64 करोड़ के बोफोर्स मामले ने एक सरकार गिरा दी थी. अब तकरीबन हर रोज हमारा सामना लाखों करोड़ के भ्रष्टाचार के खुलासे से होता है. न केवल भ्रष्टाचार के पैमाने में बढ़ोत्तरी हुई है बल्कि आज के भ्रष्टाचार की प्रकृति से उदारीकृत तथा भूमंडलीकृत भारत में भारतीय राजसत्ता के चरित्र का भी पता चलता है. बड़ी पूंजीवादी तथा साम्राज्यवादी शक्तियों ने हमेशा ही भारत में राज्यसत्ता को प्रभावित किया है, लेकिन भूमंडलीकरण के दौर में, राजसत्ता की प्राथमिकताओं और नीतियों के निर्धारण में राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय कारपोरेट घरानों और साम्राज्यवादी ताकतों की सीधी भूमिका लगातार बढ़ती ही जा रही है.
राडिया टेप प्रकरण से यह साफ उजागर हो गया कि कारपोरेट घराने किस प्रकार अपने हित के लिए अपने दलालों के जरिए मंत्रियों की नियुक्ति, संसद में पारित होने वाले कानूनों और नीतियों में दखल दे रहे हैं.
हाल के वर्षों में कारपोरेट पूंजी और राजनीति के बीच नजदीकियां तेजी से बढ़ी हैं. कुछ वर्षों पहले, भाजपा के प्रमोद महाजन और सपा के अमर सिंह को अपनी पार्टियों के लिए कम समय में ज्यादा पैसे इकट्ठा करने वाले बड़े नेताओं के रूप में जाना जाता था, जो मिनटों में अरबों रुपए हाजिर करने में माहिर थे. जाहिर है कि औद्योगिक घरानों से ये मदद खैरात में नहीं मिलती थी बल्कि बदले में उन्हें मदद पहुंचाई जाती थी. कारपोरेट जगत के राडिया जैसे लोग सेवाएं उपलब्ध कराने (मसलन ए. राजा को संचार मन्त्री बनवाना) के अपने हुनर में माहिर होते हैं. राजनेता कारपोरेट पूंजी का इस्तेमाल निजी और पारिवारिक हितों के लिए खैरात की तरह करते हैं जबकि उस काले धन को सफेद करने के लिए पारिवारिक संबंधों का सहारा लिया जाता है. इस तरह औद्योगिक घरानों का काला धन मनमाफिक फैसले करवाने और जजों तक को प्रभावित करने के काम आता है. अमर सिंह के टेप, महाजन प्रकरण तथा फिर राडिया टेप कांड में इसका सजीव और विस्तृत नज़ारा हमने देखा है.
सबसे बड़ी बात तो यह है कि, देश की आर्थिक एवं आंतरिक नीतियां ( जिनमें प्रमुख हैं - सेज कानून, पेटेन्ट कानून, नाभिकीय दायित्व कानून, आपरेशन ग्रीन हंट जैसे क्रूर कानून, और शिक्षा तथा स्वास्थ्य से भी जुड़े कानून ) बड़े पैमाने पर कारपोरेट हितों को ध्यान में रखकर तैयार की जा रही हैं.
राजनीतिक भ्रष्टाचार का सर्वाधिक शर्मनाक उदाहरण नाभिकीय सौदे के मसले पर संसद में विश्वास मत के दौरान नोट के बदले वोट प्रकरण में देखने को मिला. विकीलीक्स के खुलासों ने संप्रग सरकार पर लगे इस आरोप की पुष्टि कर दी है कि सरकार ने विश्वास मत जीतने के लिए सांसदों के वोट खरीदे और भारत-अमरीका नाभिकीय सौदे के लिए रास्ता तैयार किया. लेकिन कांग्रेस और भाजपा दोनों ही विकीलीक्स के खुलासों की असलियत को छिपाने की कोशिश रही है. आखिर कांग्रेसी नेताओं ने अमरीकी राजनयिकों को भारतीय संसद में वोट खरीदने की योजना के बारे में क्यों बताया, और यहां तक कि उन्हें पैसों से भरे ट्रंक भी क्यों दिखाए? ज़ाहिर है कि वे अपने अमरीकी आकाओं को आश्वस्त करना चाहते थे कि संप्रग सरकार को विश्वास मत जिताने और नाभिकीय सौदे पर मुहर लगवाने के लिए वे हर संभव प्रयास कर रहे हैं.
