(मई 13, 1986)
यदि एक विराट क्रांतिकारी संभावना के बिखर जाने के फलस्वरूप भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में सामाजिक जनवाद को फलने-फूलने का मौका मिल गया, तो इसमें भी संदेह नहीं कि सामाजिक जनवादियों को इस विजय की भारी कीमत चुकानी पड़ी. वे अंतर्वस्तु में महज एक आंचलिक शक्ति बनकर रह गए और हिंदी हृदयस्थल पर कभी अपनी छाप नहीं अंकित कर पाए. अब पडोंसी राज्य बंगाल में लगातार नौ वर्षों तक सामाजिक जनवाद के परिपूर्ण विकसित मॉडल का कर्ताधर्ता बने रहकर भी यदि सीपीआई(एम) बिहार में एक कदम नहीं बढ़ पाई, तो इससे भला और क्या नतीजा निकाला जाए?
पर नम्बूदरीपाद एण्ड कं. की दलील जरा सुनिए : “भारत में बिहार सबसे पिछड़ा हुआ राज्य है, जो जातिवाद के कट्टर ध्रुवीकरण में जकड़ा हुआ है. फिर यहां पूंजीवादी सुधारों का कोई उल्लेखनीय इतिहास नहीं रहा.” हां, सचमुच ये तथ्य उतने ही निर्विवाद हैं, जितना निर्विवाद यह नियम कि जिस पड़ाव पर सामाजिक जनवाद अपनी यात्रा पूरी करता है, वहीं से क्रांतिकारी जनवाद अपनी यात्रा शुरू करता है. यही बिहार जैसा पिछड़ा राज्य आज क्रांतिकारी जनवाद की अग्रवर्ती चौकी साबित हुआ है. समाज के सबसे निचले स्तर के लोग आज किसान संघर्षों के झंझावात में खिंच आए हैं. पिपरा हत्याकांड हो या अरवल जनसंहार, खून की प्यासी नवसामंतों की सेनाएं हों या गोली से बात करने वाले अर्धसैनिक बल, ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के पैरोकार हों या ‘शाही’ विपक्ष के झंडाबरदार, कोई भी शक्ति बिहार के धधकते खेत-खलिहानों में मरघट की शांति नहीं कायम कर पाई, और न ही कोई शक्ति इतिहास के रंगमंच से इन नवोदित अभिनेताओं को नेपथ्य में धकेल सकेगी.
लेकिन, बिहार का किसान संघर्ष क्या सचमुच कोई नई राह खोज सकेगा? या फिर, अपने पूर्ववर्ती किसान संघर्षों की तरह यह भी विनाश तक जा पहुंचेगा अथवा बीच राह में समझौता कर लेगा? तमाम सच्चे मार्क्सवादियों और क्रांतिकारी जनवाद के हमदर्दों के दिमाग में यही प्रश्न गूंज रहा है. यह पुस्तक दरअसल इसी प्रश्न से निपटने की दिशा में हमारा पहला कदम है. मगर इससे पहले कि हम इस पुस्तक की विषयवस्तु तक पहुंचें, आइए जरा भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर एक नजर डालते हुए बिहार के किसान संघर्ष द्वारा अपनाए गए विशिष्ट गतिपथ की जांच की जाय.
कृषि प्रधान पिछड़े देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों को कार्यनीति के क्षेत्र में दो बुनियादी सवालों को हल करना पड़ता है : किसानों के साथ संबंध और पूंजीपति वर्ग के साथ संबंध. 1921 में लेनिन ने पूरब के कम्युनिस्टों को यह सलाह दी थी कि वे रूस की बोल्शेविक क्रांति की आम शिक्षा के आधार पर अपने-अपने देशों की रणनीतियां स्वंय तय करें. लेनिन ने यह स्पष्ट चेतावनी दी थी कि उन्हें अपनी समस्याओं का हल संभवतः किसी भी कम्युनिस्ट किताब में नहीं मिलेगा.
जहां माओ त्सेतुंग ने पूरी संजीदगी के साथ इस काम को हाथ लगाया, वहीं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व इसका महत्व ही न समझ पाया. इसलिए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी जनवादी क्रांति की विभिन्न मंजिलों में किसानों और पूंजीपति वर्ग के साथ अपने संबंधों की समस्या को सही ढंग से हल करने में कामयाब रही और राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का नेता बनकर उभरी. इस तरह उसने मार्क्सवाद-लेनिनवाद को पिछड़े देशों की ठोस स्थितियों के साथ मिलाने के क्षेत्र में मूल्यवान मार्गदर्शक सिद्धांत मुहैया किया. पर भारतीय कम्युनिस्ट इन दो समस्याओं को हल करने की कोई सुसंगत कार्यदिशा ही नहीं खोज पाए. परिणामतः भारत के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का पूरा श्रेय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बटोर ले गई, जबकि कम्युनिस्टों को उनका दुमछल्ला माना गया और इससे भी बढ़कर, उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति गद्दार कहा जाने लगा. यह सच है कि इस असफलता के पीछे कई चीजे जिम्मेवार थीं, जिनमें पहले तो खुद ब्रिटिश पूंजीपति वर्ग का औपनिवेशिक शासन था. दूसरा यह कि कांग्रेस का उदय और विकास एक ऐसे मंच के बतौर हुआ, जो ऊपर से अत्यंत विकसित जनवादी कार्यवाहियां चलाने (नियमित रूप से सत्र बुलाना, हर बार अध्यक्ष बदलना, विभिन्न विरोधी विचारों के बीच होड़ रहते हुए भी सहअस्तित्व बना रहना, इत्यादि) और अंदर से लगभग अंधभक्ति पर आधारित गांधी का परा-सांगठनिक प्राधिकार मानने की कार्यविधियों का अनोखा सम्मिश्रण था. तीसरी चीज थी, खास किस्म के राष्ट्रीय, जातीय और सांप्रदायिक मसले. और चौथा यह कि कोमिन्टर्न के सुझाव और विदेश में रहकर पार्टी का मार्गदर्शन करने वाले कुछेक भारतीय नेताओं के सुझाव परस्पर विरोधी होते थे, इत्यादि-इत्यादि. मगर असली आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि पार्टी-नेतृत्व के प्रभावकारी हिस्से ने एक खास किस्म की चिंतनशैली ही अख्तियार कर ली, जिसके अनुसार वे आमतौर पर रूसी और चीनी क्रांतियों के अनुभवों को, और खासतौर पर, लेनिन और माओ को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने लगे. उन्होंने भारत और चीन की परिस्थितियों में मौजूद अंतर को समझाने में अपनी सारी शक्ति खर्च कर जाली. हाय रे भाग्य! भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने एशिया के सबसे बड़े देश, अपने पड़ोसी देश में हुई एक महान क्रांति से कोई भी सबक सीखने से इनकार कर दिया और, साथ ही, इस महान क्रांति के सर्वमान्य नेता माओ त्सेतुङ के विचारों से कोई सीख लेना कत्तई नामंजूर कर दिया. उल्टे, हमारे कम्युनिस्ट नेता इस महान नेता का बस मजाक उड़ाने लगे.
