लेकिन सरकारी कमखर्ची, यानी बांड बाजारों को भरोसा दिलाने के प्रयास में (सरकार द्वारा) खर्च में भीषण कटौती ने खास तौर पर यूरोप में बढ़ती राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया है, जहां जनसमुदाय सड़कों पर उतर आया है और सरकारों को गिरा रहा है. और भला ऐसा क्यों न हो ? शासक पूंजीपति वर्ग पूरी बेशर्मी के साथ मेहनतकश जनता का आह्नान कर रहा है कि वह सरकारी कमखर्ची की यातना झेले, लेकिन उनकी नीतियां ही व्यक्तियों एवं राष्ट्रों पर कर्ज के पहाड़ जैसे बोझ लादने के लिये एकमात्र जिम्मेवार हैं. उदाहरणार्थ, अमरीका में व्यक्तिगत एवं पारिवारिक ऋण के साथ-साथ राष्ट्रीय ऋण भी आसमान पर चढ़ गया है और अनुमान किया जाता है कि वह वर्ष 2012 के लिये राष्ट्रीय आय के 75 प्रतिशत तक पहुंच चुका है, जबकि रोनाल्ड रीगन के जमाने में वह द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के दौर के सबसे निचले स्तर यानी 26 प्रतिशत पर था और वर्ष 2008 में 40 प्रतिशत था.

राष्ट्रीय ऋण में इस बढ़ोत्तरी के पीछे सिलसिलेवार ढंग से आने वाली सरकारों द्वारा अपनाई गई तीन प्रमुख नीतियां थीं: अतिमहाशक्ति के परिलक्षण, जो सामरिक मद में खर्च के लिये भारी मात्रा में संसाधनों को बर्बाद कर देती है ऋ कारपोरेशनों और अमीरों से वसूले जा रहे करों में भारी कटौती, जिसके चलते राजस्व बहुत अधिक घट जाता है; और लालची बैंकों को संकट से राहत दिलाने के लिये महंगा पैकेज देना. इस प्रकार, पूरी जिम्मेवारी तो सरकारों की है. तो फिर जनसमुदाय से अब तथाकथित कमखर्ची का बोझ उठाने को क्यों कहा जाय ?

इसके अलावा, ठीक ऐसे समय सरकारी खर्च में कटौती लाई जा रही है जब वास्तव में इसकी उलट नीतियों -- सरकार द्वारा उत्पादक निवेश में तीखी बढ़ोत्तरी करने और वृद्धि एवं रोजगार को आवेग देने के लिये महत्वपूर्ण सामाजिक योजनाओं पर व्यय को काफी बढ़ाने वाली नीतियों की जरूरत है. जैसा अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) द्वारा वर्ष 2011 के लिये जारी रिपोर्ट में कहा गया है:

“सार्वजनिक ऋण और घाटों में कमी लाने के प्रयासों ने श्रम बाजारों एवं सामाजिक योजनाओं पर अनुपात से कहीं ज्यादा और विपरीत-फलदायी ढंग से केन्द्रित किया है. ... उदाहरणार्थ, आमदनी में मदद करने वाली योजनाओं में कटौती करना अल्पकालीन तौर पर लागत में कटौती ला सकता है, मगर इससे गरीबी भी बढ़ सकती है और उपभोग में गिरावट आ सकती है, जिससे वृद्धि की क्षमता और व्यक्तियों के कल्याण पर दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे. सक्रिय श्रम बाजार पर किये जाने वाले खर्च में जीडीपी के महज 0.5 प्रतिशत की वृद्धि करने से अलग-अलग देशों में रोजगार में मध्यम-कालीन तौर पर 0.2 से लेकर 1.2 प्रतिशत तक की वृद्धि होगी. इसके अलावा, रोजगार-पक्षीय कार्यक्रम सार्वजनिक खजाने के लिये कोई खर्चीली चीज नहीं हैं ... टैक्स वसूली, खासकर सम्पत्ति पर और खास किस्म के वित्तीय लेनदेन पर टैक्स वसूली के आधार को विस्तारित करने की संभावनाएं मौजूद हैं. इस किस्म के कदम आर्थिक दक्षता में इजाफा करेंगे और सुधार के बोझ को अपेक्षाकृत समान तौर पर विभाजित करने में सहायक होंगे और इस तरह सामाजिक तनावों को हल्का करने में भी सहायक होंगे.”

मगर वित्तीय सम्राटों को यह स्वीकार्य नहीं है. उनका वित्तीय लेनदेन पर टैक्स लगाये जाने का विरोध तो समझ में आता है, मगर उतना ही तो सब नहीं है. जब राजकीय फंड को निजी वित्तीय संस्थानों के बरास्ते प्रवाहित किया जाता है, तो वे इसका इस्तेमाल ऊंचे जोखिम और ऊंचे मुनाफे वाले निवेशों में, जैसे ग्रीस और स्पेन को ऋण देने तथा शेयर एवं मुद्रा बाजारों की गतिविधियों में निवेश में लगाने में कर सकते हैं. प्रत्यक्ष राजकीय खर्च ठहराव को दूर करने में कुछ योगदान कर सकता है, लेकिन वह व्यापक विस्तार वाले वित्तीय लेनदेन को यह विशेष सुविधा नहीं प्रदान करता; बल्कि वह इंतजाम के परे सरकारी ऋण के बारे में चिंताओं को और बढ़ा देता है. इसी कारण बैंकरों के प्रभुत्व वाली सरकारों द्वारा ऐसी तर्कसंगत नीतियों का विरोध किया जाता है, जो वित्तीय अल्पतंत्र के संकीर्ण हितों और सम्पूर्ण पूंजीवादी व्यवस्था के समग्र दीर्घकालीन हितों के बीच गहरे असामंजस्य को प्रतिबिम्बित करता है.

वर्चस्वशाली एकाधिकारी वित्तीय पूंजी और बाकी पूंजीवादी समाज के बीच हितों का इस किस्म का टकराव ही -- जिसे अमरीका में प्रचलित तौर पर वाल स्ट्रीट और मेन स्ट्रीट के बीच टकराव के रूप में देखा जाता है. जिसकी अभिव्यक्ति अर्थशास्त्रियों और नीति-निर्माताओं के बीच अंतहीन रूप से चलने वाली नीति-सम्बंधी बहस में देखी जाती है. जहां कुछ लोग अपेक्षाकृत प्रगतिशील और नियामक सुधारों की वकालत करते हैं, वहीं अन्य लोग ऐसे छद्म-परिवर्तनों को घुसाना चाहते हैं, जो वित्तीय परिक्षेत्र के हितों की रखवाली करेंगे. यकीनन, विद्वानों की बहसें और विवेकपूर्ण तर्क नीति की दिशा का निर्धारण नहीं करते. किसी वर्ग के अंदर (पूंजीपति वर्ग के विभिन्न हिस्सों के बीच) और वर्गों के बीच होने वाले संघर्ष ही उसका निर्धारण करते हैं, जिसके साथ-साथ कोई खास राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य, ठीक-ठीक कहा जाय तो किसी खास देश में और विश्व स्तर पर वर्ग-शक्तियों के बीच संतुलन -- भी बड़ा असर डालता है. इतिहास इसका ही साक्षी है, जिसकी ओर हम अब नजर डालेंगे.