पूंजीवाद के अंतर्गत वृद्धि कभी भी समतामूलक नहीं होती, वह हो भी नहीं सकती है. किंतु, नवउदारवादी अवस्था में पूंजीपतियों और ग्रामीण धनिकों के लिए महत्वपूर्ण लाभ तो मेहनतकश अवाम के लिए चरम नुकसान की कीमत पर ही हासिल किए गए. उद्योगीकरण के लिए बड़े पैमाने की बेदखली के सुविदित मामलों और काॅरपोरेट लूट के अन्य रूपों के अलावा पूंजीवादी शोषण की सामान्य प्रक्रिया भी कई तरीकों से तीव्र हो जाती है. नवीनतम द्रुतगामी संयंत्रों व मशीनरी को लागू करके सापेक्षिक अतिरिक्त मूल्य का दोहन बढ़ा दिया जाता है, कई तरीकों से प्रभावी काम के घंटे बढ़ा दिए जाते हैं – मसलन, मजदूरों को मिलने वाली विश्राम की अवधियों को घटाकर और उनपर कड़ी निगरानी रखकर – ताकि मजदूरों के श्रम से निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य भी ज्यादा निचोड़ा जा सके. दूसरे, वेतन बिल घटाने के लिए स्थायी चरित्र के कामों में भी बड़े पैमाने पर अस्थायी/ठेका श्रमिकों को लगाया जाता है. तीसरे, वेतन आयोगों के गठन तथा द्विपक्षीय/त्रिपक्षीय वेतन समझौतों को लगातार विलंबित किया जाता है, तोड़ा जाता है और यहां तक कि ध्वस्त कर दिया जाता है, ताकि वास्तविक मजदूरी कम की जा सके अथवा उसे अवरुद्ध बनाए रखा जा सके.
इन सब चीजों का कुल नतीजा क्या निकलता है ? द रोरिंग टू थाउजैंड्स (‘द हिंदू’, 10 मई 2012) में सीपी चंद्रशेखर लिखते हैंः
“1990-दशक की शुुरूआत से ही – जब उदारीकरण ने निवेश का दरवाजा खोला और विदेशों से तकनीक और कल-पुर्जों के काफी मुक्त आयात की इजाजत दी – संगठित मैन्युफैक्चरिंग में उत्पादकता लगभग निरंतर बढ़ती जा रही है. 2004-05 की स्थिर कीमतों पर प्रति नियोजित श्रमिक शुद्ध योगित (ऐडेड) मूल्य (अर्थात कुल उत्पादित मूल्य और मशीनों की घिसाई समेत कुल लागत खर्च के बीच का फर्क) लगभग 1 लाख रुपये से बढ़कर 5 लाख रुपये हो गया [1980-दशक की शुरूआत और 2010 के बीच - अ. सेन]. अर्थात्, मुद्रास्फीति के साथ समंजित प्रति श्रमिक शुद्ध उत्पाद के रूप में उत्पादकता इन 30 वर्षों की अवधि में लगभग 5 गुनी बढ़ गई. और इस वृद्धि का तीन चैथाई से भी ज्यादा अंश 1990-दशक शुरू होने के बाद हासिल किया गया है.”
[बहरहाल,] “इस उत्पादकता-वृद्धि का फायदा मजदूरों को नहीं मिला. संगठित क्षेत्र में अदा की गई प्रति श्रमिक औसत वास्तविक मजदूरी, जो औद्योगिक मजदूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के जरिए मुद्रास्फीति के साथ समंजित करके आंकी गई है (1982 को आधार वर्ष मानकर), 1981-82 में 8467 रुपये प्रति वर्ष से बढ़कर 1989-90 में 10,777 रुपये हुई और वह 2009-10 तक उसी स्तर के आसपास झूलती रही. उदारीकरण के बाद वास्तविक मजदूरी में इस गतिरोध का कुल नतीजा यह है कि शुद्ध योगित मूल्य या शुद्ध उत्पाद में वेतन बिल का अंश ... जो 1980 के पूरे दशक में 30 प्रतिशत से ज्यादा रहा था, काफी हद तक कम हो गया और 2009-10 तक आते-आते वह अपने 1980-दशक के स्तर का करीब एक तिहाई होकर 11.6 प्रतिशत तक रह गया.
