मुख्य सरकारी गवाह के साथ विस्तार से बचाव पक्ष ने जिरह की और इस मामले में कुछ दिलचस्प पहलू सामने आए. उसने माना कि 11/7/1996 की शाम वह सदर एस.डी.ओ के साथ जीप से कानून व्यवस्था की ड्यूटी पर सहार पुलिस थाने से 6 किलोमीटर दूर नाढ़ी गया हुआ था. नाढ़ी में ही शाम 4 बजे वायरलेस पर उसे सहार थाने से बथानी टोला संहार की खबर मिली. वायरलेस संदेश जिले के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों समेत सभी पुलिस अधिकारियों को भेजा गया था. उसने माना कि यह सूचना साफ तौर पर संज्ञेय अपराध की सूचना थी. उसने माना कि पिछले 6 या 8 महीनों से बड़की खड़ांव में बिहार मिलिटरी पुलिस का कैंप था जिसके इंचार्ज रघुराज तिवारी (गवाह बचाव पक्ष-1) थे. उसने माना कि रघुराज तिवारी (गवाह बचाव पक्ष-1) ने ही चैकीदार निर्मल यादव (गवाह बचाव पक्ष-2) के हाथ संहार की लिखित सूचना सहार थाने भिजवाई जिसके आधार पर वायरलेस संदेश भेजा गया. उसने माना कि इस लिखित सूचना के आधार पर न तो थाने में कोई केस दर्ज किया गया न इसे सुरक्षित रखा गया, न केस डायरी में इसमें लिखित बातों को दर्ज किया गया, न ही उसने इसे पढ़ा. वायरलेस संदेश मिलते ही वह तुरंत बथानी टोला की ओर भागा. तकरीबन 5 बजे वह खैरा गाँव आया जहां उसकी मुलाकात डिप्टी एस पी, सब इंस्पेक्टर, अगियाँव और सशस्त्रा पुलिस बल से हुई और वे सभी बथानी टोला की ओर ट्रैक्टर से चले क्योंकि बारिश के कारण जीप से चलना नामुमकिन था. उसने माना कि वह 11/7/1996 को शाम 5.45 या 6 बजे बथानी टोला पहुंचा.
फिर हमारे पास गवाह बचाव पक्ष-2 के रूप में निर्मल यादव है. वह बड़की खड़ांव गांव का चैकीदार था. वह बताता है कि करीब 2.30 बजे जब गोलीबारी शुरू हुई, रघुराज प्रताप सिंह (गवाह बचाव पक्ष-1) ने उसे एक लिखित रिपोर्ट सहार थाने में देने के लिए दी. वह तत्काल सहार थाने के लिए चला गया और वहां रिपोर्ट दे दी. ध्यान देने योग्य बात है कि इस संदेश को पाने के बाद ही सहार थाना से वायरलेस संदेश पूरे जिले में प्रसारित किया गया. लेकिन अभियोजन पक्ष द्वारा न तो वह लिखित संदेश और न ही वायरलेस संदेश रिकाॅर्ड में लाया गया है. उसने एक चैंका देने वाला खुलासा किया. जब दोनों तरफ से सैकड़ों राउण्ड गोलियां आधे घण्टे से अधिक समय तक चलती रहीं, पुलिस ने एक भी कारतूस बरामद नहीं किया. यह भी ध्यान देने लायक है कि कोई भी हथियार, आग्नेयास्त्र बरामद नहीं किया गया और उसके जनसंहार में इस्तेमाल होने का सबूत नहीं दिया गया. अभियोजन पक्ष यह बताने में कि, क्यों इन दोनों गवाह, बचाव पक्ष-1 और गवाह बचाव पक्ष-2, को गवाह अभियोजन पक्ष के रूप में जांच नहीं की गई, जबकि चार्जशीट में गवाहों में इनका नाम था.
चार गवाहों द्वारा ऊपर वर्णित घटनाक्रम से यह स्पष्ट है कि अभियोजन पक्ष द्वारा बतायी गयी कहानी सच से परे है. एक जनसंहार हुआ था जिसमें करीब 20 लोगों की जानें चली गईं. उनका बर्बरता से कत्लेआम किया गया था, लेकिन वास्तव में क्या घटा उसे सत्यपूर्वक और सही-सही दर्ज नहीं किया गया था. वह सूचना जो सबसे पहले प्राप्त हुई अभियोजन पक्ष द्वारा अदालत में कभी पेश नहीं की गई. स्पष्ट है कि फर्दबयान बहुत बाद में बनाया गया और इसके दर्ज होने के समय में हेराफेरी की गई.
यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि डी.एम., एस.पी. और अन्य वरिष्ठ अधिकारी वहां पूरी रात क्या कर रहे थे. प्रशासन घायलों को उनके बयान दर्ज करवाये बिना वहां से हटा रहा था. क्यों लाशें रात भर पड़ी रहीं, इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है। हालांकि फर्दबयान के बारे में बताया गया है कि उसे 12.07.96 को 4.30 बजे सुबह दर्ज किया गया, लेकिन एफ.आई.आर. कब दर्ज की गयी, नहीं मालूम. एफ.आई. आर. को अदालत के लिए 13.07.96 को भेजा गया, लेकिन वह सी.जे.एम., आरा के पास 14.07.96 को पहुंची।
(राधिका देवी) के प्रथम दर्ज बयान का कुछ महत्व है क्योंकि बाद में जब अदालत में गवाह अभियोजन पक्ष-4 के रूप में परीक्षण के समय उसने घटना का सजीव चित्रण करते हुए स्वयं को मारवाड़ी चैधरी (अभियोजन पक्ष गवाह नं. 6) के घर में बताया, जहां अपने चारों ओर वह कत्लेआम होते देख रही थी. फिलहाल यहा बयान और चोटों की रिपोर्ट से स्पष्ट है कि वह पूरी रात अधिकारियों और पुलिस के समक्ष मौजूद थी लेकिन तत्काल उसका बयान दर्ज करने का कोई प्रयास नहीं किया गया.
(डा. रोहित राम कनोजिया) ने राध्किा देवी, गवाह अभियोजन पक्ष-4, समेत चोटों की कुछ रिपोर्टों को प्रमाणित किया है जहां उन्होंने चोटों की प्रकृति और कारण पर अपनी राय सुरक्षित रखते हुए उसे पी.एम.सी.एच. में रेफर किया। राज्य की ओर से राधिका देवी के पी.एम.सी.एच. में इलाज और चोटों की रिपोर्ट के किसी सबूत को पेश नहीं किया गया है.
आश्चर्य की बात है कि उसका (राधिका देवी) पी.एम.सी.एच. में इलाज हुआ और वहां से डिस्चार्ज भी हो गयी, उसके वहां इलाज या चोट की प्रकृति के बारे एक पर्ची भी सबूत के तौर पर नहीं दी गई. ... एक अन्य उल्लेखनीय बात कि उसका आरोप था कि उसकी उंगलियों को यह जानने के लिए कुचला गया कि वह जिन्दा तो नहीं है, लेकिन चोटों के किसी भी विवरण में इसको नहीं दर्शाया गया. उसने स्वीकार किया है कि उसके ब्लाउज पर जलने के निशान नहीं थे, यद्यपि उसकी छाती की चमड़ी बन्दूक की गोली से जली हुई थी. ... इस पर विचार करते हुए हमारी राय में उसे जख्म कैसे और कहां लगा स्थापित नहीं हो सका, मारवाड़ी चैधरी के घर में उसकी उपस्थिति भी उसके विरोधभासी बयानों के कारण संदेहास्पद है, गवाह के रूप में वह पूरी तरह अविश्वसनीय है.
(जांच अधिकारी) ने स्वीकार किया है कि घटना के स्थान पर उसने कोई भी जंगल, झाड़ी या गड्ढे नहीं पाये, जोकि जाहिराना तौर पर गवाहों द्वारा बताये गये छुपने के विभिन्न स्थानों के संदर्भ में था। इतने बड़े जनसंहार की छानबीन के बाद अभियोजन पक्ष इतना कमजोर साक्ष्य ही ला सका.
जांच अध्किारी (गवाह अभियोजन पक्ष-13) के इस बयान का विश्लेषण करने पर जनसंहार होने की बात स्थापित होती है, संज्ञेय अपराध की लिखित और मौखिक सूचनायें 4.30 बजे सायं तक पुलिस को घटना के दिन ही प्राप्त हो चुकी थीं परन्तु उसने उन्हें रिकार्ड से बाहर रखे रहा. पुलिस के लोग, सरकार के उच्च अधिकारीगण घटनास्थल पर चार घण्टे के अंदर ही पहुंच चुके थे लेकिन अगली सुबह सूचनाकर्ता के फर्दबयान होने तक कोई भी बयान दर्ज नहीं किये जा रहे थे, और लोगों को आपस में मिलने, विचार करने और कहानी की योजना बनाने के लिए काफी समय दिया गया। बचाव पक्ष ने ठीक ही तर्क दिया है कि अभियोजन पक्ष ने प्रथम सूचना को सोच-समझ कर छिपाया ताकि इतना समय मिल सके कि कहानी को अपने हिसाब से गढ़ा जा सके यह अपीलकर्ताओं की सत्यता को अविश्वसनीय बनाता है। क्यों इसे छिपाया गया, स्पष्ट नहीं किया गया है।
इस बारे में हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि अभियोजन को कहानी गढ़ने के लिए समय दिया गया क्योंकि शुरू वाली कहानी को पचाना मुश्किल था। ऐसी परिस्थिति में अदालत न केवल आरोप को खारिज करेगी ,बल्कि छानबीन के संबंध में भी उल्टा मतलब ही निकालेगी.
यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि इतने लोग मारे गये, सैकड़ों राउण्ड गोलियां चलीं लेकिन एक भी खाली कारतूस जब्त नहीं हुआ. यहां तक कि आरोपियों से जब्त लाइसेन्सी राइफल और बंन्दूकों की जांच नहीं की गयी. सभी आरोपियों को घरों में चुपचाप बैठे हुए या एक लाॅज से गिरफ्तार किया गया. यह काफी गम्भीर बातें हैं खासकर तब जब हम जानते हैं कि कितनी निर्दयता से लोगों को मारा गया. हम यही कह सकते हैं कि जांच एजेन्सी और प्रशासन के कारण असली अपराधी बच निकले.
अब हम बचाव पक्ष के तीन गवाहों पर आते हैं. गौर करने की बात है कि इन तीनों गवाहों को चार्जशीट में अभियोजन पक्ष का गवाह बताया गया है. वे महत्वपूर्ण गवाह हैं, लेकिन बिना किसी कारण के अभियोजन पक्ष ने उनका परीक्षण नहीं किया. बड़की खड़ांव गांव के पुलिस कैम्प के आॅफिसर इनचार्ज रघुराज तिवारी का परीक्षण बचाव पक्ष के गवाह नं. 1 के रूप में हुआ है. बड़की खड़ांव गांव के चैकीदार निर्मल चैधरी का परीक्षण गवाह नं. 2 बचाव पक्ष के रूप में और शिवनाथ यादव का बचाव पक्ष गवाह नं. 3 के रूप में, वह भी गांव का चैकीदार है. वे सबसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने घटना को होते हुए देखा और उसकी रिपोर्ट दी.
... इन सभी नाबालिगों (मनोज सिंह, दिलीप सिंह, बेला सिंह, जिन्हें ट्रायल कोर्ट ने सजा सुनाई थी - सम्पादक) ने ट्रायल जज की इस मुद्दे पर संवेदनहीनता के कारण कानून के विरुद्ध जेल में लम्बा समय बिताया है. इस गम्भीर खामी के लिए हम अपनी तरफ से इस संस्था (न्यायपालिका - संपादक) की ओर से खेद और क्षमा-प्रार्थना ही व्यक्त कर सकते हैं।
अपराध की प्रकृति और इसे अंजाम देने के तरीके को देखते हुए इसमें कोई संदेह नहीं कि अपराध हुआ, और वास्तव में बचाव पक्ष ने इसे चुनौती भी नहीं दी है, इस बर्बर कार्य के लिए मृत्युदण्ड की सजा बिल्कुल उपयुक्त है, परन्तु सवाल यह है कि अपराध किसने किया.
एक घायल गवाह राधिका देवी जो कथित रूप से मारवाड़ी चैधरी के घर में मौजूद थी और जिसने बर्बर घटना के बड़े हिस्से को घर के अंदर होते हुए देखा, जहां करीब 18 लोग जिनमें तीन महीने के नवजात बच्चे भी शामिल थे को काट डाला गया था। हमने उसकी गवाही पर गौर किया है और एक बार कहना होगा कि उसके बदलते बयानों ने उसे अविश्वसनीय बना दिया है. उसने पी.एम.सी.एच. में दिये गये अपने बयान, जो एक्जिविट ए 10.30 बजे सुबह 12.07.96 में दिया गया है से बिल्कुल अनभिज्ञता जाहिर की. उस बयान में (एक्जिविट ए) उसने इस बात का जिक्र तक नहीं किया है कि वह मारवाड़ी चैधरी के घर में मौजूद थी. जबकि बाद में अपने साक्ष्य में उसने इसका दावा किया ह.। जांच अधिकारी ने इस विषय पर अपनी गवाही में उससे विपरीत बयान दिया है. उसका दावा है कि तीन फुट की दूरी से उसकी छाती में गोली मारी गयी. उसकी उंगलियों को कुचल दिया गया. वह पूरे घटनाक्रम को देखने के लिए बच गई, लेकिन दुर्भाग्य से उसके जख्मों की रिपोर्ट और पी.एम.सी.एच. में उसके इलाज के सबूत रिकार्ड में दर्ज नहीं करवाये गये जिनसे कथित जख्मों की सत्यता जांची जा सकती. अदालत के सूचनाकर्ता ने मारवाड़ी चैधरी के घर लौटने पर जिन लोगों को देखा उन घायलों में उसका नाम नहीं है. इन्ही कारणों से हम उसकी गवाही को विश्वास योग्य नहीं समझते।
