खिलाफ ही होगा. लिहाजा, सुसंगत जनवाद का हिमायती होने के कारण वामपंथ का कर्तव्य हो जाता है नागरिक, मानवीय व जनवादी अधिकारों के हरेक उल्लंघन का विरोध करना. इसी प्रकार, ऐसे मंच को महिला उत्पीड़न के मुद्दे पर अवश्य ही दृढ़ स्थिति अपनानी चाहिए, खासकर तब जबकि पुलिस हाजतों में बलात्कार किए जाते हैं और जब बलात्कार वर्गीय व सांप्रदायिक उत्पीड़न के हथियार बन गए हैं.

हम यह भी महसूस करते हैं कि भारत के हर कोने में ग्रासरूट संगठन एक जनपक्षीय विकास रणनीति के लिए सकारात्मक संघर्ष चला रहे हैं. वर्तमान संदर्भ में वे आइएमएफ और विश्व बैंक के निर्देशों पर बनी आर्थिक नीतियों और सांप्रदायिकता के खिलाफ भी आवाज उठा रहे हैं. निस्संदेह ऐसी शक्तियों को भी प्रस्तावित जनमंच की छतरी तले खींच लाना चाहिए. वामपंथ को अपने एजेंडे में उन तमाम मुद्दों को शामिल करने कि लिए, जो पिछले कुछ दशकों की विकास प्रक्रिया में सतह पर उभरे हैं, अवश्य ही अपनी नीतियों की दिशा फिर से निर्धारित करनी चाहिए. ऐसा करने के लिए यह जरूरी है कि वामपंथ ऐसी शक्तियों के साथ समागम बढ़ाने में हरगिज न हिचके और अपनी विचारधारा व अपनी संगठनात्मक शक्ति पर पक्का भरोसा रखे. इन और अन्य सवालों पर हम इस मंच के अंदर अपनी लड़ाई जरूर जारी रखेंगे.

सांप्रदायिकता के विरुद्ध संयुक्त राजनीतिक मंच का और नई आर्थिक नीति के विरुद्ध एक जनमंच का उदय खुद अपने-आप में वामपंथी शक्तियों के बीच एकता के उदीयमान प्रतिरूप का सूचक है. साथ ही, वह इस बात का सूचक है कि दो कार्यनीतियों के बीच का संघर्ष संयुक्त कार्यवाहियों के दायरे में भी व्याप्त हो गया है. शुरूआत हम एकता से करते हैं और ऊंचे स्तर की एकता कायम करने के उद्देश्य से संघर्ष जारी रखते हैं. भारत में वाम आंदोलन का भविष्य इस एकता-संघर्ष-एकता पर निर्भर है.

(समकालीन जनमत, 23-29 दिसम्बर 1990 से)

एक खुशफहमी थी, सो खत्म हुई. खुशफहमियां अपनी प्रकृति से ही चार दिन की चांदनी हुआ करती हैं, और अगर वीपी सिंह करीब ग्यारह महीने सत्ता में टिके रहे, तो यह उनके जैसे राजनेता के लिए – एक ऐसे राजनेता के लिए, जिसकी भारतीय राजनीति में, और वह भी ‘विपक्ष’ की राजनीति में कोई जड़ ही न हो – कुछ कम बड़ी उपलब्धि नहीं है. विडंबना यह कि जिस शख्स ने इस्तीफे की कला में महारत हासिल कर रखी थी, अंततः उसे संसद में शक्ति-परीक्षण के जरिए हटाए गए इकलौते प्रधानमंत्री का खिताब अर्जित करना पड़ गया. वीपी सिंह जा चुके हैं. राजनीति की मुख्यधारा में शीघ्र ही उनकी वापसी होगी या वह परिधि की राजनीति का कोरा सिद्धांतकार बनकर रह जाएंगे – फिलहाल इस सवाल पर कुछ भी कहना बड़ी जल्दबाजी होगी. इसलिए आइए, अभी “रुकिए-देखिए” की सदियों पुरानी सीख पर ही अमल किया जाए.

वीपी सिंह बारम्बार यह दावा करते हैं कि उन्होंने धर्मनिरपेक्षता के ऊंचे उसूलों की बलिवेदी पर अपनी सरकार को कुर्बान कर दिया. उनकी दलील है कि भाजपा की मांगों के सामने सर झुकाकर, अगर वह चाहते तो, अपनी सरकार को बचा ले सकते थे. वह खुद को धर्मनिरपेक्षता के महान लक्ष्य के लिए मर मिटनेवाले शहीद के रूप में पेश कर रहे हैं, और अपने विश्वासमत प्रस्ताव को यूं चित्रित करते हुए, जैसे उसके जरिए सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के संघर्ष की हद तय कर दी गई हो, उन्होंने पार्टी-सांसदों से अपनी-अपनी अंतरात्मा के अनुसार वोट देने की अपील तक कर डाली. लेकिन मतदान के रंग-ढंग से यह स्पष्ट हो गया कि संघर्ष की हद – बल्कि उसकी हदें – भिन्न-भिन्न धरातलों पर तय की गई थीं और उनकी अपनी ही पार्टी के कुल सांसदों के लगभग आधे हिस्से ने पार्टी-ह्विप को धता बता दिया था. अगर वीपी सिंह की बात का यकीन करें, तो सांसदों की भारी बहुसंख्या ने सांप्रदायिकता के पक्ष में ही मतदान किया था.

तब, आखिर जनता दल में हुई टूट-फूट की व्याख्या कैसे की जाए – और वह भी इस हाल में, जबकि मुलायम सिंह, चिमन भाई पटेल जैसे लोग राजी-खुशी चंद्रशेखर खेमे के साथ जा बैठे हैं. नए प्रधानमंत्री चंद्रशेखर भी धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता के मुद्दे पर ऐसे ही लटकों-झटकों का इस्तेमाल कर रहे हैं. सच तो यह है कि अगर वीपी सिंह भाजपा की मांगों के सामने झुक जाते, तो उनकी सरकार और भी बेआबरू होकर गिरती, क्योंकि वैसी स्थिति में, वामपंथी अपना समर्थन वापस लेने को विवश हो जाते और चंद्रशेखर-देवीलाल खेमा तब भी बगावत करता – और इस बगावत का नैतिक आधार भी अपेक्षाकृत ज्यादा मजबूत होता. सो, उस मोड़ पर वीपी सिंह के लिए अपनी सरकार को बचा लेना किसी भी तरह संभव नहीं था. दरअसल, आखिरी वक्त उन्होंने भाजपा के साथ सुलह-सफाई की कोई सूरत निकाल लेने की हरचंद कोशिश की थी – मस्जिद-मंदिर विवाद के सिलसिले में जारी विवादास्पद अध्यादेश इसका सबूत है. अब वीपी सिंह जो कुछ कह रहे हैं, वह एक राजनीतिज्ञ का सच है – एक ऐसा सच, जो उनको सबसे ज्यादा रास आता है. लेकिन उनके पतन के कारण दूसरे हैं. जो कुछ बताया जा रहा है, उससे काफी अलग हैं. उनकी जड़ें सामाजिक विभाजनों में, विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के बीच की और खुद उनकी अपनी पार्टी के अंदर के विभिन्न गुटों के बीच की परंपरागत प्रतिद्वंद्विता में, गहरे गड़ी हैं. संसद के अंदर सामाजिक शक्तियों का भी – और उनके प्रतिबिंब के रूप में, राजनीतिक शक्तियों का – संतुलन वीपी के खिलाफ पड़ा और इसीलिए सत्ता उनके हाथ से जाती रही. इस समूची परिघटना की व्याख्या महज बुर्जुआ राजनीतिज्ञों की सत्ता-लोलुपता को दोषी ठहराकर, किन्हीं थोथे आदर्शो  और नैतिकता का सवाल उठाकर, और पैसे के जोर का अति-मूल्यांकन करके नहीं की जा सकती. इस तरह की बातें राह चलते आदमी की मामूली राजनीतिक समझदारी को व्यक्त करती हैं, और एक ऐसे उदार-नैतिकतावादी रवैये का परिचय देती हैं, जिसमें इस बात का कोई ख्याल ही नहीं किया जाता कि राजनीतिक पार्टियां किन्हीं पेशेवर राजनीतिज्ञों की मनमर्जी से जन्म नहीं लिया करतीं, बल्कि वे स्वाभाविक और निरपवाद तौर पर पैदा होती हैं आधुनिक समाजों के गर्भ से, और उनके (यानी राजनीतिक पार्टियों के) जरिए, विभिन्न सामाजिक वर्ग और तवके अपने-अपने हितों को मुखर करते हैं और सत्ता में हिस्सेदारी के लिए एक-दूसरे के साथ होड़ करते हैं. जहां तक राजनेताओं की व्यक्तिगत लालसा, कुर्सी और मलाई की लूट-खसोट, पैसे-कौड़ी आदि की बात है, तो ये चीजें महज सामाजिक शक्तियों के संयोजन-पुनर्संयोजन के दायरे में ही क्रियाशील हो सकती हैं.

बहरहाल, आइए, हम भारतीय राजनीति में वीपी-परिघटना के विश्लेषण से अपनी बात शुरू करें.

वीपी सिंह को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने कांग्रेस के विकल्प के रूप में अखिल भारतीय स्तर पर एक बुर्जुआ दलबंदी (फार्मेशन) तैयार करने की संजीदा कोशिश की. विपक्ष की राजनीति का दामन थामने के लिए मजबूत होकर, उन्होंने अपने कांग्रेसी अतीत को बेसाख्ता खारिज कर दिया, और खुद को लोहिया-जयप्रकाश के गैर कांग्रेसवाद का उत्तराधिकारी बताते हुए, विपक्ष के स्वाभाविक नेता के बतौर पेश कर दिया. उनके राजनीतिक जीवन की शुरूआत संजय गांधी की छत्रछाया में इमर्जेंसी के दौरान हुई. जल्दी ही वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री बन गए, जहां उनके निर्मम “इनकाउंटर” अभियान में मुख्यतः पिछड़ी जातियों के सैकड़ों नौजवान मारे गए (प्रसंगवश, वीपी सिंह से मुलायम सिंह की प्रतिद्वंद्विता उन्हीं दिनों शुरू हुई). आगे चलकर राजीव-सरकार के वित्तमंत्री के रूप में उन्होंने आर्थिक उदारीकरण की जोरदार हिमायत की. और अंत में, सब कुछ छोड़-छाड़कर वह जिस तरह रातों-रात विपक्ष की केंद्रीय हस्ती बन गए, वह अपने-आप में भारतीय राजनीति का एक चमत्कार ही था. उन्होंने वामपंथियों को अपना स्वाभाविक मित्र बताया और बहुत से ऐसे गैर-पार्टी राजनीतिक संगठनों व ‘ग्रासरूट’ आंदोलनों के साथ नजदीकी रिश्ता कायम कर लिया, जो अस्सी के दशक में कांग्रेसी सर्वसत्तावाद के बरखिलाफ उभर आए थे. वह उन सबको राजनीतिक प्रक्रिया की मुख्यधारा में समेट लाए. सबसे मार्के की बात यह हुई कि वह कांग्रेस के क्षेत्रीय विपक्ष की महत्वपूर्ण पार्टियों के साथ मिलकर एक राष्ट्रीय मोर्चे का निर्माण करने में सफल रहे. उनकी मंशा एक ऐसा राजनीतिक समीकरण तैयार करने की थी, जो कांग्रेस को न केवल संसद में संख्या-बल के लिहाज से पछाड़ सके, बल्कि आज की भारतीय परिस्थिति से अपेक्षाकृत अधिक मेल खाती एक नई किस्म की राजनीतिक संरचना का द्योतक भी हो. जनता दल के अंदर उनकी स्थिति शुरू से ही नाजुक थी, क्योंकि वहां वह एक परायी सेना के कमांडर की भूमिका अदा कर रहे थे. जनता दल, परंपरागत रूप से खासी मजबूत हैसियत रखनेवाले भांति-भांति के गुटों का घालमेल था, जिनकी वफादारी दल के सर्वोच्च कमांडर से पहले अपने-अपने सरदारों के प्रति थी. मगर वीपी सिंह को उम्मीद थी कि एक गुट के खिलाफ दूसरे गुट को शह देकर, और इससे भी बढ़कर – जनता दल के अंदर से उभरनेवाली किसी भी चुनौती के खिलाफ राष्ट्रीय मोर्चे के घटकों के साथ अपनी जोड़-गांठ का इस्तेमाल करके, वह अपनी पार्टी के गुटीय विभाजन पर नियंत्रण रख सकेंगे. उनकी मूल योजना में भाजपा के लिए कोई जगह नहीं थी और चुनाव-अभियान के दौरान उन्होंने सतर्कतापूर्वक उससे एक दूरी बनाए रखी थी.

