(चौथी पार्टी कांग्रेस, 1987 की राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट से)
मध्य बिहार का किसान आंदोलन सात जिलों में चल रहा है – भोजपुर, रोहतास, पटना, गया, जहानाबाद, औरंगाबाद और नालन्दा. हमारी पार्टी इन आंदोलनों की मुख्य नेतृत्वकारी शक्ति है. किसान आंदोलन का वर्तमान चरण, जिसकी उत्पत्ति 1972 से 1979 के दौरान भोजपुर और पटना में चले वीरतापूर्ण संघर्षों से हुई, तेलंगाना (1946-49) और नक्सलबाड़ी (1967-71) के बाद तीसरा मील का पत्थर है.
किसान संघर्ष का यह चरण 1980 दशक के आरंभ में पटना के ग्रामीण क्षेत्रों में शुरू हुआ और शीघ्र ही नालंदा तथा जहानाबाद में फैल गया. भोजपुर, औरंगाबाद, रोहतास और गया के कुछ हिस्सों में नया जागरण परिलक्षित हुआ. जवाब में सरकार ने व्यापक पुलिस कार्रवाइयां शुरू कीं जिसे कभी-कभी वह आपरेशन टास्क फोर्स की संज्ञा देती है. निजी सेनाओं के नाम से प्रचलित जमींदारों के हथियारबंद गिरोहों की मदद करना; कुछ प्रशासकीय व आर्थिक सुधार कार्य चलाना; विभिन्न राजनीतिक पार्टिर्यों, खासकर सीपीआई व सर्वोदयी ग्रुपों का समर्थन हासिल करना और साथ ही साथ समाचार तंत्र का इस्तेमाल करना -सरकार ने इस आंदोलन को कुचलने का बहुमुखी प्रयास चलाया है. सरकार की इन कार्यवाहियों और हमारी अपनी कार्यनीतिक गलतियों के चलते हमें कुछ क्षेत्रों में धक्का लगा है तथा कुछ क्षति भी उठानी पड़ी है. इसके अलावा बहुतेरे अन्य कार्यक्षेत्रों में हमें पीछे हटना पड़ा है और नए सिरे से कार्य का संयोजन भी करना पड़ा है. लेकिन समग्र रूप में हमने इन कार्यवाहियों का सफलतापूर्वक मुकाबला किया है और निजी सेनाओं को छिन्न-भिन्न करने, कम से कम क्षति उठाने तथा अपने हाथों में पहलकदमी बरकरार रखने में कामयाबी हासिल की है.
वस्तुतः समूचा संघर्ष इन तीन मुद्दों के इर्द-गिर्द केंद्रित रहा है :
(i) खेतिहर मजदूरों की मजदूरी में बृद्धि केलिए. इन क्षेत्रों की कुल ग्रामीण आबादी का 30-40 प्रतिशत खेतिहर मजदूर ही हैं. यह देखा जाता है कि भूस्वामियों का एक अच्छा-खासा हिस्सा सामंती परंपरा और साथ ही सस्ते श्रम की सुलभता के कारण खेतों में श्रम नहीं करता है. जाहिर है, खेतिहर मजदूरों के संघर्ष का निशाना काफी विस्तृत हो जाता है और इससे प्रतिक्रियावादी शक्तियों को जाति-आधारित गोलबंदी करने तथा निजी सेनाएं गठित करने का मौका मिल जाता है. संघर्ष के रूपों में हड़ताल सर्वप्रमुख है जो प्रायः हथियारबंद मुठभेड़ों में तब्दील हो जाती है. हमलोग हड़ताल-संघर्ष को साहस के साथ विशाल क्षेत्रों में, अगर संभव हो तो एक जिला के कई अंचलों में फैला देना चाहते हैं. खेतिहर मजदूरों के बीच वर्गचेतना और वर्गएकता विकसित करने के लिए यह एकदम जरूरी है और कम्युनिस्ट पार्टी की हैसियत से इस वर्ग को, गांवों में सबसे आगे बढ़े हुए इस क्रांतिकारी दस्ते को, संगठित करना हमारा प्रधान कर्तव्य है. तथाकथित व्यापक किसान एकता के नाम पर इस संघर्ष से कन्नी कटाने वाली उदारवादी मानसिकता के विपरीत, वास्तविकता यही है कि विस्तृत क्षेत्रों में हड़ताल संघर्ष संगठित करने के जरिए ही भूस्वामियों के प्रतिक्रियावादी गठबंधन को तोड़ा जा सकता है और मध्यम तबके के साथ समझौता को सुगम बनाया जा सकता है.
