आज सभी इस बात से सहमत हैं कि भ्रष्टाचार देश के सामने एक गंभीर संकट है. लेकिन सवाल है कि आज के भ्रष्टाचार का स्वरूप क्या है और कौन इसके लिए जिम्मेदार है?
कुछ लोगों का कहना है कि घूस लेने वाले राजनेता और नौकरशाह ही भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार हैं. उनका कहना है कि अगर संसाधनों, परिसंपत्तियों और संस्थानों को सरकारी नियंत्राण से ‘मुक्त’ कर दिया जाए तो भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा. लेकिन वे भूल जाते हैं कि 1990 के दशक में भी भ्रष्टाचार के लिए लाइसेंस-कोटा राज को जिम्मेदार माना गया था और कहा गया था कि उदारीकरण और निजीकरण के जरिये व्यवस्था पाक-साफ हो जायेगी. तब निजीकरण के बाद भ्रष्टाचार अकल्पनीय रूप से इतना कैसे बढ़ गया, जिसके बारे में पहले हम सोच भी नहीं सकते थे?
राडिया टेपों ने स्पष्ट रूप से यह जाहिर कर दिया है कि भ्रष्टाचार केवल घूसखोरी तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि यह एक ज्यादा व्यापक प्रक्रिया बन गया है, जिसमें निजी कारपोरेशन संसाधनों को लूट रहे हैं और विभिन्न संस्थानों को जर्जर कर रहे हैं.
हाल के दिनों में भ्रष्टाचार के विरुद्व उल्लेखनीय जन आंदोलन दिखायी पड़ा. इस आंदोलन को महत्वपूर्ण जीत मिली जब सरकार को प्रभावी भ्रष्टाचार विरोधी कानून बनाने की दिशा में कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया गया. किसी भी भ्रष्टाचार विरोधी संघर्ष के लिए प्रभावी और पूर्वाग्रहमुक्त भ्रष्टाचार विरोधी प्रक्रिया निश्चित रूप से उसका महत्वपूर्ण औजार है. लेकिन क्या केवल कोई कानून भ्रष्टाचार को खत्म कर पायेगा अगर भ्रष्टाचार को जन्म देने वाली नीतियां नहीं बदली जाती हैं?
उदारीकृत अर्थव्यवस्था में भूमि, खनिज, स्पेक्ट्रम, (दूरसंचार वायु-तरंगें) जैसे कीमती प्राकृतिक संसाधनों तथा सड़क, हवाई अड्डा इत्यादि राज्य के एकाधिकार वाली सेवाओं के निजीकरण ने निजी घरानों के लिए अभूतपूर्व मुनाफे की संभावना पैदा कर दी है. कौड़ी के दाम भूमि, खनिज, स्पेक्ट्रम और अन्य कीमती संसाधनों को हथिया कर कोई भी कारपोरेट घराना बेशुमार मुनाफा कमा सकता है. इन आकर्षक ‘उपहारों’ के लिए होड़ करते हुए कारपोरेट घराने अपने इस बेशुमार मुनाफे का एक बहुत छोटा हिस्सा मधु कोड़ा या ए. राजा जैसे नेताओं तथा अन्य नीति निर्माताओं को घूस के बतौर देने के लिए तैयार रहते हैं.
देश की जनता का खजाना केवल कुछ बड़े वित्तीय घोटालों में ही नहीं लुट रहा है. हर रोज, तकरीबन नियमित दिनचर्या की तरह अरबों रुपए कारपोरेट करों में छूट के नाम पर बहाए जाते हैं और वह सब काला धन विदेशी बैंकों में जाकर जमा होता है. प्रतिदिन केंद्रीय बजट से कारपोरेट आयकर में 240 करोड़ रुपए की छूट दी जाती है और रोजाना यह राशि विदेशी बैंकों में चली जाती है.