उनका ‘अजगर’ समीकरण गुजरात से बिहार तक बखूबी काम आया. पिछड़ी जातियों के कुलकों की एक प्रबल बहुसंख्या के साथ-साथ उनकी अपनी राजपूत जाति के नए-पुराने देहाती कुलीनों ने भी जनता दल की हिमायत की. भागलपुर के दंगों और शिलान्यास के विवादास्पद फैसले के कारण कांग्रेस से मुंह मोड़ते मुस्लिम समुदाय ने जनता दल के पक्ष में मतदान किया. उड़ीसा में जनता दल जैसे समीकरण हमेशा कांग्रेस के स्वाभाविक विपक्ष की भूमिका निभाते रहे हैं और इस बार भी उन्होंने कांग्रेस-विरोधी लहर की भरपूर फसल काटी. वामपंथियों ने बंगाल में 1984 के चुनाव में कांग्रेस के हाथों हुई पराजय की कसर निकालकर अपनी स्थिति सुधार ली और कहीं कुछ खोकर, कहीं कुछ पाकर संसद में मजे की जगह बना ली.

बहरहाल, वीपी को सबसे बड़ा धक्का दक्षिण भारत में लगा. दक्षिण की लहर उत्तर की लहर के बिलकुल उलट थी और उसका स्वरूप कहीं ज्यादा हाहाकारी था. दक्षिण में मतदान का जो रुझान देखने में आया, उसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी और वह आज भी राजनीतिक विश्लेषकों के लिए एक पहेली बना हुआ है. पर इतना तो है ही कि दक्षिण के इस रुझान और महाराष्ट्र में अपनी संतोषजनक स्थिति के चलते कांग्रेस संसद में अकेली सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर आई.

एक अन्य अप्रत्याशित विकास था – भाजपा का चमत्कारी उत्थान. भाजपा उत्तरी और पश्चिमी भारत में अपने बलबूते हमेशा से एक मजबूत शक्ति रही है और मध्यप्रदेश, राजस्थान व हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में तो परंपरागत रूप से कांग्रेस के मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाती रही है. इन राज्यों में कोई भी कांग्रेस-विरोधी लहर उसी के उत्थान का बायस बन जाती है. 1989 के चुनावों में भाजपा ने अपने विस्तारित ढांचे की मदद से और रामकार्ड का भरपूर इस्तेमाल करके इतनी सीटें हासिल कर लीं कि जिसका अंदाज उसके नेताओं तक को नहीं था. चुनाव के नतीजों से जाहिर होता है कि उसने कुछ गैर परंपरागत क्षेत्रों में भी हाथ-पांव फैलाए हैं और किसानों, पिछड़ी जातियों, दलितों और आदिवासियों के बीच भी जगह बना ली है. भाजपा के विरुद्ध एकमात्र सुसंगत शक्ति समझे जानेवाले वामपंथी हिंदी-क्षेत्र में भाजपा के बढ़ाव को नियंत्रित करने के लिए व्यवहारिक तौर पर कुछ नहीं कर सके और भाजपा को अलगाव में डालने का उनका नारा टांय-टांय फिस्स हो गया.

लिहाजा, गौर से देखिए तो, दो प्रतिकूल कारकों ने एकदम शुरू से ही वीपी के हाथ बांध रखे थे. इनमें से एक कारक था कांग्रेस का अकेली सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आना, और इस तरह, किसी भी परिस्थिति को अपने पक्ष में मोड़ लेने के लिए जरूरी तुरुप के पत्ते को अपने हाथ में रखना. दूसरा कारक था भाजपा का अप्रत्याशित उत्थान, जिससे तुरुप के पत्ते की भूमिका निभाने की उसकी आकांक्षा बलवती हो उठी थी. इसके अलावा, वीपी सिंह को संसद के अंदर राष्ट्रीय मोर्चे के अपने क्षेत्रीय सहयोगियों का निर्णायक समर्थन भी नहीं मिल पाया; और इसके चलते, जनता दल के भीतर की गुटगत तू-तू-मैं-मैं को दबाकर रखना लगभग उनके वश के बाहर हो गया.

यहां लाजिमी तौर पर इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि भाजपा की वस्तुगत अवस्थिति महत्वाकांक्षा के बीच मार्के का फर्क है. अगर बंगाल और केरल जैसे वामपंथ के परंपरागत दुर्गों में जनता दल का कोई अस्तित्व नहीं है, तो उधर जनता दल के मजबूत केन्द्रों में वामपंथ की भी कोई असरदार पहुंच नहीं देखी जाती. राष्ट्रीय राजनीति में वामपंथियों ने वस्तुतः जनता दल के टहलुओं का बाना धारण कर लिया है, और हिंदी-क्षेत्र के साथ-साथ आंध्र, उड़ीसा, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि राज्यों में अपने हाथ-पांव फैलाने का जो थोड़ा-बहुत सपना वे संजो भी पाते हैं, तो बस जनता दल और राष्ट्रीय मोर्चा के उसके सहयोगियों की पूंछ पकड़कर. लिहाजा, वामपंथी एक लंबे अरसे तक जनता दल के साथ अपनी चूलें बिठाए रख सकते हैं. पर भाजपा के साथ स्थिति बिलकुल दूसरी है. उसके और जनता दल के काम-काज के इलाके एक-दूसरे से घुले-मिले हैं; और उसका वजूद और फैलाव जनता दल की कीमत पर ही संभव हो सकता है. दोनों पार्टियों के बीच की प्रतिद्वंद्विता एक अंतर्निहित-वस्तुगत परिघटना है. इसके अलावा, भाजपा के सर पर ‘हिंदूराष्ट्र’ के आक्रामक फलसफे का भूत  सवार है, उसके पास सिद्धांतवेत्ताओं और प्रचारकों का एक सुविस्तृत ढांचा है, और उसकी पीठ पर आरएसएस की सुसंगठित कार्यकर्ता-शक्ति का हाथ है. इन सबकी मदद से उसने भारतीय राजनीति का किला फतह कर लेने का मंसूबा बांध रखा है. ईरान और पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरपंथ के उभार, पूर्वी यूरोप में कम्युनिस्ट सरकारों के पतन, सोविययत संघ में समाजवाद को लगे गंभीर धक्के, और साथ ही साथ, चर्च की बढ़ती हुई निर्णायक भूमिका ने उसके लिए एक अनुकूल विचारधारात्मक माहौल पैदा कर दिया है और इधर, देश के अंदर, राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए धर्म के इस्तेमाल में मिली सफलता ने उसका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ा दिया है.

अपने त्रिशंकु स्वरूप में नवीं लोकसभा भारतीय समाज के गंभीर अंतर्विरोधों और उभरते रुझानों का दर्पण थी. अगर दक्षिण बनाम उत्तर का अंतर्विरोध कांग्रेस-परस्त और कांग्रेस-विरोधी लहरों का रूप लेकर सामने आया, तो हिंदू कट्टरपंथ का उभार भाजपा के उत्थान में अभिव्यक्त हुआ. जहां तक परंपरागत वामपंथ का सवाल है, तो यह बिलकुल साफ हो गया कि उन्होंने खुद को जनता दल के मुकाबले गौण भूमिका में डाल रखा है. अकाली दल (मान) ने पंजाब में चुनाव का मैदान मार लिया. बहुजन समाज पार्टी, और यहां तक कि आईपीएफ ने भी, अपने-अपने स्वतंत्र आधारों पर पैर टिकाकर संसद में जगह बनाई.      

वीपी सिंह इस स्थिति में नहीं रह गए कि अपनी पसंद का विकल्प चुन सकें. भाजपा का समर्थन लिए बिना सरकार बनाना उनके लिए कतई नामुमकिन हो गया. सो, जाहिरा तौर पर जनदबाव का रोना रोते हुए रातो-रात तमाम सूत्रीकरण बदल दिए गए. उन्हें इलहाम हो गया कि मूल्य-आधारित राजनीति नाम की कोई चीज नहीं हुआ करती. उल्टे, मूल्य ही हैं जो व्यवहारिक राजनीति के माल-भत्ते पर टिके होते हैं और बची राजनीति, तो वह अंतर्विरोधों के प्रबंधन की बाजीगरी के अलावा और कुछ नहीं होती. वामपंथियों ने, जिनके पास भाजपा और कांग्रेस के बीच – या जैसा कि ईएमएस ने कहा था, ‘हैजा और प्लेग के बीच’ – फर्क करने के लिए कुछ भी नहीं था, कमाल की कलाबाजी खाई और “भाजपा को अलगाव में डालने” के नारे की जगह “भाजपा से सहयोग करने” के नारे को ला बिठाया. भाजपा को राजनीतिक पार्टी और विहिप, बजरंग दल,  शिवसेना को सांप्रदायिक उन्मादी बताकर उनके बीच फर्क करने की कोशिशें की जाने लगीं. राजेश्वर राव ने तो भाजपा के कार्यक्रम में “सकारात्मक सामाजिक-आर्थिक अंतर्वस्तु” तक ढूंढ़ निकाली. भाजपा से सहयोग की इस हरकत को जायज ठहराने के लिए राष्ट्रीय एकता और अखंडता का नारा बैठे-ठाले उनके हाथ लग गया. और सच पूछिए तो आडवाणी ने फरमाया कि राष्ट्रीय एकता, पाकिस्तान, पंजाब आदि के बारे में हमारे विचार जनता दल से ज्यादा वामपंथियों के करीब हैं. अपनी अंदरूनी सर्किल में तो वामपंथी नेता यहां तक दावा करते रहे कि भाजपा को सरकार से बाहर रखते हुए सरकार के प्रति जिम्मेवार बनाने, और इस तरह, उसके सांप्रदायिक उन्माद पर रोक लगाने की उनकी रणनीति ने झंडे गाड़ दिए हैं. इतिहास ने बता दिया है कि यह सब जनता से किया गया राजनीतिक छल था. भाजपा के बारे में पक्के तौर पर एक भ्रम फैलाया गया और जनता को बाकायदा असावधानी कि स्थिति में डाल दिया गया.

भाजपा से यह उम्मीद करना, कि वह अपने रामकार्ड को – उस कार्ड को, जिसकी बदौलत उसकी पांचों उंगलियां घी में रही हैं – तिलांजलि दे देगी और वामपंथियों की ही शैली में पूरे भक्ति-भाव से जनता दल सरकार की टहल बजाने लगेगी, निरी कुढ़मगजी थी. भाजपा ने जनता दल सरकार को बिनाशर्त समर्थन देने की बात से इनकार करके पहले ही दिन जता दिया था कि उसकी नीयत क्या है और आडवाणी ने तो एलानिया कहा था कि उनका इरादा सरकार के “ब्रेक और एक्सेलेटर” (नियंत्रक और संचालक) दोनों की भूमिका निभाने का है. यानी, चीजें पूर्वानुमान के अनुसार ही चली हैं; और अब अगर वामपंथियों को कोई कूल-किनारा नजर नहीं आता, तो उनकी कुढ़मगजी के लिए, उनके राजनीतिक परिणामवाद के लिये, धार्मिकटटरपथ के खिलाफ संघर्ष पर पानी फेरने के उनके अपराध के लिए, वे ही – सिर्फ वे ही – दोषी ठहराए जा सकते हैं. मैं अब भी महसूस करता हूं कि वामपंथियों की सबसे अच्छी कार्यनीति यह होती कि वे जनता दल और भाजपा को मिलकर केंद्र में सरकार बनाने देते और अपने लिए “एक्सेलेटर और ब्रेक” की भूमिका सुरक्षित रखते, इससे वामपंथ की स्वतंत्र छवि को एक नई चमक मिल गई होती.  