जब पीसी जोशी की लाइन परास्त हो गई तो तेलंगाना के उत्थान व पतन (1946-51) के संदर्भ में भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में स्पष्टतः पृथक तीन लाइनें उभरकर आई. रणदिवे एण्ड कं. की लाइन में चीनी क्रांति के महत्व को ठुकरा दिया गया, माओ पर दूसरा टीटो बनने का इल्जाम लगाकर भीषण आक्रमण किया गया तथा शहरों में मजदूर वर्ग के विद्रोहों को आधार बनाकर जनवादी और समाजवादी क्रांतियों को साथ-साथ संपन्न करने की पैरवी की गई. यद्यपि यह वाम दुस्साहसवादी लाइन चीनी क्रांति और माओ त्सेतुङ के प्रति स्तालिन के प्रारंभिक संदेहों को पूंजी बनाकर टिकना चाहती थी, पर अंततः यह बुरी तरह पिट गई.
तेलंगना के बहादुराना संघर्ष के निर्माण में आंध्र सेक्रेटेरियट की लाइन काफी हदतक चीनी अनुभवों और माओ की शिक्षाओं पर निर्भर थी. यद्यपि आंध्र का पार्टी-नेतृत्व, आंध्र महासभा के साथ तालमेल कायम कर निजाम की सामंती निरंकुशता के खिलाफ आंदोलन चलाने में सफल रहा; पर नेहरू सरकार और उसकी फौजों का मुकाबला करने की जटिल समस्या को हल करने में उसे असफलता हाथ लगी. तत्कालीन परिस्थितियों में उनके लिए शायद इस लाइनों के संघर्ष को उसके तर्कसंगत परिणाम तक नहीं पहुंचाया जा सका. बहरहाल, कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में अबतक चले किसान संघर्षों के इतिहास में तेलंगाना एक गौरवमय अध्याय माना जाता है. यह पार्टी नेतृत्व के एक हिस्से द्वारा चीनी क्रांति के अनुभव से शिक्षा लेने का और भूमि-क्रांति को धुरी मानकर भारत की जनवादी क्रांति के लिए एक व्यापक कार्यदिशा तैयार करने का पहला गंभीर प्रयास था.
जमींदारी उन्मूलन जैसे लुभावने सुधारों के जरिए आवश्यक तैयारी पूरी कर नेहरू सरकार संसदीय जनवाद की राह पर चल पड़ी. तेलंगाना अबतक धक्के का शिकार हो चुका था, अतः वस्तुगत स्थिति ने इस बात की इजाजत दी कि अजय घोष और डांगे द्वारा पेश की गई मध्यमार्गी लाइन हावी हो जाय. इस लाइन ने चीन और भारत की परिस्थितियों के बीच अंतर को बहस का सबसे बड़ा मुद्दा बना लिया और पार्टी को संसदीय पथ पर ठेल दिया. 1957 में कम्युनिस्टों को केरल में सरकार बनाने में सफलता मिली. लेकिन ज्योंही इस सरकार ने बुनियादी किस्म के भूमिसुधार करने की कोशिश की, उसका तख्ता उलट दिया गया. संसदीय संघर्षों का इस्तेमाल करने की कार्यनीति के विकास में यह एक निर्णायक मोड़ था. अनुभव से एक बार फिर यह स्पष्ट हो चुका था कि किसान आंदोलनों का विकास करना और तमाम संसदीय संघर्षों को गैरसंसदीय संघर्षों के मातहत रखना कितना जरूरी है, पर पार्टी ने ऐसा कोई सबक लेने से इनकार कर दिया और घिसीपिटी लीक पर आगे बढ़ना जारी रखा. आनेवाले वर्षों में ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के उदय और भारत-चीन युद्ध के बाद पार्टी दो हिस्सों में टूट गई : डांगेवादी नेतृत्व ने अंधराष्ट्रवादी रवैया अख्तियार कर लिया और वह तथाकथित ‘गैरपूंजीवादी विकास के शांतिपूर्ण रास्ते’ के सिद्धांत का प्रचार करने लगा. राष्ट्रीय जनवादी क्रांति की इस लाइन ने कुछ ही वर्षों में सीपीआई को कांग्रेस का दुमछल्ला बना दिया. सीपीआई के ख्याल से सामंती अवशेष या तो भारत में मौजूद ही नहीं हैं, और अगर हैं भी, तो कांग्रेस सरकार खुद ही उनसे निपट सकती है.