(ii) जमींदारों, महंतों और धनी किसानों के कब्जे में पड़ी अतिरिक्त गैरमजरुआ और रिहाइशी जमीन दखल करने तथा भूमिहीन-गरीब किसानों के बीच उसका वितरण करने के लिए संघर्ष. इस संघर्ष में गिने-चुने लोगों को ही निशाना बनाया जाता है. आमतौर पर गैरमजरुआ जमीन रखने वाले मध्यम तबकों को छोड़ दिया जाता है तथा धनी किसानों के मामले में समझाने-बुझाने और उनपर दबाव डालने का तरीका अपनाया जाता है. जमीन-वितरण के दौरान व्यापक लोगों को शामिल करने तथा उन्हें एकताबद्ध करने के प्रयास किए जाते हैं. जमीन, फसल, तालाब आदि दखल करने तथा नहर व नदियों में मछली मारने का अधिकार हासिल करने का संघर्ष प्रायः हथियारबंद मुठभेड़ों में तब्दील हो जाता है.
जमीन दखल करना और उसका वितरण करना, पट्टे का अधिकार प्राप्त करना, उत्पादन संगठित करना और अंततः जनता के बीच कुछ धूर्त तत्वों द्वारा सारी उपलब्धियां हड़प जाने की घटनाओं की रोकथाम करना – इस समूची प्रक्रिया में आमतौर पर संघर्ष कहीं-न-कहीं अवरुद्ध हो जाता है. अतः सफलताओं की तुलना में शायद विफलताएं ही ज्यादा हाथ लगी हैं. हाल में इसके लिए उपयुक्त नीति-निर्देश सूत्रबद्ध किए गए हैं और उन्हें कड़ाई से लागू किया जा रहा है, फलतः स्थिति में कुछ सुधार के आसार नजर आ रहे हैं.
(iii) दलितों और पिछड़ी जातियों की सामाजिक मर्यादा के लिए संघर्ष. चूंकि यह संघर्ष सामंती प्राधिकार की जड़ पर चोट करता है, इसीलिए प्रायः यह काफी तीखा हो उठता है और बाबू साहबों, बाभनों तथा बाबाजियों का पूरा समुदाय इसका निशाना बन जाता है. दूसरी ओर पिछड़ी जातियों में लगभग तमाम वर्गों के लोग इन संघर्ष के पक्ष में चले आते हैं. हालांकि दोनों पक्षों में कुछ-न-कुछ अपवाद हमेशा मौजूद रहते हैं. प्रायः सभी गांवों में ऊंची जातियों के प्रगतिशील लोगों का एक छोटा हिस्सा इस संघर्ष का साथ देता है और पिछड़ी जातियों के कुछ हिस्से ऊंची जातियों के प्रतिक्रियावादी लोगों से जा मिलते हैं. इतने वर्षों से चलने वाले इस संघर्ष के प्रभाव से अनेक क्षेत्रों में ऊंची जातियों के कुछ हिस्से अपना परंपरागत रवैया बदलने लगे हैं.
जनता के बीच वर्गीय ध्रुवीकरण को ज्यादा-से-ज्यादा अंजाम देने और व्यापक ग्रामीण जनसमुदाय को एकताबद्ध करने के लिए हमलोग बहुतेरे अन्य संबंधित मुद्दे भी उठा रहे हैं, जैसे – पट्टेदारों का नाम पंजीकृत करवाना, अंचल अधिकारियों के भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों को गोलबंद करना आदि. भ्रष्टाचार का सवाल भूमि-विकास से जुड़ा हुआ है क्योंकि ये अधिकारी स्थानीय प्रतिक्रियावादी तत्वों के साथ सांठगांठ करके लगभग सारी सुविधाएं हड़प जाते हैं. इसके अलावा, व्यापक लोगों को एकताबद्ध करने के लिए डकैतों के खिलाफ कार्रवाइयां, कुछ ग्राम विकास कार्यक्रम, राहत कार्य इत्यादि मुद्दे भी उठाए जाते हैं.
हमारी मान्यता है कि इन तमाम मुद्दें पर संघर्षों व कार्यवाहियों का एकीकृत कार्यक्रम लागू करने पर ही खेतिहर मजदूरों और गरीब किसानों के नेतृत्व में व्यापक किसान एकता की गारंटी की जा सकती है.
तमाम किस्म के अवसरवादी प्रायः हम पर यह आरोप लगाते हैं कि हम खेतिहर मजदूरों को किसानों के खिलाफ खड़ा करके व्यापक किसान एकता की राह में रोड़ा अटका रहे हैं. खेतिहर मजदूरों और गरीब किसानों के हितों को तिलांजलि देकर और उन्हें जनसंघर्षों में शामिल करने से कतराकर उनकी वर्गचेतना और वर्गएकता कदापि विकसित नहीं की जा सकती, और न किसान आंदोलनों में उनका नेतृत्व ही स्थापित किया जा सकता है. इसीलिए उनकी तथाकथित किसान एकता का सीधा मतलब है धनी किसानों के नेतृत्व में एकता. बीच का कोई रास्ता नहीं है.