वीपी सिंह ने अपने राजनीतिक जीवन का दूसरा दौर राजनीति-आधारित मूल्यों और अंतरविरोधों के प्रबंधन की बाजीगरी से शुरू किया. प्रधानमंत्री के रूप में उनका राज्यरोहण चंद्रशेखर के खिलाफ देवीलाल को शह देने की उनकी चतुराई भरी चाल का नतीजा था. लेकिन राजनीति में हर समर्थन अपनी कीमत वसूलता है, और आखिरकार एक ऐसा मोड़ भी आया, जहां वीपी लाख जतन करके भी बेलगाम देवीलाल-चौटाला मंडली पर कोई लगाम नहीं डाल सके. एक के बाद दूसरे संकट ने जनता दल की चूलें हिला दीं और अंततः वीपी को देवीलाल से संबंध-विच्छेद कर लेना पड़ा.

वह अपने घोषणापत्र की तमाम महत्वहीन धाराओं को ताबड़तोड़ लागू करने लगे, जिनसे जनसमुदाय का कोई खास सरोकार नहीं था. बोफोर्स के अहम मुद्दे पर उनकी सरकार कोई नया सबूत जुटाने में विफल रही. उल्टे, हुआ यह कि बोफोर्स मामले में शक की जो सुई राजीव गांधी की तरफ घूमी थी, वह वीपी के राज में उनसे दूर-ही-दूर होती गई.

पंजाब के सवाल पर वह कोई पहलकदमी नहीं ले पाए और जल्दी ही अकाली दल(मान) के साथ अपनी रब्त-जब्त खो बैठे, जिससे ले-देकर मामला जहां-का-तहां पहुंच गया. केंद्रीय सत्ता में धारा 370 के खात्मे की मांग पर अड़ी रहनेवाली भाजपा की निर्णायक मौजूदगी के प्रतिक्रियास्वरूप, कश्मीरी लड़ाकों की कार्रवाइयों में बला की तेजी आ गई. वीपी सिंह ने, जगमोहन के माध्यम से, भाजपा के रास्ते से समस्या को सुलझाने की कोशिश की. इससे कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया की रही-सही आस भी जाती रही.

आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती गई, और कीमतें आकाश छूने लगीं. राजीव गांधी के राज में पैदा हुई आर्थिक समस्याएं सुलझने के बजाए उलझती चली गई. और ऊपर से खाड़ी-संकट क्या आया, कि भारतीय अर्थव्यवस्था ही ध्वंस के कगार पर पहुंच गई है, और खतरा मंडराने लगा है कि कहीं भारत को कर्ज चुकाने में असमर्थ बाकीदारों के बीच न शुमार कर लिया जाए.

वीपी सिंह ने सर्वदलीय सहमति की जो शैली अपनाई थी, वह देखते-न-देखते मजाक बनकर रह गई. उन्हें एक विकट आर्थिक स्थिति में काम करना पड़ रहा था. उनपर एक ओर से कांग्रेस का, जो उनकी हर असफलता से लाभ उठाने के मौके की ताक में थी, और दूसरी ओर से भाजपा का, जो निर्णायक भूमिका निभाने के लिए कमर कसे हुए थी, घेरा तंग होता जा रहा था. उधर जनता दल के अंदर सर उठाता चंद्रशेखर-देवीलाल गिरोह उनके लिए एक और दहशत पैदा कर रहा था. ऐसे में, बचाव की सहज-वृत्ति से   प्रेरित होकर उन्होंने अचानक मंडल आयोग रपट लागू करने की घोषणा कर डाली. इसके जरिए उन्होंने साफ तौर पर अपना खुद का राजनीतिक आधार तैयार करने, जनता दल के अंदर अपना रुतबा बुलंद करने और अपने तमाम प्रतिद्वंद्वियों को रक्षात्मक स्थिति में धकेलने की कोशिश की थी. लेकिन जैसा कि घटनाओं ने साबित किया, उनका सारा हिसाब-किताब गड़बड़ था, और मंडल रपट को लागू करके वह अपने पतन को ही बुलावा दे बैठे थे. इससे उनकी अपनी राजपूत जाति में उनका सामाजिक आधार सिकुड़ गया. हरियाणा, उत्तरप्रदेश और राजस्थान के शक्तिशाली जाटों तथा कुछ और प्रमुख जातियों ने, जो अबतक हिंदी क्षेत्र में जनता दल का सामाजिक आधार हुआ करते थे, अपना पाला बदल लिया. और चंद्रशेखर-देवीलाल मंडली फिर से सीन पर आ गई.

छात्र और नौजवान, उसमें भी खासकर दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों के छात्र-नौजवान, खुद को बुरी तरह छला हुआ महसूस करने लगे – उस आदमी के हाथों छला हुआ महसूस करने लगे, जिसके सिद्धांतवादी होने का उन्हें पूरा विश्वास था और रोजगार के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने के जिसके वायदे को सुनकर, उन्होंने उम्मीद लगा रखी थी कि अब रोजगार के अवसर कुछ-न-कुछ जरूर बढ़ेंगे. पर उस सबके बजाए, उन्हें वीपी के रूप में नजर आया एक कोरा मंसूबे==बाज राजनीतिज्ञ, जो रोजगार के रहे-सहे अवसरों से भी उन्हें वंचित किए दे रहा था. उनकी चरम निराशा मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के दर्जनों जवान लड़के-लड़कियों के ‘आत्मदाह’ के रूप में फूट पड़ी, उस रूप में, जिसे नौजवान अमूमन अख्तियार नहीं करते.

मंडल रपट लागू करने से कुछ प्रमुख पिछड़ी जातियों में वीपी की स्थिति मजबूत तो हुई, पर इससे उनके पिछड़ी जाति आधार में कोई इजाफा नहीं हुआ. दूसरी ओर, समाज के अन्य तमाम हिस्सों का जो समर्थन उन्हें प्राप्त था, उसमें भी काफी गिरावट आई. और इस पर से, जब छात्रों-नौजवानों का गुस्सा ‘आत्मदाह’ के रूप में फट पड़ा, तो सत्ता में उनकी मौजूदगी के सामने एक गंभीर नैतिक प्रश्न उठ खड़ा हुआ. शक्तिशाली प्रेस-जगत उनके खिलाफ हो गया; और कांग्रेस एवं भाजपा के साथ-साथ चंद्रशेखर-देवीलाल गिरोह भी उनकी फजीहत से फायदा उठाने की चतुराई भरी चालें चलने लगा.

वीपी सिंह की दलील इस प्रकार थी कि कुछ पिछड़ी जातियों ने हरित क्रांति के चलते पर्याप्त आर्थिक-राजनीतिक शक्ति अर्जित कर ली है और अब वे नौकरशाही के ऊपर के पायदानों में भी आनुपातिक प्रतिनिधित्व पाने के हकदार हैं. ऐतिहासिक तौर पर, चूंकि वे सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़ी रही हैं, इसलिए एक लंबे अरसे तक, वे प्रतिभा के आधार पर ऊंची जातियों से होड़ करने में सक्षम नहीं हो सकतीं. लिहाजा, उनके प्रतिनिधित्व की गारंटी करने का एकमात्र जरिया है – नौकरियों में आरक्षण.

उनका अगला तर्क था कि सवाल केवल सामाजिक न्याय का नहीं है, बल्कि उससे बढ़कर सामाजिक सामंजस्य का है. “परिवार के अंदर बड़े भाई को ज्यादा शक्ति और अधिकार का उपभोग करना चाहिए; पर तब, उसे छोटे भाई को भी कुछ अधिकार देना चाहिए, उसकी भी निर्णय की प्रक्रिया में भागीदार बनाना चाहिए.”

बुर्जुआ राजनीतिज्ञ के संकीर्ण नजरिए से चीजों को देखनेवाले वीपी सिंह की असली मंशा पिछड़ी जातियों के उन हिस्सों को शासन-व्यवस्था के ढांचे में खपा लेने की थी, जिन्होंने समाज में पर्याप्त आर्थिक-राजनीतिक शक्ति अर्जित कर ली है – यानी, जो कुलक लॉबी के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं. आज जनता के नाम पर, और यहां तक कि क्रांति की जुगाली करते हुए, अपने संकीर्ण वर्गीय स्वार्थ की हिमायत करना बुर्जुआ राजनीति का पुराना कौशल रहा है.

बेशक, वर्गीय समायोजन की उक्त प्रक्रिया एक वस्तुगत स्वाभाविक प्रक्रिया है और वीपी सिंह सत्ता में रहें या न रहें, यहां-वहां कभी तनाव, कभी तालमेल की स्थितियों से गुजरते हुए यह प्रक्रिया चलती रहेगी. जातियों के अंदर वर्गो की रचना-प्रक्रिया को बढ़ावा देने, वर्गीय ध्रुवीकरण और वर्ग संघर्ष को तेज करने के सर्वथा भिन्न परिप्रेक्ष्य से किसी तदबीर का समर्थन करना बिलकुल दूसरी चीज है; मगर ऊपर-ऊपर से वीपी जो कुछ कहते हैं, उसी को सच मानकर मंडल-रपट के क्रियान्वयन को एक प्रकार की क्रांति घोषित कर देना और वीपी के पीछे-पीछे घूमने लगना निरी राजनीतिक मूर्खता और कम्युनिस्टों की वर्ग-स्थिति का परित्याग कर देने के समान है.

वीपी सिंह ने पार्टियों की हदबंदी से परे बैकवर्ड-फारवर्ड आधार पर अखिल भारतीय राजनीतिक ध्रुवीकरण का जो तूमार बांध रखा है, उसमें लोहियावादी राजनीतिज्ञों की गलत व संकीर्ण समझदारी ही अभिव्यक्त होती है. यह उनका गुनाह-बेलज्जत ही था, कि उन्होंने (विश्वास-मत प्रस्ताव के समय) इस उम्मीद में सांसदों से अंतरात्मा की आवाज के अनुसार वोट डालने की अपील कर डाली कि कांग्रेस और भाजपा के अंदर जातीय अंतर्विरोध भारतीय समाज का एक प्रमुख अंतर्विरोध है और कुछ राज्यों में, खासकर बिहार में, इसी से राजनीति की मुख्यधारा का स्वरूप तय होता है. लेकिन यह कोई सर्वव्यापी अंतर्विरोध नहीं है. अलग-थलग ढंग से देखिए, तो तमिलनाडु का द्रविड़ आंदोलन ऊंची जातियों के खिलाफ पिछड़ी जातियों के उभार का द्योतक है. लेकिन तब, यह भी है कि तमिल राष्ट्रीय पहचान – दक्षिण भारतीय पहचान – का सवाल इसमें और भी बड़ी भूमिका अदा करता है. इधर द्रविड़ आंदोलन भी द्रमुक और अन्नाद्रमुक की दो बड़ी धाराओं में विभाजित हो चुका है और हाल के वर्षों में वन्नियार जैसी अन्य पिछड़ी जातियों का उत्थान एक महत्वपूर्ण परिघटना बनकर सामने आया है.

