घोटालों के बाद महा-घोटालों से स्पष्ट हो रहा है कि कैसे व्यवस्था के हरेक अंग में भ्रष्टाचार की सड़ांध् तेजी से पफैलती जा रही है. जब भी कोई बड़ा घोटाला सामने आता है, कुछ जांचें तो शुरू की जाती हैं लेकिन अपवाद स्वरूप ही किसी अपराधी को सजा मिल पाती है. लेकिन आज हो रहे घोटाले कोई अपवाद नहीं हैं, बल्कि वे आम परिघटना बन गये हैं. पहले कुछ लोग मानते थे कि सरकार और नौकरशाही तो भ्रष्ट हैं, किन्तु न्यायपालिका और सेना पाक-सापफ हैं. लेकिन आज ऐसे मोहक भ्रम भी तार-तार हो चुके हैं.
केन्द्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) ने कामनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार की अपनी प्राथमिक जांच में 16 संबंधित कार्यस्थलों पर भ्रष्टाचार के सबूत पाये काम के ठेके ऊंची दरों पर और अपात्र एजेन्सियों को दिये गये. नीलामी के टेण्डरों में हेरा-फेरी की गई, टेण्डर जारी करने में अनियमिततायें हुईं, स्ट्रीट लाइटों जैसी मूलभूत सुविधओं का अनावश्यक ‘उच्चीकरण’ किया गया. इस घालमेल में इन कार्यों को अंजाम देने में लगी सभी सरकारी एजेन्सियां - पीडब्लूडी, एमसीडी, डीडीए, एनडीएमसी, सीपीडब्लूडी और राइट्स आदि- दोषी पायी गईं.
रिपोर्ट के अनुसार कामनवेल्थ खेलों के कार्यों में लगे लगभग सभी संगठनों ने टेण्डरों को सही ठहराने के लिए जरूरी या आकस्मिक परिस्थितियों के नाम में न्यायसंगत कीमतों को बढ़ाने के बिल्कुल ही अस्वीकार्य कारकों को मान लिया.
यह बात सामने आयी है कि दिल्ली और केन्द्र की सरकारों, खुद प्रधानमन्त्री समेत, को सीवीसी की जांच में आये तथ्यों के बारे में आम जनता के सामने आने के काफी पहले से ही जानकारी थी. परन्तु प्रधानमन्त्री कार्यालय द्वारा इन खुलासों को ठण्डे बस्ते में डालने और खेलों से जुड़े भ्रष्टाचार के मामले सामने लाकर खेल खराब न करने के संकेत सीवीसी को दे दिये गये.
निर्माण की गुणवत्ता का स्तर इतना गिरा हुआ था कि खेल शुरू भी नहीं हुए थे और कई प्रतिष्ठित ढांचे (स्टेडियम, स्वीमिंग पूल आदि) या तो ध्वस्त हो गये अथवा उनमें भारी रिसाव होने लगा!
करीब 500 वस्तुओं को - कम्प्यूटरों से लेकर प्रसाधन के सामान तक, और कूड़ेदान से लेकर ट्रेडमिलों तक - उनके बाजार में खरीद मूल्य से दस गुनी अधिक कीमत चुका कर किराये पर लिया गया - वह भी अधिकांश विदेशी कम्पनियों से और इन पर 650 करोड़ रुपये खर्च किये गये.
खेलों की आर्गेनाइजिंग कमेटी (ओ.सी.) के अध्यक्ष कलमाडी ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि कोई भारतीय कम्पनी प्रतिद्वन्दिता में न आ पाये, टेण्डरों में निरपवाद रूप से एक ऐसी शर्त जोड़ दी जिसके अनुसार आवेदकों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर की खेल प्रतियोगिताओं में कार्य करने का अनुभव हो. ऐसे इस बात की गारंटी कर दी गई कि फर्नीचर से लेकर टायलट पेपर तक सभी कुछ ‘विदेशी’ आपूर्तिकर्ताओं से ही लिए जायें!
क्वींन्स बेटन रिले का मामला तो और भी अनोखा है. एक तो यह कि सबसे अधिक भाव बताने वाली कम्पनी - मैक्सम इण्टरनेशनल - को क्वींन्स बेटन रिले के लिए सलाहकार के रूप में काम दिया गया (इसने रु. 8.01 करोड़ का टेण्डर दिया था जबकि प्राइसवाटर हाउसकूपर और ब्रिलियेण्ट एण्टरटेनमेण्ट नेटवर्क ने क्रमशः रु. 1.19 और 1.85 का.)
