कम नकदी' का विचार कोई मोदी के दिमाग की उपज नहीं. 1990 के दशक के आखिरी हिस्से में विकसित अर्थव्यवस्थाओं, खासकर स्कैंडिनेविआई देशों में यह विचार पनपा. यह मुद्रा के डिजिटलीकरण की दिशा में स्वतःस्फूर्त और धीरे-धीरे चल रही प्रक्रिया का परिणाम था. यह उत्पादक शक्तियों के विकास (तकनीकी और प्रबंधन में बढ़तरी) से संचालित था जिसका कमोबेश सभी ने स्वागत किया. दूसरे विकसित देशों में भी इसके विस्तार का कोई विरोध नहीं हुआ.