विकीलीक्स केबल का इससे भी बड़ा खुलासा यह है कि भारत की आर्थिक एवं विदेश नीति और कैबिनेट मंत्रियों के चयन तक में भी किस हद तक अमरीका का प्रभाव रहता है. 30 जनवरी 2006 को अमरीकी राजदूत डेविड सी. मलफोर्ड द्वारा वाशिंगटन भेजे गए अमरीकी दूतावास के एक केबल में कहा गया था कि मनमोहन सिंह सरकार ने जनवरी 2006 में अमरीका के हित में मणिशंकर अय़र को हटाकर मुरली देवड़ा को पेट्रोलियम मन्त्री बना दिया है. क्योंकि मणिशंकर अयर को ‘विवादित ईरान पाइप लाइन का खुला समर्थक’ कहा जा रहा था. मलफोर्ड ने यह भी कहा कि ‘संप्रग सरकार ने बड़ी संख्या में ( मुरली देवड़ा समेत ) ऐसे सांसदों को सरकार में शामिल किया है जो सार्वजनिक तौर पर अमरीका के साथ रणनीतिक साझेदारी के पक्ष हैं, जिनमें भारत-अमरीका संसदीय फोरम के सात सांसद शामिल हैं. इस प्रकार कैबिनेट में किया गया यह फेरबदल भारत (और ईरान) में अमरीकी लक्ष्यों की पूर्ति के लिए बहुत उपयुक्त रहेगा, यह भारत-अमरीका संबंधों को तेजी से आगे बढ़ाने के मनमोहन सिंह सरकार के संकल्प को प्रमाणित करता है.’
विकीलीक्स के केबल खुलासों से यह तो जाहिर हुआ ही है कि भारत की आर्थिक नीतियों पर किस हद तक अमरीकी दखल है, बल्कि इससे यह भी साफ हो गया है कि भारत के मन्त्रीगण खुल्लमखुल्ला किसी न किसी औद्योगिक घराने के पोषक हैं! ऐसे ही एक केबल में अमरीकी विदेश मन्त्री हिलेरी क्लिंटन ने भारत के वित्त मन्त्री प्रणब मुखर्जी के बारे में सवाल उठाया है, प्रणब मुखर्जी किन औद्योगिक या व्यापारिक समूहों के एहसानमंद हैं ? वह अपनी नीतियों के माध्यम से किन्हें मदद पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं? जरा सोचिए, क्या हमें ऐसे ही वित्त मन्त्री की जरूरत है जो भारत की आम जनता के प्रति उत्तरदायी होने के बजाय कारपोरेट समूहों के प्रति कृतज्ञ हो!
हिलेरी क्लिंटन के केबल से यह भी पता चलता है कि अमरीका के लिए मंत्रियों से भी ज्यादा विश्वस्त व्यक्ति योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया हैं, जिन्हें प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह की ही तरह अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का मुलाजिम माना जाता है. हिलेरी का सवाल यह है कि मोंटेक सिंह अहलूवालिया के होते हुए प्रणब मुखर्जी को वित्त मन्त्री क्यों बनाया गया?
विकीलीक्स के केबल इस बात के गवाह हैं कि यूपीए सरकार इजरायल और ईरान के साथ अपने संबंधों की वास्तविक प्रकृति के मामले में भारत की जनता से झूठ बोल रही है. ऐसे ही एक केबल में बताया गया है कि ईरान के साथ मधुर संबंध स्थापित करने की कोशिश सिर्फ जनता को दिखाने के लिए है, खासकर भारतीय मुसलमानों और गुट-निरपेक्ष आंदोलन के समर्थकों को खुश करने के लिए. एक अन्य केबल में तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम. के. नारायणन को कथित तौर पर यह कहते हुए दिखाया गया है कि जब दूसरी बार आई.ए.ई.ए. में भारत ने ईरान के खिलाफ वोट करने का फैसला किया तो वे ‘घरेलू राजनैतिक हल्कों’ में इसकी प्रतिक्रिया को लेकर चिंतित हो गए थे.