उसके बाद ओसी ने करीब 2.5 लाख पाउण्ड भुगतान दो ब्रिटिश कम्पनियों - ए.एम. फिल्म्स और ए.एम. कार्स, जिनका मालिक कोई आशीष पटेल है - को लंदन में क्वीन्स बेटन रिले के दौरान ट्रांसपोर्ट, वीडियो स्क्रीन्स, और सचल टायलेट के लिए किया. इसमें न तो कोई ठेका दिया गया और न ही कोई टेण्डर प्रक्रिया अपनायी गई. इस धनराशि के अलावा ए.एम. फिल्म्स के खाते में हर महीने 25000 पाउण्ड जमा किये जाते रहे, और इस तरह 4 लाख 50 हजार पाउण्ड लंदन भेज दिये गये. यह साबित करने के लिए कि उक्त फर्म का अनुमोदन वहां के भारतीय हाई कमीशन ने किया था, कलमाडी ने एक ई-मेल पेश किया. परन्तु बाद में साबित हो गया कि वह ई-मेल फर्जी है. बाद में एक ई-मेल और सामने आया जिससे पता चला कि आर्गेनाइजिंग कमेटी के एक सदस्य संजय महेन्द्रू ने आशीष पटेल से टैक्सियों के किराये काफी बढ़ा-चढ़ा कर देने को कहा था.
कलमाडी के पिट्ठुओं के इस जमावड़े में भाजपा खेमे के भी कुछ खास लोग शामिल थे. स्टेडियमों में प्रसारण केन्द्रों के निर्माण के लिए सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने टेण्डर आमंत्रित किये - इनमें कुल लागत करीब 50 करोड़ रु. आनी चाहिए थी. कलमाडी की आर्गेनाइजिंग कमेटी ने इसका ठेका दीपाली टेण्ट हाउस को देने पर जोर दिया, जिसका मालिक भाजपा नेता सुधांशु मित्तल का भतीजा है. मंत्रालय ने दीपाली समेत तीन कम्पनियों को शार्टलिस्ट किया लेकिन दीपाली के रेट इतने ज्यादा ऊंचे थे कि मंत्रालय अंततः पीछे हट गया. आर्गनाईजिंग कमेटी के दबाव से बचने के लिए मंत्रालय ने तीनों में से किसी भी कम्पनी को ठेका नहीं दिया और यह काम एक सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई को सौंप दिया. दीपाली को इसकी ‘भरपाई’ करने के लिए कलमाडी ने उसे खेलों के ऊपरी ढांचे के काम-काज की आपूर्ति, टेस्टिंग, रखरखाव और हटाने आदि का ठेका रु. 230 करोड़ में दे दिया.
इन खेलों के दौरान घोटालों के खुलासों को ‘राष्ट्रीय सम्मान’ को क्षति पहुंचाने के नाम में दबाने की कोशिशें होती रहीं. बाद में यूपीए सरकार ने पूर्व सीएजी वी.के. शुंगलू के नेतृत्व में खेलों में हुई विभिन्न अनियमितताओं की उच्च स्तरीय जांच कराने की घोषणा की. सीबीआई, केन्द्रीय सतर्कता आयोग, प्रवर्तन निदेशालय आदि भी कथित तौर पर कामनवेल्थ महाघोटाले के विभिन्न पहलुओं की जांच कर रहे हैं. घोटालों की भूल-भुलैया को देखते हुये और खेलों के संगठन व संचालन की पूरी प्रक्रिया में शामिल एजेंसियों की विविधताओं के चलते इस बात की पूरी संभावना है कि जांच प्रक्रिया नौकरशाही के जंजाल और परस्पर आरोप-प्रत्यारोपों के राजनीतिक खेल के बीच दम तोड़ दे. ऐसे संकेत तो दिखने ही लगे हैं जिनसे लगता है कि यह पूरा मामला एक कलमाडी और शीला दीक्षित या कामनवेल्थ आर्गनाईजिंग कमेटी बनाम दिल्ली सरकार में सिमट कर रह जायगा.
