भारत में वृद्धि का जो पैटर्न है उससे न केवल विभिन्न वर्गों के बीच मौजूद विषमता बढ़ती है, बल्कि आर्थिक क्षेत्रों व भौगोलिक अंचलों में भी असमानताएं तेज हो जाती है. नतीजा यह होता है कि हमारा अर्थतंत्र अत्यधिक विषमतायुक्त बन जाता है, जो वरिष्ठ मार्क्सवादी विद्वान पेरी एंडरसन के शब्दों में, “आकार में बड़ा ... किंतु बनावट में विचित्र” है. उन्होंने कहा:
“यह देश ‘ब्रिक’ राष्ट्रों (ब्राजील, रूस, भारत, चीन) के बीच हर मामले में प्रमुख स्थान रखता है – वह आकार में दूसरा सबसे बड़ा अर्थतंत्र है, यद्यपि अनेक लिहाज से यह अपनी बनावट में विचित्र है. मैन्युफैक्चरिंग इसकी चालक शक्ति नहीं है. जीडीपी में सेवाओं का योगदान आधे से भी ज्यादा है; ऐसे समाज में, जहां कृषि क्षेत्र में आधे से भी ज्यादा श्रम बल लगा हुआ है, वहीं जीडीपी में उसका हिस्सा 20 प्रतिशत से भी कम है. 90 प्रतिशत से भी अधिक रोजगार अनौपचारिक क्षेत्र में है, सिर्फ 6 या 8 प्रतिशत औपचारिक क्षेत्र के अंतर्गत आता है जिसका दो-तिहाई हिस्सा इस या उस किस्म की सरकारी नौकरियों में नियोजित है. भारत में कृषि योग्य भूमि का रकबा चीन की तुलना में 40 प्रतिशत ज्यादा है, लेकिन कृषि उपज औसतन 50 प्रतिशत कम है, चीन के मुकाबले यहां की आबादी अधिक युवा है और वह तीव्रतर गति से बढ़ रही है, किंतु इस जनसांख्यिकीय बरतरी का फायदा नहीं लिया जा रहा है: 1.40 करोड़ लोग हर साल श्रम बल में शामिल हो रहे हैं, किंतु सिर्फ 50 लाख रोजगार का सृजन हो पाता है.
“इसके बावजूद, इस शताब्दि के पहले दशक में औसत वृद्धि दर 7.7 प्रतिशत के आसपास रही है तथा बचत का हिस्सा बढ़कर जीडीपी का 36 प्रतिशत हो गया – दोनों मामलों में ब्राजील की दरों से दोगुना. लेकिन चीन के साथ तुलना करने पर, जिसकी आबादी लगभग उतनी ही है और ’50 के दशक में उसका भी प्रस्थान बिंदु भारत जैसा था, भारत की चमक फीकी पड़ जाती है, जैसा कि प्रणव बर्धन ने दोनों देशों के अपने सुदक्ष विश्लेषणात्मक सर्वेक्षण “अवेकनिंग जायंट्स, फीट आॅफ क्ले”
शहर और गांव के बीच भी असमानता बढ़ी है. मासिक पारिवारिक खर्च के बारे में एनएसएसओ द्वारा जुलाई 2011 में जारी अपने पंचवर्षीय सर्वेक्षण के 66वें राउंड में दिखाया गया है कि वर्ष 2009-10 के लिए औसत ग्रामीण खर्च 1053 रुपये था, जबकि शहरी खर्च 1984 रुपये था. वर्ष 2004-05 में किए गए इसी किस्म के सर्वेक्षण के साथ जब इसकी तुलना की गई, तो पता चला कि शहरी भारत में औसत मासिक खर्च जहां 832 रुपये बढ़ गया, वहीं ग्रामीण भारत में यह खर्च सिर्फ 492 रुपये ही बढ़ सका.
नवीनतम सर्वेक्षण यह भी दिखाता है कि सबसे धनी और सबसे गरीब लोगों के बीच खर्च के मामले में भी अंतर बढ़ा है. यह बात शहरी भारत के लिए खास तौर पर सही है. शहरी इलाकों में 10 प्रतिशत सबसे धनी और 10 प्रतिशत सबसे गरीब के बीच मासिक खर्च का अंतर 2004-05 में 4.8 गुना से बढ़कर 2009-10 में 9.8 गुना हो गया. ग्रामीण भारत में खर्च-असमानता में कम वृद्धि हुई है: 2004-05 में 3.2 गुना से बढ़कर वह 2009-10 में 5.6 गुना हो गई है.
