सन 2000 में नव-उदारवादी पूंजीवाद बड़े जोखिम मोल लेता हुआ उच्च शिखर पर विराजमान हो गया था, और वहां कुछ समय तक यह महसूस करते हुए प्रसन्न होता रहा कि “जहां तक नजरें जाती हैं, वह मेरा साम्राज्य है;” और फिर जैसा कि अपरिहार्य था, वह औंधे मुंह नीचे लुढ़क पड़ा. यह 2007-08 की बात है. बादशाहों (दुनिया में जिनकी काफी संख्या है) के तमाम सिपहसालारों ने हरचंद कोशिश की, लेकिन वे इस ढलान को कत्तई रोक नहीं पाए.
बहरहाल, आधुनिक युग के ये सिपहसालार – आईएमएफ (अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष) और विश्व बैंक, ओईसीडी और जी-20, अमेरिकी फेडरल रिजर्व और यूरोपीय साझा बैंक, हमारे देश में भारतीय रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय – अपने विकास के तरह-तरह के नव उदारवादी माॅडलों को संभालने के हताशोन्मत्त प्रयास जारी रखे हुए हैं. किंतु, अब तक तो उलटे नतीजे ही सामने आए हैं.
एक ओर, जैसे कि आधुनिक मेडिकल तकनीक ने ऊपरी तौर पर मृत्यु-शय्या पर लेटे बूढे़, बीमार आदमी को भी चलने-फिरने लायक बना देने (अलबत्ता मुश्किल से और थोड़े समय के लिए ही) की सामर्थ्य हासिल कर ली है, उसी प्रकार साम्राज्यवादी राज्य और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियां भी इस काबिल हो गए हैं कि वे सदियों के शोषण व लूट से संचित अपने विपुल आर्थिक संसाधनों का इस्तेमाल करके किसी तरह इस संकट को वश में कर सकें और इस व्यवस्था को बचा लें – मगर वे मंदी की चिरस्थायी समस्या को हल करने में विफल रहे हैं, और साथ ही इस प्रक्रिया में अपने बौद्धिक-नैतिक वर्चस्व और राजनीतिक वैधता को भी काफी हद तक खो चुके हैं.
दूसरी ओर, आंशिक रूप से हासिल इन सफलताओं और इलाज के चिंताजनक “साइड इफेक्ट” ने, पश्चिम के सत्ता-प्रतिष्ठान से जुड़े अर्थशास्त्रियों ने भी, देर से ही सही, कुछ आंशिक भूल-सुधार की जरूरत को मान लिया है. इस दौरान, दुनिया भर में विभिन्न रूपों में सड़कों पर और चुनावों के दौरान कटौती (आॅस्टैरिटी) के उपायों के खिलाफ लोकप्रिय प्रतिरोध लगातार जारी हैं.
हमने वैश्विक आर्थिक संकट के इस समूचे घटना-क्रम को तीन पुस्तिकाओं की शृंखला में समेटने का प्रयास किया है – यह पुस्तिका इसकी तीसरी कड़ी है. पहली पुस्तिका (अंग्रेजी संस्करण) फरवरी 2009 में प्रकाशित की गई थी, जब महाविनाशकारी वित्तीय संकट ने पूंजीवादी विश्व व्यवस्था को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू ही किया था और जिसने शीघ्र ही कठिन वैश्विक मंदी की शक्ल ले ली थी. संकट में पूंजी; कारण, तात्पर्य और सर्वहारा प्रत्युत्तर नाम की इस पुस्तिका में मुद्रा बाजार की जटिलताओं तथा वित्तीय विघटन (मेल्टडाउन) जैसी स्थिति व इसके परिणामों की व्याख्या की गई थी. हमने इस संकट के प्रत्यक्ष और साथ ही मौलिक दीर्घकालिक कारणों व तात्पर्यों की बुनियादी मार्क्सवादी व्याख्या पेश की थी, और आर्थिक उथल-पुथल से उत्पन्न लोकप्रिय संघर्षों की ओर ध्यान आकृष्ट किया था.