- 2004-06 में, आर्थिक सुधारों के एक दशक से भी ज्यादा बीत जाने के बाद, जब अर्थतंत्र तेजी से वृद्धि कर रहा था, खाद्यान्नों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1994-96 की अपेक्षा 7.8 प्रतिशत कम हो गई थी. वस्तुत:, यह 1954-56 के मुकाबले भी कम थी. [आर्थिक सर्वेक्षण, 2007-08]
- डॉलर करोड़पतियों और अरबपतियों की संख्या दुनिया भर के मुकाबले यहां सबसे तेज रफ्तार से बढ़ रही थी, जबकि 2004-05 में 83.60 करोड़ लोगों (भारत की कुल 77 प्रतिशत आबादी) की आमदनी 20 रुपये प्रति दिन से कम थी. यह बात 'आसंगठित क्षेत्र में उद्यमों के लिए राष्ट्रीय आयोग' – जिसे प्रचलित रूप में अर्जुन सेनगुप्ता आयोग के नाम से जाना जाता है – की रिपोर्ट में प्रकट हुई थी. इस 77 प्रतिशत आबादी में चार तबके शामिल हैं : “अन्तंत गरीब, गरीब, सीमांत और असुरक्षित (वलनरेबुल).” यहां तक कि तथाकथित “मध्य आय समूह”, जो आबादी का 13 प्रतिशत ही, का भी औसत मासिक खर्च 1098 रुपये प्रति माह था, अर्थात् चार व्यक्तियों के परिवार के लिए 4400 रुपये से भी कम.
- 2000-दशक के द्वितीयार्ध में भी यह हालत नहीं सुधारी. आज भी, अमेरिका-स्थित अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति एवं शोध संस्था द्वारा जारी वैश्विक भूख सूचकांक (2012) के अनुसार, भारत अपने पड़ोसी मुल्कों चीन, पाकिस्तान तथा श्रीलंका से पीछे है. 79 देशों की सूची में भारत 65वें स्थान पर है (चीन दूसरे स्थान पर है, जबकि पाकिस्तान 57वें और श्रीलंका 37वें स्थान पर हैं).
- संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव विकास रिपोर्ट (2011) के अनुसार, मानव विकास सूचकांक की 187 देशों की सूची में भारत 134वें स्थान पर है. कोलकाता लिटररी फेस्टिवल (फरवरी 2013) में डा. अमर्त्य सेन ने बताया कि भारतीय परिवारों में से आधे के पास शौचालय नहीं है और भारतीय बच्चों की आधी आबादी कुपोषण का शिकार है. उन्होंने आगे कहा, “भारत दुनिया का एकमात्र देश है जो निजी स्वास्थ्य सेवा, जिसका अस्तित्व ही नहीं है, के आधार पर स्वास्थ्य संक्रमण लाने की कोशिश कर रहा है. 1999 और 2011 के बीच, भारत का लिंग असमानता अनुपात बदतर हो गया है – यह 0.533 से बढ़कर 0.617 हो गया है और भारत 146 देशों की सूची में 129वें पायदान पर खड़ा है – वह पाकिस्तान, बंगला देश और रवांडा से भी पीछे है. सर्वाधिक लज्जाजनक तथ्य तो यह है कि यह क्षरण उच्च बृद्धि के वर्षों में हुई है – जो निस्तंदेह खुद इस बृद्धि-पथ के गरीब-विरोधी चरित्र को सिद्ध करता है.2012 की जीएचआइ रिपोर्ट के अनुसार, “1990 और 1996 के बीच आर्थिक वृद्धि की गति के अनुरूप जीएचआइ स्कोर गिर रहा था. लेकिन 1996 के बाद, आर्थिक विकास और भूख के खिलाफ लड़ाई में प्रगति के बीच विषमता बढ़ गई. .... दो अन्य दक्षिण एशियाई देशों – बंग्ला देश और श्रीलंका – में भी जीएचआइ स्कोर आशा से कहीं ऊंचे थे, किंतु प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय में वृद्धि के लगभग समानुपाती ढंग से वे कम हो गए. ... चीन में उसके आर्थिक विकास के स्तर से किए गए अनुमान के बनिस्पत वहां का जीएचआइ स्कोर नीचे रहा है. वह गरीबी घटाने, पोषण व स्वास्थ्य के क्षेत्रों में हस्तक्षेप करने तथा स्वच्छ जल, सफाई व शिक्षा को अधिक सुलभ बनाने की ओर अपनी मजबूत प्रतिबद्धता के जरिए भूख और कुपोषण को नीचे स्तरों पर ले आया. ... भारत में 5 वर्ष से कम उम्र वाले 43.5 प्रतिशत बच्चों का वजन कम है, और यह देश कम भार के बच्चों वाले 129 देशों की सूची में (वर्ष 2005-10 में) सबसे नीचे के दूसरे स्थान पर है – इथियोपिया, नाइजर, नेपाल और बंग्ला देश से भी नीचे. .... महिलाओं के बीच व्याप्त कुपोषण, अल्प शिक्षा और उनकी निम्न सामाजिक हैसियत के चलते स्वस्थ बच्चों को जन्म देने की उनकी क्षमता नष्ट हो जाती है और वे अपने बच्चों का पालन-पोषण भी अच्छी तरह नहीं कर पाती हैं. ... वर्ष 2000-06 के बीच किए गए सर्वेक्षणों के अनुसार बच्चे जनने की उम्र वाली 36 प्रतिशत भारतीय महिलाओं का वजन जरूरत से कम था, जबकि 23 उप-सहारा अफ्रीकी देशों में ऐसी महिलाओं की तादाद सिर्फ 16 प्रतिशत थी. ...”