2011 के बजट में, प्राथमिकता वाले करदाताओं को सब्सिडी भुगतान के नाम में कुल 88,263 करोड़ रुपए की विशाल राशि की कारपोरेट टैक्स में छूट दी गई है! ध्यान देने योग्य तथ्य है कि राजस्व में दी जाने वाली छूट की कुल मात्रा में तेजी से वृद्वि हो रही है. 2006-07 में यह लगभग 2.4 लाख करोड़ थी और 2010-11 में 5.7 लाख करोड़ हो गई! राजस्व छूट और राजस्व संग्रह का अनुपात भी तेजी से बढ़ रहा है. 2006-07 के 50 प्रतिशत से बढ़कर पिछले साल यह 80 प्रतिशत हो गया.
सर्वाधिक अमीर कारपोरेट घरानों, जिनके सी.ई.ओ. (मुख्य कार्यकारी अधिकारी) दुनिया के अरबपतियों में शामिल हैं, को आखिर क्यों सब्सिडी दी जा रही है, जबकि गरीब भारतीयों के लिए निःशुल्क शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन की उपलब्ध्ता सुनिश्चित करने के लिए सरकार धन की कमी का रोना रोती है? आखिर क्यों इन बेहद अमीर लोगों को रोजाना काले धन के जरिए देश का खून चूसने का लाइसेंस दिया गया है? क्या इन नीतियों और सरकार की प्राथमिकताओं को चुनौती दिए बगैर भ्रष्टाचार कभी समाप्त हो सकता है ?
केवल व्यक्तिगत तौर पर घूसखोर राजनेता और नौकरशाह ही नहीं, बल्कि समूची सरकार और राज्य मशीनरी ही इस प्रक्रिया में भ्रष्ट हो जाती है, क्योंकि वह जनहित की बजाय निहित कारपोरेट हितों के प्रभाव में काम करने लगती है. आमतौर पर उदारीकरण वाले भारत में समूची सरकारी मशीनरी ऐसे कानून व नीतियां बनाती है और ऐसे फैसले करती है, जो भूमि, खनिज और अन्य संसाधनों की कारपोरेट लूट को बढ़ावा देने में मदद करें. यहां तक कि पर्यावरण, खनिज आदि से जुड़े हुए राष्ट्रीय कानूनों को नजरअंदाज भी करती है. यह एक बार घटित होने वाला घोटाला नहीं रह गया है. यह कारपोरेट मुनाफे के लिए हमारे संसाधनों के निरंतर दोहन की प्रक्रिया बन गयी है. जहां टेलिकाम घोटाले में देश के खजाने को तकरीबन 1.76 लाख करोड़ रुपयों का नुकसान उठाना पड़ा, वहीं कारपोरेट घराने हर साल भू-संपदा, खनिज निर्यात आदि से कई लाख करोड़ का मुनाफा कमा रहे हैं. कारपोरेट क्षेत्र को खुलेआम दी जा रही टैक्स माफी और अन्य रियायतों के जरिये होने वाली विशाल कमायी का तो कहना ही क्या!
उदारीकरण और निजीकरण से भ्रष्टाचार में कमी आयी या कि उसे बढ़ावा मिला? आइये, इसका जबाव खुद उदारीकरण के भरोसेमन्द पैरोकारों से ही जाना जाय. केपीएमजी नाम की सलाहकार संस्था ने कारपोरेटों के जवाबों पर आधारित अध्ययन घूसखोरी और भ्रष्टाचार का सर्वेक्षणः व्यापार के परिवेश पर इसका प्रभाव; (सर्वे आन ब्राइबरी एण्ड करप्शन: इम्पैक्ट आन बिजनेस एन्वायरन्मेंट) प्रकाशित किया है. इस सर्वे में ‘भ्रष्टाचार के बदलते हुए चेहरे’ की सच्चाई को सामने लाते हुए माना गया है कि "लाइसेंस राज के दिनों में तो भ्रष्टाचार ‘बाबुओं’ की छोटी-छोटी मांगों तक सीमित था, आज उसका दायरा बहुत बड़ा और व्यापक हो गया है. ... अब यह छोटी-मोटी घूस; (बख्शीश) तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि हजारों करोड़ रुपयों के ऐसे घोटालों की शक्ल ले चुका है जिनके पीछे एक राजनीतिक/औद्योगिक गठजोड़ काम कर रहा है और इस गठजोड़ पर यदि रोक न लगायी गयी तो इसके दूरगामी परिणाम होंगे. मीडिया में आ रही वित्तीय घोटालों की खबरें बताती हैं कि छोटी-मोटी घूसखोरी थोड़ी बहुत परेशानी पैदा करती है, जिसके लिए निचले स्तर के सरकारी अध्किारी मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं लेकिन महाघोटालों के पीछे निजी क्षेत्र है जो अपना काम कराने के लिए ऊंचे पदों पर बैठे सरकारी अधिकारियों को खुद अपनी इच्छा से घूस देने को तत्पर है".