केबल के अनुसार, अमरीकी प्रतिनिधियों ने भारत को चेतावनी दी थी कि आई.ए.ई.ए. में ईरान के खिलाफ वोट न करना नाभिकीय सौदे के लिए खतरनाक होगा. बाद की घटनाओं से साबित हो गया कि अमरीका से जैसे दिशा निर्देश मिले थे, मनमोहन सिंह सरकार ने बिल्कुल उसी के अनुरूप वोटिंग करके अपने अमरीकी आकाओं की खिदमत की. इन केबलों से सिर्फ रिश्वतखोरी के नहीं, बल्कि कहीं अध्कि संगीन मामलों के ताजा और ज्वलंत साक्ष्य मिले हैं- सबसे गंभीर आरोप यह है अमरीका की जरूरतों को पूरा करने के लिए खुद भारत के हितों की अनदेखी की गई और लोकतंत्र को कमजोर किया गया. हमारे देश में राजनीतिक भ्रष्टाचार का यह सबसे खतरनाक आयाम है, और इस भ्रष्टाचार का प्रतिरोध भारतीय राजसत्ता के बढ़ते हुए साम्राज्यवादी चरित्र का प्रतिरोध करना है.
मुख्य विपक्षी दल भाजपा को सरकारी नीतियों पर कारपोरेट और साम्राज्यवादी प्रभाव से कोई फर्क नहीं पड़ता. आखिर भाजपा समेत सभी शासक वर्गीय पार्टियां कारपोरेट धन की एक ही छूत की बीमारी से ग्रस्त हैं, और वे सभी ऐसा कुछ नहीं कर सकतीं जिससे कारपोरेट हितों को खतरा हो. राडिया के टेपों से ऐसे कई प्रसंग सामने आए हैं जिनमें भाजपा के शीर्ष नेताओं ने भी निष्ठापूर्वक कारपोरेट हितों की रक्षा की.
विकीलीक्स के केबलों से भाजपा का दोमुंहापन बेनकाब हो गया है, इससे यह प्रमाणित हो गया है कि अमरीका की जी-हुजूरी के मामले में भाजपा और कांग्रेस दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं. एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने अमरीकी प्रतिनिधि को आश्वस्त किया कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन द्वारा अमरीका की जी-हुजूरी की आलोचना करने वाला भाजपा का राजनैतिक प्रस्ताव ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जाएगा क्योंकि यह यूपीए के खिलाफ माहौल बनाने के लिए राजनैतिक भाषणबाजी मात्र है. एक अन्य केबल में बताया गया है कि लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा कि नाभिकीय सौदे पर भाजपा का कथित विरोध महत्वहीन है और आश्वासन दिया कि यदि भाजपा सत्ता में आती है तो नाभिकीय समझौते समेत भारत-अमरीका संबंधों की निरंतरता बनी रहेगी. एक अन्य केबल में नरेन्द्र मोदी को अमरीकी वीजा न दिए जाने पर वरिष्ठ भाजपा नेता अरुण जेटली को यह शिकायत करते हुए दिखाया गया है कि जिस पार्टी ने अमरीका-भारत संबंधों की नयी शुरुआत की, उसी पार्टी के खिलाफ अमरीका द्वारा ऐसी कार्रवाई किए जाने से वे हतप्रभ हैं. इसी केबल में जेटली को विधिक सेवाओं तक के मामले में एफ डी आई पर विवाद करते हुए दिखाया गया है. अहम बात यह है कि पूरे साक्षात्कार के दौरान मोदी को वीजा न दिए जाने के मसले पर विरोध जताने के अलावा जेटली लगातार ‘विनम्र’ रहे, और इसी के मद्देनजर अमरीकी दूतावास के प्रतिनिधि ने व्यंग्य किया कि जेटली को अमरीका के साथ अपने निजी और व्यावसायिक संबंधों की कीमत अच्छे से पता है. (क्योंकि कई अमरीकी उद्योगपति उनके मुवक्किल हैं.)
जनता के बीच अपने राष्ट्रवादी मुखौटे के बावजूद भाजपा जिस प्रकार अमरीकी साम्राज्यवाद के साथ गठजोड़ करने को तैयार रहती है, उसी प्रकार भ्रष्टाचार विरोधी ढोंग के साथ वह नव उदारवादी नीतियों तथा कारपोरेट हितों के लिए पूरी तरह प्रतिबद्व है.
