(छठी पार्टी कांग्रेस, 1997 की राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट से उद्धृत)
1. सार संक्षेप में, हम देखते हैं कि भूमि प्रश्न कई इलाकों में अब भी मुख्य प्रश्न बना हुआ है. तथापि, चूंकि भूमि सुधार को लागू करने की मात्रा भिन्न-भिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न है, अतः भूमि सुधार को आगे बढ़ाने का सामान्य नारा विभिन्न राज्यों में अलग-अलग होगा.
2. सार्वजनिक सम्पत्ति यानी आहर, पोखर, तालाब तथा लघु सिंचाई स्रोतों, नदी तथा बालू तट इत्यादि पर जन-नियंत्रण संघर्ष का एक प्रमुख मुद्दा है. आमतौर पर इनपर सामंती एवं माफिया गिरोहों का कब्जा रहता है.
3. मजदूरी, पुरुषों और महिलाओं को समान काम के लिए समाज मजदूरी, बेहतर कार्य-स्थितियां, वास भूमि और पक्के घर इत्यादि देशभर में ग्रामीण सर्वहारा की समान मांगें हैं. भूमि आबंटन के मामले में मांग की जानी चाहिए कि पट्टों को पुरुषों एवं महिलाओं के नाम समान रूप से आबंटित किया जाना चाहिए.
4. पंचायतों में तथा प्रखंड कार्यालयों में – जहां ग्रामीण गरीबों के बीच राहत के बतौर बांटने के लिए अथवा निम्न व मध्यम किसानों के लिए आई धनराशि को, सत्ता पर नियत्रंण रखनेवाले शक्तिशाली भूस्वामी व कुलक समुदायों के साथ सांठगांठ में, भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा हड़प लिया जाता है – भ्रष्टाचार के मुद्दे जनगोलवन्दी के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं.
5. जनजातीय प्रश्न, चाहे झारखंड आंदोलन हो अथवा पर्वतीय जिलों में, तथा असम के अन्य आदिवासी इलाकों में होनेवाले आंदोलन, अथवा आंध्रप्रदेश के गिरिजन आंदोलन, सभी अंतर्वस्तु में कृषक प्रश्न हैं, और इसीलिए उनकी जमीनों का सूदखोरों -व्यापरियों द्वारा हड़पा जाना, जंगलात की जमीन और उपज पर उनका अधिकार इत्यादि प्रमुख प्रश्न हैं.
6. जहां कहीं आंदोलन तीव्र हो जाता है, भूस्वामियों की निजी सेनाएं अथवा प्रतिक्रियावादी राजनीतिक पार्टियों के गुंडे, पार्टी नेताओं व कार्यकर्ताओं की हत्या करने तथा जनहत्या के उपायों का सहारा लेते हैं. पुलिस द्वारा भी अनिवार्य रूप से दमन ढाया जाता है.
7. अराजकतावादी संगठन, जो धनराशि उगाहने वाली मशीनों में पतित हो रहे हैं, हमारे कार्यकर्ताओं तथा जनसमुदाय की हत्या के अभियान में लिप्त हो रहे हैं; और अपने संदेहास्पद संबंधों को ढंकने के लिए, संगठित जनांदोलनों को नष्ट-भ्रष्ट करने के अपने घृणास्पद लक्ष्य को ढंकने के लिए, वे हर संभव अतिवाम लफ्फाजी का सहारा ले रहे हैं.
इन बिंदुओं पर गंभीरता से ध्यान देना जरूरी है :
(क) हमारा विचार है कि कृषि परिस्थिति में विचारणीय अंतर रहने के कारण, राष्ट्रीय स्तर पर कोई सामान्य किसान आंदोलन, और इसीलिए कोई सुसंगत अखिल भारतीय किसान संगठन कायम करने की कोई खास प्रासंगिकता नहीं है. अनुभव का आदान-प्रदान, कभी-कभार नीति संबंधी वक्तव्य जारी करने और सेमिनार/वर्कशाप आयोजन आदि के लिए अखिल भारतीय समन्वय समिति ही काफी है. यहां तक कि राज्यों में भी, जिला या आंचलिक स्तर के किसान सभा किस्म के संगठनों को काफी महत्वपूर्ण स्वायत्त भूमिका अदा करनी पड़ सकती है, क्योंकि बड़े राज्यों में भिन्न-भिन्न अंचलों में भी परिस्थितियां बेहद भिन्न रहती हैं. मांग की विशिष्टता पर आधारित अथवा क्षेत्र की विशिष्टता पर आधारित किसान संगठन भी व्यापक किसानों को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं.