शृंखला की दूसरी कड़ी के बतौर 2012 के अक्टूबर में प्रकाशित नव उदारवाद का संकट और लोकप्रिय आंदोलनों के समक्ष चुनौतियां (अंग्रेजी संस्करण) में यह दिखाने की कोशिश की गई कि साम्राज्यवाद – जिसे लेनिन ने वित्तीय पूंजी के वर्चस्व के अंतर्गत मरणासन्न इजारेदार पूंजीवाद के रूप में परिभाषित किया है – के युग में हासिल वैश्विक अनुभवों ने व्यावसायिक चक्रों और पूंजीवादी संकट की मार्क्सवादी-लेनिनवादी व्याख्या को प्रखरता से प्रमाणित किया है तथा उसे समृद्ध बनाया है. इसमें हमने एक विशिष्ट मामले के बतौर मौजूदा उथलपुथल की जांच-पड़ताल की और निष्कर्ष निकाला कि यह आम व्यावसायिक चक्र के अंग के बतौर कोई ‘सामान्य’ मंदी नहीं है, बल्कि इस अर्थ में युगांतरकारी संरचनात्मक संकट है कि वर्तमान नव उदारवादी प्रणाली में पूंजीवादी संचय की बुनियादी संरचनाएं और रणनीतियां ही संकट में फंस गई हैं, और उनका वह नतीजा नहीं निकल रहा है जो 1980-दशक के समय से निकला करता था. इसीलिए, हमने इसे खास तौर पर नवउदारवाद का संकट की संज्ञा दी. हमने इस संकट के सबकों तथा महामंदी के बाद से लेकर समकालीन आंदोलनों के दौर तक संकट व वर्ग संघर्ष के अंतर्संबंधों पर भी थोड़े विस्तार से चर्चा की थी.
शृंखला की तीसरी और आखिरी कड़ी के बतौर यह पुस्तिका, अपने शीर्षक के अनुरूप ही, वैश्विक संकट के भारतीय रंगमंच पर प्रकाश डालने का प्रयास कर रही है.
2013-14 की तीसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 4.8 प्रतिशत की निम्न वृद्धि दर, जो 2010-11 में हासिल उच्च वृद्धि दर (9.9 प्रतिशत) के आधे से भी कम है; 1947 में अमेरिकी डाॅलर के बराबर मूल्य वाले रुपये की कीमत थोड़ा सुधरने के पहले एक डाॅलर में 65 रुपये की खतरनाक हद तक गिर जाने; आसमान छूती महंगाई और बढ़ती बेरोजगारी तथा फैलते व्यापार घाटे व विदेशी कर्ज – इन नकारात्मक प्रवृत्तियों के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था स्पष्टतः वहीं खड़ी हो गई है, जहां वह 1990-दशक के ‘सुधारों’ के पहले खड़ी थी. ये वे दो गंवा दिये गये दशक हैं, जिस दौरान इस देश की सत्ता पर काबिज रहे कांग्रेस-यूपीए और भाजपा-एनडीए गठबंधनों ने अत्यंत मामूली किस्म की उपलब्धियां दर्ज कराईं!
सुसंगत और समावेशी विकास हमारे लिए हमेशा छलावा क्यों बना रहा है? क्या हमारे देश में प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों की प्रचुरता नहीं है? हां है, लेकिन सवाल तो यह है कि हमारी व्यवस्था इन संसाधनों का क्या इस्तेमाल करती है? हमारे अधिकांश बाॅक्साइट व लौह अयस्क तथा अन्य खनिजों का विदेशों में निर्यात कर दिया जाता है – हमारे देश में सामग्रियों के निर्माण और रोजगार-सृजन में उनका बहुत कम इस्तेमाल होता है. भारतीय वैज्ञानिकों, पेशेवरों और बुद्धिजीवियों ने वस्तुतः हर क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाम-यश हासिल किया है, लेकिन अपने देश की सेवा का अवसर या वातावरण उन्हें नसीब नहीं होता. सूचना टेक्नोलाॅजी के क्षेत्र में हमें एक महाशक्ति माना जाता है, लेकिन चीन या मलेशिया से महत्वपूर्ण कल पुर्जा मंगवाए बगैर हम एक कंप्यूटर तक नहीं बना सकते. हम अपनी जनसांख्यिकीय बरतरी पर गर्व करते हैं, लेकिन हम उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं समेत अपनी नौजवान आबादी को उचित रोजगार नहीं दे पाते हैं. हमारे उद्योगपतियों को भारी-भरकम छूटें व रियायतें दी जाती हैं, इसके बावजूद वे ज्यादातर विदेशों में पूंजी-निवेश कर रहे हैं, क्योंकि हमारी विशाल आबादी की बहुसंख्या इतनी गरीब है कि इस देश में पर्याप्त ‘बाजार’, यानी खरीदने की ताकत उपलब्ध नहीं है.
