अगर आप 11 जुलाई 1996 की तारीख को इतिहास से नहीं मिटायेंगे तो आपको यह भी दर्ज करना होगा कि बिहार की पुलिस ने सोलह साल खर्च करके भी ऐसी जांच की कि इंसाफ नहीं हो सका और हत्यारों का बाल भी बांका नहीं हुआ. इतिहास में आपको यह भी लिखना पड़ेगा कि इन सोलह सालों में सात साल सुशासन के भी थे. सुशासन की पुलिस की जांच पर उंगली उठे, इससे बेहतर है कि इतिहास से इस तारीख को ही मिटा दीजिए.
वैसे भी आप पटना हाई कोर्ट की इस टिप्पणी को इतिहास में कैसे दर्ज करेंगे कि लगता है कि अभियुक्तों को बचाने के लिए पुलिस ने जांच के काम में लापरवाही बरती है. क्या हम 21 मामूली लोगों की जान चली गई, सिर्फ इसलिए अपनी पुलिस को बदनाम होने देंगे? इतिहास से बथानी टोला नरसंहार को इसलिए मिटा दीजिए, क्योंकि क्या फर्क पड़ता है करोड़ों गरीब-गुरबों में से अगर 20-21 लोग मार डाले गए, तो, इससे देश की आबादी तो कम नहीं हुई न! कोई पहाड़ तो नहीं टूट पड़ा न! देश तो चल ही रहा है न! बिहार तो आगे बढ़ ही रहा है न! यूं भी क्या यह पर्याप्त नहीं है कि हम न्याय के साथ विकास का नारा फिजाओं में उछाल रहे हैं, महादलितों को रेडियो बांट रहे हैं ...
11 जुलाई 1996 को अगर आप इतिहास से नहीं मिटायेंगे तो पिफर आपको यह भी दर्ज करना पड़ेगा कि गुजरात दंगों के पीड़ितों को न्याय नहीं दिला पाने की वजह से वहां के मुख्यमंत्री का इस राज्य में जो बहिष्कार हुआ, वह महज एक राजनीतिक शिगूूफा था. क्या हम 21 मामूली लोगों के लिए अपने मुख्यमंत्री को बदनाम होने देंगे?...
अगर यह सवाल आप इतिहास में दर्ज करेंगे तो बिहार पर यह कलंक चढ़ेगा कि 2010 ईस्वी तक भी यहां से सामंतवादी सोच खत्म नहीं हो पाई थी. वहां ताकतवर लोग कमजोर लोगों को दबा देते थे और गरीबों की जान को मुआवजे से तौल दिया जाता था.
चूंकि अपने राज्य की इज्जत का सवाल है, सरकार की इज्जत का सवाल है, मुख्यमंत्री की इज्जत का सवाल है, पुलिस की इज्जत का सवाल है, इसलिए प्लीज 11 जुलाई 1996 के बथानी टोला नरसंहार को इतिहास से मिटा दीजिए.