दूसरा हिस्सा सीपीआई(एम) था, जो मध्यमार्गी लाइन लेकर आगे बढ़ा. रणदिवे की पुरानी परंपरा का अनुसरण करते हुए इस पार्टी ने स्तालिन को माओ के मुकाबले खड़ा करना जारी रखा और इसीलिए उसने ख्रुश्चेव को पूर्ण समर्थन नहीं दिया. यह पार्टी जनता के जनवाद की तो बात करती है, मगर इस विषय में उसकी धारणा पूर्वी यूरोप के देशों में मौजूद जनता के जनवाद से ज्यादा मेल खाती है. अतः उसने चीनी क्रांति के अनुभव की निंदा करना जारी रखा है; और साथ-ही-साथ वह माओ त्सेतुङ विचारधारा की भी खिल्ली उड़ाती है. अभी हाल के वर्षों में सीपीआई(एम) के सर्वप्रमुख सैद्धांतिक प्रवक्ता वासवपुन्नैया ने माओ पर आक्रमण को कुछ ज्यादा ही तीव्र कर दिया है. उन्होंने अंतर्विरोधके बारे में माओ की दार्शनिक स्थिति पर और राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के प्रति उनके द्वारा अपनाई गई कार्यनीति पर काफी जहर उगला है. भारत और चीन की परिस्थितियों में फर्क दिखलाते हुए सीपीआई(एम) हमेशा यही उपदेश देती है कि भारत में छापामार युद्ध असंभव है. साथ-ही-साथ उसने चीनी क्रांति के बारे में सीपीआई के इस पुराने मूल्यांकन को दोहराना शुरू किया है कि आधार इलाकों और लाल सेना ने चीन में कोई खास महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई, बल्कि दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान मन्चूरिया में सोवियत सेना का जमाव ही चीनी क्रांति की विजय के लिए मुख्यतः जिम्मेवार था.
सीपीआई के अंधराष्ट्रवादी नेतृत्व के खिलाफ संघर्ष में क्रांतिकारी कम्युनिस्टों ने सीपीआई(एम) के साथ संश्रय कायम किया था. विभाजन के बाद सीपीआई(एम) ने भी संसदीय कार्यवाहियां जारी रखीं और जन आंदोलनों की लहरों पर सवारी गांठकर उन्होंने एक अवसरवादी साझेदारी का सहारा लिया और पश्चिम बंगाल में संयुक्त मोर्चा सरकार कायम कर ली. इस सरकार ने नक्सलबाड़ी के संघर्ष का दमन करने में जो भूमिका निभाई, उससे पार्टी-नेतृत्व के संशोधनवादी चरित्र का पर्दाफाश हो गया और पार्टी के अंदर मुकम्मल तौर पर बगावत के लिए हर प्रकार से परिस्थिति परिपक्व हो गई. दरअसल बगावत हुई भी. और क्या गजब की बगावत थी – इससे पश्चिम बंगाल में और केरल में सीपीआई(एम) की ताकत काफी घट गयी, जबकि कुछेक राज्यों में तो पूरी-की-पूरी राज्य कमेटी ही सीपीआई(एम) को त्यागकर नक्सलबाड़ी के समर्थन में आ खड़ी हुई.
नक्सलबाड़ी की तह में वही भावना छिपी थी, जो तेलंगाना में मौदूज थी, यानी भारत की जनवादी क्रांति में किसान संघर्ष की भूमिका को उजागर करने तथा चीन के अनुभव और माओ की शिक्षाएं ग्रहण करने की भावना. मगर समय पहले से काफी बदला हुआ था. नक्सलबाड़ी का उदय एक नई पृष्ठभूमि पर हुआ : अंरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन बड़े पैमाने की फूट का शिकार बन चुका था; देश में भूमिसुधार अपनी पहले वाली चकाचौंध खो बैठा था और कांग्रेस की जनवादी नकाब भी फट कर चिथड़े हो चुकी ती. देश एक गंभीर कृषि संकट का सामना कर रहा था जिसे हरित क्रांति की साम्राज्यवादी रणनीति के जरिए हल करने की कोशिश की जा रही थी. और सर्वोपरि, एक गहन राजनीतिक संकट मौजूद था, जो कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में पहली बार कांग्रेस की हार के रूप में जाहिर हो रहा था. दूसरे शब्दों में, नक्सलबाड़ी का उदय एक शानदार क्रांतिकारी परिस्थिति में हुआ था, जब शासक वर्ग पुराने तरीके से शासन नहीं चला पा रहे थे. नक्सलबाड़ी का विद्रोह एक ऐसी सत्ता पर किया गया सीधा प्रहार था, जो अपनी साख खो बैठी थी और पतन की दिशा में जा रही थी. इसके अतिरिक्त, इस बार पार्टी का संशोधनवादी नेतृत्व स्पष्टतः विभाजन रेखा के उस पार खड़े होकर किसानों और क्रांतिकारियों की हत्या कर रहे पुलिस बल का निर्देशन कर रहा था.
परिस्थितियां भिन्न थीं, सो प्रभाव भी भिन्न होना था. नक्सलबाड़ी का संघर्ष नक्सलबाड़ी के दायरे में सीमित नहीं रहा. पहले एआइसीसीसीआर और फिर सीपीआई(एमएल) के निर्माण के साथ-साथ यह भारत के अनेक भागों में दावानल की तरह फैलता गया. नई क्रांतिकारी पार्टी ने लेनिनवाद और अर्धऔपनिवेशिक देश चीन में माओ त्सेतुङ द्वारा लेनिनवाद के इस्तेमाल की संपूर्ण प्रक्रिया के बीच मौजूद कड़ियों के पहचानने पर जोर दिया. भारतीय मार्का संशोधनवाद से साफ तौर पर अपना नाता तोड़ने हुए इस पार्टी ने अपने विचारों के मार्गदर्शन सिद्धांत के बतौर मार्क्सवाद-लेनिनवाद के अतिरिक्त माओ त्सेतुङ विचारधारा को भी शामिल करने का निर्णय लिया तथा भारत और चीन की परिस्थितियों में मौजूद समानताओं पर अपेक्षाकृत ज्यादा जोर दिया. फिर भी खुद-ब-खुद माओवादी कम्युनिस्ट कहलानेवाले कुछ लोगों के विपरीत इस नई पार्टी ने कभी स्वयं को माओवादी पार्टी नहीं घोषित किया, बस भारत की सच्ची मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी ही कहलाना पसंद किया. शुरूआत के लिए, भारतीय क्रांति के एक सर्वथा नए रास्ते के पहले चरण में इस नई पार्टी के सामने चीनी मॉडल उस समय वियतनाम तथा अन्य दक्षिण पूर्व एशियाई देशों की जनता के लिए संघर्ष का मुख्य रूप मुहैया कर रहा था.