हम अभी तक यह दावा नहीं कर सकते कि वर्ग और जाति का संतुलन हमारे पक्ष में आ गया है. लेकिन धीरे-धीरे हम एक नए आधार पर उनकी एकता बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. कुछ क्षेत्रों में मध्यम किसानों और ऊंची जातियों के मध्यम तबकों को भी किसान सभा के झंडे तले गोलबंद किया जा रहा है.
यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि इन क्षेत्रों में पार्टी सुदृढ़ीकरण अभियान को काफी गंभीरतापूर्वक और कारगर ढंग से चलाया गया था. खासकर आंदोलन के उभार की स्थिति में पार्टी निर्माण के कार्यभार की उपेक्षा करना एक ऐसी कमजोरी है जो हमारी पार्टी के इतिहास में आमतौर पर मौजूद रही है. और यही कमजोरी अनेक क्षेत्रों में दीर्घकालिक धक्कों का मुख्य कारण भी बनी है. आंदोलन के दौर में उभरने वाली नकारात्मक प्रवृत्तियों पर काबू पाने, सही नीतियां सूत्रबद्ध करने और उनके क्रियान्वयन की गांरटी करने, आंदोलन के दौरान उभरने वाले सैकड़ों सक्रियकर्मियों को पार्टी की स्थायी संपदा में रूपांतरित करने और साथ ही संघर्षों को जारी रखने तथा हमेशा इसे नए स्तर में ले जाने के लिए पार्टी को शक्तिशाली बनाना अनिवार्य है.
अब, एक विचार-प्रवृत्ति ऐसी भी है जो सचेतन प्रयास की भूमिका को कोई महत्व नहीं देती; इस प्रवृत्ति के अनुसार सचेत प्रयास से लोगों की स्वतंत्र पहलकदमी का विकास बाधित होता है. लेकिन वस्तुतः सचेतन प्रयास की अधिकता से नहीं बल्कि इसके अभाव में ही संघर्ष दिशाहीन हो जाता है, संकीर्ण किसान मानसिकता मजबूत होती है, योद्धागण पतित होकर ङकैत बन जाते हैं, संघर्ष व्यर्थ की मुठभेड़ों में उलझ कर रह जाता है और अंततः जनता की स्वतंत्र पहलकदमी अवरुद्ध हो जाती है. औरंगाबाद के कुछ हिस्सों में एमसीसी का घिसाव-थकाव के जाति-युद्ध में लिप्त होना और जहानाबाद के कुछ क्षेत्रों में सीओसी(पीयू) की कार्यवाहियां इसी तथ्य की पुष्टि करती हैं. पटना, नालंदा और जहानाबाद के कुछ इलाकों में हमें भी इसी किस्म के कुछ अनुभव हासिल हुए हैं. सौभाग्य से, हमारे पार्टी संगठन ने इन नकारात्मक प्रवृत्तियों पर मुख्यतः काबू पा लिया है तथा अब पार्टी कार्य ज्यादा वैज्ञानिक ढंग से संगठित किया जा रहा है. और इस मामले में वस्तुतः पार्टी सुदृढ़ीकरण अभियान के चलते ही गतिरोध भंग करना संभव हो सका है.
पिछले कुछ वर्षों में हमारे व्यवहार के दौरान आंदोलन में अनेक नए पहलू सामने आए हैं जिन्हें पूरे अंचल में मिसाल के बतौर फैलाने की प्रक्रिया चल रही है. हम अपने समूचे काम को नए सिरे से संगठित कर रहे हैं. आइए, इस अध्याय में हम इन परिवर्तनों और नए विकासों पर संक्षेप में बहस करें.