सरकार के पास ऐसी जांचों को लम्बा खींच देने और ध्यान हटाने अथवा उसकी धार कुंद करने के लिए एक-दो लोगों को मुहरा बना देने का दशकों का अनुभव है. ऊपर से, देश में खेलों व प्रतिस्पर्धओं का संचालन करने के व्यापार में सभी प्रमुख राजनैतिक दल घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं. कामनवेल्थ घोटाले की जांच को यथोचित रूप में आगे बढ़ा कर किसी तार्किक परिणति तक पहुंचाने का काम इसीलिए नागरिक समाज की अति सक्रिय भागीदारी की मांग करता है.
राडिया टेपों के माध्यम से हम पहले ही देख चुके हैं कि किस तरह वीर सांघवी ने अंबानी बंधुओं के विवाद में मुकेश अंबानी के हितों को ‘राष्ट्रीय हित‘ के रूप में पेश किया.
एक अन्य बातचीत में प्रसिध्द ऐंकर बरखा दत्त को डी.एम.के. के कनिमोझी-राजा गुट और कांग्रेस के बीच संदेशवाहक के रूप में काम करने हेतु राजी होते हुए सुना जा सकता है. उन्होंने यह काम किया या नहीं, यह तो नहीं मालूम, लेकिन बाद की एक बातचीत के दौरान राडिया को यह कहते हुए सुना गया कि ‘एक बयान जारी करने के लिए बरखा ने कांग्रेस को मना लिया है.’
इन टेपों में पूर्व लिखित स्क्रिप्ट के अनुसार कारपोरेट साक्षात्कार करने, यहां तक कि उनकी पहले से ‘रिहर्सल’ भी करने के बहुत से हैं.
राडिया टेपों से जो बात खुल कर सामने आ गई वह यह कि कैसे बड़े-बड़े मीडिया घराने और उनसे जुड़ी शख्शियतें बड़े निगमों की जेब में रहते हैं और इसीलिए कारपोरेट स्वार्थों को ‘राष्ट्रीय हितों’ का जामा पहना कर पेश करते हैं, झूठी आम राय बनाते हैं और यहां तक कि उनकी पसंद का मन्त्री बनवाने में मदद करने के उद्देश्य से कारपोरेट गुटों के संदेश शासक पार्टियों तक पहुचाते हैं.
कैसी शर्मनाक बात है कि सर्वोच्च न्यायालय के पिछले मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालाकृष्णन अपने नजदीकी पारिवारिक सदस्यों के पास बड़ी मात्रा में अवैध संपत्ति होने के आरोपों का सामना कर रहे हैं. लेकिन हैरानी की बात यह है कि बालाकृष्णन अब भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बने हुए हैं.
उच्च न्यायालयों के कई न्यायाधीश भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे हैं. जैसे- कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सौमित्रा सेन, सिक्किम उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी. डी. दिनकरन (पहले कर्नाटक उच्च न्यायालय में थे) और उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति निर्मल यादव (पहले पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में थीं.)
भ्रष्ट जजों से निपटने में मौजूदा प्रक्रिया बिल्कुल निष्प्रभावी है. अभियोग लगाए जाने से पहले न्यायिक जांच होती है- लेकिन वह जांच अक्सर उन जजों के अपने दोस्त और सहकर्मी ही करते हैं! न्यायमूर्ति दिनकरन के खिलाफ जांच के लिए बनी समिति का मामला ही लें- तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश बालाकृष्णन ने दिनकरन के एक घनिष्ट मित्र न्यायमूर्ति सिरपुरकर को जांच समिति का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया! कड़े प्रतिरोध के बाद न्यायमूर्ति सिरपुरकर की जगह न्यायमूर्ति आफताब आलम को रखा गया.
23 करोड़ रुपए का एक गाजियाबाद पी एफ घोटाला भी है. जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत जज, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सात जज, अधीनस्थ न्यायालयों के 12 जज और उच्च न्यायालयों के 6 सेवानिवृत जजों के शामिल होने का आरोप है. मुख्य आरोपी आशुतोष अस्थाना की अक्टूबर 2009 में जेल में रहस्यपूर्ण मौत हो गई. उसने सी बी आई को कई पुख्ता दस्तावेज उपलब्ध कराए थे जिनसे इन जजों की मिलीभगत साबित हुई थी. हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को दिल्ली लाए जाने के सी.बी.आई के अनुरोध को खारिज कर दिया है.