एक बार फिर तेलंगाना की आत्मा अपने पूरे शौर्य के साथ जी उठी. छापामार युद्ध, लाल सेना और येनान के नारों तथा लंबे अभियान के गीतों से आकाश गूंजने लगा. संघर्ष देश के कई भागों में फैल गया और पश्चिम बंगाल व आंध्रप्रदेश उसके प्रमुख गढ़ बनकर उभरे. हजारों-हजार छात्र-नौजवान समरभूमि में कूद पड़े और ऐसा लगा कि क्रांति काफी नजदीक आ पहुंची है. नक्सलवाद एक नई किस्म का कम्युनिस्ट आंदोलन था, जो एक राष्ट्रीय परिघटना बन गया और राजनीतिक शब्दकोष में एक नया शब्द जुड़ गया.
बहरहाल, यह सुखद अध्याय जल्द ही समाप्त हो गया. जो मुठभेड़ क्रांति की अंतिम कार्यवाही लग रही थी, वह महज एक पूर्वाभ्यास साबित हुई. सैकड़ो साथियों ने जानें गवाई, हजारों को जेल की यातना भोगनी पड़ी और अंधेरा घिर आया. फिर तो जैसा हमेशा से होता आया है, इसके साथ-साथ भ्रम, फूट और विघटन का भी दौर शुरू हो गया. पार्टी के किस नेता ने कब क्या स्थिति अपना ली, इसका कोई ठिकाना न रहा. लोग अपनी स्थितियां इतनी तेजी से बदल लेते थे कि विश्वास ही न होता था. कल के मित्र व घनिष्ठ कामरेड अगले ही दिन विरोधी बन जाते थे.
कई लोगों के लिए तो मुक्ति का स्वप्न अब वाकई दुःस्पप्न बन गया. जेल से नेताओं द्वारा अपीलें जारी की गई. बिखरी शक्तियों को नए सिरे से संगठित करने की कोशिशें की गई. लेकिन किसी भी उपाय से बहाव को रोका नहीं जा सका. इतिहास नियत राह पर बढ़ता गया. आंदोलन के बहुतेरे भागीदारों के लिए अब आंदोलन न सिर्फ समाप्त, बल्कि सदा के लिए समाप्त हो चुका था. किछु अन्य लोग सत्तर-दशक की सुखद स्मृतियां संजोए यह निष्फल आस लगा बैठे कि पुराने नारों को बुलंदी से दुहराने पर पुरानी परिस्थिति भी लौट आएगी. कुछ ऐसे भी थे, जो इस बचकानी मान्यता पर डटे रहे कि ऐसी हालत से तभी उबरा जा सकता है, जब येन-केन-प्रकारेण तमाम पुराने हिस्सों को पुनः एकताबद्ध कर लिया जाय.
बिखराव की इस स्थिति में आंदोलन ने तमाम किस्म की प्रवृत्तियों और गुटबंदियों को जन्म दिया और उनके बीच वाद-विवाद का अत्यंत तीखा दीर्घकालीन युद्ध छिड़ गया. तमाम किस्म के लोग, यहां तक कि वे लोग भी जिन्हें लंबे अरसे से मृतप्राय या स्थायी रूप से मौन समझा जा रहा था, अज्ञातवास से निकलकर रणभूमि में लौट आए. और उनके साथ ही ऐसे तमाम सवाल भी लौट आए, जिनके बारे में समझा जाता था कि उन्हें हमेशा के लिए खुलझाया जा चुका है.
अब समस्या यह थी कि आंदोलन को पुनर्जीवित कैसे किया जाए. कुछ लोगों को महसूस हुआ कि ‘सफाया की लाइन’, चुनाव और ट्रेड यूनियनों का बहिष्कार इत्यादि की भर्त्सना करना काफी रहेगा. कुछ अन्य लोग इससे भी आगे बढ़कर खुद सीपीआई(एमएल) की ही भर्त्सना करने लगे और सोचने लगे कि एआइसीसीसीआर को पुनर्जीवित करने पर ही समस्या हल होगी.
आपातकाल के बाद जब एसएन सिंह और उनका पीसीसी रंगमंच पर हावी हुए तो अंतिम आघात आया कानु सान्याल की ओर से, जिन्होंने दुनिया को एक नई जानकारी दी कि नक्सलबाड़ी का संघर्ष उनके ही दिमाग की उपज था; चारु बाबू के वामपंथी दुस्साहसवादी हमलों का प्रतिरोध करके खुद उन्होंने ही इस संघर्ष का निर्माण किया था; और कानू बाबू ने जब संयुक्त मोर्चा सरकार के साथ एक कार्यनीतिक समझौता कर लेने का प्रस्ताव रखा (शायद 1951 में तत्कालीन पार्टी-नेतृत्व द्वारा तेलंगाना के संघर्ष को ‘वापस लेने’ की पुरानी शैली में) तो चारु मजुमदार ने उसे ठुकराकर नक्सलबाड़ी को सिर्फ विनाश के द्वार तक पहुंचाने का काम किया था.