फिर, पिछड़ी जातियों का व्यवहार किसी एकल-एकरूप सामाजिक श्रेणी जैसा भी नहीं होता और यहां तक कि बिहार जैसे राज्यों में भी वे अपनी अंदरूनी प्रतिद्वंद्विता में उलझी रहती हैं. इन प्रतिद्वंद्विताओं का नतीजा अक्सर कुछ एक बैकवर्ड-फारवर्ड जातियों के संश्रय के खिलाफ कुछ अन्य बैकवर्ड-फारवर्ड जातियों के संश्रय के रूप में सामने आता है. बंगाल जैसे राज्यों में शक्तिशाली पिछड़ी जातियों की कोई विशिष्ट श्रेणी नहीं है और न ही अगड़ी-पिछड़ी जातियों का ऐसा कोई झगड़ा है.

उत्तर प्रदेश में, कुछ विश्लेषणकर्ताओं का ख्याल था कि मुलायम सिंह “पिछड़ों में भी पिछड़े” के प्रतिनिधि हैं. उन्हें कुलक-जाट लॉबी के खिलाफ गरीब-मंझोले किसानों का संगठनकर्ता समझा जाता था. और माना जाता था कि मामला चाहे मंडल आयोग का हो या राम-जन्मभूमि का, हर लिहाज से वह वीपी सिंह के पक्के सहयोगी हैं. लेकिन, पलड़ा परंपरागत राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का ही भारी रहा और वस्तुगत रूप से वीपी सिंह की तमाम कोशिशों का एक ही मकसद रहा – मुलायम सिंह की कीमत पर उत्तरप्रदेश में अपने खुद के आधार-क्षेत्र का निर्माण. मुलायम सिंह-अजीत सिंह विवाद भी एक जाना-पहचाना मामला है और मूलतः उत्तरप्रदेश में जनता दल इन्हीं तमाम आधारों पर टूटा है. मुलायम सिंह के इस आरोप में कुछ-न-कुछ सच्चाई जरूर है कि वीपी सिंह ने विभिन्न हथकंड़ों से उनकी सरकार को गिराने की कोशिश की थी.

उत्तरप्रदेश में वीपी-अजीत गठजोड़ के मुकाबले मुलायम सिंह-चंद्रशेखर-कांशीराम गठबंधन एक अरसे से आकार ग्रहण कर रहा था और 12 अक्टूबर की सांप्रदायिकता-विरोधी केंद्रीय रैली में मंच पर इन तीनों की मौजूदगी किसी भी संजीदा राजनीतिक प्रेक्षक की नजर से बची न होगी. यह रैली इस बात की भी परिचायक थी कि जनता दल के अंदर गुटगत संघर्ष की जड़े मजबूत हो रही हैं. आश्चर्य है कि ज्योति बसु-इन्द्रजीत गुप्त जैसे महानुभाव, जो खुद भी मंच पर विराजमान थे और मुलायम की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे, इस सांप्रदायिकता-विरोधी गुल-गपाड़े के पीछे की असली राजनीति को नहीं भांप पाए. आजकल की राजनीतिक पार्टियां न तो महज पिछड़ी या महज अगड़ी जातियों की पार्टियां हैं और न हो सकती हैं. इन पार्टियो  के अंदर भांति-भांति के जातीय और वर्गीय समीकरण क्रियाशील रहते हैं और उनका कुलयोग ही किसी खास जाति-वर्ग की तरफदारी में अभिव्यक्त होता है. यह तरफदारी भी किसी खास मोड़ पर ज्यादा मुखर होकर सामने आती है और वह भी सिर्फ सारवस्तु में. इसके बाद चीजों फिर अपनी सहज-स्वाभाविक गति प्राप्त कर लेती हैं. उदाहरण के लिए, हिंदू समुदाय और ऊंची जातियों की तरफदारी निश्चित रूप से कांग्रेस का मूल तत्व है, लेकिन इसकी अभिव्यक्ति बहुत जटिल प्रक्रिया में होती है.

मंडल आयोग ने उत्तर भारत में भाजपा के लिए एक हद तक खतरा जरूर पैदा कर दिया था, क्योंकि यह ‘हिंदू एकता’ की उसकी मुहिम के खिलाफ पड़ता था. रथयात्रा और उसे अतिवादी स्थितियों तक पहुंचाने  का उसका सोचा-समझा अभियान निश्चित रूप से मंडल आयोग के प्रभाव की काट करने के लिए खेला गया दांव था. आडवाणी ने कहा था कि उनकी गिरफ्तारी विनाशकारी सिद्ध होगी, और उनकी यह बात भविष्यवाणी सिद्ध हुई. केंद्र में वीपी-सरकार जा चुकी है, जनता दल कई एक गुटों में बंट चुका है, और वीपी गुट ले-देकर सिर्फ बिहार में ही कुर्सी बचा पाया है. भाजपा संसद में प्रमुख विपक्षी पार्टी के बतौर उभरकर सामने आई है.

सामाजिक और राजनीतिक रूप से अंतरविरोधों का कुल योग वीपी के खिलाफ कब का क्रियाशील हो चुका था. भाजपा का समर्थन वापस लेना इसका कारण नहीं, बल्कि इसका परिणाम था और इसने उनके पतन के लिए आवश्यक उत्प्रेरक का काम किया. सवाल सिर्फ भाजपा-शिवसेना गठबंधन के 90 सदस्यों की समर्थन-वापसी का ही नहीं था, बल्कि इसके साथ-साथ, सवाल था जनता दल की टूट का और कांग्रेस(आइ) के साथ ताजा-ताजा बिठाए गए समीकरण का. अपनी अंतर्वस्तु में चंद्रेशेखर-कांग्रेस(आइ) गठजोड़ का मतलब है – चोर दरवाजे से कांग्रेस शासन की वापसी. निश्चय ही यह एक अस्थिर गठबंधन है, क्योंकि अगर चंद्रशेखर कांग्रेस के अंदर खपा लिए जाएं, तब भी देवीलाल और जनता दल(एस) का एक हिस्सा कांग्रेस के साथ बहुत दिनों तक सहयोग नहीं कर सकता. इसलिए, हमें क्षितिज पर मंडराते चुनाव और जनसंघर्षों के विकास – दोनों को मद्देनजर रखते हुए फौरन जनता के बीच पहुंच जाना चाहिए.

वीपी सिंह का जनता दल और वामपंथी स्वाभाविक विपक्ष की स्थिति में लौट आए हैं, जहां हम पहले से ही उनका इंतजार कर रहे थे. निश्चय ही, अब हमारे और उनके बीच संयुक्त कार्यवाही, सहयोग और संश्रय की ज्यादा गुंजाइश है और हमें हर संभावना का भरपूर इस्तेमाल करना चाहिए. पर तब, यहीं एक सावधानी बरतने की भी जरूरत है. सांप्रदायिक उपद्रव और उसका प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी भाजपा ने बिलाशक भारतीय समाज के विशिष्ट रचना-तंतुओं के लिए खतरा पैदा कर दिया है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि व्यवहारिक राजनीति में उनकी यह कोशिश, इस या उस बुर्जुआ-जोतदार समीकरण के पीछे-पीछे घिसटने की उनकी लाइन का खोटा सिक्का चलाने का हथकंडा भर है. जनता को उसकी बुनियादी मांगों पर, जनवादी संघर्षों और जुझारू जनआंदोलन में, संगठित और गोलबंद करने के समानांतर प्रयासों को – उन परंपरागत प्रयासों को, जो सांप्रदायिकता और कट्टरपंथ के खिलाफ वामपंथ की सबसे कारगर चुनौती के रूप में समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं – कतई चलता कर दिया गया है; और यहां तक कि उन्हें सांप्रदायिकता-विरोधी संघर्ष के रूप में देखने से भी कन्नी कटा लिया गया है.

लिहाजा, जबकि वामपंथी, सांप्रदायिकता-विरोधी संघर्ष में अपनी सारी आशा बुर्जुआ राजनीतिज्ञों पर टिकाए हुए हैं और मानव श्रृखला, गोष्टी-सेमिनार जैसे तमाशों में मशगूल हैं, तब नीचे जनता के दिल-दिमाग पर कट्टरपंथ का साया गहरा – और गहरा – होता जा रहा है. धुआं-धुआं-सा विचारधारात्मक माहौल, विकट निराशाजनक आर्थिक संकट, ब्रिटिशराज-विरोधी संघर्ष के दौरान निर्मित राष्ट्रीय पहचान का क्षरण – ये सब चीजें मिलकर धार्मिक विचारधारा को एक शक्ति बना देती हैं. धर्म ढाढस बंधाने लगता है, हिंदू पहचान राष्ट्रीय पहचान को बरकरार रखने का एकमात्र जरिया नजर आने लगती है, और भाजपा अपने घोर कम्युनिस्ट-विरोधी और फासिस्ट लक्ष्यों की दिशा में एक-एक कदम आगे बढ़ती रहती है. सिर्फ वामपंथ की विरासत को, उसकी विचारधारात्मक व राजनीतिक आक्रामकता को, बुनियादी और जनवादी मुद्दों पर उसके जुझारू जन आंदोलनों के सिलसिले को एक नई जिंदगी देकर ही सांप्रदायिकता का जोरदार मुकाबला किया जा सकता है.

पिछड़ी हुई सामाजिक स्थितियां, जनवादी चेतना का अभाव, आर्थिक तबाही – यही वो चीजें हैं, जो फासिज्म की पैदाइश के लिए उपजाऊ जमीन मुहैया करती हैं. लेकिन ठीक यही स्थितियां क्रांति की अग्रगति के लिए भी उपयुक्त होती हैं – बशर्ते, वे स्वतंत्र रूप से और जनता को साथ लेकर कदम बढ़ाने का साहस करें.

वीपी सिंह-लालू यादव एक हद तक ही हमारे साथ चल सकते हैं. एक बार फिर विपक्षी बेंच पर पहुंच जाने के कारण वे और भाजपा गैर कांग्रेसवाद के नाम पर कदम-ब-कदम दुबारा एक-दूसरे से रिश्ता कायम कर ले सकते हैं. ऐसे रिश्तों की शुरुआत लोहिया के जमाने में ही हुई थी, जबकि उन्होंने सन् साठ के बाद वाले दशक में पहली बार गैर कांग्रेसवाद का सिद्धांत गढ़ा और तत्कालीन जनसंघ के साथ एक समन्वय कायम कर लिया. यही किस्सा जनता पार्टी के अंदर सन् 1977 में, और फिर एक भिन्न रूप में 1989 में दुहराया गया. जब वे विपक्ष मे होते हैं, निकट आते हैं. जब सत्ता में पहुंचते हैं, छिटक जाते हैं. सिलसिला अब तक ऐसे ही चलता रहा है. सीपीआई-सीपीआईएम एक बार फिर भ्रम फैला रहे हैं कि कांग्रेस और भाजपा के विरुद्ध एक निर्णायक धर्मनिरपेक्ष समीकरण ने आकार ग्रहण कर लिया है और अब तो बस इसका सीधा-सपाट विकास ही किया जा सकता है. अगर हम बाहरी रूप को देखकर ही दिग्भ्रमित हो जाते हैं और अपने तमाम पत्ते वीपी सिंह-लालू यादव जैसे महानुभावों के हवाले कर देते हैं, तो तय जानिए कि वामपंथ को एक बार फिर करारी चोट खानी पड़ेगी.

इसलिए, बुर्जुआ की धर्मनिरपेक्ष व उदारवादी शक्तियों के साथ किसी भी किस्म के कार्यनीतिक, अस्थायी और संक्रमणकालीन संश्रय के लिए अपना दरवाजा खुला रखते हुए, आइए, हम स्वतंत्र रूप से आगे बढ़ें. क्रांतिकारी परिस्थिति एक अनुकूल दिशा में बढ़ रही है. शासक वर्ग गंभीर राजनीतिक अस्थिरता का सामना कर रहे हैं. समय आ गया है कि हम अपनी गतिविधियों को संसदवाद और औपचारिकतावाद के दायरे में कैद रखने के बजाए, साहसपूर्वक जनता को जागृत करें और कमर कसकर जुझारू जनसंघर्षों की दिशा में प्रस्थान करें. आइए, हम स्वतंत्रता और जनसंघर्ष की पताका बुलंद करें.