हमारे देश में हासिल आर्थिक वृद्धि इस अर्थ में भी वस्तुतः उलटी और विकृत है कि यह पूंजीवादी विकास की सामान्य प्रक्रिया से भी भटकी हुई है. पूंजीवादी विकास की प्रक्रिया में सामंती/अर्ध-सामंती संपत्ति-संबंधें का उन्मूलन न केवल उत्पादकता में वृद्धि करता है, बल्कि उससे विनिर्मित वस्तुओं के लिए घरेलू बाजार का भी विस्तार होता है. इस प्रकार, उद्योगों के लिए जरूरी मांग-उछाल प्राप्त होता है; जिससे खनन, परिवहन व अन्य क्षेत्रों का विस्तार होता है और जिसमें कृषि से मुक्त हुआ श्रम नियोजित होता है. कृषि प्रधान समाज उद्योगीकृत देश में बदल जाता है, जहां जीडीपी का सबसे बड़ा हिस्सा उद्योगों से प्राप्त होता है और जो तीसरे चरण के लिए ठोस आधार तैयार करता है, जिसके अंतर्गत सेवा क्षेत्र वृद्धि की प्रमुख चालक शक्ति बन जाता है. लेकिन हमारे देश में,उद्योगिक वर्चस्व वाला मध्यवर्ती चरण कभी हासिल नहीं हुआ (जिसका मुख्य कारण है उत्पादक शक्तियों पर जकड़ी हुई अर्ध-सामंती बेड़ियों की निरंतरता और विनिर्मित वस्तुओं के लिए आंतरिक बाजार की गतिरुद्धता). इसके पहले ही सेवा क्षेत्र सबसे तेज वृद्धि करने वाला क्षेत्र बन गया, जिसका प्रमुख कारण है पश्चिमी देशों में व्यावसायिक प्रक्रिया की आउटसोर्सिंग (बीपीओ) के जरिए हासिल वाह्य प्रोत्साहन. इस प्रकार, फैलता सेवा क्षेत्र, उच्च तकनोलाॅजी (हाइ-टेक) वाले पूंजी-प्रधान उद्योग, कुछ खनन उद्योग और रियल इस्टेट (भू-संपदा के कारोबार) व निर्माण उद्योग ऐसे महत्वपूर्ण क्षेत्र बन गए, जिनमें मजबूत वृद्धि देखी गई. लेकिन, कृषि तथा जूट व टेक्सटाइल जैसे पुराने श्रम-बहुल उद्योग और इंजीनियरिंग के क्षेत्र गतिरुद्धता और गिरावट की मार झेल रहे हैं. पुनर्विन्यास के 20 वर्षों के बाद (जीडीपी में) कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्रों का अंशदान क्रमशः 14.62 प्रतिशत, 20.16 प्रतिशत और 65.22 प्रतिशत है
यह याद रखना कापफी जरूरी है कि औद्योगिक क्रांति के बाद से औद्योगिक शक्ति बने बगैर कोई भी देश प्रमुख अर्थतंत्र नहीं बना है; इसमें काफी संदेह है कि भारत लंबे समय तक इसका अपवाद बना रहेगा. जहां तक वर्तमान दौर की बात है, तो उद्योगों के मुकाबले सेवा क्षेत्र का सापेक्षिक वजन चीन की अपेक्षा भारत में कहीं ज्यादा है, और यह चीज यकीनन अच्छे स्वास्थ्य की निशानी नहीं है.
अनेक खनिजों के वैश्विक उत्पादन में अब भारत का स्थान काफी ऊंचा हो गया है, किंतु इसका कारण यह नहीं है कि उन खनिजों का इस्तेमाल यहां होता है, बल्कि यह है कि उनका निर्यात लगातार बढ़ रहा है. उदाहरण के लिए, 1995-96 में यहां उत्पादित बाॅक्साइट का सिपर्फ 1.4 प्रतिशत निर्यात होता था, लेकिन 2007-08 में निर्यात का अंश उछलकर 47 प्रतिशत हो गया.
सेवा क्षेत्र का बेडौल विस्तार विकास की झूठी छवि बनाता है, जिसमें विशाल बहुसंख्यक आबादी के जीवन-स्तर में कोई वास्तविक सुधार नहीं होता. हालांकि, मेहनतकश अवाम की बुनियादी भौतिक जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं, लेकिन देश में विभिन्न किस्म की सेवाओं – विश्राम, मनोरंजन, पर्यटन, विविध किस्म के शाॅपिंग माॅल और रेस्टोरेंट तथा वित्तीय सेवाएं (मसलन, विशेषीकृत/वैयक्तीकृत बैंक आदि) – की बाढ़ आ गई है. इन मदों पर होने वाले खर्चों को भी जीडीपी की गणना में शामिल किया जाता है, जिससे “इंडिया शाइनिंग” का सांख्यिकीय भ्रम उत्पन्न होता है.
इसी प्रकार, वृद्धि की इस प्रक्रिया में सर्वाधिक पिछड़े राज्यों व अंचलों को दरकिनार कर दिया गया है और यह प्रक्रिया पहले से ही विकसित कुछ राज्यों और ऊपर उठते अंचलों (जैसे कि गुड़गांव-मानेसर औद्योगिक क्षेत्र में केंद्रीभूत रही है.
मौजूदा वृद्धि माॅडल के साथ दूसरी बुनियादी समस्या यह है कि तथाकथित हरित क्रांति की ही भांति, यह आबादी के छोटे से हिस्सों पर निर्भर है और उसी की जरूरतों को पूरा करता है – धनी और ऊपर उठते शहरी व ग्रामीण मध्यम वर्ग. यह वृद्धि-माॅडल जिस दूसरे तबके पर निर्भर करता है वह है विदेशी उपभोक्ताओं का एक अच्छा-खासा तबका (उदाहरणार्थ, बीपीओ सेक्टर पूरी तरह और साॅफ्टवेयर सेक्टर अधिकांशतः इन्हीं विदेशी मांगों के सहारे चल रहा है). आबादी के बड़े हिस्से को बहिष्कृत करके वृद्धि का यह माॅडल अपने टिके रहने की एक आंतरिक सीमा निर्धारित कर देता है, और अब वह इस सीमा को पार कर रहा है.