हमलोगों ने देखा कि भोजपुर के एक गांव में वहां के स्थानीय कामरेड ग्राम कमेटी के गठन का जो तरीका अपनाने जा रहे थे वह किसान सभा द्वारा अबतक अमल में लाये गए तरीके से भिन्न था. वह गांव स्थानीय संघर्ष का केंद्र था और ग्राम कमेटी के गठन के दौरान एक नई गतिशील धारणा लागू की गई. उनलोगों ने ग्राम कमेटी के गठन को जनसमूदाय के त्योहार में तब्दील करने का संकल्प लिया और कदम-ब-कदम लोगों को जनवादी ढंग से अपनी कमेटी निर्वाचित करने के लिए गोलबंद किया. हमलोगों ने अपने पिछले अनुभवों में भी देखा है कि आंदोलन में उभार के वक्त जनता अपनी तमाम कार्रवाइयों के केंद्र स्वरूप अपनी ग्राम कमेटी का गठन करती लेती है. इसके विपरीत, किसान सभा अपनी सबसे निचली इकाई के रूप में ग्राम कमेटी के गठन का जो तरीका अपनाती है वह बिलकुल घिसा-पिटा और एकदम औपचारिक तरीका है. अनेक मामलों में, यह ग्राम कमेटी वर्ग संघर्ष और किसान सभा से अलग-थलग होकर महज ग्रामीण विकास संस्था बनकर रह गई. भोजपुर के प्रयोग से शिक्षा लेकर पार्टी ने ग्राम कमेटी की धारणा को उन्नत किया. ग्रासरूट स्तर पर जनता की पहलकदमी उन्मुक्त करने की कुंजी के बतौर, उसकी जनवादी चेतना के स्तर को उन्नत करने और उसकी आत्मगत चेतना में क्रांतिकार जनवाद की धारणा समाविष्ट करने के जीवंत साधन के बतौर ग्राम कमेटी के निर्माण पर जोर दिया जा रहा है. किसानों के जुझारू आंदोलन या उनकी आम राजनीतिक गोलबंदी से व्यापक जनसमुदाय की चेतना के क्रांतिकारीकरण की समस्या हल नहीं होती है, और चेतना का क्रांतिकारीकरण किए बगैर उनके लिए औपचारिक जनवाद की पूंजीवादी संस्थाओं की असारता को समझ पाना संभव नहीं. वर्ग संघर्ष विकसित करने और हर मामले में जनवादी तौर-तरीकों पर अमल करने के आधार पर बनी ग्राम कमेटी ठोस अर्थों में हमारे जनवाद और पूंजीवादी जनवाद के बीच फर्क को जनसमुदाय के बीच उजागर कर देती है. कम्युनिस्ट पार्टी के सचेत निर्देशन में ये कमेटियां भविष्य में क्रांतिकारी कमेटियों में तब्दील की जा सकती हैं. इन कमेटियों के गठन की शर्तों को और कठोर बनाया जा रहा है ताकि उन्हें औपचारिकतावाद के चंगुल में फंसकर पतित होने से बचाया जा सके. भूमिगत पार्टी कार्यकर्ताओं को निर्देश दिए जा रहे हैं कि वे इन कामों की जिम्मेवारी खुद अपने हाथों में लें. आंदोलनों में जनता की सक्रिय और सचेत भागीदारी सुनिश्चित करना हमारा लक्ष्य है और ग्राम कमेटियां इस लक्ष्य की प्राप्ति का माध्यम हैं.
अपने पार्टी-संगठकों की घुमंतू कार्यशैली खत्म करने और ग्रासरूट स्तर पर पार्टी ढांचे को सुदृढ़ करने के लिए हमलोगों ने पॉकेट निर्माण की धारणा प्रस्तुत की है. प्रत्येक संगठक के लिए संबंधित पार्टी कमेटी द्वारा 10-15 गांवों के एक पॉकेट की जिम्मेवारी तय कर दी जाती है और उन्हें उस पॉकेट में एक पार्टी यूनिट और उससे जुड़े संगठनों का एक समूचा नेटवर्क तैयार करने का निर्देश दिया जाता है ताकि श्वेत आतंक की घड़ियों में भी वे अपने पॉकेट में टिके रह सकें, वहां जनसमुदाय के बीच अपना संपर्क बरकरार रख सकें और उन्हें प्रतिवादस्वरूप की जाने वाली कार्यवाहियों में संगठित कर सकें. वे अपना पॉकेट तभी छोड़ सकते हैं जब खुद पार्टी कमेटी उन्हें ऐसा निर्देश दे. इस धारणा की वजह से संगठकों के काम को ज्यादा गंभीरतापूर्वक ग्रहण किया गया है. पहले पार्टी संगठन की मुख्य कार्यवाही से दूर, परिधि पर रहने वाले कामरेड अब संगठकों के बतौर पार्टी कार्यों में बेहतर भागीदारी निभा रहे हैं. इस धारणा से उन्हें अपने कामों की योजना बनाने तथा बेहतर ढंग से उसे संगठित करने में मदद मिली है. ऐसे पॉकेटों के कामकाज का नियमित रूप से मूल्यांकन किया जा रहा है और उसी आधार पर उनका वर्गीकरण किया जा रहा है. ऐसे पॉकेटों की तादाद और गंभीर व सफल प्रयास करने वाले संगठको की तादाद बढ़ती जा रही है और इसी बीच कुछेक पॉकेटों में संगठकों ने मजबूत पार्टी यूनिट का निर्माण भी कर लिया है.