(समकालीन जनमत, 14 अक्टूबर – 20 नवम्बर 1990 अंक से)

साथियों,

पार्टी की केंद्रीय कमेटी की ओर से मैं आप सबका अभिवादन करता हूं.

आज देश का कोना-कोना जल रहा है. देश की एकता और अखंडता का दिन-रात जाप करने वाले उसे तोड़ने का पूरा इंतज़ाम किए नजर आते हैं. दिलों को जोड़ने की शायरी करने वाले दिलों को तोड़ने का ही काम कर रहे हैं. पंजाब, कश्मीर, असम की समस्याओं को लेकर अब यहां तक कि किसी राजनीतिक दल की चर्चा भी नहीं हो रही है. सांप्रदायिक-फासीवादी दर्शन के तहत हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़काने की रथयात्रा चल चुकी है. हिन्दी को लेकर उत्तर-दक्षिण विवाद और पूरे उत्तर-मध्य भारत में अगड़ों-पिछड़ों के बीच जाति युद्ध का नगाड़ा बज रहा है.  ऐसे एक माहौल में देश के कोने-कोने से आए लाखों मेहनतकशों की आवाज, चारों ओर लहराते लाल झंडे एहसास कराते हैं कि असली मुद्दे दूसरे हैं, इस बात का संकल्प हैं कि एक लड़ाई है जो हमें मिलकर लड़नी है, एक घोषणा है कि तुम सब अपने-अपने लिए अपना वादा निभाते रहो, हम तो बस अपना दावा जताने आए हैं.

फिलहाल आरक्षण के खिलाफ, मंडल कमीशन के खिलाफ, देश के कई हिस्सों में छात्र-नौजवान अपना गुस्सा जता रहे हैं, यहां तक कि कई नौजवानों ने आत्मदाह भी कर लिया. हम मानते हैं कि ब्राह्मणवादी विचारधारा के कुछ मठाधीश इस आंदोलन का इस्तेमाल देश को मध्ययुगीन स्थितियों में ढकेलने के लिए कर रहे हैं. हम यह भी जानते हैं कि कांग्रेस और बीजेपी सरीखी पार्टियां एवं जनता दल का ही देवीलाल गुट इस आंदोलन को अपने राजनीतिक स्वार्थ में इस्तेमाल करना चाह रहे हैं. इस सबके बावजूद हमारी मान्यता है कि बेरोजगारी और अंधकारपूर्ण भविष्य के प्रति विद्रोह ही छात्रों, नौजवानों के बड़े हिस्से की शिरकत की असलियत है. कल तक जिस वीपी सिंह को ये मध्यवर्गीय नौजवान एक आदर्शवादी मसीहा मानते थे, आज जब उन्होंने समझा कि ये महाशय भी चाणक्य की चाल में मंजे एक धूर्त राजनीतिक खिलाड़ी भर हैं, तो उनका गुस्सा फट पड़ा.

हम जिस तरह उन राजनीतिज्ञों के खिलाफ हैं जो बाबर का बदला उसकी आज की ‘संतानों’ से लेना चाहते हैं, वैसे ही हम उन सिद्धांतकारों के भी खिलाफ हैं जो मनु का बदला उसकी आज की संतानों से लेना चाहते हैं. हम फिर कहेंगे कि सरकार का पहला काम होना चाहिए था अपने ही किए वायदे के मुताबिक “रोजगार के अधिकार को मौलिक अधिकार” के रूप में मान्यता देना, बड़े पैमाने पर रोजगार की योजनाओं की घोषणा करना, जो छात्रों-नौजवानों में यह विश्वास पैदा करता कि रोजगार की संभावनाएं बढ़ रही हैं. ऐसे एक माहौल में, मंडल कमीशन की अनुशंसाएं लागू करने से छात्रों और नौजवानों को सामाजिक न्याय की लड़ाई में जरूर शामिल किया जा सकता था, ब्राह्मणवादी मठाधीशों और प्रतिक्रियावादी राजनीतिक ताकतों के चंगुल से उन्हें अलग किया जा सकता था. रोजगार के बारे में सरकारी सोच में गंभीरता या सामाजिक न्याय की लड़ाई में प्रतिबद्धता का एहसास यह सरकार करा ही नहीं पाई. पूरा मामला अपने संकीर्ण गुटगत राजनीतिक स्वार्थ में सोची-समझी चाल के सिवा कुछ था भी नहीं, और इसी तरह ही उसका पर्दाफाश भी हुआ.

हम यह भी कहेंगे कि छात्र-नौजवानों का यह आंदोलन नकारात्मक ढंग से बढ़ रहा है. उन्हें अपना निशाना पिछड़ों के 27 प्रतिशत आरक्षण के खिलाफ नहीं बल्कि रोजगार के मौलिक अधिकार को बनाना चाहिए. हमने इसीलिए ‘काम दो’ के नारे पर इस रैली का आयोजन किया है और हम छात्रों-नौजवानों से अपील करेगे कि वे इस बुनियादी अधिकार के लिए लड़ाई में शामिल हों.

हम अवश्य ही दलितों और पिछड़ी जातियों के लिए नौकरियों में आरक्षण के पक्ष में हैं. आरक्षण के प्रति हमारा समर्थन वीपी सिंह की कुटिल राजनीतिक चाल के प्रति समर्थन नहीं है. आरक्षण के प्रति हमारा समर्थन लोहियावादी सिद्धांतों के प्रति समर्थन नहीं है, जिसमें समाजवाद की अवधारणा को पिछड़ावाद की राजनीति में पतित कर दिया है.

आरक्षण के प्रति हमारे समर्थन का मतलब दलितों को हमलावर पिछड़ी जातियों के पीछे-पीछे उनके जातियुद्ध में सड़कों पर उतारना नहीं है. आरक्षण के प्रति हमारे समर्थन का मतलब लाल झंडे को हरे झंडे का पिछलग्गू बनाना, हंसुआ-हथौड़े को चक्र के नीचे दबाना नहीं है.

हम लाल झंडे की स्वतंत्रता के हिमायती हैं, हम लाल निशान को लालकिले पर सबसे ऊंचा फहराने का सपना देखते हैं और इसके लिए हमने हर कुर्बानी दी है और देते रहेंगे. हमारा आधार दलितों के बीच है किन्तु वह श्री कांशीराम सरीखों के दलितवाद के खिलाफ लड़कर भी है. हमारा आधार पिछड़ी जातियों में बढ़ता रहा है लेकिन वह मुलायम सिंह, लालू यादव सरीखों के पिछड़ावाद के खिलाफ लड़कर भी बना है. दलितों के बीच से उभरते हुए नवब्राह्मणों के खिलाफ भी हमारी लड़ाई है. पिछड़ों के बीच उभरते अगड़ों के दलित-विरोधी हमलों से भी हमें बिहार में हमेशा ही लड़ना पड़ा है. तथाकथित ऊंची जातियों के प्रबुद्ध लोग और उनके गरीब तबके भी क्रमश: हमसे जुड़ रहे हैं.

हम उन तथाकथित प्रगतिवादियों से सहमत नहीं हैं, जो मानते हैं कि हमारा भारतीय समाज नेहरू के सुधारों के चलते जातिवादी-सामंती विभाजन से हटकर आधुनिक समाज में बदल चुका है और आरक्षण उसे पीछे ले जाएगा. यह हिंदुस्तान की असलियत नहीं है.

हम आरक्षण के समर्थक इसलिए हैं कि यह तनावों की प्रक्रिया से गुजरकर पिछड़ों-अगड़ों के बीच पुराने विभाजन को एक हद तक कम करेगा, पिछड़ों के ‘पिछड़ा बोध’ और अगड़ों के ‘अगड़ा बोध’ को चोट देगा और जैसे आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन में, वैसे ही नौकरशाही में – दोनों में समानता लाएगा, जैसे ऊपरी तबकों में एक वर्ग के बतौर उनमें एक रिश्ता कायम करेगा, वैसे ही निचले स्तरों में भी उन्हें नजदीक लाएगा. सामंती, पुरातनपंथी किसी भी धारणा पर चोट, बुर्जुआ जनवादी कोई भी छूट, वह चाहे कितनी ही सतही क्यों न हो, समाज के वर्ग विभाजन को ही तेज करती है. और कम्युनिस्ट होने के नाते, वर्ग संघर्ष के पैरोकार होने के नाते हम ऐसे किसी भी विभाजन का स्वागत करते हैं.

आरक्षण का समर्थन करने वाली तमाम वामपंथी ताकतों से हमारी अपील है कि आइए किसी वीपी सिंह, किसी रामविलास पासवान, किसी शरद यादव, किसी मुलायम सिंह, किसी लालू यादव के पीछे-पीछे नहीं, बल्कि हम सब मिलकर एक स्वतंत्र आवाज के रूप में उभरें. आरक्षण के लिए संघर्ष को रोजगार के मौलिक अधिकार के हमारे संघर्ष का ही एक हिस्सा बना दें. हिन्दी भाषी क्षेत्रों में हम कम्युनिस्ट और क्रांतिकारी जनवादी लोग, बार-बार ऐसे मोड़ों पर पिछड़ गए हैं, व्यावहारिकता के नाम पर लोहियावादी और किस्म-किस्म की जातिवादी धाराओं के सामने या तो निष्क्रिय हो गए हैं या उनके पीछे-पीछे चले हैं. यही वजह है कि आज भी हम यहां कम्युनिस्ट-वामपंथी धारा को मजबूत नहीं कर पाए हैं. बिहार में आज वामपंथ का झंडा मजबूती से खड़ा है जिसे न बहुजन समाज पार्टी का दलितवाद हिला सका है, न लोकदल सरीखों का पिछड़ावाद. बुनियादी वर्गीय आधार पर हमने ब्राह्मणवादी परंपरा के खिलाफ दलितों और पिछड़ों की एक नई किस्म की गोलबंदी को भी अंजाम दिया है. आइए, इस मजबूत आधारशिला पर वामपंथ अपनी आवाज बुलंद करें.

पूर्वी यूरोप में, रूस में जो भी हो, हमारे अपने देश में वामपंथ का, कम्युनिस्ट पार्टी का भविष्य अवश्य ही उज्ज्वल है. जनवाद के लिए किसी भी लड़ाई का नेतृत्व वामपंथियों को ही देना है. सीपीआई और सीपीआई(एम) के अपने दोस्तों से हम फिर कहना चाहेंगे -- हमारी लड़ाई आपके खिलाफ नहीं है. राजनैतिक लाइन के सवालों पर, नीतियों के बहुत से मुद्दों पर आपसे हमारे मतभेद हैं, जिन पर हम चाहते हैं एक स्वस्थ बहस की शुरूआत हो. आप जहां सरकारें चला रहे हैं वहां आपके जनविरोधी कदमों का हम विरोध करते हैं और करते रहेंगे, क्योंकि कम्युनिस्ट होने के नाते हमारी पहली व अंतिम प्रतिबद्धता अवाम के प्रति है और हम उनके स्वार्थ से गद्दारी नहीं कर सकते. लेकिन अगर सवाल सांप्रदायिकता का हो, मजदूर विरोधी नई औद्योगिक नीति का हो, बढ़ती महंगाई का हो, त्रिपुरा में या कहीं भी आप पर दमन का हो, साम्राज्यवाद विरोध का हो, हम हमेशा आपके साथ मिल कर लड़ना चाहते हैं. हम यह समझौता कर लेते हैं कि जब हजार विरोधों के बावजूद आप कांग्रेस से भी कभी-कभी समझौता कर लेते हैं, जनता दल के साथ मोर्चा बना लेते हैं, बीजेपी के साथ भी एक साथ चल लेते हैं, तब हमें ही भला क्यों अपना प्रधान दुश्मन बनाए हुए हैं, जिनके झंडे का रंग लाल है, जिस पर हंसुआ-हथौड़ा ही आंका हुआ है, जो गांव और शहर के सबसे गरीब तबकों की ही लड़ाई लड़ते हैं, जो उनके लिए बड़ी-से-बड़ी कुर्बानियां देते हैं, जो कांग्रेस हो या बीजेपी, जनता दल हो या एजीपी, बुर्जुआ-जमींदारों के सभी किस्म के गठजोड़ों के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष की अगली कतार में खड़े हैं. वामपंथी कतारों और उनके ईमानदार नेताओं के नाम हम अपील करेंगे कि पूरे मामले पर फिर से विचार करें. अतीत की बहुतेरी बातें आज के जमाने में अप्रासंगिक हो चुकी हैं. पिछले बीस सालों में हमारे चारों ओर की दुनिया बहुत-बहुत बदल चुकी है. जो गुजर गया सो गुजर गया, आइए हम भविष्य की ओर देखें, आज के अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय माहौल में सीपीआई, सीपीआई(एम) और सीपीआई(एमएल) के बीच सारे मतभेदों के बावजूद जितनी दूर तक संभव हो एक साथ चलने के उपाय निकालने की जरूरत है. हमारी कोई भी एकता जनता में नई आशा का संचार करेगी, समास्याओं से जर्जर इस देश में जहां बुर्जुआ के सारे विकल्पों के प्रति जनता का  मोहभंग हो रहा है, वामपंथ के एक नए उभार को जन्म देगी नम्बूदरीपाद या इन्द्रजीत गुप्त, क्या इतिहास की इस मांग पर आगे बढ़ने की हिम्मत दिखाएंगे?  