जबकि पश्चिम बंगाल में सामाजिक जनवाद की छत्रछाया में ये तमाम घटनाएं घटती रहीं; और कमोबेश ऐसी ही घटनाएं आंध्र में भी घटीं (श्रीकाकुलाम में नेतृत्व का बचा-खुचा हिस्सा और सीपी रेड्डी ग्रुप अबतक एसएन सिंह के साथ शामिल हो चुके थे), वहीं बिहार को तो निस्संदेह काफी पहले से ही एक भिन्न कहानी सुनानी थी.
स्वतंत्रता संग्राम की गांधीवादी रणनीति के विपरीत और उसका विकल्प बनकर, जहां बंगाल में आतंकवाद और सुभाष मार्का ‘वामपंथ’ बढ़चढ़ कर उभरा और बंबई में मजदूर वर्ग की हड़तालों ने अग्रणी भूमिका निभाई, तो तीस के दशक से ही बिहार, किसान सभा का एक शक्तिशाली आंदोलन लेकर सामने आया.
इसी बिहार के चंपारण जिले में गांधी ने किसानों के बीच अपने प्रयोग की शुरूआत की, जिसके दौरान उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ किसानों को शांतिपूर्ण अहिंसक सत्याग्रह में गोलबंद करने की रणनीति का धीरे-धीरे विकाश किया. पर दूसरी ओर उन्होंने ‘स्वदेशी’ जमींदारों के खिलाफ होनेवाले किसी भी आंदोलन को निरुत्साहित किया. कांग्रेसी नेतृत्व जब कभी स्वतंत्रता संग्राम का आह्वान करता था, तो बिहार के किसान फौरन बड़े जोश-खरोश से उसपर अमल करना शुरू कर देते थे और हर बार वे कांग्रेसी आह्वान की लक्ष्मण रेखा पार कर उसे जमींदारों के खिलाफ सक्रिय एवं अक्सर हिंसक आंदोलन में बदल देते थे. चूंकि भारत में ब्रिटिश शासन का मुख्य स्तंभ थे जमींदार, सो किसानों द्वारा इस आह्वान का अपने ढंग से अर्थ लगाना स्वाभाविक था. वास्तविक जीवन में पैदा होने वाले इस वस्तुगत अंतर्विरोधके कारण बाध्य होकर बिहार के अंतरिम कांग्रेसी मंत्रिमंडल को, जो 1937 में हुए चुनाव के जरिए शासन में आया था, जमींदारों के साथ एक लिखित समझौता करना पड़ा. भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में यह भी एक अभूतपूर्व घटना थी और इसके विपरीत, किसान सभा आंदोलन की शुरूआत यद्यपि कांग्रेस के ही एक बाजू के बतौर हुई, पर धीरे-धीरे उसने कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया और क्रांतिकारी जनवादियों के आगोश में चला आया. आगे चलकर उसका एक अच्छा-खासा हिस्सा कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गया. इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि किसान सभा आंदोलन के दौरान जातीय ध्रुवीकरण कहां नदारद हो गए थे. स्वतंत्रता आंदोलन के समूचे दैर में, बिहार में न तो कभी ब्राह्मण-विरोधी आंदोलन या आम्बेडकरवादी दलित आंदोलन को ज्यादा समर्थन मिला, और न जगजीवन राम के हरिजन कल्याण को. पर दूसरी ओर, सीपीआई और सोशलिस्टों को एक मजबूत आधार कायम करने में जरूर सफलता मिली. यदि सीपीआई के पास बिहार में आज भी एक शक्तिशाली आधार मौजूद है, तो इसका मुख्य कारण किसान सभा आंदोलन की विरासत में और पचास के दशक के तेलंगाना युग में शामिल चंद सकारात्मक उपलब्धियों में खोजा जा सकता है.
आजादी के बाद भी तेलंगाना जैसे संघर्षों का विस्फोट रोकने के लिए एक बार फिर बिहार को ही विनोबा भावे की सर्वोदयी रणनीति का केंद्र स्थल चुना गया. भूतपूर्व सोशलिस्ट जयप्रकाश, जो किसान सभा आंदोलन में भी सक्रिय रह चुके थे, बिहार में सर्वोदय के मुख्य प्रवक्ता बन गए, लेकिन उनकी लंबी-चौड़ी बातें बिहार में भूमि संबंधों की यथार्थ स्थिति के सामने नहीं टिक सकीं; और भूदान का अंत घोर असफलता में होने पर विनोबा तो वर्धा लौट गए और जेपी ने भी फिलहाल के लिए सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लिया. विनोबा और जेपी के वापस लौटते न लौटते साठ के दशक के मध्य में राजनीतिक संकट के बादल घिर आए. यही वह पृष्ठभूमि थी, जिसमें नक्सलबाड़ी की प्रतिध्वनि उत्तर बिहार में मुजफ्फरपुर जिले के मुशहरी ब्लॉक में तुरंत गूंज उठी. लेकिन थोड़े ही समय में वहां का संघर्ष धक्के का शिकार हो गया और एक बार फिर जेपी मैदान में कूद पड़े -- इस बार वे नव-सर्वोदयी रणनीति से लैस थे, जिसे बाद में उन्होंने ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के सुप्रसिद्ध सिद्धांत में विकसित किया.