हाल ही में अण्णा हजारे के अनशन के साथ एक सफल आंदोलन की शुरूआत हुई, जिसने सरकार को लोकपाल बिल का मसौदा नये सिरे से तैयार करने के लिए एक संयुक्त कमेटी गठित करने को मजबूर किया जिसमें सिविल सोसायटी कार्यकर्ता और विशेषज्ञ तथा सरकार के प्रतिनिध शामिल हैं.
लेकिन इतना तो साफ है कि टू-जी घोटाले और केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति में लीपा-पोती करने में सारी सीमायें लांघ चुकी सरकार इतनी आसानी से एक प्रभावी लोकपाल बिल नहीं आने देगी. लोकपाल बिल के लिए आगे का रास्ता सीध-सपाट नहीं होगा - एक अच्छा कानून बने यह सुनिश्चित करने के लिए जनता की निगरानी और संघर्ष की निरंतरता होना बहुत जरूरी है.
प्रभावी लोकपाल बिल की जरूरत को मानते हुए और इससे सहमत होते हुए कि लोकपाल बिल का सरकारी मसौदा बिल्कुल नख-दंत विहीन है, कुछ लोगों ने ऐसी आशंका जाहिर की कि एक सुपर-पुलिस जैसा तंत्र बनाने से तो लोकतंत्र ही खतरे में पड़ जायेगा. निश्चित रूप से इस बात की गारंटी करना बहुत जरूरी है कि लोकपाल बिल न केवल प्रभावी हो, बल्कि उसके साथ ही उसमें पारदर्शिता व जवाबदेही भी हो. लोकतंत्र और जवाबदेही को लेकर व्यक्त की गई चिंतायें वाजिब हैं और बिल का मसौदा बनाने के दौरान इन पर ध्यान दिया जाना चाहिए. परन्तु इसके साथ ही यह जरूरी है कि लोकतंत्र की कीमत पर भ्रष्टाचार को किसी तरह की वैधता न मिल जाय. हमें एक सुपर-पुलिस बिल्कुल नहीं चाहिए, लेकिन एक ऐसे प्रभावी व स्वतंत्र पुलिस की तो निश्चित तौर पर जरूरत है जो दण्ड योग्य लोगों के हाथों का खिलौना बनने की जगह जनता के प्रति जवाबदेह हो.
इसके साथ ही लोकपाल कानून के संघर्ष को अगले चरण में ले जा कर कारपोरेट भ्रष्टाचार और लूट को खुली चुनौती देनी होगी ताकि भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाया जा सके.
कॉरपोरेट सेक्टर की राय (इस सर्वे में 48 प्रतिशत विदेशी बहुराष्ट्रीय निगमों और 28 प्रतिशत भारत आधारित बहुराष्ट्रीय निगमों से जुड़े लोग शामिल थे) के आधार पर केपीएमजी के सर्वेक्षण में कुछ उद्योगों और सेक्टरों को खासतौर पर चिन्हित किया गया है जहां भ्रष्टाचार की संभावना अधिक है. इस सूची में भूसंपदा और निर्माण क्षेत्र सबसे उपर हैं. इसके बाद दूरसंचार, सामाजिक विकास क्षेत्र, वित्त्त सेवायें, रक्षा क्षेत्र, सूचना प्रौद्योगिकी/ मनोरंजन/बीपीओ, उर्जा और विद्युत क्षेत्र तथा अन्य क्षेत्र (मीडिया, उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र, दवाइयां, स्वास्थ्य, भारी इंजीनियरिंग और परिवहन समेत) हैं. 68 प्रतिशत उत्तरदाताओं का कहना था कि आम तौर पर निजी क्षेत्र द्वारा भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया जाता है. इसीलिए सर्वे के निष्कर्ष में निजी क्षेत्र को रिश्वत-विरोधी, भ्रष्टाचार-विरोधी विनियमों की परिधि में लाने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है.
