इन तमाम कमजोरियों के बावजूद, जैसा कि हमने ऊपर देखा, भारत ने महत्वपूर्ण वृद्धि दर हासिल की, जिसका मुख्य कारण था आवारा वित्तीय पूंजी का ज्वार, जो विशाल भारतीय बाजार और भारतीय राज्य द्वारा प्रदत्त अत्यंत लाभकारी रियायतों से आकृष्ट हुई थी. जब वह ज्वार अचानक 2008 में थमा, तो स्वभावतः भारतीय अर्थतंत्रा को तेज झटका लगा. निर्यात में तेज गिरावट आने के चलते वस्त्रोद्योग, फुटवीयर (जूते-चप्पल) व चर्म उद्योग और अन्य क्षेत्रों में दसियों लाख रोजगार के चैपट होने के रूप में यह झटका सबसे साफ दिखाई पड़ा. खुद 2008 में और सिर्फ कपड़ा क्षेत्र में लगभग 7 लाख मजदूर – अधिकांशतः महिला श्रमिक – बेरोजगार हो गए.
हालिया संकट के अध्कि विस्तृत, चरणवार विश्लेषण के लिए हम आइसीआरआइईआर (इंडियन काउंसिल फाॅर रिसर्च आॅन इंटरनेशनल इकाॅनाॅमिक रिलेशंस) वर्किंग पेपर (संख्या 241, अक्टूबर 2009 में प्रकाशित) – ‘द स्टेट आॅफ द इंडियन इकाॅनाॅमी 2009-10 से एक बड़ा उद्धरण पेश कर रहे हैं –
“यह वैश्विक संकट भारत में वर्ष 2008 में उस वक्त आया, जब भारत से विदेशी संस्थागत निवेश भारी मात्रा में निकाला जाने लगा और फलस्वरूप इक्विटि बाजार औंधे मुंह गिर पड़ा... (पहला चरण). जनवरी 2008 से फरवरी 2009 के बीच (14 महीनों में) 13.3 अरब अमेरिकी डाॅलर का विदेशी संस्थागत निवेश निकाला गया, जबकि वर्ष 2007 (12 महीनों) में 17.7 अरब डाॅलर का निवेश हुआ था. इसके बाद अप्रैल 2008 से भारतीय कंपनियों द्वारा ईसीबी (विदेशी वाणिज्यिक कर्ज) में, व्यापार ऋण में और बैंकिंग अंतर्प्रवाह में भारी धीमापन आया (दूसरा चरण). 2008-09 के द्वितीयार्ध में विदेशी अल्पकालिक व्यापार वित्त और बैंक-कर्ज के मामले में क्रमशः 9.5 अरब और 1.4 अरब डाॅलर धनराशि का बहिर्गमन हुआ. मई 2008 आते-आते विदेशी मुद्रा बाजार संकट-ग्रस्त हो गए और मई से नवंबर 2008 के बीच रुपया का मूल्य लगभग 20 प्रतिशत गिर गया (तीसरा चरण). भारतीय रिजर्व बैंक ने डाॅलरों को बेचकर – जिससे विदेशी मुद्रा भंडार में थोड़ी कमी आई – रुपये को संभालने का पुरजोर प्रयास किया. सितंबर 2008 के मध्य तक भारतीय मुद्रा बाजार पर संकट छा गया (चैथा चरण). विदेशी ऋण बाजारों में कोष की किल्लत होने से भारत को वाणिज्यिक कर्ज मिलना लगभग बंद हो गया, अल्पकालिक व्यापार वित्त का भी आना रुक गया. शेयर बाजार के ध्वंस ने यह संभावना भी खत्म कर दी कि कंपनियां घरेलू शेयर बाजार से कर्ज ले सकें. विदेशी कोषों के दरवाजे भी भारतीय बैंकों के लिए बंद हो गए. ... इन सब चीजों से घरेलू बैंकों पर भारी दबाव पड़ा, जिसने 2008 के मध्य सितंबर से अक्टूबर के अंत तक मुद्रा संकट को जन्म दिया. ...
सितंबर 2008 से व्यापार क्षेत्र ध्वस्त होने लगा (पांचवां चरण). 2008-09 के द्वितीयार्ध में, व्यापारिक वस्तुओं का निर्यात प्रथमार्ध में 35 प्रतिशत की वृद्धि के मुकाबले 18 प्रतिशत गिर गया, और आयात भी प्रथमार्ध में 45 प्रतिशत की वृद्धि के मुकाबले 11 प्रतिशत कम हो गया. 2008-09 के द्वितीयार्ध में साॅफ्टवेयर निर्यात गिरकर 4 प्रतिशत रह गया (जबकि प्रथमार्ध में इसमें 38 प्रतिशत की वृद्धि हुई थीद्ध. भारतीयों द्वारा बाहर से भेजी गई ध्नराशि भी द्वितीयार्ध में निरपेक्ष रूप से लगभग 20 प्रतिशत कम हो गई (जबकि 2008-09 के प्रथमार्ध में इसमें 41 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी). ...
अगले चरण (छठा चरण) में यह संकट घरेलू ऋण बाजार में भी फैल गया. वास्तविक अर्थतंत्र सितंबर 2008 से बिगड़ने लगा, जो उस माह निर्यात वृद्धि के गिरकर 10 प्रतिशत रह जाने के रूप में दिखाई पड़ा (जबकि अप्रैल-अगस्त 2008 के बीच वह लगभग 35 प्रतिशत के स्तर पर थी), उसके बाद इसमें नकारात्मक वृद्धि होने लगी; अक्टूबर 2008 से औद्योगिक उत्पादन में वस्तुतः नगण्य वृद्धि हुई या वह नीचे गिरने लगा. व्यावसायिक और उपभोक्ता विश्वास कमजोर पड़ने लगा जिससे समग्र मांग में कमी आई. नवंबर 2008 तक हालात बुनियादी रूप से बदल चुके थे. वाणिज्यिक क्षेत्र के लिए बैंक-वित्त के विस्तार में कमी आई और वह नवंबर 2008 से फरवरी 2009 के बीच के चार महीनों में 609 अरब रुपये तक सिमट गया, जो एक वर्ष पूर्व की इसी अवधि के दौरान 2,362 अरब रुपये की तुलना में लगभग एक चैथाई था. .... इसका प्रमुख कारण यह था कि कोष की मांग में तेज गिरावट आ गई थी, क्योंकि निवेश और उपभोग की मात्रा गिर गई. इसका आंशिक कारण यह भी था कि बड़े पैमाने पर ऋण न लौटा पाने की संभावना देखकर बैंक भी जोखिम उठाने से काफी कतराने लगे थे.”
भारत सरकार और रिजर्व बैंक ने क्या किया? वर्किंग पेपर बताता है:
“सकट के प्रत्युत्तर में मौद्रिक नीति को ढीला बनाने तथा राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज लागू करने की नीति अपनाई गई. कुछ दूसरे उपाय भी किए गए, जैसे विदेशी वाणिज्यिक कर्ज के नियमों में शिथिलता और ऋण में विदेशी संस्थागत निवेश की सीमा बढ़ाना आदि.