ब्लॉक स्तरों पर किसान सभा को संगंठित करने पर जोर दिया जा रहा है. इसके लिए पहले अपने काम को 30-40 गांवों की एक बेल्ट में केंद्रित किया जाता है, और तब धीरे-धीरे ब्लॉक के शेष भागों में भी फैलाया जाता है. चूंकि किसान सभा की स्थानीय इकाइयों को ही कठोरतम दमन का सामना करना पड़ता है, इसलिए स्थानीय नेतृत्व की संरचना में कुछ परिवर्तन करना जरूरी समझा गया. दुश्मन के सामने सभी नेताओं को खुला कर देना कोई विवेकपूर्ण नीति नहीं है. अतः इन नेताओं को अर्ध-भूमिगत ढंग से काम करने का तरीका सीख लेना चाहिए. दूसरी ओर, उन्हें यह भी निर्देश दिया गया है कि वे व्यापक रूप से सदस्यता अभियान चलाएं, अपने सम्मेलनों के दौरान भारी तादाद में जनसमुदाय को गोलबंद करें तथा ब्लॉक आफिस के कामों में ज्यादा-से-ज्यादा हस्तक्षेप करें, ताकि प्रशासन द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न सुधार-कार्यों का असली चरित्र बेनकाब किया जा सके.
किसान सभा ने कुछेक क्षेत्रों में बटाईदारों और मध्यम किसानों के सम्मेलन भी आयोजित किए हैं. कुछ जगहों पर उनलोगों ने विभिन्न गांवों के आम किसान प्रतिनिधियों के साथ बैठक आयोजित की है ताकि उनकी मांगों के एक प्रत्यक्ष जानकारी हासिल हो सके. आजकल अनेक जगहों में वे सैकड़ों-हजारों किसानों को लेकर ब्लॉक कार्यालय पर हल्ला बोल देते हैं, सरकारी अधिकारियों से जवाब-तलब करते हैं, उन्हें बाध्य करते हैं कि वे अपने राहत व सुधार शिविर गरीबों के टोलों में कायम करें और उनके सम्मुख जनसमुदाय की मांगें पेश करते हैं. उनका नारा है : ‘जो कुछ हो, किसान सभा के जरिए हो.’ यह तरीका अपनाने के कारण मुट्ठीभर राहत बांटकर संगठन को तोड़ देने की सरकारी साजिश को नाकामयाब करने में मदद मिली है.
पिछले समय की तुलना में अब इस पहलू पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है. भालों से लैस ये नौजवान दुश्मन के दिल में कंपकंपी पैदा कर देते हैं. प्रतिरोध संघर्षों में किसान नेताओं की सुरक्षा करने में ये रक्षादल ही मुख्य भूमिका निभाते हैं. ये ग्राम रक्षादल ग्राम कमेटियों के नियंत्रण में काम करते हैं.
स्थानीय स्तर पर संगठन के इन रूपों को पार्टी सुदृढ़ीकरण अभियान शुरू होने के बाद से बेहतर समझदारी के साथ और उन पर पहले से ज्यादा जोर देते हुए संगठित किया जा रहा है. भोजपुर में चरपोखरी, नालन्दा में इस्लामपुर और औरंगाबाद में दाऊदनगर – इन तीन इलाकों में उपरोक्त तमाम पहलुओं से कार्य को अच्छी हद तक संयोजित किया गया है. बहुत से पुराने इलाकों में भी इनमें से कुछेक पहलुओं पर अमल किया गया है तथा रोहतास और गया में अनेक स्थानों पर नये काम-काज के पॉकेट तैयार हुए हैं. नालंदा और औरंगाबाद में, जहां लंबे समय से पार्टी ढांचा कमजोर बना हुआ था, अब जिला पार्टी कमेटी और समूचा पार्टी ढांचा पहले से बेहतर ढंग से संगठित है.
बहुत कम कामरेड यह जानते होंगे कि 1975 के अंत तक हमारे पास सिर्फ एक हथियारबंद यूनिट बची थी – भोजपुर में सहार की यूनिट. तिसपर, इस अकेली यूनिट में घुमंतू प्रवृत्ति भी घर कर गई थी और राजनीतिक सलाहकार के लिए भी इसे नियंत्रित रख पाना मुश्किल हो गया था. बाध्य होकर 1976 के अंत में यूनिट-सदस्यों को व्यक्तिगत संगठकों के रूप में बिखेर देना पड़ा. इसी समय काम के एक नए इलाके में कामरेड जिउत को केंद्र करके एक दूसरी सशस्त्र यूनिट बनने की प्रक्रिया चल ही रही थी. पटना में भी सिर्फ एक यूनिट बच रही थी और वह भी विघटन के कगार पर खड़ी थी. अधिकांश नेता और कार्यकर्ता शहीद हो गए थे या गिरफ्तार कर लिया गए थे. काम के समूचे इलाके में श्वेत आतंक व्याप्त था और जनता बिलकुल खामोश थी. लेकिन शेष पार्टी-संगठक उन कठिन स्थितियों में भी काम जारी रखे हुए थे और उनलोगों ने संघर्ष की ज्वाला कभी बुझने नहीं दी. 1978 में शुद्धीकरण आंदोलन के बिना और 1979 के विशेष सम्मेलन में राजनीतिक लाइन में भारी परिवर्तन किए बिना आज कोई किसान संघर्ष या सशस्त्र संघर्ष देखने को नहीं मिलता. 1977 के बाद से एक नए उत्साह के साथ सशस्त्र कार्यवाहियां शुरू हुई और सशस्त्र यूनिटों व आग्नेयास्त्रों एवं उनकी गतिविधि के दायरे के लिहाज से आज हम लोग अपनी पुरानी वाली स्थिति से काफी आगे हैं. आज की ग्राम कमेटियां उन दिनों की क्रांतिकारी कमेटियों की तुलना में ज्यादा प्राधिकार का उपभोग करती हैं और आज की लाल पट्टियां उन दिनों के लाल इलाकों की अपेक्षा ज्यादा सुर्ख हैं. वास्तविक जीवन में हमारी यह अग्रगति धारणाओं के क्षेत्र में पीछे हटने से संभव हो सकी जबकि उस समय धारणाओं के क्षेत्र में अग्रगति वास्तविक जीवन में हमें पीछे हटने को मजबूर कर रही थी.