जहां एक ओर विकीलीक्स केबल ने भाजपा की स्वदेशी छवि और यूपीए की अमरीकापरस्त नीतियों के विरोध के दावों के भ्रामक मुखौटों को उतारने का काम किया, वहीं दूसरी ओर उसकी ‘हिन्दुत्व’ की ‘अवसरवादी’ राजनीति भी बेनकाब हो गई. (‘अवसरवादी’ शब्द का प्रयोग खुद जेटली ने ही अमरीकी प्रतिनिध के साथ बातचीत के दौरान किया था) जेटली ने अमरीकी प्रतिनिध को उदाहरण के तौर पर बताया कि भारत के उत्तर-पूर्व में हिन्दुत्व का मुद्दा अच्छी तरह चलता है क्योंकि लोग बांग्लादेश से मुसलमानों के अवैध आगमन से चिंतित रहते हैं. भारत-पाक संबंधों में हाल में हुई प्रगति के चलते अब नई दिल्ली में हिंदू राष्ट्रवाद का स्वर धीमा पड़ गया है, लेकिन अगर भारतीय संसद पर सीमापार से कोई आतंकवादी हमला हो जाए तो फिर से स्थितियां बदल सकती हैं. जेटली की इस बेबाक टिप्पणी से पता चलता है कि भाजपा को संसद पर आतंकी हमले से भी कोई परहेज नहीं है क्योंकि इससे हिंदुत्व की राजनीति के लिए उर्वर जमीन तैयार होगी!
अपनी ही खेमेबाज नीरा राडिया के टेपों के कारण देश के अब तक के सबसे बुरे भ्रष्टाचार के मामले से बिंधे रतन टाटा ने घायल शहीद बनने का रास्ता अख्तियार किया. एक मीडिया हाउस से प्रसारित ‘वाक द टाक शो‘ में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक शेखर गुप्ता के साथ साक्षात्कार में टाटा ने कहा कि भारत के ‘क्रोनी पूंजीवादी’ तथा ‘बनाना रिपब्लिक’ (अस्थिर लोकतंत्र) बन जाने का खतरा है. टाटा ने यह बात ओबामा के उस बधाई संदेश के ठीक अगले दिन कही जिसमें विश्व मंच पर उभरने के लिए भारत को बधाई दी गई थी. क्रोनी पूंजीवाद की बात कहते समय क्या टाटा का आशय यह था कि मन्त्री, सत्तारूढ़ और विपक्षी दल, जज और मीडिया वाले सभी कारपोरेट खेमेबाजों की मुट्ठी में हैं? ‘बनाना रिपब्लिक’ की बात कहकर क्या वे इस चिंताजनक स्थिति की ओर ध्यान दिलाना चाह रहे थे जिसमें अति धनाढ्य कारपोरेट घराने, सरकारों तथा साम्राज्यवादी ताकतों के साथ गठजोड़ करके बेखौफ कानून तोड़ने, लोकतंत्र को कमजोर करने और देश के बहुमूल्य संसाधनों की लूट में कामयाब हो जाते हैं (जैसा कि लैटिन अमेरिका के असली ‘बनाना रिपब्लिक्स’ में हुआ था जहां लोकतंत्र बाहरी पूंजी के प्रभाव में पूरी तरह से अस्थिर हो गया था?) बिल्कुल नहीं. टाटा के कहने का मतलब तो सिर्फ इतना भर था कि एक कारपोरेट खेमेबाज की ‘निजता’ में खलल पड़ा है और उसके फोन टेप किए गए हैं और फिर (लीक होकर) टेप मीडिया के पास पहुंच गए. (उनके कहने का मतलब ये है कि टेप टाटा को कलंकित करने और उनके किसी प्रतिद्वंद्वी कारपोरेशन को लाभ पहुंचाने के लिए लीक हुए).