जिला और स्थानीय स्तरों पर किसान सभा के सांगठनिक कार्य संचालन को सुदृढ़ करने की ओर उचित ध्यान दिया जाना चाहिए. कई इलाकों में किसान सभा की सदस्यता, किसानों के बीच हमारे प्रभाव की तुलना में तो बहुत कम है ही, अक्सर वह हमारे कार्यक्रमों में शामिल होनेवाले लोगों की संख्या से भी काफी कम होती है. ग्राम कमेटियों का सजीव कार्य-संचालन, यहां तक कि दुश्मन के तीव्र दमन की स्थितियों में भी, किसान सभा संगठनों की सजीवता की कुंजी है. उन्हें नियमित रूप से किसान सभा की ग्राम स्तरीय जनरल बाडी मीटिंगें बुलानी चाहिए, आंदोलन की समस्याओं पर बहस करनी चाहिए और सदस्यता का नवीनीकरण (यहां तक कि भर्ती भी) जनरल बाडी में ही करना बेहतर होगा. ग्राम कमेटियों को जनता की राजसत्ता की स्थानीय संस्थाओं के बतौर विकसित करने के परिप्रेक्ष से सुदृढ़ करना चाहिए. स्थानीय मिलिशिया का प्रशिक्षण और ग्राम रक्षादस्तों का निर्माण योजनाबद्ध रूप से ग्रहण किया जाना चाहिए.
मुकदमों की देखरेख करने के लिए एक कानूनी सेल और जेल में बंद कामरेडों से सम्पर्क करने के लिए एक विशेष टीम का विकास करना आवश्यक है.
जहां सम्भव हो, किसान सभा में महिला सेल का गठन भी किया जा सकता है.
जनता के बीच के अन्तरविरोधों को देखते ही सीधासीधी पार्टी द्वारा हल किए जाने के बजाय, स्थानीय किसान सभा की इकाइयों द्वारा हल किया जाना बेहतर होगा. अन्यथा ऐसा कोई प्राधिकार नहीं रहेगा जिसके पास पीड़ित व्यक्ति अपनी फरियाद रख सके, और इसके कारण उनसे अलगाव पैदा होगा. हमारा अनुभव दिखाता है कि अराजकतावादी ग्रुप और रणवीर सेना जैसी शक्तियां ऐसे अंतरविरोधों का हमारे खिलाफ इस्तेमाल करने में माहिर हैं. अतः जनता के बीच के अंतरविरोधों का दक्षातापूर्वक हल निकालना चाहिए और इस काम को किसान सभा द्वारा किया जाना चाहिए.
(ख) खेतमजदूरों का सवाल कृषि के क्षेत्र में और राष्ट्रीय राजनीति में अधिकाधिक महत्व ग्रहण करता जा रहा है. उनसे संबंधित केन्द्रीय कानून की मांग शक्तिशाली होती जा रही है. उदारीकरण और वैश्वीकरण के राज में कृषि सुधारों की प्रक्रिया उनके सवालों को और भी ज्यादा सामने लाएगी. कृषि सुधार अनिवार्य रूप से कृषि में पूंजीवाद को, चाहे वह किसी भी किस्म का क्यों न हो, बढ़ावा ही देंगे, क्योंकि वह है तो पूंजीवाद ही.
इसके अलावा, पहले की मध्यम जातियों के कुछेक हिस्से जिस कदर सत्ता समुदायों के महत्वपूर्ण अंग बनते जा रहे हैं, कृषि आंदोलन को पूंजीवादी फार्मरों व धनी किसानों के व्यापक हिस्से को अपना निशाना बनाना ही पड़ेगा. अतः खेतमजदूरों के आंदोलन महत्वपूर्ण राजनीतिक अर्थ ग्रहण करेंगे. भविष्य के लिए प्रस्तुति के लिहाज से, हमें एक तैयारी समिति गठित करनी होगी जो इस मुद्दे का अध्ययन करे और एक खेतमजदूर संगठन का निर्माण करने की संभावना की तलाश करे.