जहां एक ओर जेपी ‘नक्सलवाद के आतंक’ का मुकाबला करने की कसम खाकर आगे बढ़ रहे थे, वहीं दूसरी ओर क्रांतिकारी कम्युनिस्ट भी बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में किसान संघर्षों का विकास करने की कोशिश कर रहे थे; हालांकि इसमें उन्हें आरंभ में ज्यादा सफलता नहीं मिली. लेकिन 1971 के अंत में, जब यहां भी तमाम चीजें हू-ब-हू पश्चिम बंगाल की राह पर बढ़ती प्रतीत हो रही थीं, तभी बिलकुल अप्रत्याशित रूप से दक्षिण बिहार के भोजपुर से, और दूसरे नंबर पर पटना से उत्साहवर्धक संकेत मिलने शुरू हुए. भोजपुर और पटना के ये संघर्ष, जिनकी जड़ें वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों की गहराई में हैं, एक नये ढरें पर शुरू हुए और वहां एक नई किस्म की स्थानीय नेतृत्वकारी शक्ति उभरकर सामने आई.
समूचे देश के खेतों और कारखानों में, टोलों और गलियों में, यातनागृहों और जेल की कोठरियों में गिरा हमारे बहादुर शहीदों का बेशकीमती खून आसमान में पुंजीभूत हो गया और भोजपुर के क्षितिज पर लालिमा बनकर छा गया. परवर्ती काल में साबित हो चुका है कि यह लालिमा किसी उल्का की नहीं, बल्कि सितारे की है, ऐसे लाल सितारे की, जो हमेशा के लिए यहां चमकता रहेगा.
दिलचस्प बात यह है कि एक बार एसएन ने भोजपुर के संघर्ष पर यह कहकर कीचड़ उछाला था कि यह संघर्ष जगजीवन राम के इशारों पर तथा उन्हीं के पैसों से चलता है और बाद में भी पीसीसी नेतृत्व के प्रभावशाली हिस्से ने भोजपुर को कोरा जातीय संघर्ष बताकर खारिज करना ही बेहतर समझा. मेरे साथ बातचीत के दौरान दिवंगत कामरेड सीपी ने यह बताया था कि भोजपुर के बारे में चीनी कामरेडों द्वारा बार-बार आग्रहपूर्वक पूछताछ करने के बावजूद भास्कर नन्दी ने इसी किस्म के आरोप दुहराना जारी रखा. मगर सीपी का विचार उनसे भिन्न था और वे तो यह भी मानने के लिए तैयार थे कि सफाये पर जिस रूप में भोजपुर में अमल हुआ है, उसका एक व्यावहारिक औचित्य है.
किसान संघर्ष का अपना स्वतंत्र गतिपथ और पार्टी द्वारा उसे चेतना प्रदान करने का प्रयास – ये दोनों चीजें एकता और संघर्ष के एक खास दौर से गुजरीं. पार्टी ने किसानों के बीच के हिरावलों को कम्युनिस्ट तत्वों में विकसित करने हेतु कठिन परिश्रम किया तथा वह हमेशा आंदोलन कि स्वतःस्फूर्त नकारात्मक प्रवृत्तियों को दूर करने और उसे एक सुसंगठित स्वरूप प्रदान करने की कोशिश चलाती रही. पर दूसरी ओर, पार्टी ने संघर्ष और संगठन के रूपों के मामले में अपनी जड़सूत्रवादी धारणाओं को भी आंदोलन पर थोपने की पुरजोर कोशिशों कीं, और यकीनन ये सारी कोशिशों नुकसानदेह साबित हुई.
अंततोगत्वा आपातकाल के बाद बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में समूची पार्टी के अंदर चलाए गये शुद्धीकरण आंदोलन ने फिर से संतुलन कायम करने में मदद की, और लड़खड़ाते किसान संघर्ष को नया आवेग प्रदान किया. इसके साथ ही हम व्यापक किसान जागरण के मौजूदा दौर में आ पहुंचे. और विड़ंबना देखिए कि इस समूचे घटनाक्रम का शिकार बने एसएन सिंह, जो बिहार के ही रहनेवाले थे, और वह भी भोजपुर के. चारु मजुमदार के भूत ने उन्हें बिहार से खदेड़ दिया और राज्य के कम्युनिस्ट क्रांतिकारी खेमे में उनको सर्वाधिक बदनाम व्यक्ति माना जाने लगा.
संयोग की बात है कि सीपीआई(एमएल) के प्रथम विभाजन का, और अबतक के एकमात्र बुनियादी विभाजन का ‘श्रेय’ भी किसी और को नहीं, स्वयं एसएन सिंह के नेतृत्ववाली बिहार राज्य कमेटी को ही मिलता है. बाकी तमाम विभाजन या तो बनावटी और अस्थाई हैं, या फिर उनका कोई खास महत्व नहीं है. यद्यपि चंद ग्रुपों द्वारा एक व्यापक ‘वामपंथी’ लाइन सूत्रबद्ध करने के प्रयास पहले किए जा चुके हैं और ये प्रयास अब भी जारी हैं, पर ऐसी कोई लाइन आज तक सामने न आ सकी. अर्धअराजकतावाद को आज भी हद-से-हद संघर्ष एवं संगठन के रूपों और तरीकों के सवाल पर बहस चला रही एक प्रवृत्ति ही कहा जा सकता है. इस प्रवृत्ति के शिकार बने लोगों का एक बड़ा हिस्सा समय बीतने के साथ और अधिक अनुभव हासिल करेगा और अंततः मार्क्सवाद-लेनिनवाद के आगोश में जरूर लौट आएगा. इसके विपरीत, एसएन ने स्पष्टतः एक वैकल्पिक कार्यनीतिक लाइन पेश की थी जिसमें सुपरिभाषित सामाजिक शक्तियों के साथ सुपरिभषित संबंधों की धारणा पेश की गयी थी. और इसी वजह से उनमें बार-बार जान फूंकी गयी, तथा आज उनकी मृत्यु के बाद भी वे हमारे आंदोलन के एक ध्रुव पर खड़े अपना अस्तित्व जतला रहे हैं. चारु मजुमदार के साथ उनका मतविरोध इसी सवाल पर था कि धनी किसानों के साथ कैसा संबंध रखा जाए. जहां चारु मजुमदार ने धनी किसानों के साथ संघर्ष के जरिए उन्हें तटस्थ बनाने पर जोर दिया, वहीं इसके विपरीत एसएन ने धनी किसानों के साथ एकता कायम करने पर जोर दिया. आगे चलकर यही लाइन जोतदार वर्ग के एक हिस्से के साथ तथा पूंजीवादी विपक्ष के साथ एका कायम करने की लाइन में बदल गई (भास्कर नन्दी ने इस एकता को पूर्णतः भिन्न प्रस्थापना के आधार पर सैद्धांतिक रूप देकर सामयिक तौर पर एसएन को भी छका दिया. पर जल्द ही एसएन ने नन्दी की इस गड़बड़ सैद्धांतिक कारगुजारी से अपना पिंड छुड़ा लिया).