टाटा ने यहां तक चेतावनी दे डाली कि अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या किसी अन्य तथाकथित लोकतांत्रिक अधिकार के नाम पर लोकतंत्र के सुख भोग (लक्जरी आफ डेमोक्रेसी) का इसी तरह दुरुपयोग किया गया तो भारत एक ऐसा देश बन जाएगा जहां लोग बगैर किसी वाजिब साक्ष्य के जेल जाएंगे या जहां-तहां उनकी लाशें पायी जाएंगी. दिलचस्प बात यह है कि टाटा ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक अधिकारों तथा खुद लोकतंत्र को ‘सुख भोग’ कहा ! सिंगूर के किसान और कलिंगनगर के आदिवासी, टाटा को इस मामले में कुछ नमूने दिखा सकते हैं कि जमीन दखल जैसे बड़े कारपोरेट हितों को चुनौती देने वाले कार्यकर्ता और राजनीतिक विरोधी किस तरह बगैर साक्ष्य के जेल भेजे जाते हैं, और फिर खेतों में उनकी लाशें मिलती हैं या पुलिस वालों द्वारा उनकी नृशंस हत्या कर दी जाती है. अपनी जीविका और जिंदगी बचाने के लिए कारपोरेट भू-अधिग्रहण के खिलाफ प्रतिरोध करना टाटा की नजरों में ‘लोकतंत्र की विलासिता’ है, और किसानों तथा आदिवासियों को इसका कोई हक नहीं है, जबकि टाटा जैसे अति धनाढ्य उद्योगपति ‘निजता के लोकतांत्रिक अधिकार’ का आनंद लेते हैं और ‘निजता की रक्षा’ के नाम पर साक्ष्य दबाने के लिए कोर्ट भी जा सकते हैं.
राडिया के टेप और विकीलीक्स केबल के साक्ष्य असल में इस बात के संकेत हैं कि भारत ‘बनाना रिपब्लिक‘ बनने की तरफ कदम बढ़ा चुका है, जहां औद्योगिक और साम्राज्यवादी ताकतें लोकतंत्र को कमजोर करती हैं और कॉरपोरेशनों के ‘अधिकारों’ की रक्षा के लिए जनता के अधिकार दबा दिए जाते हैं. अगर तत्काल नव उदारवादी नीतियों को रोका नहीं गया तो भारत सचमुच बनाना रिपब्लिक बन जाएगा. लैटिन अमेरिका के तत्कालीन ‘बनाना रिपब्लिक्स’ में एक नई चेतना आ रही है. लोकप्रिय आंदोलनों तथा सरकारों के माध्यम से वे साम्राज्यवाद को कड़ी चुनौती दे रहे हैं. क्या भारत उनसे कोई सीख लेकर अपनी स्वतंत्रता और लोकतंत्र तथा अपने संसाधनों की नव उदारवादी और साम्राज्यवादी लूट के खिलाफ एक मजबूत प्रतिरोध खड़ा करेगा?
पूरे देश भर में सरकार के साथ गठजोड़ करके व्यापारिक घरानों ने बड़े पैमाने पर खेतों तथा जंगल की जमीन पर खनन, भवन निर्माण तथा विभिन्न प्रकार की परियोजनाओं और उद्योगों के लिए कब्जा जमा लिया है. हर मामले में बड़े पैमाने पर जमीन संबंधी कानून तोड़े गए और सरकारी कर्मचारी उस ओर से आंखें मूंदे रहे. लेकिन इस प्रकार के भ्रष्टाचार को सबसे ज्यादा शह पुलिसिया लाठियों, गोलियों और क्रूर कानूनों की ताकत ने दी है. और अगर किसी ने भी इसके खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की तो उसे भयानक दमन झेलना पड़ा है.
जिन आदिवासियों और किसानों ने अपनी जमीने खो दीं, अपनी रोजी-रोटी और जीने के साधन गंवा दिए, उन्होंने स्वाभाविक तौर पर एक जबर्दस्त आंदोलन खड़ा किया. कलिंगनगर, जगतसिंहपुर, दादरी, सिंगूर, नंदीग्राम, सोमपेटा, श्रीकाकुलम आदि अनेक स्थानों पर उन पर पुलिस फायरिंग, नृशंस लाठीचार्ज और योजनाबद़्र तरीके से राजनैतिक हमले किए गए जिससे कई लोग हताहत हुए. जमीन दखल किए जाने के विरोध का यह व्यापक जनसंघर्ष माओवादी प्रकृति का नहीं था, बल्कि यह जनता का अपना प्रतिरोध था. लेकिन भू-अधिग्रहण के खिलाफ जनसमुदाय के बढ़ते प्रतिरोध पर ‘माओवादी’ छाप लगा दी गई. आदिवासियों को सीधे-सीधे जंगलों अर्थात उनके घरों से निकाल कर मारा जा रहा है. छत्तीसगढ़ में माओवाद से संघर्ष के नाम पर सलवा जुड़ूम नामक निजी लड़ाकों ने हजारों आदिवासियों को विस्थापित कर दिया है, और बलात्कार, हत्या, आगजनी तथा सामूहिक संहार की कई घटनाओं को अंजाम दिया है.
केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा माओवादी हिंसा से निपटने के लिए ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ नामक एक सैन्य ऑपरेशन शुरू किया गया है. लेकिन यह साफ हो गया है कि माओवाद की तो आड़ ली जा रही है, असली निशाना तो जनप्रतिरोध को कुचलना है, ताकि कॉरपोरेट घराने आराम से अपनी लूट जारी रख सकें. बिनायक सेन जैसे लोग, जिन्होंने कॉरपोरेट लूट और सरकारी दमन की नीति की आलोचना की, उन्हें ‘राजद्रोही’ कह कर आतंकवादियों के समकक्ष रखते हुए जेल में डाल दिया गया. बिनायक सेन उन हजारों कार्यकर्ताओं और आम लोगों में से सिपर्फ एक व्यक्ति हैं जो संसाधनों की कॉरपोरेट लूट के खिलाफ आवाज उठाने के जुर्म में क्रूर कानूनों के तहत जेल में डाले गए हैं.
उल्लेखनीय है कि केंद्रीय गृह मन्त्री पी. चिदम्बरम जिन्होंने ऑपरेशन ग्रीन हंट को शुरू किया, वे खुद 2004 में वित्त मन्त्री बनने के एक दिन पहले तक बहुराष्ट्रीय खनन कंपनी वेदान्ता के एक निदेशक हुआ करते थे.
चिदम्बरम का एजेंडा और सोच गृह मंत्रालय द्वारा खुफिया जानकारियों के डाटाबेस के एकीकरण के लिए बनाए गए नेशनल ग्रिड के अध्यक्ष और महिंद्रा स्पेशल ग्रुप के मुख्य कार्यकारी अधिकारी कैप्टन रघु रामन के विचारों में भी दिखाई देता है. एक रिपोर्ट में रघु रामन ने यह जोरदार सुझाव दिया कि कारपोरेट घरानों के लिए सुरक्षा के क्षेत्र में प्रवेश करने का यह सही समय है. इस विचार के समर्थन में उन्होंने इजरायल, अमेरिका और अन्य देशों का उदाहरण दिया जहां निजी सुरक्षा ठेकेदार सुरक्षा उपलब्ध करा रहे हैं. उन्होंने प्रस्ताव किया कि व्यापारिक घरानों को अपनी निजी प्रांतीय सेनाऐं बनाने की अनुमति दी जाए. अंत में उन्होंने यह भी कहा कि व्यापार जगत के राजागण अब अगर खुद अपने साम्राज्य की रक्षा करना शुरू नहीं करेंगे तो स्थिति उनके नियंत्रण से बाहर हो जाएगी.”
व्यापारिक घरानों द्वारा निजी प्रांतीय सेना रखने का विचार कोई दूर की कौड़ी नहीं है, क्योंकि आखिर बस्तर, रायगढ़, सिंगूर या जगतसिंहपुर में क्या हो रहा है? सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों की मदद से व्यापारिक घरानों ने निजी सशस्त्र समूह खड़े किए हैं और उनका इस्तेमाल प्रतिरोध करने वालों को डराने-धमकाने में किया जाता है. ऑपरेशन ग्रीन हण्ट भी भारत में व्यापारिक राजाओं के साम्राज्य की रक्षा में सरकारी पुलिस और अर्ध सैनिक बलों के खुले इस्तेमाल का स्पष्ट उदाहरण ही तो है.
पेशे से डाक्टर और मानवाधिकार कार्यकर्ता बिनायक सेन को उपनिवेशकालीन राजद्रोह कानून के तहत आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई. वे आपरेशन ग्रीन हण्ट, कारपोरेट लूट और सल्वा जुडूम के खिलाफ बोलने वाले लोगों में से एक हैं. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने ‘राजद्रोह’ का कोई सबूत न होने के कारण उन्हें जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया है. हमारे देश में भ्रष्टाचार और कारपोरेट लूट के खिलाफ लड़ने वाले हजारों नागरिक राजद्रोह और एएफएसपीए व यूएपीए जैसे बर्बर कानूनों के तहत जेलों में बंद हैं.