(ग) जब हम निजी सेनाओं के खिलाफ खिसाव-थकाव के युद्ध में फंस जाते हैं, तो किसान मुद्दे पर किसान सभा का कार्यसंचालन या आंदोलन का कार्य पीछे छोड़ दिया जाता है. ऐसी स्थिति यकीनन हमपर लाद दी जाती है, और हम इससे कतरा नहीं सकते. मगर फिर भी किसान सभाओं के कार्य संचालन को कैसे जारी रखा जाए, यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है, जिसका हल हम अभी तक नहीं खोज पाए हैं. हमने बार-बार ऐसे आंदोलनों को सक्रिय करने के लिए अपेक्षाकृत शिथिलता के किसी दौर का इस्तेमाल करने की कोशिश की, मगर हम किसी उपयुक्त कार्यविधि का विकास नहीं कर पाए. शायद ऐसे मोड़ों पर राज्य-स्तरीय किसान सभा नेतृत्व की पहलकदमी निर्णायक महत्व की चीज साबित हो सकती है. और मांग की विशिष्टता पर आधारित संगठन भी ऐसी स्थितियों से निपटने में मददगार हो सकते हैं.
(घ) हत्याकांडों की जिस बाढ़ का हमने पिछले कुछेक वर्षों में सामना किया है, उसने पार्टी के अंदर व बाहर कई सवाल खड़े कर दिए है. सबसे सहज सूत्रीकरण अराजकतावादियों तथा मीडिया की सबसे सुरक्षित दुनिया में रहनेवाले दक्ष टिप्पणीकारों द्वारा पेश किया गया, जिसके अनुसार जबसे सीपीआई(एमएल) ने हथियारबन्द संघर्ष त्याग दिया है, और संसदीय रास्ता अपना लिया है, तो भूस्वामी अब सत्तर दशक का, यानी 25 वर्ष पहले किए गए सफायों का बदला ले रहे हैं! यह बेहद बेवकूफी भरा, अनिष्टकारी और परले सिरे का आत्मपरक चिन्तन है.
मार्क्सवादी होने के नाते हम समझते हैं कि, एक नई किस्म की निजी सेना का उदय और हत्याकांडों की मौजूदा बाढ़, वर्तमान राजनीति की गत्यात्मकता से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई चीज है. अगर कोई गहराई से जांच करे, तो वह आसानी से देख सकता है कि निजी सेनाओं की गतिविधियों की तीव्रता मुख्ततः उन इलाकों में केन्द्रित है, जहां हमने प्रमुख शासक पार्टियों को संसदीय चुनौती दे डाली है. भोजपुर, सन्देश व सहार तथा सीवान, मैरवां व दरौली ऐसे ही क्षेत्र हैं. यहां तक कि एमसीसी द्वारा विष्णुगढ़ में झामुमो(मरांडी) की सरपरस्ती पर और बाराचट्टी की सीमा पर स्थित चतरा में राजद की सरपरस्ती पर की गई हत्याएं हमारी चुनावी संभावनाओं को ही दुर्बल करने के लिहाज से खेली गई धूर्त चालें हैं. चूंकि इन दोनों चुनाव क्षेत्रों में हम क्रमशः झामुमो(मारंडी) और राजद के लिए मजबूत खतरा बन चुके हैं. चतरा हत्याकांड के कुछ ही दिन बाद बाराचट्टी के इलाकों की ओर एमसीसी के अभियान से इस बात की और अधिक पुष्टि हुई है, जिसमें उन्होंने जनता को धमकी देकर माले का साथ छोड़ने के लिए कहा. इसके तुरंत बाद बाराचट्टी में राजद ने अभियान चलाया जिसमें उन्होंने जनता से सीपीआई(एमएल) से निकल आने को कहा. बगोदर पर निशाना केंन्दित करना इसी महायोजना का एक अंग है.