उदारीकरण की वकालत करने वालों का एक और पसंदीदा झूठ यह है कि टैक्स की ऊंची दरों से भ्रष्टाचार पैदा होता है. मजेदार बात यह है कि केपीएमजी का सर्वेक्षण तो भ्रष्टाचार की वृद्वि में निजी क्षेत्र की सहभागिता को चिन्हित करता है लेकिन सर्वेक्षण की भूमिका में अर्थशास्त्री सुरजीत सिंह भल्ला इस विचार को जोरदार तरीके से व्यक्त करते हैं और मांग करते हैं कि भू-संपदा की लेन-देन पर लगाये गये पूंजी लाभांश कर सहित सभी करों में और कटौती की जाये. न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी- भ्रष्टाचार को नियंत्रित और खत्म करने के लिए भल्ला साहब का यही सरल नुस्खा है. परन्तु हम सब जानते हैं कि पिछले तीन दशकों से भारत में विभिन्न सरकारें इसी नीति पर तो चलती रही हैं. हालिया 2011-12 के बजट में सरकार ने कॅारपोरेट टैक्स पर अधिभार 7.5 प्रतिशत से घटाकर 5 प्रतिशत कर दिया है. तब, जबकि पिछले साल कॉरपोरेट टैक्स में दी गयी छूट 88 हजार 263 करोड़ रुपये थी; (2005-06 से लेकर 2010-11 तक कॉरपोरेट टैक्स में कुल छूट 3 लाख 74 हजार 937 करोड़ रुपये रही.)
अगर भारी कराधान से भ्रष्टाचार बढ़ता है तो टैक्स घटाने से भ्रष्टाचार दिन ब दिन कम होना चाहिए था. लेकिन फिर हमारे सामने एक और अध्ययन है, जो ग्लोबल फाइनेंशियल इंटिग्रिटी (जीएफआई) द्वारा फोर्ड फाउन्डेशन के अनुदान से चलाया गया और इसके नतीजे उल्टी कहानी बयान करते हैं. अर्थशास्त्री देव कर द्वारा प्रकाशित "भारत से बाहर हुये अवैध वित्तीय प्रवाह के कारक और गतिकीः 1948-2000; (द ड्राइवर्स एण्ड द डायनमिक्स ऑफ इल्लिसिट फाइनेंशियल फ्लोज फ्रॉम इंडियाः 1948-2008) शीर्षक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि इन 61 सालों में भारत से अवैध वित्त पलायन 462 अरब बिलियन डॉलर हुआ. इस अवैध वित्त का 68 फीसदी पलायन उदारीकरण के बाद के वर्षों (1991 के बाद) में हुआ है. जीएफआई के निदेशक रेमण्ड डब्ल्यू बेकर के मुताबिक उदारीकरण के बाद पलायन की बढ़ी हुई दर से बजट घाटे और मुद्रा स्फीति का कोई खास लेना-देना नहीं है. जीएफआई अध्ययन में पूंजी के पलायन में हुई खतरनाक बढ़ोत्तरी को (आर्थिक) सुधारों की प्रक्रिया से जोड़ा गया है. यह स्पष्ट है कि 1991-2008 के उदारीकरण के दौर में नियंत्रण में ढील और व्यापार-उदारीकरण ने भारतीय अर्थतंत्र से धन के अवैध पलायन को तेज कर दिया. व्यापार में कीमतें तय करने की मनमानी के अवसर बढ़ गये और दुनिया के पैमाने पर ‘हॉट मनी’ (ब्याज व विनिमय दरों के अंतर से मुनाफा बनाने के लिए एक देश से दूसरे देश में काफी कम समय के लिए निवेश की जाने वाली पूंजी, इससे संबंधित बाजार में अस्थिरता बनने का खतरा रहता है) के प्रभाव वाली एक काली वित्तीय व्यवस्था का विस्तार हुआ, खासकर टापुओं में स्थित छोटे-छोटे देशों में जहां ऐसी पूंजी पर टैक्स नहीं लिया जाता. इन देशों में गोपनीयता के कानूनों द्वारा रक्षित छद्म कारपोरेट घरानों ने भारत से खरबों डॉलर उठाकर जमा किया और पुनः उन्हें लघु या दीर्धावधि निवेशों की शक्ल में भारत में ही लगा दिया. स्वयं-संचालित इस चक्र में बिना लिखा-पढ़ी के लेन-देन को बढ़ावा देने के मकसद से अक्सर ऐसा किया गया."