मौजूदा मामले में, हम आरोप और कार्रवाई को परस्पर-विरोधी पाते हैं कि गांव में बदमाश लोग सबको मार देने के लिये आये थे. हत्या करने के बाद उन लोगों ने घरों में आग लगा दी. वे लोग गांव के ही बिल्कुल बगल में छिपे लोगों को खोजने की कोशिश क्यों नहीं कर सके? गवाह और आरोपी पड़ोसी हैं, वे पड़ोस के टोला में रहने वाले हैं. वे दिनदहाड़े अपनी पहचान जाहिर नहीं करेंगे, ताकि लोगों को उन्हें पहचानने का मौका मिल जाये. अभियोजन पक्ष के कुछ गवाह कहते हैं कि वे एक गड्ढे में छिपे थे. जांच अधिकारी कहते हैं कि उन्हें वहां कोई गड्ढा या छिपने लायक कोई अन्य स्थान नहीं दिखा. आहर तो खुली जगह होती है, लेकिन आश्चर्य है कि गवाह वहीं छिपे होते हैं और समय-समय पर वे अपनी सुरक्षा की परवाह किये बगैर सिर उठाकर झांक भी लेते हैं, यह तो बिल्कुल अस्वाभाविक है. कुछ गवाहों ने कहा कि वे लोग जंगली झाड़ियों में छिप गये थे. लेकिन जांच अधिकारी की वस्तुपरक खोज में वहां ऐसी कोई जगह नहीं मिली. जो लोग हर किसी को मार देना चाहते थे, स्वभावतः जब उन्होंने वहां किसी पुरुष को नहीं देखा होगा तो उन्होंने उन पुरुषों की जरूर खोज की होगी, जो उसी गांव के बिल्कुल बगल में छिपे हुए थे. अभियोजन गवाहों के लिये यह अस्वाभाविक है. इन्हीं कारणों से, हम मृत्युदंड या उम्र कैद जैसे इस चरम दंड की खातिर अभियोजन गवाहों द्वारा की गई पहचान को भरोसे के लायक नहीं पाते हैं.
अभियोजन पक्ष यह स्पष्ट करने में सफल नहीं हो सका कि क्यों बचाव पक्ष गवाह 1, बड़की खड़ावं पुलिस पिकेट के प्रभारी, द्वारा भेजे गये घटना के लिखित वक्तव्य को एपफ.आई.आर. के रूप में दर्ज नहीं किया गया, यहां तक कि रिकार्ड में ही दर्ज नहीं किया गया, उल्टे बचाव पक्ष द्वारा गवाह 1 को सस्पेंड कर दिया गया. बचाव पक्ष ने इस बात को जोरदार तरीके से उठाया है कि यह लिखित सूचना प्रशासन/अभियोजन पक्ष के लिए कड़वा सच था.
इसलिए पूरी सामग्री पर विचार करने के बाद हमें इस बात का खेद है कि इतनी घृणित घटना हुई जिसमें 20 से ज्यादा लोगों, जिनमें केवल एक पुरुष था, का बर्बर कत्लेआम किया गया, तीन महीनों के नवजात शिशु को भी जिन्दा नहीं छोड़ा गया, इस घृणित अपराध को अंजाम देने वाले व्यक्तियों को पकड़ने के लिए उचित जांच नहीं की गई. साफ है कि जांच को एक खास दिशा में ले जाया गया जो सत्य से दूर थी और संदेह से परे नहीं. जांच ऐजेन्सी और अभियोजन पक्ष द्वारा सत्य को जानबूझ कर दबाया गया, ताकि आरोपी व्यक्तियों को इसमें शामिल दिखाया जा सके, गवाहों की जांच की गई वे पूरी तरह से अविश्वसनीय हैं। दुर्भाग्य से इस पूरी कवायद में असली अपराधी साफ बच निकले. लोगों ने पीड़ा सही, उनके परिवारों को भी शांति नहीं मिल सकी क्योंकि अपराधकर्ताओं को सजा नहीं मिल पायी. यह सब गलत दिशा में जांच और अभियोजन पक्ष के कारण हुआ. हमें और कुछ नहीं कहना.
जस्टिस नवनीति प्रसाद सिंह
अश्वनी कुमार सिंह