आजकल चल रही आर्थिक उथल-पुथल की एक अनोखी विशिष्टता यह नजर आ रही है कि यूरो क्षेत्र के कुछेक देश -- जैसे ग्रीस, पुर्तगाल -- कर्ज के दलदल में इतना डूब गये हैं कि उनके लिये अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) जैसे तृतीय पक्ष से मदद लिये बगैर अपने सरकारी ऋणों का भुगतान कर पाना (यानी सूद चुका पाना और मूलधन को लौटा पाना) असम्भव हो रहा है. इसको यूरोपीय सार्वभौम ऋण संकट कहते हैं, जिसने यूरोपीय मौद्रिक एकीकरण के टिके रहने की संभावना और यूरो के भविष्य पर सवाल खड़ा कर दिया है. समझ में नहीं आता कि मामला इस हद तक कैसे जा पहुंचा ?
संक्षेप में, जब चंद यूरोपीय देशों ने साझी मुद्रा (यूरो) का सृजन किया था, तब बैंकों ने इस अवसर और उल्लास का इस्तेमाल करते हुए स्पेन, ग्रीस एवं वित्तीय रूप से कमजोर अन्य राष्ट्रों को खुले हाथों से कर्ज देना शुरू किया. इस प्रकार आसानी से मिलने वाले कर्ज की जो बाढ़ आई, उसने विशालकाय आवासीय बुलबुलों को फूलने में मदद दी, ऋणदाताओं और भूसम्पत्ति के कारोबारियों को बेशुमार मात्रा में मुनाफा लूटने का मौका दिया, और कर्ज का पहाड़ भी खड़ा कर दिया. उसके बाद, 2008 का वित्तीय संकट आने के साथ बाढ़ का पानी सूख गया और उन्हीं देशों में, जहां पहले भारी तेजी छाई हुई थी, भीषण मंदी की स्थिति ला दी.
पिछले वर्ष के अंतिम भाग में, यूरोपीय केन्द्रीय बैंक (ईसीबी) ने यूरोपीय बैंकों को तीन वर्षों के लिये मात्रा 1 प्रतिशत ब्याज की उदार दर पर 489 अरब यूरो का कर्ज दिया. ये बैंक उसी धनराशि में से अपनी सरकारों को 10 प्रतिशत या उससे अधिक दर पर कर्ज दे रहे हैं. तो फिर भला ईसीबी सीधे ही सरकारों को कर्ज नहीं देता? इसका कारण यह है कि ईसीबी का नियंत्रण करने वाले समझौते की एक धरा उसे ऐसा करने से रोकती है. वास्तव में इस खास धारा का उद्देश्य इस बात की गारंटी करना था कि सरकारें ईसीबी पर मुद्रा छापने और उन्हें कर्ज देने के लिये दबाव न डाल सकें और इस बात को समझा जा सकता है. मगर मौजूदा संकट जैसी गंभीर आकस्मिक स्थितियों के लिये थोड़ा लचीलापन भी रहना चाहिये, जो उसमें गैरहाजिर है.
यह सख्त नियम बड़े बैंकों को सस्ते में उधार लेकर ऊंची ब्याज दर पर कर्ज देकर आसानी से मुनाफा कमाने का सुयोग कर देता है. इससे बैंक जोखिम भी उठा सकते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि अगर उनके कर्जों का भुगतान नहीं भी हुआ फिर भी उन्हें संकट से उबार लिया जायेगा. यह उन बहुतेरे उदाहरणों में से एक है जो दिखाता है कि कैसे निहित वित्तीय स्वार्थों ने ऐसी स्वार्थी नीतियां बना रखी हैं जो मूल समस्या को दूर करने में अड़चनें डालती हैं और आम आदमियों का जीवन और भी तकलीफदेह बनाती हैं.