भारत के काले अथवा भूमिगत अर्थतंत्र का एक बड़ा हिस्सा अवैध पूंजी प्रवाह है. जीएफआई अध्ययन के अनुसार अवैध संपदा का 72 प्रतिशत हिस्सा विदेशों में जमा है और 28 फीसदी ही देश में मौजूद है. अध्ययन में यह भी पता चला कि उदारीकरण के बाद दोनों में ही बड़ी तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है - भूमिगत अर्थतंत्र का हिस्सा उदारीकरण के दौर में सकल घरेलू उत्पाद के 42.8 प्रतिशत की औसत रफ्तार से बढ़ा है, जबकि उदारीकरण के दौर से पहले यह रफ्तार 27.4 प्रतिशत थी. दूसरी ओर अवैध प्रवाह की समग्र वार्षिक वृध्दि दर उदारीकरण के पहले के दौर में 9.1 प्रतिशत थी, लेकिन उदारीकरण के बाद के वर्षों में यह 16.4 प्रतिशत हो गयी.
अध्ययन में साफ तौर पर माना गया है कि अवैध पूंजी प्रवाह के उसके अनुमान वास्तविकता से बहुत ही कम है. क्योंकि इसमें मुख्य राशि ; उदाहरण के लिए इसमें तस्करी और व्यापार में मूल्यों की मनमानी को शामिल नहीं किया गया है, आधिकारिक आंकड़ों में दर्शायी गयी कमी की तो बात ही छोड़िए का आकलन तो कम किया ही गया है, ब्याज की राशि का भी कम आकलन किया गया है; अध्ययन में अमेरिकी लेन-देन की ब्याज दर शामिल की गयी है, जो भू संपदा, बहुमूल्य धातुओं, कलाकृतियों पर होने वाले वास्तविक मुनाफे से काफी कम है. फिर भी, यह कम आकलन 2008 के अंत में भारत के कुल विदेशी कर्ज; 230.6 खरब डालर से दो गुना है.
सुधारों के इस दौर में अवैध पूंजी प्रवाह ( पूंजी के कानूनी पलायन अथवा निर्यात से अलग ) के पीछे कौन से कारक काम कर रहे हैं? अध्ययन में इसके दो महत्वपूर्ण कारण बताये गये हैं- 1. विदेश व्यापार में बढ़ोत्तरी जिससे व्यापार में मनमानी कीमतें तय करने के अवसर बढ़ गये हैं (अध्ययन के मुताबिक कुल अवैध पूंजी प्रवाह का 77.6 प्रतिशत व्यापार में मूल्यों की मनमानी से पैदा होता है.) 2. देश के भीतर ही आर्थिक असमानता में बढ़ोत्तरी, जिससे अरबपतियों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है (इनमें से हर एक के पास 1 अरब डॉलर से अधिक की निवेश योग्य संपदा है.) ये लोग ही 'अवैध पूंजी प्रवाह की प्रचालक शक्ति हैं.' भारत में 2006 में 1 लाख अरबपति थे, वहीं महज तीन सालों के भीतर 2009 में यह संख्या 1 लाख 27 हजार हो गयी. हाल में फोब्र्स द्वारा प्रकाशित डॉलर-खरबपतियों की सूची में 55 खरबपतियों के साथ भारत तीसरे स्थान पर है- अमेरिका और चीन के ठीक बाद. यानि दुनिया के 1210 खरबपतियों में भारत में 55 खरबपति ! जबकि 2001 में दुनिया के 538 खरबपतियों में महज 4 भारतीय खरबपति थे.