जेल से रिहा होने के तुरंत बाद बिनायक सेन ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, जिसमें मध्यम वर्गीय लोगों की अच्छी भागीदारी रही थी, के बारे में कहा कि "क्रोनी पूंजीवाद लम्बे समय से यहां मौजूद है, लेकिन हाल के वर्षों में सामाजिक विषमतायें तेजी से बढ़ी हैं. इतने बड़े पैमाने पर हो रहे भ्रष्टाचार से जनता तंग आ चुकी है ... (मणिपुर में) इरोम शर्मिला ने इस तथ्य की ओर इशारा किया है कि (एएफएसपीए के खिलाफ) दस वर्षों से चल रहे उसके आमरण अनशन के बावजूद कुछ बदला नहीं है. उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात कही है. परन्तु ... भ्रष्टाचार विरोधी लोगों ने जो करने की कोशिश की है ... वह बहुत महत्वपूर्ण और अति आवश्यक है." (टाइम्स आफ इण्डिया, क्रैस्ट एडीशन, 23 अप्रैल 2011) उन्होंने राजद्रोह कानून के बारे में भी कहा, "वर्तमान कानून औपनिवेशिक शासन से आया है. हमें देश व भारत की जनता के प्रति निष्ठा की बेहतर परिभाषा की आवश्यकता है जो एक आजाद देश के आजाद नागरिक की स्थितियों के अनुरूप हो."
राजद्रोह कानून (आईपीसी की धरा 124 ए), एएफएसपीए, छत्तीसगढ़ स्पेशल पब्लिक सिक्यूरिटी एक्ट 2005, यूएपीए के व्यापक और कठोर प्रावधान - ये सभी कानून अपनी अंतर्वस्तु में लोकतंत्र की मूल अवधारणा से मेल नहीं खाते.
जागरूक लोगों की राय और जनप्रतिरोध के कारण बिनायक सेन को जमानत मिल सकी परन्तु बहुत से अनाम बिनायक आज भी न्याय मिलने का इन्तजार कर रहे हैं. जनप्रतिरोधों के तेज होते जाने के कारण सरकार को मजबूरन भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल बिल बनाने के लिए मान लेना पड़ा. अब जरूरत है कि वही जनता इस तरह के खतरनाक कठोर कानूनों को भी वापस लिये जाने की मांग को लेकर आवाज उठाये, जो कि हमारे संवैधनिक अध्किारों और स्वतंत्रता का मखौल बनाते हैं और जिनका इस्तेमाल कार्यकर्ताओं व उन आम लोगों के विरुद्व किया जाता है जो किसी भी प्रकार से कारपोरेट लूट और दमन को चुनौती देते हैं. जरूरी है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनकर्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता कन्धे से कन्धा मिला कर आगे बढ़ें और भ्रष्टाचार और दमन से मुक्त लोकतांत्रिक भारत का झण्डा लहरायें!
(प्रशांत भूषण के लेख - जन लोकपाल बिलः कुछ सरोकार - द हिन्दू, 15 अप्रैल 2011) - से कुछ अंश. (प्रशांत भूषण उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कार्यकर्ता और लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने के लिए गठित कमेटी के सदस्य हैं.)
भारत में भ्रष्टाचार बेहद चिन्ताजनक रूप से बढ़ चुका है, क्योंकि नीतियों ने इसे पनपने और फैलने के लिए पर्याप्त अनुकूल वातावरण बना दिया है. साथ ही ऐसी कारगर और प्रभावशाली संस्थाओं, जो सही जांच व भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्यवाही कर सकें, की गैरमौजूदगी भी इसके पीछे है. उदारीकरण और निजीकरण के नाम में भारत ने जिन नीतियों को अपनाया उनके माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों और सार्वजनिक सम्पत्ति (खनिज संसाधन, तेल, गैस, स्पैक्ट्रम आदि) के, बिना किसी पारदर्शिता या सार्वजनिक नीलामी की प्रक्रिया को अपनाये, निजीकरण के रास्ते खोल दिये. सरकारों ने रातों-रात निजी कारपोरेशनों के साथ ऐसे समझौता प्रपत्रों पर हस्ताक्षर कर दिए जिनके तहत खनिज सम्पदा, जंगलों और जल से समृध्द भू-भागों की लीज दे दी गई. इससे संसाधनों के वास्तविक कीमत के 1 प्रतिशत से भी कम की रायल्टी सरकार को देकर निजी कारपोरेशनों को इनका दोहन करने और बेचने के अधिकार मिल गये.