अभी भी हमलोग बिहार में क्रांतिकारी किसान संघर्ष की अवस्था को प्राथमिक अवस्था ही कहना पसंद करेंगे. इसका मतलब यह है कि वर्ग शक्तियों के संतुलन को बदलने के लिए हमें अभी लंबी दूरी तय करनी है. हमें अपनी शक्तियों को सुरक्षित रखना है, और ज्यादा ताकत इकट्ठी करनी है तथा कदम-ब-कदम संघर्ष को फैलाते हुए उसे नई ऊंचाइयों तक पहुंचाना है.
हमारी सशस्त्र शक्तियों की स्थिति इसी सच्चाई से निर्देशित होती है. हमलोगों ने कई वर्षों तक अधिक-से-अधिक संख्या में नियमित सशस्त्र यूनिटें बनाने की जी-तोड़ कोशिशें की थीं. हमारे अनुभव बताते हैं कि यद्यपि बहुतेरे योद्धा इन यूनिटों में आकर भर्ती हुए लेकिन अंततः उनमें से चंद योद्धा ही टिक सके और ये ऐसे योद्धा थे जिन्हें बुनियादी रूप से पार्टी कार्यकर्ताओं के स्तर तक विकसित करना संभव हो सका था. हमारे तमाम प्रयासों के बावजूद नियमित व स्थायी सशस्त्र यूनिटों का विकास काफी धीमी गति से चलता रहा.
ऐसी स्थिति के चलते हमलोगों ने स्थानीय दस्तों के निर्माण पर जोर देने का फैसला लिया. नई परिस्थितियों में इन दस्तों के कार्यभारों को ठोस रूप से निर्धारित न कर पाने के चलते इस दिशा में अभी तक अधिक प्रगति नहीं की जा सकी है. शुरू में हमलोगों ने सफाया के उद्देश्य से और सफाया करने के जरिए दस्ता निर्माण के पुराने व्यवहार को हतोत्साहित किया. इसके बाद हमने सशस्त्र प्रचार दस्ते की धारणा को मजबूती से पकड़ा और ऐसे स्थानीय सशस्त्र दस्तों को नियमित सशस्त्र यूनिटों और ग्राम रक्षा दलों के बीच की कड़ी के रूप में परिभाषित किया गया. 15-20 गांवों को लेकर ऐसे क्षेत्र बनाए गए जहां ये दस्ते हर महीना एक निश्चित अवधि के लिए सशस्त्र प्रचार दस्तों के बतौर मार्च करेंगे. वैसे तमाम योद्धाओं को, जो नियमित सशस्त्र यूनिटों में नहीं टिक पाए थे, इन दस्तों में गोलबंद कर लिया गया. नियमित यूनिटें उनके साथ संपर्क बनाए रखती हैं और आवश्यकता होने पर उन्हें सशस्त्र कार्यवाहियों में गोलबंद करती हैं. ये दस्ते अपनी पहलकदमी से स्थानीय प्रतिक्रियावादियों के खिलाफ कार्यवाही करते हैं और उनके आग्नेयास्त्र जब्त करते हैं. वे गांव के आम नौजवानों को ग्राम रक्षा दलों में संगठित भी करते हैं.
सशस्त्र संघर्ष के वर्तमान चरण में हम महसूस करते हैं कि इन सशस्त्र प्रचार दस्तों पर ही सर्वाधिक जोर दिया जाना जाहिए. वे नियमित सशस्त्र यूनिटों के लिए आवश्यक अधिसरंचना मुहैया करते हैं और भविष्य में इन्हीं दस्तों से चुनिन्दा योद्धाओं को शामिल कर बड़ी तादाद में नियमित सशस्त्र यूनिटों का विकास किया जा सकता है.