इस अवैध पूंजी प्रवाह की मंजिल क्या है? यह काला धन या तो विकसित देशों के वाणिज्यिक बैंकों में पहुंच जाता है, या फिर वैश्विक पूंजी के उभरते हुए ‘ऐशगाह’ टापुओं में मौजूद पूंजी केंद्रों में. 1995 में भारत के इस अवैध पूंजी प्रवाह का 60 प्रतिशत हिस्सा विकसित देशों के बैंकों में पहुंचा था. लेकिन अगले दो दशकों में इन बैंकों का हिस्सा घटकर 40 प्रतिशत हो गया, जबकि टापुओं में मौजूद पूंजी केंद्रों का हिस्सा बढ़कर 60 प्रतिशत हो गया है. प्राथमिकताओं में इस परिवर्तन की वजह स्पष्ट है- टापुओं में मौजूद पूंजी केंद्र बैंकों के मुकाबले ज्यादा गोपनीयता और सुरक्षा प्रदान करते हैं. इसीलिए दुनिया भर से अवैध पूंजी आकर्षित होकर वहां पहुंचती है. फिलहाल भारत का 65 देशों के साथ दोहरा कराधान बचत समझौता है और अगर सरकार विदेशों में मौजूद गैरकानूनी भारतीय संपदा के बारे में जानती भी है तो अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और निवेशक में विश्वास बनाये रखने के नाम पर इन खाताधरकों का नाम उजागर करने से बचती है.
केवल भ्रष्टाचार-विरोधी कानूनों से ही भ्रष्टाचार नहीं रुक सकता. भ्रष्टाचार को जन्म देने वाली नीतियों को बदले बगैर भ्रष्टाचार विरोध कानूनों पर ही भरोसा करना वैसा ही है, जैसे कि गंदगी का स्रोत बंद किये बगैर घर की साफ-सफाई करते रहना.
मजेदार बात तो यह है कि नव-उदारीकरण के पैरोकार भ्रष्टाचार में बढ़ोत्तरी की बात तो मानते हैं, लेकिन उद्दंडता पूर्वक इस तथ्य का इस्तेमाल और अधिक उदारीकरण तथा वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण का माहौल बनाने के लिए करते हैं. उपरोक्त केपीएमजी सर्वेक्षण यह बताने की कोशिश करता है कि भ्रष्टाचार में आयी बढ़ोत्तरी की वजह कुछ क्षेत्रों में हुई असंतुलित वृद्वि तथा नये खिलाड़ियों की बेरोक-टोक आमद है. ये नये खिलाड़ी घूसखोरी का सहारा लेते हैं, जिससे बराबरी पर होड़ न हो सके और इन्हें मनमाना खेलने की छूट मिल सके. इसीलिए एक मजबूत नियामक तंत्र बनाने से ही सब कुछ हल हो जायेगा.
लेकिन राडिया टेप तो एक दूसरी ही कहानी बयान करते हैं. असल में पुराने खिलाड़ी ही अपनी जमीन बचाने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हैं और तथाकथित नये खिलाड़ी अक्सर मुट्ठी भर बड़े घरानों द्वारा पाले-पोसे गये छद्म खिलाड़ी हैं. सवाल यह नहीं है कि नये अथवा पुराने खिलाड़ियों में से कौन ज्यादा जिम्मेदार है, गौरतलब यह है कि बड़े व्यवसायियों के सम्मुख राज्यतंत्र की भूमिका सेवक की रह गयी है. वह भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहा है और आर्थिक सुधारों के सह-उत्पाद के बतौर उसे निरंतर कानूनी जामा पहना रहा है. दुर्भाग्य से शासन का यही मतलब रह गया है. वैसे तो अमेरिका में सबसे अच्छा नियामक तंत्र मौजूद है, फिर भी दुनिया ने देखा कि हाल के विस्फोटक वित्तीय संकट में उनकी भूमिका कौड़ी के तीन बनकर रह गयी. भारत में तो किसी भी नियामक तंत्र को न केवल घरेलू बड़े व्यवसायियों का दबाव झेलना पड़ेगा बल्कि उसे वैश्विक पूंजी तथा इसके प्रमुख अभिभावक अमेरिकी साम्राज्यवाद का दबाव भी झेलना पड़ेगा.