- राष्ट्रीय अपराध रेकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 18 बर्षों के उपलब्ध आंकड़े दिखाते हैं कि 1995 के बाद से कम-से-कम 2,84,694 किसानों ने आत्महत्या की है (यह बिलकुल निम्न-आकलन है, क्योंकि यह हाल के वर्षों में छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल द्वारा घोषित शून्य या लगभग शून्य आंकड़ों को स्वीकार करता है). अगर इन 18 वर्षों को दो भाग में बांटिए तो प्रवृत्ति और निराशाजनक दिखेगी. 1995 और 2003 के बीच 15,369 के वार्षिक औसत की दर से 1,38,321 कृषक-आत्महत्याएं हुई थीं. वहीं 2004-12 के बीच अधिक ऊंचे वार्षिक औसत 16,264 की दर से आत्महत्याओं की संख्या 1,46,373 है. वर्ष 2012 में महाराष्ट्र में किसान आत्महत्या की संख्या 3,786 पर पहुंच गई जो पिछले वर्ष के मुकाबले लगभग 450 ज्यादा थी. आंध्र प्रदेश में भी उस वर्ष 2,575 आत्महत्याएं हुई, जो पिछले वर्ष के आंकड़े से 366 ज्यादा थी. उत्तर प्रदेश में यह संख्या 745 थी, यानी 2011 की संख्या से 100 अधिक.
- स्थिति तब और भी अंधकारपूर्ण प्रतीत होगी, जब हम महिलाओं और बच्चों के बीच कुपोषण के शर्मनाक स्तरों, मातृ व शिशु मृत्यु के ऊंचे आंकड़ों, अल्पसंख्यक समुदायों तथा दलितों, आदिवासियों, पर्वतीय आबादी और इन जैसे अन्य लोगों की दुर्दशा के बारे में सुविहित तथ्यों पर गौर करेंगे, इसके अलावा, वृद्धि के इस खाके में पर्यावरण की बिलकुल कोई चिंता नहीं की गई है (येल विश्वविद्यालय के पर्यावरण परफार्मेंस सूचकांक में दर्ज 132 देशों की सूची में भारत 125वें स्थान पर है और वह पाकिस्तान, मोल्डोवा तथा किर्गिजस्तान से भी पीछे है).
“शुद्ध योगित मूल्य में मजदूरी के अंश में इस गिरावट का एक परिणाम बेशक यह निकला कि मुनाफे का अंश बढ़ गया.... 2001-02 के बाद के वर्षों में शुद्ध योगित मूल्य में मुनाफे का अनुपात तेजी से बढ़ा और महज 24.2 प्रतिशत से छलांग लगाते हुए वह 2007-08 में 61.8 प्रतिशत के शिखर पर पहुंच गया. ये, वस्तुतः 2000-दशक के गरजते हुए वर्ष थे!”
इस प्रकार, यह अत्यंत विरोधाभासी ‘सफलता कथा’ है जो प्रबल गरीब-विरोधी पूर्वाग्रह से ग्रस्त है, जिसे हम अपने देश में सुधार के बाद के तमाम वर्षों में देख रहे हैं. अनेकानेक अर्थशास्त्रियों ने (जरूरी नहीं कि वे मार्क्सवादी अथवा नव-कीन्सवादी हों) असमानता को पश्चिम में छाये संकट और मंदी का प्रमुख कारण माना है. यूरोप में ऊपरी वर्गों की ओर आमदनी के खिसकाव ने सकल मांग में कमी लाई है, जबकि अमेरिका में इस प्रवृत्ति के साथ-साथ ‘अमेरिकी जीवन-शैली’ और ऋण-चालित वृद्धि के चलते बचत में खतरनाक गिरावट और बढ़ती ऋणग्रस्तता की प्रवृत्ति भी जुड़ गई. यूरोप में आर्थिक धीमापन मांग में गिरावट का प्रत्यक्ष परिणाम था और वह वहां अमेरिका से पहले उपस्थित हो गया. अमेरिका के मामले में, ऋण और घाटा विस्फोट से उत्पन्न अकस्मात व चरम वित्तीय संकट के रास्ते से मंदी आई, जिसे परिसंपत्ति बुलबुलों के जरिए कृत्रिम रूप से थोड़े समय के लिए पीछे धकेला गया था. दोनों मामलों में, जनता की क्रय शक्ति में ह्रास ही मंदी का मूलभूत कारण था. हमारे देश में श्रमिक वर्ग की क्रय शक्ति में बड़ी सापेक्षिक गिरावट का मंदीकारी प्रभाव, जैसा कि सीपी चंद्रशेखर ने ऊपर बताया है, यूरोप की तुलना में अधिक लंबे समय तक टिका रहेगा.