बाद में संयुक्त मोर्चे के प्रश्न पर एसएन ने और हमने कांग्रेस शासन के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी विकल्प का निर्माण करने की समान प्रस्थापन से आरंभ किया. पर हमारी समानता यहीं खत्म हो गयी. क्योंकि एसएन ने हमसे बिलकुल भिन्न रास्ता चुना. वह था जेपी के साथ गठजोड़ करना, जनता पार्टी के नेताओं और तमाम उदारवादियों के साथ मेलजोल बढ़ाना, भूमि क्रांति की मुख्य भूमिका पर कीचड़ उछालना इत्यादि. नौबत यहां तक पहुंची कि वे यह विख्यात सूत्र सामने ले आए कि जनवादी क्रांति पर सर्वहारा का नेतृत्व हो भी सकता है या नहीं भी हो सकता है. यह सच है कि कई किस्म के दबावों और बाध्यताओं के कारण बाद में एसएन को अपने कई वक्तव्यों पर समझौता भी करना पड़ा था. मगर यह समझौता मुख्यत: दांवपेंच की शक्ल में था और इससे उनकी बुनियादी स्थति में कोई रद्दोबदल नहीं हुआ.
दूसरी ओर, हमने साहसपूर्वक किसान संघर्षों का विस्तार करने की दिशा का पक्षपोषण किया, जो बेशक धनी किसानों के एक अच्छे-खासे हिस्से पर चोट करती है. क्योंकि बिहार में ये धनी किसान सामंती चालचलन पर ही अमल करते हैं और इन्हीं संघर्षों के आधार पर हमने कांग्रेसी शासन का विकल्प बनाने के लिए मजदूरों, किसानों और निम्नपूंजीपति वर्ग का एक क्रांतिकारी गठबंधन बनाने की कोशिश की. यद्यपि दूसरी ओर हमने पूंजीवादी विपक्ष की पार्टियों और गुटों के साथ कार्यनीतिक दांवपेंचों की गुंजाइश से भी इनकार नहीं किया.
दो कार्यनीतिक लाइनों के बीच चल रहे इस संघर्ष से घनिष्ठतः जुड़कर ही बिहार में किसान संघर्ष विकसित एवं विस्तृत हुआ है.
चूंकि बिहार का किसान संघर्ष अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की एक बदली हुई स्थिति में उभरा था, अतएव उसे खुले तौर पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थन नहीं प्राप्त हुआ और देश में मौजूद तीखी गुटबंदियों के कारण, विभिन्न कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुपों ने इसके प्रति समर्थन तो दूर सहानुभूति तक न जाहिर की. यह परिस्थिति नक्सलबाड़ी और श्रीकाकुलाम के संघर्षों के दौरान मौजूद परिस्थिति से बिलकुल भिन्न थी. फिर भी, इस आंदोलन के प्रति कई हलकों में सचमुच भारी एकजुटता देखी गई. वास्तव में, यदि इसे भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के बहुतेरे अनुभवी कामरेडों और एकताबद्ध सीपीआई(एमएल) के महत्वपूर्ण नेताओं का बहुमूल्य मार्गदर्शन न मिला होता, यदि इसे विभिन्न कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुपों की कतारों तथा मार्क्सवादी शिक्षाविदों, क्रांतिकारी जनवादियों, नागरिक स्वतंत्रता संगठनों, खोजी पत्रकारों, प्रसिद्ध सांस्कृतिक हस्तियों और प्रगतिशील प्रवासी भारतीयों से सहायता और सहयोग न मिला होता, और यदि इसे चीन, नेपाल, फिलीपीन्स और पेरू की कम्युनिस्ट पार्टियों तथा अन्य विदोशी मित्रों का समर्थन न मिला होता, तो ऐसी हालत में इस आंदोलन को इतने लंबे अरसे तक बरकरार रख पाना संभव नहीं होता.
बिहार का संघर्ष आजकल उन तमाम जिलों में फैल रहा है जिनको पुरानी किसान सभा के जमाने की जुझारू विरासत प्राप्त है. ये वे जिले हैं जहां बड़ी जमींदारियां कम हैं; मगर जमींदारी का आधार विस्तृत है और इसके दायरे में न सिर्फ भूतपूर्व बिचौलिए, बल्कि पहले के शक्तिशाली रैयत भी शामिल हैं. बिहार के अन्य भागों की अपेक्षा इन जिलों में खेती के आधुनिक साधनों का अधिक इस्तेमाल किया जाता है, परिवहन की सुविधाएं बेहतर हैं और ग्रामीण अर्थव्यवस्था अधिक स्पष्ट रूप से बाजार-केंद्रित है. इन जिलों में भूमि संबंधों के जो मुद्दे उभर आए हैं, वे समूचे भारत में ग्रामीण गरीबों को प्रभावित करते हैं. उदाहरणार्थ – न्यूनतम मजदूरी; पट्टेदारी का अधिकार; परती, बेनामी, सामुदायिक एवं सरकारी जमीन पर कब्जा; मजबूरी में फसल की बिक्री की रोकथाम; सस्ती दर पर और आसानी से तमाम लागत सामग्रियों का इंतजाम इत्यादि. संक्षेप में, यह अंचल काफी हदतक भारतीय कृषि के बदलते ढांचे का विशिष्ट प्रतिनिधि है.