मामले दर मामले बड़े व्यापारिक हितों के जुड़े होने से, यह साफ हो गया है कि पक्षपात और भ्रष्टाचार के लिए खुद सुप्रीम कोर्ट जिम्मेदार है.
न्यायिक कदाचार या भ्रष्टाचार को चुनौती देने वालों को डराने के लिए अक्सर ‘न्यायालय की अवमानना’ कानून का उपयोग किया जाता है. इसका ताजा उदाहरण सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण हैं जिन पर न्यायालय की अवमानना का आरोप लगाया गया क्योंकि उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के पिछले 17 प्रधन न्यायाधीशों में से लगभग आधे भ्रष्ट थे.
न्यायिक भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने वालों ने जजों के कामकाज और उन पर लगने वाले आरोपों की सही और पारदर्शी जांच के लिए संवैधानिक निकाय के रूप में एक स्वतंत्र न्यायिक कार्य निष्पादन आयोग की मांग की है, जिसके पास उनके खिलापफ अनुशासनिक कार्रवाई करने की शक्ति हो. उन्होंने न्यायाधीशों को भी लोकपाल कानून के दायरे में लाए जाने की मांग भी की है.
ट्रांसपेरेन्सी इण्टरनेशनल इण्डिया और सेण्टर फॉर मीडिया स्टडीज द्वारा 2007 में किये गये एक अध्ययन में पाया गया कि राशन, स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा, पानी और मनरेगा सहित ग्रामीण कल्याण की अन्य योजनाओं का लाभ पाने के लिए गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे परिवारों ने एक साल में 900 करोड़ रुपयों का घूस के रूप में भुगतान किया!
इस ‘टीआईआई-सीएमएस इण्डिया करप्शन स्टडी 2007’ के अनुसार पुलिस सबसे ज्यादा भ्रष्ट है. उस साल पुलिस के पास जाने वाले 56 लाख बीपीएल परिवारों में से 25 लाख परिवारों ने काम करवाने के लिए पुलिस को रु. 215 करोड़ घूस में दिये.
टीआईआई-सीएमएस के अध्ययन में यह भी बताया गया है कि जन वितरण प्रणाली की सेवायें भी आसानी से नहीं मिल पाती और 53 लाख साठ हजार बीपीएल परिवारों को उन्हीं के लिए दी सेवाओं को हासिल करने के लिए घूस देनी पड़ी. राशन कार्ड पाने के लिए भी अधिकारियों को घूस देनी होती है!
दस लाख परिवार अस्पताल की सुविधा से इसलिए वंचित हो गये क्योंकि उनके पास या तो अस्पताल के स्टाफ/अधिकारियों को घूस देने के लिए पैसा नहीं था अथवा वे घूस देना नहीं चाहते थे. इसी प्रकार गरीब किसानों के बच्चों का स्कूल में दाखिला करने, उनके प्रमाणपत्र देने, या अगली कक्षा में प्रोन्नत करने में भी स्कूल कर्मचारी व अधिकारी भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं.
जन वितरण प्रणाली के खाद्यान्न ;सस्ती दर पर मिलने वाले राशन को बाजार में बेच दिया जाता है और मनरेगा में आने वाली धनराशि के बड़े-बड़े घोटाले आज सभी राज्यों में सामान्य बात बन गये हैं. ऐसे घोटालों का पर्दाफाश करने वालों को प्रायः ही दमन और हिंसा का सामना करना पड़ता है - झारखण्ड में ललित मेहता, कामेश्वर प्रसाद, और नियामत अंसारी; मनरेगा और बीपीएल घोटालों को चुनौती देते हुए मारे गये कार्यकर्ता के मामले अभी भी आम लोग भूले नहीं हैं.
कारगिल शहीदों के लिए ताबूतों की खरीद में घोटाले में राजग शासन रंगे हाथ पकड़ा गया था. अब कारगिल युद्ध के सिपाहियों और विधवाओं के नाम पर जमीन हड़पने, अवैध् निर्माण करने और फ्लैटों के आवंटन के घोटाले में महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार की संलिप्तता सामने आयी है. क्या ही मजाक है कि घोटालेबाजों ने इस अवैध हाउसिंग सोसायटी का नाम ‘आदर्श’ रख लिया है. यह पूरा घटनाक्रम सभी सत्ता केन्द्रों के बीच से पूरी तरह गायब हो चुके नैतिक मूल्यों या आदर्शों को खुद ही बयान कर रहा है.