पिछले कुछ वर्षों में हमारी नियमित सशस्त्र यूनिटों को कैथी (औरंगाबाद), कुनई (भोजपुर) और गंगाबीघा (नालंदा) में कुछ गंभीर क्षति उठानी पड़ी है. इन तमाम घटनाओं के विश्लेषण से यह जाहिर होता है कि संबंधित गांव में रहने वाले दलाल ने ही जमींदारों के पास सूचनाएं भेजी थीं और इसी माध्यम से खबर पुलिस तक पहुंच सकी. हमलोग इन दलालों की गतिविधियों से नावाकिफ रहे और हमारी सशस्त्र यूनिटों की सुरक्षा की धारणा केवल भूस्वामियों व पहले से चिह्नित दलालों से सावधान रहने और रातभर पहरा देने के के इर्द-गिर्द घूमती रही.
इन घटनाओं के बाद, तमाम संबंधित दलालों को मौत की सजा दी गई. ये सजाएं अपने आप में मिसाल तो हो सकती हैं लेकिन महज इतने से ही दुश्मन का समूचा खुफिया तंत्र खतम नहीं हो जाता, यह संभव भी नहीं है. वर्ग संघर्ष बहुत ही जटिल प्रक्रिया है और हमारा दुश्मन हमारे अपने गांवों से ही दलाल चुनने में सक्षम है. हमारी तीखी जवाबी कार्यवाहियों के समय दुश्मन प्रायः अपना जाल बुनने लगता है.
आत्मरक्षा के बारे में हमारी धारणा बेहद सरलीकृत थी, जो किसी भी आधुनिक युद्ध में काम नहीं आती. अब हम अपनी निजी खुफिया मशीनरी के निर्माण पर जोर दे रहे हैं. अपने शत्रु शिविर के अंदर ही सूचनाओं का स्रोत तैयार करना होगा और विशेष रूप से खुफियागिरी के काम के लिए प्रशिक्षितकर्मियों को भर्ती करना होगा. एक परिपूर्ण सैन्य-फॉरमेशन के लिए, यहां तक कि वर्तमान स्तर में भी, नियमित सशस्त्र यूनिट और स्थानीय सशस्त्र दस्तों की एक एकीकृत व्यवस्था के अवाला हमारे पास एक निजी खुफिया मशीनरी, आग्नेयास्त्रों का निर्माण करने और इन्हें जमा करने के स्रोत, मेडिकल विभाग और टोह लेने (स्काउट) की व्यवस्था रहना जरूरी है. केवल इस किस्म की परिपूर्ण व्यवस्था ही सशस्त्र यूनिटों को आवागमन में आवश्यक स्वतंत्रता मुहैया कर सकती है. हम यह आवश्यक समझते हैं कि इन क्षेत्रों में पार्टी की जिला कमेटियों को इस व्यवस्था के निर्माण के लिए जिला स्तर पर एक सक्षम कामरेड की नियुक्ति करनी चाहिए. सशस्त्र यूनिट और सशस्त्र कार्यवाहियां कोई हंसी-खेल नहीं हैं और उनके प्रति लापरवाही का रवैया कत्तई नहीं अपनाना चाहिए.
वर्तमान स्तर में नियमित सशस्त्र यूनिटों को शक्तिशाली सशस्त्र सामंती गिरोहों के खिलाफ निर्णायक सशस्त्र कार्यवाहियां चलानी चाहिए. उन्हें पुलिस-अत्याचारों से जनता की रक्षा भी करनी चाहिए और दोषी पुलिस अधिकारियों को उपयुक्त सजा भी देनी चाहिए.
यहां मैं आपको कामरेड केशो की मिसाल याद दिलाना चाहूंगा. जो हमारी तीसरी पार्टी कांग्रेस के लिए प्रतिनिधि चुने गए थे. वे भोजपुर के एक भूमिहीन किसान परिवार से आए थे और उन्होंने सशस्त्र यूनिटों के लिए प्रशिक्षण संस्थान से पार्टी कार्यकर्ता के बतौर प्रशिक्षण प्राप्त किया था. उन्हें रोहतास जिले के दक्षिणी भाग का पार्टी प्रभारी नियुक्त किया गया था. उन्हें यह विशिष्ट कार्य सौंपा गया था कि वे कैमूर पहाड़ी अंचल में कार्यकलाप चला रहे बागी गिरोह के अंदर काम करें. उन्होंने पूरी संजीदगी के साथ काम करना शुरू किया और बागियों के बीच रहने लगे. वहां उन्होंने बागियों को पार्टी की राजनीति से शिक्षित करने तथा उनकी जनविरोधी कार्यवाहियों व शरावखोरी की आदत के खिलाफ संघर्ष करने की पूरी कोशिश चलाई. वे राजा मोहन बिन्द और कुछेक अन्य बागियों को एक हद तक सुधारने में कामयाब हुए थे. वे जान का खतरा झेलते हुए बागियों के बीच काम कर रहे थे क्योंकि कई बागी उनकी उपस्थिति से हमेशा नाखुश थे. केशो ने वहां की जनता के साथ स्वतंत्र रूप से संपर्क भी विकसित कर लिए थे. मोहन बिंद के मारे जाने के बाद ‘दादा’, जो बागियों की जनविरोधी गतिविधियों के खिलाफ प्रतिवाद करने की वजह से कामरेड केशो से बेहद नाखुश रहता था, गिरोह का नेता बन गया और उसने कामरेड केशो तथा बागियों में से केशो के दो समर्थकों की हत्या करवा दी, जब ये साथी अप्रस्तुत स्थिति में थे. इस प्रकार कामरेड केशो ने पार्टी द्वारा दी गई विशेष जिम्मेवारी को पूरा करने में अपना जीवन न्योछावर कर दिया.