हाल में हमने बंगाल में क्रांतिकारी वामपंथी ताकतों के साथ मिलकर मोर्चा लिया. हमारी लड़ाई सीपीआई(एम) की सरकार के दमनकारी और जनविरोधी कदमों के खिलाफ ही नहीं है, हम साथ ही साथ जनविक्षोभ को पूंजी बनाकर वामपंथ के खिलाफ भावनाएं भड़काने की कांग्रेसी साजिश और विरोध के दक्षिणपंथी अभियान के खिलाफ भी एक मजबूत दीवार के रूप में खड़े हैं. हम समझते हैं कि बंगाल में पूर्वी यूरोप की पुनरावृत्ति को रोकने का यही एकमात्र कारगर तरीका है.

इतिहास साबित कर चुका है कि क्रांतिकारी कम्युनिस्ट धारा की विरासत हमारी पार्टी के हाथों ही सुरक्षित है. जो साथी किन्हीं धारणाओं के चलते हमें छोड़ चुके हैं, जो हमारे बिखर जाने की उम्मीद पर गलत कदम उठा चुके हैं, जो जल्दबाजी में क्रांति के सपने देखते हुए इधर-उधर भटक गए हैं, जो धक्कों से उपजी निराशा से इस या उस उदारवादी राजनीति के चक्कर काट रहे हैं, ऐसे तमाम कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों से हमारी अपील है कि सच्चाइयों से रूबरू हों, हमारी पार्टी के झंडे तले गोलबंद हों, हमारे दरवाजे अपने बिछड़े हुए साथियों के लिए हमेशा खुले रहेंगे.

आईपीएफ क्रांतिकारी जनवाद के लिए सबसे सुसंगत आंदोलन का ही दूसरा नाम है, जिसने अपने आगोश में परंपरागत वामपंथ की धारा को ही नहीं, मजदूरों-किसानों के संघर्षो को ही नहीं, जनवाद की हर प्रवृत्ति को समेटने की कोशिश की है, वह चाहे अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताओं के आंदोलन हों या नागरिक अधिकार आंदोलन हों. हमारी पार्टी आईपीएफ की इस दिशा के प्रति प्रतिबद्ध है, प्रतिबद्ध है आईपीएफ की स्वतंत्रता के प्रति. भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में यह अपने-आप में एक अनूठा प्रयोग है. जनवाद की सारी ताकतों से, जो कम्युनिस्टों की अंधविरोधी नहीं हैं, उनसे हमारी अपील है कि इस प्रयोग को सफल बनाने में हमारी मदद करें.

हमसे अतीत में गलतियां हुई हैं, आज भी हम जो कर रहे हैं उसमें कमियां और गलतियां रह ही सकती हैं. हम उनसे सीखने को हमेशा तैयार हैं और इतिहास गवाह है कि हम किसी रूढ़ीवादी विचारधारा से जकड़े हुए नहीं हैं.

आप सब जब अपनी-अपनी जगहों पर लौट जाएंगे, तब आप में से हर एक को इस रैली के संदेश का वाहक बनना होगा, लाल झंडे की मर्यादा की रक्षा करनी होगी, और पूरी ताकत के साथ क्रांतिकारी जनवाद की एक नयी लहर पैदा करनी होगी, जो लहर सही मायने में भारत को जोड़ेगी, सारे मेहनतकशों के दिलों को जोड़ेगी, चाहे वे किसी भी प्रांत के क्यों न हों उनकी भाषा, उनकी राष्ट्रीयता, उनकी जाति, उनका धर्म चाहे जो हो.

भारतीय क्रांति जिंदाबाद !
आपकी ताकत जिंदाबाद !!

 

(द टेलिग्राफ में सन् 1993 में प्रकाशित)

राजनीति के अतिरिक्त, जो मेरे ख्याल से समाज की जटिलताओं की अभिव्यक्ति का माध्यम है, खगोलशास्त्र (कास्मोलॉजी) में मुझे बड़ी दिलचस्पी है, जहां ब्रह्मांड अनंत दिक्काल में प्रकट होता है; जहां आकाशगंगाएं ब्रह्मांड की सतत विलुप्त होती सरहदों में एक दूसरे से तेजी से दूर चली जाती हैं; जहां तारे अस्तित्व में आते हैं, चमकते हैं और विस्फोट के साथ मृत्यु का वरण करते हैं और जहां बिलकुल साफ-साफ गति वस्तु के अस्तित्व की प्रणाली है.

गति, अर्थात परिवर्तन और रूपांतर – हमेशा निम्नतर स्तर से उच्चतर स्तर की ओर – प्रसंगवश मानव समाज के अस्तित्व की भी प्रणाली है. कोई विचार परम नहीं होता, कोई समाज पूर्ण नहीं होता. जब-जब किसी समाज को किसी परम विचार का मूर्तरूप माना गया तब-तब उसकी गहराइयों से उठे भूकंप के झटकों ने उसकी बुनियाद को हिलाकर रख दिया है और तब चारों ओर फैली निराशा के घुप्प अंधेरे के बीच नए सपने खिलखिला उठे हैं. कुछ सपने कभी सच नहीं होते, क्योंकि वे मानव मस्तिष्क – ‘अपने-आप में मस्तिष्क’ – की बेलगाम मौज होते हैं. जो थोड़े-से सपने साकार होते हैं वे मूलत: मानव मस्तिष्क – ‘खुद अपने लिए मस्तिष्क’– की अमूर्त कृतियां होते हैं. तथापि सपने चाहे बेलगाम हों या सत्यभासी, वे मानव उद्यम का स्रोत रहे हैं – संभवत: मानवता की उत्पत्ति के समय से ही.

मेरे सपनों का भारत निस्संदेह एक अखंड भारत है जहां एक पाकिस्तानी मुसलमान को अपने विवर्तन की जड़े तलाशने के लिए किसी ‘वीसा’ (ठहरने का अनुमति पत्र) की आवश्यकता नहीं होगी; जहां, इसी तरह, किसी भारतीय के लिए महान सिंधुघाटी सभ्यता विदेश में स्थित नहीं होगी; और जहां बंगाली हिंदू शरणार्थी अंतत: ढाका की कड़वी स्मृतियों के आंसू पोंछे लेंगे और बांग्लादेशी मुसलमानों को भारत में विदेशी कहकर चूहों की तरह नहीं खदेड़ा जाएगा.

क्या मेरी आवाज भाजपा की आवाज से मिलती-जुलती लगती है? लेकिन भाजपा तो भारत के मुस्लिम पाकिस्तान और हिंदू भारत – अलबत्ता उतना ‘विशुद्ध’ नहीं – में महाविभाजन पर फली-फूली. चूंकि भाजपा इस विभाजन के तमाम विनाशकारी नतीजों के साथ चरम बिंदु तक पहुंचा रही है इसलिए इन तीनों देशों में महान विचारक यकीनन पैदा होंगे और वे इन तीनों के भ्रातृत्वपूर्ण पुनरेकीकरण के लिए जनमत तैयार करेगे. निश्चिंत रहिए, वो दिन भाजपा जैसी ताकतों के लिए कयामत का दिन होगा.

मेरे सपनों के भारत में गंगा और कावेरी तथा सिंधु और ब्रह्मपुत्र एक दूसरे में मुक्त भाव से मिलेंगे और सुबह की सफेदी महान भारतीय संगीत के धुनों की जुगलबंदी के साथ छाएगी. और तब कोई राजनेता अपने विवरणों को ‘भारत की पुनर्खोज’ में संकलित करेगा.

मेरे सपनों का भारत राष्ट्रों के समुदाय में एक ऐसे देश के रूप में उभरेगा जिससे कमजोर से कमजोर पड़ोसी को भी डर नहीं होगा और जिसे दुनिया का सबसे ताकतवर देश भी धमका नहीं सकेगा, न ब्लैकमेल कर सकेगा. आर्थिक ताकत का मामला हो या ओलंपिक की पदक तालिका हो, मेरा देश दुनिया के पहले पांच देशों में होगा.

मेरे सपनों का भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होगा जिसकी आधारशिला ‘सर्वधर्म संभाव’ की जगह ‘सर्वधर्म विवर्जित’ का उसूल होगी. किसी की व्यक्तिगत धार्मिक आस्थाओं में हस्तक्षेप किए बगैर राज्य वैज्ञानिक व तार्किक विश्व दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करेगा.

यह कहना बिलकुल सही है कि धर्म अपने परिवेश के समक्ष मनुष्य की असहायता की अभिव्यक्ति है. लिहाजा इसका उन्मूलन भौतिक व आध्यात्मिक जीवनदशाओं में आमूल परिवर्तन की मांग करता है. जहां मनुष्य अपने परिवेश पर आधिपत्य कायम करने के लिए खड़ा हो सके. भारत में जब कभी अनुदार दार्शनिक विचार प्रणालियां जनता पर पहाड़ बनकर लद गई हैं, तब-तब यहां हमेशा सुधार आंदोलनों का उदय हुआ है. इस प्रकार मैं वैज्ञानिक विचारों के पुनरुत्थान का सपना देखता हूं, जहां भगवान के रूप में पराया बन गया मानव-सार मनुष्य फिर वापस पा सकेगा. मानव मस्तिष्क के इस महान रूपांतरण के साथ-साथ एक सामाजिक क्रांति होगी जहां संपत्ति के उत्पादक अपने उत्पादों के मालिक भी होंगे.

मेरे सपनों के भारत में प्रतिनिधि सभाओं में महिलाएं 50 फीसदी होंगी, प्रेम विवाह रिवाज बन जायेगा और तलाक देना सहज होगा. बच्चे तंगहाली से अनभिज्ञ होंगे और उनकी देखभाल की जिम्मेवारी माता-पिता से ज्यादा राज्य पर होगी.

मेरे सपनों के भारत में अछूतों को हरिजन कहकर गौरवान्वित करने का अंत हो जाएगा और दलित नाम की कोई श्रेणी न रहेगी. जातियां विघटित होकर वर्गो का रूप ले लेंगी और उनके हर सदस्य की अपनी व्यक्तिगत पहचान होगी.

मेरे सपनों के भारत के हर शहर में एक कहवाघर होगा जहां ठंडी काफी की घूंटें भरते-भरते बुद्धिजीवी गर्मागर्म बहसें करेंगे. वहां कुछ वेदनाविदग्ध व्यक्ति धुएँ के छल्लों के बीच अपनी प्रेयसियों के प्रतिरूप तलाशेंगे तो कई अतृप्त हृदय कला व साहित्य की विविध रचनाओं से मंत्रमुग्ध हो उठेंगे. जबकि कला व साहित्य की किसी भी रचना पर राज्य की ओर से कोई सेंसर नहीं लगेगा. वहां तमाम सार्वजनिक स्थानों में धूम्रपान सख्ती से मना रहेगा – बेशक, कहवाघरों को छोड़कर.