राजनीतिज्ञों के कुख्यात भ्रष्टाचार और बेईमानी की तुलना आमतौर पर सेना की ‘ईमानदारी’ और सत्यनिष्ठा से की जाती है. आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाले ने, जिसमें सर्वोच्च रैंक के बहुत से सैन्य अधिकारी शामिल हैं, ने इस मिथक को हमेशा के लिए तोड़ दिया है. रक्षा मन्त्री ए.के.एंटनी को रक्षा अधिकारियों की ‘आपराधिक साजिश’ को मानना पड़ा, जिसमें 6,490 वर्ग मीटर भूमि (जो सेना के कब्जे में पिछले साठ वर्षों से थी) प्रमोटरों से ‘सांठ-गांठ’ कर व्यवसायिक उद्देश्यों के लिए दे दी गयी.
सेना के कुछ अधिकारयों द्वारा कारगिल के वीरों और मातृभूमि की रक्षा में अपनी जान देने वालों को घर देने और पुरस्कृत करने के लिए फ्लैट देने की बात कर इस घोटाले की शुरूआत की गई. यद्यपि मुंबई के अभिजात कोलाबा इलाके में प्रस्तावित भूमि पर तटीय विनियमों के अनुसार ऊंचे भवन निर्माण प्रतिबंधित हैं. लेकिन विरोध कर रहे पर्यावरणवादियों को नजरअंदाज करने और अवैध ठहराने के लिए राष्ट्रवाद के आभामण्डल से आलोकित कारगिल के जादुई मंत्र के सहारे एक तीस मंजिला इमारत बन कर खड़ी हो गई. जब इस अपार्टमेण्ट काम्प्लेक्स के फ्लैटों के आवंटन की सूची सामने आयी तो वह अति विशिष्ट व्यक्तियों की ऐसी सूची थी जिसमें सर्वोच्च रक्षा अधिकारी, नौकरशाह, और मुख्य मन्त्री अशोक चह्वाण समेत कांग्रेस और एन.सी.पी. के महाराष्ट्र के बड़े बड़े नेता शामिल थे. जिन 103 लोगों को फ्लैट मिले उनमें से केवल 3 नाम ही कारगिल से संबंधित थे!
कांग्रेस ने अशोक चह्वाण को मुख्यमन्त्री पद से हटा दिया है और सीबीआई जांच का आदेश दिया है, केन्द्रीय पर्यावरण मन्त्री जयराम रमेश ने आदर्श सोसायटी को गिराने का आदेश दिया है, जिस पर उच्च न्यायालय में सुनवाई चल रही है. महाराष्ट्र उच्च न्यायालय ने इस बीच दक्षिण मुंबई की 60 एकड़ भूमि पर कोस्टल रेग्यूलेटरी जोन एक्ट के भारी पैमाने पर हो रहे उल्लंघन के कारण हुये अवैध निर्माणों और उससे पहुंची पर्यावरणीय क्षति के आंकड़े मांगे हैं.
परन्तु अभी यह देखना बाकी है कि क्या सचमुच सीबीआई बिल्ली के गले में घण्टी बांध पायेगी और इस शर्मनाक घोटाले के अपराधियों को दण्ड मिलेगा.
इसी बीच महाराष्ट्र और देश के अन्य भागों में सेना की संलिप्तता वाले ऐसे ही कई और घोटाले सामने आ गये हैं. बोफोर्स मामला और राजग के शासनकाल में तहलका द्वारा उजागर किया गया घोटाला, हमें बताते हैं कि कैसे उच्च पदस्थ सेना के अधिकारी और राजनीतिज्ञों को रक्षा सौदों में रिश्वत दी जाती है. हम सेना को जांच के दायरे से बाहर रखने और उसके अधिकारियों को कानून का उल्लंघन करने पर दण्ड से मुक्ति नहीं दी जा सकती. भ्रष्टाचार के आरोपी सैन्य अधिकारियों पर भी मुकदमा चलना ही चाहिए.