कर्नाटक के लोकायुक्त न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े ने कर्नाटक में खनन पर दी गई रिपोर्ट में इस तथ्य पर रोशनी डाली है कि इस तरह के उद्यमों में मुनाफे की सीमा 90 प्रतिशत से भी अधिक होती है. जिससे बड़ी मात्रा में घूसखोरी की सम्भावनायें प्रबल होती हैं, साथ ही इससे भ्रष्टाचार को फलने-बढ़ने का मौका भी मिलता है. ठीक यही उदाहरण हमने ए. राजा के मामले में देखा जहां बगैर किसी सार्वजनिक नीलामी की प्रक्रिया के निजी संस्थानों को बाजार मूल्य के 10 प्रतिशत से भी कम पर स्पेक्ट्रम बेच दिया गया. बिजली, पानी, हवाई अड्डों का विकास और ऐसी अनगिनत सेवाओं में निजी एकाधिकारों को स्थापित किया जो नियन्त्राक को घूस दे कर और मनमाने दाम वसूल कर बेतहाशा अनुचित मुनाफा कमा सकते हैं.
हवाई अड्डा विकास, राजमार्गों का निर्माण, विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजे़ड) आदि की आड़ में दसियों हजार हेक्टेयर भूमि निजी कम्पनियों को व्यवसायिक उपयोग के लिए दे दी गई है. और वह भी इन भू-खण्डों के वास्तविक मूल्य के 10 प्रतिशत से भी कम मूल्यों पर.
ये नीतियां न सिर्फ भ्रष्टाचार के लिए बड़े पैमाने पर अनुकूल माहौल बनाती हैं, बल्कि लाखों-लाख की संख्या में गरीब मेहनतकशों के जबरिया विस्थापन के लिए भी जिम्मेदार हैं. भुखमरी की कगार पर छोड़ कर उनमें से कईयों को माओवादियों के साथ जाने को विवश कर देती हैं. मुनाफाखोरों ने भूमि और प्राकृतिक संपदा का बेतहाशा दोहन किया है (साथ ही उसके उत्पादों की अच्छी खासी मात्रा का निर्यात किया है) और पर्यावरण को नष्ट किया है. इस प्रकार के सौदों के कारण ऐसे भीमकाय निजी कारपोरेशन बन गये हैं जो इतने ताकतवर और प्रभावशाली है कि वे लगभग सभी सत्ता संस्थानों को प्रभावित करने और उन पर अपना नियंत्राण कायम करने की स्थिति में आ गये हैं - राडिया टेपों से यह बात जगजाहिर हो चुकी है.
भ्रष्टाचार के लिए उपजाऊ जमीन तैयार करने वाली नीतियों को अपनाने के साथ हमने भ्रष्टाचार पर रोक लगाने, जांच करने और भ्रष्टाचारियों को दण्डित करने के लिए जरूरी प्रभावकारी संस्थानों का निर्माण नहीं किया ...
... जन लोकपाल बिल का मसौदा एक ऐसी संस्था के गठन की दिशा में है जो मोटे तौर पर पुलिस से अलग हो और ऐसी शक्तियों से सम्पन्न हो कि स्वतंत्र रूप से जांच करने और सभी जन सेवकों (मन्त्री, सांसदों, नौकरशाहों, जजों आदि सहित) और अन्य ऐसे सभी लोगों जो उन्हें भ्रष्ट करने के अपराधी हैं, के विरुध्द अभियोग चलाने में सक्षम हो ...
... लेकिन किसी को भी इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि लोकपाल कानून अपने आप में भ्रष्टाचार की समस्या का समाधन है. जब तक हम उन नीतियों को चुनौती देकर नहीं बदल डालते हैं जो बड़े पैमाने पर भारी भ्रष्टाचार के लिए उपजाऊ जमीन तैयार करती हैं तथा दैत्याकार निजी कारपोरेशनों को इस तरह पनपने का मौका दे रही हैं कि वे अब किसी भी संस्थान के नियंत्रण बाहर जा चुके हैं, यह जंग अधूरी ही रहेगी. न्यायपालिका में भी समग्र सुधारों की आवश्यकता है.
प्रभावी रूप से भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के लिए एक स्वतंत्र, विश्वसनीय और सशक्त लोकपाल का होना बेहद जरूरी है, यद्यपि सिर्फ इतना ही पर्याप्त नहीं है. आइये इसके माध्यम से कम से कम एक शुरूआत तो की जाय.”