मेरे प्रारंभिक विषय पर लौटने हुए, मेरा सपना है कि भारतीय अंतरिक्ष यान गहरे आकाश को भेदता हुआ उड़ता चलेगा तथा भारतीय वैज्ञानिक व गणितज्ञ प्रकृति की मौलिक शक्तियों को एक अखंड समग्र में समेटने के समीकरण हल करेंगे.

अंतत:, मेरे तमाम सपनों की मां मातृभूमि है, जिसके हर नागरिक की राजनीतिक मुक्ति को सबसे ज्यादा कीमती समझा जाएगा; जहां असहमति की वैधता होगी और जिस व्यवस्था में थ्येन आनमेन को नैतिक रूप से शक्तिशाली राजनेता और जन-मिलिशिया की निहत्थी शक्तियां निपटाएंगी.

मेरे सपनों का भारत भारतीय समाज में कार्यरत बुनियादी प्रक्रियाओं पर आधारित है जिसे साकार करने के लिए मेरे जैसे बहुतेरे लोगों ने अपने खून की अंतिम बूंद तक बहाने की शपथ ले रखी है.

यह ग्रंथ कामरेड विनोद मिश्र (वी एम) की प्रतिनिधि रचनाओं का चुनिंदा संग्रह है. ये रचनाएं मुख्यत: चार स्रोतों से ली गई हैं : पार्टी सम्मेलनों और महाधिवेशनों में प्रस्तुत और ग्रहीत दस्तावेजों से; पार्टी मुखपत्रों के लिए, अधिकांशत: अंग्रेजी में और हिंदी एवं बंगला में भी, लिखे लेखों से; प्रकाशित व अप्रकाशित साक्षात्कारों और पार्टी प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तिकाओं तथा पुस्तकों के प्राक्कथनों से; सेमिनारों, कन्वेंशनों, अंत: पार्टी मीटिंगों व सार्वजनिक सभाओं तथा पार्टी स्कूलों व महाधिवेशनों में उनके भाषणों से. ये चरनाएं जिस अवधि को समाविष्ट करती हैं वह इमर्जेंसी के बाद चलाए गए शुद्धीकरण आंदोलन से शुरू होती है जब पुनर्संगठित पार्टी ने जन राजनीतिक पहलकदमियों पर जोर देना शुरू किया; फिर वह अवधि आईपीएफ अवस्था से गुजरती है जब पार्टी भूमिगत स्थिति में रहते हुए ही एक खुले और कानूनी अखिल भारतीय बहुआयामी राजनीतिक मोर्चे के वैचारिक-राजनीतिक केंद्र तथा सांगठनिक कोर की भूमिका निभा रही थी; और अंत में उन छह वर्षों तक फैल जाती है जो दिसंबर 1992 में कलकत्ता में आयोजित पार्टी के पांचवी महाधिवेशन में खुली पार्टी बन जाने के बाद बीते हैं.

इस संकलन का उद्देश्य है वी एम की मार्क्सवादी सिद्धांत और व्यवहार की विशाल दुनिया की एक झलक प्रस्तुत करना, लगभग एक दर्जन खंडों में समूहबद्ध ये रचनाएं वी एम के सपनों के भारत से शुरू होती हैं और अपनी प्राणप्रिय पार्टी के लिए एक मुखर आह्वान के साथ समाप्त होती हैं. एक एकल ग्रंथ में इन चयनित रचनाओं को समाहित करने की बाध्यता का मतलब था इसमें शामिल हर एक रचना के बदले कम से कम चार-पांच लेखों को छोड़ देना. जो छूट गए उनमें उनकी वे समस्त रचनाएं हैं जो उन्होंने श्रमिक सॉलिडैरिटी और समकालीन जनमत जैसी हिंदी पत्रिकाओं के लिए, और वॉयस ऑफ अल्टरनेटिव तथा पीपुल्स फ्रंट जैसी अंग्रेजी की सावधिक बुलेटिनों के लिए लिखी थीं, और उनमें शामिल हैं पार्टी सम्मेलनों व महाधिवेशनों में ग्रहीत विभिन्न दस्तावेजों के लंबे अंश, केंद्रीय कमेटी व पोलितब्यूरो की बैठकों के विवरण तथा अन्य अनेक लिखित रिकार्ड.

फिर भी, पाठकगण इस मौजूदा संकलन के जरिए उथल-पुथल भरे बीस-एक वर्षों के दौरान – जब वी एम ने पार्टी की कमान संभाल रखी थी – उनके बौद्धिक योगदान की विशालता और विविधता का स्पष्ट परिचय हासिल कर सकते हैं और इससे भी ज्यादा, हम उनकी हर एक रचना में जो विलक्षणता पाते हैं वह है उनका पैना सृजनात्मक आवेग – चाहे हम लीक से हटकर लिखा “मेरे सपनों का भारत” पढ़ रहे हों या लिबरेशन और माले समाचार के लिए लिखे उनके संपादकीय.

सत्तर के दशक और अस्सी-दशक की शुरूआत में घोर अनिश्चयता तथा भूमिगत जीवन की कठोरता के बीच भूमिगत प्रेस के लिए युद्ध स्तर पर रचित और मुश्किल से पढ़ी जा सकने वाली पांडुलिपियों से लेकर नब्बे-दशक के उत्तरार्ध में अपेक्षाकृत सहज गति से कभी-कभार सीधे कंप्यूटर पर लिखे गए लेखों की यात्रा में हमने उनकी बौद्धिक उत्पत्तियों के इर्द-गिर्द मौजूद भौतिक वातावरण को अक्सरहा बदलते देखा है. लेकिन उनके लिए लेखन हमेशा ही वर्ग संघर्ष की एक सचेतन कार्रवाई बनी रही और वी एम में मौजूद लेखक की रचनात्मक प्रेरणा, उनमें निहित क्रांतिकारी कम्युनिस्ट नेता के अक्लांत उत्साह से हमेशा नियंत्रित होती रही. मार्क्सवाद की क्रांतिकारी परंपरा का निर्वाह करते हुए, उन्होंने विचारों और विचारधाराओं के बीच संघर्ष को वर्ग का एक मुख्य अंग समझा; इसीलिए उनकी अधिकांश राजनीतिक रचनाएं वाद-विवाद का चरित्र ग्रहण कर लिया करती थीं.

विषयवस्तु के लिहाज से ये रचनाएं अत्यंत विस्तीर्ण हैं, जो सत्तर के दशक में पार्टी की वस्तुत: राख से जी उठने की अवस्था से लेकर अस्सी और नब्बे के दशकों की संकटपूर्ण विचारधारात्मक चुनौतियों के दैरान उसकी आत्मविश्वास से भरी प्रगति तक के लंबे अभियान को प्रतिबिंबित करती हैं. पाठकगण इनमें एक ओर अराजकतावाद तथा अति वामपंथी लफ्पाजी और दूसरी ओर सामाजिक जनवाद के आत्मसमर्पण एवं क्षुद्र उदारवादी सुधारवाद – इन दोनों प्रवृत्तियों के खिलाफ एक साथ चलाए गए संघर्ष के क्रम में भाकपा(माले) की क्रांतिकारी लाइन के सतत विकास की साफ झलक देख सकते हैं.

उनकी तमाम रचनाओं के केन्द्र में स्थित थी पार्टी और क्रांति – अमूर्त और शुद्ध विचारधारात्मक उप्तत्तियों के रूप में नहीं, बल्कि इतिहास और समाज की गहरी और जटिल प्रक्रियाओं के रूप में. पार्टी उनके लिए एक संगठक भी थी और सर्वहारा का संगठन भी, तथा क्रांति उनके लिए लक्ष्य भी थी और एक बढ़ती संभावना भी, जो बुर्जुआ के साथ अनवरत प्रतिद्वंद्विता के जरिए ‘खुद-में-वर्ग’ के आरंभिक दिनों से लेकर ‘खुद-के-लिए-वर्ग’ के विकसित दौर तक सर्वहारा के लगातार रूपांतरण को रूपायित और मार्गनिर्देशित करती है. तथापि, ये प्रक्रियाएं सरल एकरेखीय प्रगति के नियमों का पालन नहीं करती हैं. इसका दौर टेढ़ा-मेढ़ा है, गति सर्पिल है और प्रगति की राह एक समान लय की अटूट स्थिरता के बजाय झटकों व टूटों, विलगावों व छलांगों से कहीं ज्यादा अटी पड़ी है.

वी एम का यकीन था कि अगर कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा को क्रांति के नेता के बतौर उसकी भूमिका के लिए तैयार न कर सके और इसी के साथ-साथ वह सर्वहारा हिरावलों के हाथों का जन क्रांतिकारी हथियार नहीं बन सके तो वह अपने अस्तित्व का संपूर्ण औचित्य ही खो देगी. इसीलिए, सर्वहारा की स्वतंत्र राजनीतिक दावेदारी वी एम के कम्युनिज्म की आधारशिला बनी रही और वे संभावित विलोपन, विकृति और विचलन के हर खतरे के खिलाफ इस सारवस्तु की हिफाजत के कार्यभार को हमेशा सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे. एक कृषक-प्रधान देश में जनवादी क्रांति की रहनुमाई करने के कार्यभार से युक्त कम्युनिस्ट पार्टी के लिए सर्वहारा सुदृढ़ीकरण तथा सर्वहारा के नेतृत्व में मजदूर-किसान संश्रय को अंजाम देने के कार्यभार की कोई भी उपेक्षा सर्वहारा को तथा उसके संभावित संश्रयकारी किसान समुदाय को बुर्जुआ-भूस्वामी गठजोड़ के राजनीतिक वर्चस्व का महज एक निष्क्रिय पुछल्ला बना दे सकती है. सर्वहारा स्वतंत्रता की दावेदारी का यह अभाव अगर सामान्य समयों में वर्ग सहयोग की लाइन और बुर्जुआ राजनीति की मौन स्वीकृति के रूप में प्रतिबिंबित होता है, तो संकट की घड़ियों में यह वस्तुत: उस पार्टी को लकवाग्रस्त स्थिति में धकेल देता है. सत्तर के दशक में इमर्जेंसी के दौरान यह त्रासदी साफ-साफ परिलक्षित हुई थी!

अपनी अनेक रचनाओं में वी एम बांरबार पार्टी इतिहास के खुलते पन्नों पर लौटते हैं और व्यवहार की कसौटी पर पार्टी लाइन के विकास की आलोचनात्मक जांच-पड़ताल करते हैं, मगर ऐसा करते हुए वे मार्क्सवाद-लेनिनवाद के प्रति पार्टी की प्रतिबद्धता को कभी ओझल नहीं होने देते – वे हमेशा पार्टी की सर्वांगीण परिमाणात्मक वृद्धि तथा उसके गुणात्मक विकास के लिए संघर्षरत दिखते हैं. वे हर चीज की तफसील में जाते थे, लेकिन उन्होंने इन तफसीलों में उसकी सारवस्तु को कभी गायब नहीं होने दिया. भारत की अर्ध-सामंती, अर्ध-औपनिवेशिक अवस्थिति में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण के महान मिशन के हर पहलू पर पार्टी के अंदर सटीक कार्यशैली तथा जीवंत लोकतांत्रिक माहौल विकसित करने से लेकर सिद्धांत और व्यवहार की एकरूपता तथा पार्टी के तमाम स्तरों पर महिलाओं की वृहत्तर भागीदारी के लिए प्रोन्नयन तक हर मामले में, वे चौकस और जोरदार ध्यान देते थे.