भारतीय कृषि आज एक नए किस्म के संकट का सामना कर रही है. यह संकट हरित क्रांति की रणनीति के संतृप्त स्थिति में पहुंच जाने तथा ‘अति उत्पादन’ की स्थिति पैदा होने के फलस्वरूप आया है. इस संकट का सीधा परिणाम यह हुआ कि भारत के कुछ खास भागों में फार्मरों का एक नई किस्म का आंदोलन उभरा. खासकर शरद जोशी जैसा शक्तिशाली प्रवक्ता भी मिला. श्री शरद जोशी अपने सैद्धंतिक सूत्रीकरण में ग्रामीण गरीब भारत[1] और समृद्ध शहरी इंडिया के बीच मौजूद अंतरविरोध[2] को उजागर करते हैं. वे इस बात पर जोर देते हैं कि किसानों का आर्थिक उत्थान ही उन तमाम बीमारियों की एकमात्र दवा है, जिनका आज हमारा देश सामना कर रहा है. इसके लिए वे कृषि उत्पादों के लाभकारी मूल्य की एकसूत्री मांग पर अपना सारा जोर लगा देते हैं. वे इस बात पर विश्वास नहीं करते कि ग्रामीण आबादी के विभिन्न हिस्सों के बीच किसी बड़े किस्म के संघर्ष का कोई मुकम्मिल आधार मौजूद है. और कहना न होगा कि किसानों से उनका मतलब सिर्फ धनी व मध्यम फार्मर से है. खेतिहर मजदूरों पर आखिर वे कोई खास जोर क्यों नहीं देते? कारण, श्री जोशी यह मानते हैं कि किसानों को प्राप्त होनेवाले किसी भी आर्थिक लाभ का एक हिस्सा खुद-ब-खुद रिस कर मजदूरी की शक्ल में खेतिहर मजदूरों तक पहुंच जाएगा. दूसरी बात यह है कि इतिहास में, सामाजिक बदलाव लाने की प्रक्रिया में, सबसे निचले तबके की जनता ने कभी हिरावल भूमिका नहीं अदा की है.
आंदोलनात्मक कार्यपद्धति अपनाने के बावजूद, ग्रामीण विकास पर इस किस्म का जोर देना और उसके साथ-साथ गैर पार्टी राजनीति पर अड़े रहना तथा कम्युनिस्ट-विरोधी पूर्वाग्रहों पर कायम रहना ऐसे पहलू हैं, जिन्होंने श्री जोशी को सर्वोदयपंथियों का प्रिय पात्र बना दिया है, जो शायद विनोबा और जेपी के देहावसान के बाद एक नए मसीहा की तलाश में हैं.
तो इस प्रकार, अब किसान आंदोलन के अंदर बिहार से चलने वाली पूर्वी हवा और महाराष्ट्र से चलनेवाली पश्चिमी हवा के बीच बरतरी की लड़ाई खुलकर सामने आ गई है. महाराष्ट्र के फार्मर आंदोलन के बिलकुल विपरीत, बिहार के किसान संघर्ष की अगली कतार में खड़े हैं विशाल बहुसंख्यक खेतिहर मजदूर, और उनके साथ गरीब व निम्न मध्यम किसान. कम-से-कम आंदोलन के वर्तमान दौर में तो कुलकों की एक अच्छी-खासी संख्या आक्रमण का सीधा निशाना बनकर विभाजन रेखा के उस पार खड़ी है. कुछेक इलाकों में तो इन कुलकों में पिछड़ी जातियों के लोग भी शामिल हैं. लेकिन यद्यपि बिहार का किसान आंदोलन सर्वांगीण भूमिसुधार पर सबसे ज्यादा जोर देता है; फिर भी, वह हरित क्रांति के संकट से उत्पन्न होनेवाले उन मुद्दों को अपने कार्यक्रम में जरूर स्थान देता है, जो मध्यम व उच्च-मध्यम किसानों की बहुसंख्या को प्रभावित करते हैं.
पूरब और पश्चिम से बहनेवाली इन दो हवाओं के बीच छिड़े संघर्ष का परिणाम अभी तक अनिश्चित है. भारतीय इतिहास के रंगमंच पर संभवतः सर्वाधिक दिलचस्प युगांतकारी नाटक के अंतिम दृश्यों का पर्दा उठना अभी बाकी है. फिर भी, जब एक अनजाने, गुमनाम, गर्द-गुबार से सने कीचड़ भरे रास्तों वाले छोटे से कस्बे अरवल में किसानों के सबसे गरीब तबके के लोगों की अन्यथा ‘मामूली सी मौत’ बिहार में सत्ताधारियों के राजनीतिक संकट का स्वरूप तय करने लगे, तो बेहिचक ऐलान किया जा सकता है कि आखिरकार नायक रंगमंच पर आ पहुंचे हैं.
पाद लेख :
1. ईमानदारी के लिहाज से यहां स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि श्री शरद जोशी अपने ग्रामीण भारत में शहरी गरीबों के कुछ हिस्सों, मसलन झुग्गी-झोपड़ीवासियों को भी शामिल करते हैं; जिन्हें वे गरीबी की मार से देहात छोड़ने पर मजबूर हुए किसान मानते हैं.
2. दिलचस्प बात यह है कि श्री शरद जोशी अपने पक्ष में, लेनिन के विरुद्ध रोजा लक्जमबर्ग के वक्तव्य का हवाला देते हैं. वे स्तालिन द्वारा कुलकों से निपटने के लिए अपनाए गए तरीकों के सख्त खिलाफ हैं. पर माओ के बारे में उनके विचारों की कोई जानकारी नहीं मिलती.