अगर एक ओर प्रशासकीय मशीनरी के सक्रिय सहयोग से निजी सेनाओं को हत्याकांड रचाने की छूट दी जाती है, तो दूसरी ओर, इसके बाद लालू यादव वहां अपनी राहत की गठरी के साथ जा पहुंचते हैं, और जनता को हथियार न उठाने, पढ़ाई-लिखाई में मन लगाने इत्यादि की अपील करते हैं. इसी तरीके से कसाई और पुरोहित एक-दूसरे के पूरक बनते हैं. अराजकतावादी कानून व्यवस्था के लिए कितनी भी समस्याएँ क्यों न खड़ी करें, वे शासक वर्गों के राजनीतिक वर्चस्व के लिए कोई चुनौती नहीं बनते. अगर सत्तर के दशक में चुनाव के बहिष्कार का आह्वान चरम क्रांतिकारी अग्रगति की अभिव्यक्ति था, तो नब्बे के दशक में वह चरम अवसरवादी विश्वासघात में पतित हो चुका है. इसी तरह परिस्थिति के बदलाव से चीजें द्वन्द्वात्मक रूप से अपने विरोधी तत्वों में बदल जाती हैं. चुनाव बहिष्कार घाघ पूंजीवादी राजनीतिज्ञों के हाथों ऐसे अराजकतावादी ग्रुपों का इस्तेमाल करके अपना उल्लू सीधा करने का आसान जरिया बन चुका है. इसके असंख्य उदाहरण हैं, जहां एमसीसी और पार्टी यूनिटी कार्यकर्ताओं ने बिहार के चुनावों में जनता दल के उम्मीदवारों के लिए सक्रियतापूर्वक वोट जुटाए हैं.
फिर यह भी सम्पूर्णतः झूठा प्रचार है कि हमने सशस्त्र प्रतिरोध की नीति त्याग दी है. वास्तविकता यह है कि पहले के किसी भी वक्त की तुलना में जनसमुदाय का आमतौर से हथियारबन्द हो जाना कई गुना बढ़ गया है. बिहार के सैकड़ों गांवों में दोनों ओर से गोली चलने की नियमित घटनाएं संसदीय राजनीति के इन तमाम वर्षों में बढ़ती ही गई हैं. तमाम जिला कमेटी नेतृत्व सहित राज्य भर में हमारे हजारों कामरेड प्रतिरोध संगठित करने के चलते वारंटेड हैं, और उन्हें लगभग भूमिगत स्थिति में ही काम करना पड़ता है.
संक्षेप में, यह हमारा पीछे हटना नहीं बल्कि यथास्थिति की शक्तियों के आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक प्रभुत्व को चुनौती देनेवाली एक प्रमुख शक्ति के बतौर हमारी अग्रगति है, जिसने हमारे खिलाफ इन तीखे आक्रमणों की स्थिति पैदा की है. यह कत्तई नहीं भूलना चाहिए कि राजनीतिक पहलकदमियां, लोकप्रिय मुद्दें पर आंदोलन तथा जन-प्रतिरोध विकसित करना सामंती शक्तियों एवं राज्य के सम्मिलित आक्रमण की चुनौती का मुंहतोड़ जवाब देने के प्रमुख तत्व हैं. सवाल इस या उस सेना को किसी भी तरह छिन्न-भिन्न कर देने का नहीं है. बल्कि ज्यादा महत्वपूर्ण बात है जनता की राजनीतिक चेतना का मान ऊंचा उठाना, सामाजिक व राजनीतिक शक्ति-संतुलन में बदलाव लाना और इस प्रक्रिया में जनता की व्यापकतम गोलबन्दी की गारंटी करना. अन्यथा हम एक लड़ाकू जत्था मात्र रह जाएंगे. फिर भी, चूंकि दीर्घकालीन सशस्त्र मुठभेड़ें बिहार में किसान आंदोलन का अविच्छेद्य अंग बन गई हैं, पार्टी को अवश्य ही अपनी सतर्कता बढ़ानी होगी. खासकर, दुश्मन पर निर्णायक हमले करना अत्यधिक महत्वपूर्ण है. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हमें सशस्र जत्थेबंदियों को उच्चतर स्तर पर संगठित करना होगा.