अपने आधार और ऊपरी ढांचा के बीच जटिल अंत:क्रिया में भारतीय समाज के अध्ययन को गहरा बनाना और इसके जरिए भारतीय क्रांति के बारे में पार्टी की कार्यक्रमगत समझदारी को परिमार्जित करना – यह उनके बौद्धिक प्रयत्नों का एक दूसरा स्थायी केंद्रबिंदु था. विकसित होती परिस्थिति तथा सतह पर उभरते व परिपक्व होते अंतरविरोधों व प्रवृत्तियों का अध्ययन करते वक्त उनकी कोशिश रहती थी कि उसका हर तार समाज की अंतर्निहित सच्चाइयों से जाकर जुड़ जाए ताकि उससे पार्टी की रणनीतिक समझदारी समृद्ध हो सके. यह चीज स्थापित वामपंथी ढर्रे के बिलकुल विपरीत है, जिसकी दृष्टि सतही उदारवादी व संवैधानिक परिधि से बाहर जाती ही नहीं है. सवाल चाहे जाति और वर्ग का हो, धर्म और धर्मनिरपेक्षता का हो अथवा जनजातीय स्वायत्तता या महिला मुक्ति का – वी एम हमेशा अपनी गहरी क्रांतिकारी मार्क्सवादी अंतर्दृष्टि के जरिए एक ओर उदारवादी भ्रमों द्वारा उत्पन्न भ्रांतियों की धज्जियां उड़ाने थे, चाहे वे भ्रम सीधे सपाट ढंग से आए हों या परिष्कृत रूप में – तो दूसरी ओर, वे उत्तरआधुनिकता के अनेकानेक प्रवर्तकों द्वारा उत्पन्न भ्रांतियों की भी बखिया उधेड़ देते थे.

अपनी तमाम सैद्धांतिक रचनाओं में वी एम मार्क्सवाद-लेनिनवाद और माओ विचारधारा की सार्वभौम क्रांतिकारी सारवस्तु को भारत की ठोस सच्चाइयों के साथ सृजनात्मक ढंग से मिलाते रहे हैं. निश्चय ही, यह एकीकरण एक कष्टसाध्य और निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रिया है और इसे, खासकर रूस और चीन की विजयी क्रांतियों के ऐतिहासिक अनुभवों की रोशनी में ही अंजाम दिया जा सकता है. साठ के दशक में भारत के कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के लिए चीनी मॉडल के साथ शुरू करना ही बिलकुल स्वाभाविक था, और यह इसलिए भी ज्यादा, कि भारत में आधिकारिक कम्युनिस्ट नेतृत्व ने चीन के अनुभवों पर कभी गंभीरतापूर्वक ध्यान नहीं दिया. चीनी मॉडल की नकल करने के प्रयासों में भारतीय परिस्थिति की विशिष्टताएं सर्वाधिक स्पष्ट रूप से जाहिर हो रही थीं और बाद की पीढ़ी के कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों का कार्यभार यह था कि वे इन विशेषताओं के साथ संगति बिठाते हुए कार्यक्रम और कार्यनीतिक लाइन विकसित करें. वी एम का विश्वास था कि सिर्फ इसी तरह से भारत में क्रांति का अपना विशिष्ट भारतीय रास्ता और मॉडल विकसित हो सकेगा.

सोवियत संघ के बिखराव और ध्वंस तथा समाजवाद के मौजूदा मॉडलों के संकट ने वी एम को गहरे विचार मंथन के लिए प्रेरित किया. भारतीय कम्युनिस्ट संगठनों के बीच स्पष्टत: भाकपा(माले) ही सोवियत ध्वंस को समझने और उसे झेल पाने के लिहाज से सर्वाधिक बेहतर स्थिति में थी. जब सोवियत प्रणाली के गतिरोध और पतन ने उसके अंतिम ध्वंस का पलीता सुलगा दिया था, उस वक्त भी जहां सीपीआई और सीपीआई(एम) सोवियत समाजवाद के स्तुतिगान में मशगूल थीं, वहीं भाकपा(माले) सोवियत परिस्थिति के मूल्यांकन के मामले में शुरू से ही खुली आलोचना करती रही थी. लेकिन वी एम ने कभी भी ‘हमने पहले ही कहा था’ – की तर्ज पर अपना पल्ला नहीं छुड़ाया. सोवियत पतन के बाद उभरे बुर्जुआ विजयवाद की लहर का सामना करते हुए भी उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी और कम्युनिस्ट आंदोलन पर मंडराते खतरे को कभी कम करके नहीं आंका और यह नहीं कहा कि यह महज मार्क्सवाद के प्रयोग की असफलता का मामला है. असली समस्या पर हाथ रखने की सच्ची मार्क्सवादी-लेनिनवादी भावना के साथ उन्होंने आगे बढ़कर समाजवादी उत्पादन प्रणाली के गति-नियमों का गहरा अध्ययन करने की चुनौती चिन्हित की – एक ऐसा कार्यभार जिसके विस्तार की तुलना, उनकी नजर में, मार्क्स द्वारा पूंजीवादी प्रणाली के ऐतिहासिक अध्ययन – पूंजी – के ही साथ की जा सकती है.

संक्षेप में, वी एम की चयनित रचनाएं बीसवीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की सहज-सरल, सीधी-सादी, आत्मआलोचनात्मक और आत्मकथात्मक गाथा हैं. नक्सलबाड़ी में वसंत के वज्रनाद में और बिहार के धधकते खेत-खलिहानों में उसकी गरजती अनुगूंज में अपने मार्क्स, लेनिन और माओ को पढ़ने वाले स्वातंत्र्योत्तर मार्क्सवादी वी एम के सर पर न तो लंदनपंथी सामाजिक जनवाद का बोझ था और न कांग्रेस-समाजवाद तथा भारतीय राष्ट्रवाद के गांधी-नेहरू विमर्श का भार ही लदा था. बुर्जुआ लोकतंत्र के भारतीय संस्करण के साथ उनका संघर्ष एक व्यवहारिक क्रांतिकारी का संघर्ष था, जो इस प्रणाली के अंदर से संचालित हो रहा था, लेकिन जिसने अपने विश्लेषण और दृष्टिकोण को बुर्जुआ उदारवाद और संवैधानिकता की लगातार सिकुड़ती परिधि तक सीमित नहीं होने दिया. इसीलिए, उनके तमाम लेख क्रांतिकारी उद्देश्य की स्पष्टता और सच्चाई से देदीप्यमान थे.

उनकी रचनाएं मार्क्सवादी द्वंद्ववाद के भी महत्वपूर्ण पाठ हैं. यह उनका द्वंद्वात्मक दृष्टिकोण ही है, जो हमेशा उन्हें एकांगीपन और जड़सूत्रवाद से बचाए रखता है. वे अपने अध्ययन की विषयवस्तु को उसके प्रासंगिक संदर्भों में चिन्हित करते हैं और अनोखी वस्तुनिष्ठता के साथ उसके हर पहलू का अध्ययन करते हैं. लेकिन यह वस्तुनिष्ठता निरपेक्ष और स्थैतिक नहीं है, यह क्रांतिकारी और गतिशील है. उनके द्वंद्ववाद का केंद्रबिंदु हर प्रक्रिया में विद्यमान छोटे लेकिन विकासमान सकारात्मक पहलू को आत्मसात करने और फिर उसे प्रधान व निर्णायक पहलू में रूपांतरित करने के प्रयासों में निहित रहता है.

मार्क्स की अंत्येष्टि के अवसर पर एंगेल्स ने अपने संक्षिप्त भाषण में सिर्फ एक शब्द का प्रयोग किया था, जो उनके दिवंगत सहयोद्धा के बहुआयामी और सजीव सृजनात्मक व्यक्तित्व का सर्वाधिक निर्णायक विवरण पेश करता था. एंगेल्स ने श्रोताओं को याद दिलाया – मार्क्स, सर्वोपरि एक क्रांतिकारी थे. बाद में, लेनिन ने भी मार्क्सवाद के विद्रूपीकरण के खिलाफ चेतावनी दी थी. अपने क्रांतिकारी सार से वंचित होकर मार्क्सवाद निष्प्राण और संशोधनवादी बन जाएगा – यही उनकी चेतावनी थी. वी एम भी सर्वोपरि एक क्रांतिकारी थे और मार्क्सवाद के सार को ढूंढना तथा उसे समृद्ध बनाना उनका सर्वाधिक उत्कट और सुसंगत मिशन था.

विनोद मिश्र की संकलित रचनाएं भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के गर्भ से पैदा हुए एक महानतम क्रांतिकारी के अपूर्ण मिशन का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत करती हैं. अगली सहस्राब्दि में प्रसारित हो जाने वाली क्रांति के उबलते जोश से स्पांदित ये रचनाएं विश्व भर में क्रांतिकारी मार्क्सवाद के अग्रगामी अभियान के प्रति समर्पित हैं.

दीपंकर भट्टाचार्य,
महासचिव
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी)

कामरेड विनोद मिश्र की चुनी रचनाओं को केन्द्रीय स्तर पर हिन्दी और अंग्रेजी में यथाशीघ्र प्रकाशित करने के सम्बंध में केन्द्रीय कमेटी द्वारा लिये गये निर्णय के अनुसार 1999 में अंग्रेजी एवं हिंदी में संकलित रचनाओं का प्रकाशन हुआ था. जहां अंग्रेजी संस्करण एक ही खंड में समाहित था वहीं हिंदी संस्करण दो खंडों में प्रकाशित किया गया. इसके बाद बांगला में भी कामरेड वी एम की संकलित रचनाओं का प्रकाशन हुआ.

दो खंडों में प्रकाशित हिंदी में संकलित रचनाओं में केवल अंग्रेजी संस्करण से अनूदित लेख ही शामिल नहीं हैं. बल्कि, जैसा कि 1999 के संस्करण के प्रकाशकीय में लिखा गया था : “पार्टी के नेतृत्व में चल रहा गांव के गरीबों, खेतिहर मजदूरों का आंदोलन बिहार में नवजागरण का बायस बनने लगा है. हमने पाया कि हाल के दिनों में बिहार को लेकर लिखे या विभिन्न सभाओं, सम्मेलनों, सेमिनारों में दिए गए भाषण-वक्तव्यों में, गरीब किसानों-खेतिहर मजदूरों के आंदोलनों को केन्द्र कर बिहार में एक नवजागरण  सृजित करने की चिंता केन्द्रीय चिंता है. जिसे वे  खुद 1974 आंदोलन की आत्मा को पुनर्सृजित करना कहते हैं. बाद की रचनाओं में यह अनुगूंज लगातार सुनाई पड़ती है. ... चुनी हुई रचनाओं के संकलन को जब हिन्दी में प्रकाशित करने की बारी आई तो यह जरूरी लगा कि उस काम को भी इसमें समाहित कर लिया जाए. सो हमें ऐसे कई लेखों, खासकर भाषणों को इसमें शामिल करना पड़ा जो अंग्रेजी संस्करण में नहीं हैं.”

कामरेड विनोद मिश्र की संकलित रचनाओं के हिंदी में छपे दोनों खंड अब दुष्प्राप्य हैं. जबकि पार्टी कतारों के लिये, खासकर पार्टी में लगातार आने वाली नई पीढ़ी के लिये ये रचनाएं अत्यंत आवश्यक हैं. इसी उद्देश्य से कामरेड विनोद मिश्र के निधन की पन्द्रहवीं बरसी पर केन्द्रीय कमेटी ने हिंदी में द्वितीय संस्करण प्रकाशित करने का निर्णय लिया. इस बार हमने दोनों खंडों को एकसाथ मिलाकर छापा है और साथ ही अंग्रेजी से कुछ बची रचनाओं तथा बंगला संस्करण में छपे कुछेक लेखों को भी इसमें शामिल कर लिया है. साथ ही पिछले संस्करण में अनुवाद सम्बंधी कुछेक त्रुटियों के संशोधन का प्रयास किया गया है. संकलन के प्राक्कथन में कोई परिवर्तन इस संस्करण में नहीं किया गया है.