इसके बाद कामरेड जिउत को, जो एक ख्याति प्राप्त कमांडर थे, एक शक्तिशाली सशस्त्र ग्रुप के साथ पहाड़ी अंचल की ओर अभियान करने तथा कामरेड केशो की हत्या का बदला लेने का निर्देश दिया गया. प्रस्थान करने की पूर्ववेला में कामरेड जिउत व कामरेड शहतू एक पुलिस आक्रमण में मारे गए. कामरेड जिउत व शहतू की शहादत के बाद हमारी सशस्त्र यूनिटों ने इस क्षेत्र में सशस्त्र कार्यवाहियों का एक अभियान चलाया जिसमें 16 राइफलें छीनी गई. इन दोनों शहीद कामरेडों की स्मृति में स्मारक बनाने के लिए 5000 से अधिक जनता कुनई गांव में एकट्ठा हुई और उन्होंने भारी तादाद में जमा हुए पुलिस बल से समूचे दिन जमकर संघर्ष किया. पुलिस द्वारा गोली चलाने के दौरान तीन ग्रामीणों ने अपनी जान कुर्बान की.
हमारे व्यवहार की विविधताओं और प्रयोगों की मिसाल देने तथा भूमिहीन किसान योद्धाओं की राजनीतिक संगठनकों के बतौर क्या भूमिका है और जनसमुदाय के साथ उनका कितना घनिष्ठ संबंध है, यह दर्शाने के लिए मैंने इन घटनाओं की चर्चा की है.
निष्कर्ष के तौर पर मुझे यही कहना है की : हमारे इतिहास में यह पहली मिसाल है कि भारतीय कम्युनिस्ट इतने बड़े लंबे अरसे तक किसान संघर्ष को जारी रखने में और लगातार उसका कार्यक्षेत्र बढ़ाने जाने में कामयाब हुए हैं.
इतिहास में यह पहली मिसाल है कि भारतीय कम्युनिस्टों ने संघर्ष के तमाम रूपों – कानूनी व गैरकानूनी, संसदीय व गैरसंसदीय, सशस्त्र कार्यवाहियां व जन संघर्ष – का इस्तेमाल किया है और एक पहलू अपनाने के लिए दूसरे पहलू का त्याग किए बगैर दोनों पहलुओं के बीच तालमेल कायम करने का गंभीर प्रयास चलाया है.
इतिहास में यह मिसाल है कि भारतीय कम्युनिस्टों ने जाति संघर्ष और वर्ग संघर्ष – दोनों समस्यायों को हल करने की कोशिश की है, जातीय उत्पीड़न पर करारा आघात किया है और दलितों को सर ऊंचा करने योग्य बनाने के साथ-साथ खेत मजदूरों, गरीब व मध्यम किसानों को अपनी वर्गीय मांगों पर एकताबद्ध किया है.
इतिहास में पहली मिसाल है कि ग्रामीण गरीबों के बीच से अनगिनत नेता व कार्यकर्ता उभरे हैं और वे ही पार्टी की मुख्य रीढ़-शक्ति हैं. वे ही तमाम मोर्चों पर कार्य को संगठित करते हैं तथा संघर्षों का नेतृत्व करते हैं और राष्ट्रीय महत्व के प्रत्यक्ष राजनीतिक संघर्षों में ग्रामीण गरीबों की व्यापक बहुसंख्या को गोलबंद किया गया है.
और अंततः इतिहास में यह पहली मिसाल है कि भारतीय कम्युनिस्ट शासक वर्गों की तमाम चालबाजियों के बावजूद, विलोपबादियों और अर्धअराजकतावादियों की तमाम तोड़फोड़ की कार्यवाहियों के बावजूद, धक्कों और नुकसानों से उत्पन्न तमाम दबावों व तनावों के बावजूद संघर्ष का मार्गदर्शन करने वाले पार्टी संगठन की एकता की रक्षा करने में कामयाब रहे हैं. हमने अपनी लाइन व नीतियों में भारी किस्म के परिवर्तन किए हैं. हमारे अपने बीच गंभीर मतभेद व वाद-विवाद चलते रहते हैं, मगर हमने हमेशा एक अविचलित अनुशासनबद्ध तरीके से एकताबद्ध शक्ति के बतौर कार्य किया है.