कैशलेस अर्थतंत्र की ओर तेज रफ़्तार से जबरन संक्रमण के लिए 2010 के दशक में जो धक्का दिया गया, वह नव-उदारवादी दौर में फँसी पूँजी के आर्थिक हितों और दमनकारी राज्य की राजनीतिक चिंताओं के घनिष्ट होते जाने का परिणाम था. हमेशा की तरह इस रणनीति का जनता के हितों के नाम पर राज्य ने आक्रामक तरीक़ों से प्रचारित किया और पूँजीपति वर्ग उसकी ओट में छिपा रहा. 2012 के शुरुआत में माइकल स्नाइडर ने बताया कि कई कारणों (नकदी छापना, उसकी निगरानी, भंडारण, चलन को नियंत्रित करना महँगा है और इससे भी बढ़कर नकदी विहीन समाज सरकारों को जनता पर और अधिक नियंत्रण का मौका देता है) से "कई देशों की सरकारें नकदी विहीन समाज बनाने के लिए उत्सुक थीं. वे नकदी को क्रमशः नकारात्मक नजरों से देखने लगीं. यहाँ तक कि अमेरिकी सरकार के मुताबिक नकदी से क़ीमत चुकाने को 'संदिग्ध गतिविधि' माना जाने लगा और ऐसी गतिविधियों की खबर अधिकारियों को देना जरूरी होने लगा." (ए कैशलेस सोसाइटी मे बी क्लोज़र देन मोस्ट पीपुल वुड एवर डेयर तो इमेजिन, द इकनोमिक कोलेप्स, 29 मार्च 2012).
कैशलेस अर्थव्यवस्था को जबरन थोपने की कोशिशों को तेज करने के क्रम में ही बैंकों में जमा राशि पर नकारात्मक ब्याज देने का विचार पैदा हुआ. जब ब्याज दरों को घटाते-घटाते एक फीसदी या उससे भी कम करने के बावजूद लोगों को बचत कम और उपभोगज्यादा (2008 से ही मंदी झेल रही विकसित अर्थव्यवस्थाओं को जीवनदान देने के लिए यह जरूरी था.) के लिए प्रेरित नहीं किया जा सका तब बैंक वालों ने नकारात्मक ब्याज यानी जमाकर्ता से पैसा वसूलने के बारे में सोचना शुरू किया. डेनमार्क के केंद्रीय बैंक ने सबसे पहले 2012 में अपने यहाँ जमा पैसे पर ब्याज की दर को घटाकर शून्य से नीचे नकारात्मक कर दिया. जून 2014 में जब यूरोपीय केंद्रीय बैंक (ईसीबी) ने यूरोपीय अर्थव्यवस्था में ठहराव को दूर करने के नाम पर जमा-राशि पर ब्याज दर घटाकर -0.1 फीसदी कर दिया. अब यह प्रवृत्ति यूरो जाेन के देशों और जापान तक में फैल गयी है. फिलहाल कुछ ही देशों के बैंक नकारात्मक ब्याज वसूल रहे हैं (अक्सर अलग-अलग बैक चार्ज के नाम पर), लेकिन जरूरत पड़ने पर अन्य देशों के बैंक भी इस रास्ते पर बढ़ने के लिए तैयार हैं. समस्या यह है कि क़ीमत चुकाकर अपना पैसा बैंक में रखने के लिए लोग तैयार नहीं होते. उन्हें मजबूर करने का एकमात्र रास्ता नकदी को समाप्त करना और डिजिटल अदायगी को एकमात्र विकल्प बनाना है. इससे बैंकों (उनके जरिए लेन-देन का दायरा और आमदनी बढ़ेगी) तथा सरकार (हर लेन-देन की राशि, समय, जगह, मकसद, लेन-देन करने वालों पर निगाह रखने, हर लेन-देन पर कर वसूलने, आतंकवादी गतिविधियों की निगरानी करने व अन्य व्यावसायिक, राजनीतिक मकसदों के लिए निगरानी करने में मदद मिलेगी), दोनों को फायदा होगा.
अधिकांश विकसित देशों में डिजिटल मुद्रा को सर्वशक्तिमान बनाने के लिए राजनीतिक जमीन तैयार करने की कोशिशें बड़े पैमाने पर जारी हैं. अर्थशास्त्रियों और मीडिया को इस काम में लगा दिया गया है. अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्व प्रधान अर्थशास्त्री और 2016 में छपी 'नगदी का अभिशाप' (द कर्स ऑफ कैश) किताब के लेखक केनेथ रोगोफ ने बड़े मूल्य के नोटों को धीरे-धीरे खत्म करके कैशलेस समाज बनाने का रास्ता सुझाया है. यह अपेक्षाकृत सहने योग्य तरीका है जबकि दूसरे कई अर्थशास्त्रीज्यादा कड़े तरीके की वकालत करते हैं.