घिसा-पिटा सा सरकारी जवाब यह है कि ये समस्याएं वैश्विक मंदी के अनिवार्य परिणाम हैं और इनपर जल्द ही काबू पा लिया जाएगा. आर्थिक बुनियाद काफी मजबूत है; हमें सिर्फ इस बात की जरूरत है कि अर्थतंत्र को राजनीति से मुक्त कर दिया जाए और एक बार फिर बड़े पैमाने पर सुधार के कार्यक्रम चलाए जाएं. यह स्थिति भारत सरकार को अपनी नीतियों की घोर असफलता से इनकार करने और इस संकट के बहाने वैश्विक रामबाण नुस्खे को अपनाने की इजाजत दे देती है – यह नुस्खा मेहनतकश अवाम के लिए और अधिक मितव्ययिता, देशी-विदेशी बड़े व्यवसायों को और अधिक रियायतें (‘प्रोत्साहन’), कठोरतर बाजार रूढ़िवाद और अपने नागरिकों को जीवन की बुनियादी जरूरतें मुहैया कराने भर की जिम्मेवारी से भी राज्य के इंकार जैसे उपायों को लेकर बना है, हालांकि इस बीच खाद्य सुरक्षा बिल जैसे चुनावी स्टंट जरूर किए गये.
लेकिन हम पूरी तरह भ्रष्ट, स्वार्थी, संवेदनहीन और नाकारा राजनेताओं व अर्थशास्त्रियों व नौकरशाहों के गिरोह द्वारा प्रचारित इस सिद्धांत को आंख मूंदकर स्वीकार नहीं कर सकते – खासकर तब, जबकि अपना दांव खेलने में मशगूल इस गिरोह का यह सुधार का नुस्खा साफतौर पर उलटे नतीजे देने लगा है. हमें हमारी खुद की स्वतंत्र समझदारी विकसित करनी होगी और इसके लिए यहां से सोचना शुरू करना होगा कि जहां हमारे देश की आर्थिक मुसीबतों का विश्लेषण नव उदारवाद के वैश्विक संकट के संदर्भ में करना जरूरी है, वहीं यह समझना शायद ज्यादा महत्वपूर्ण है कि भारतीय संकट के लिए घरेलू संरचनात्मक व नीति-विषयक कारक ही मूलतः जिम्मेवार हैं और इसीलिए, इसका समाधान भी प्राथमिक रूप से राष्ट्रीय संदर्भ में भी खोजना पड़ेगा.
इस मकसद से हमने आने वाले पृष्ठों में पहले तो उभरते संकट के वास्तविक आकार को मापने की कोशिश की है (अध्याय - 1), फिर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इसके प्रमुख आयामों व कारणों का विश्लेषण किया है (अध्याय - 2 से 4), इसके बाद आधिकारिक समाधान का विश्लेषण पेश किया है (अध्याय - 5), और अंत में रैडिकल वामपंथी विकल्प की आम रूपरेखा प्रस्तुत की है (अध्याय - 6).
हमने यह दिखाया है कि पिछले दो-तीन दशकों ने मार्क्स के उस अवलोकन को प्रखरता से संपुष्ट किया है, जिसकी सारवस्तु डेविड हार्वे ने अपनी पुस्तक लिमिट्स टु कैपिटल (मूलतः 1982 में लिखित) के 2006 के वर्सो संस्करण की भूमिका में प्रस्तुत की है: “पूंजी के पहले खंड में, मार्क्स दिखाते हैं कि कोई समाज अ-नियंत्रित, मुक्त बाजार अर्थतंत्र का जितना ज्यादा अनुगमन करेगा, उत्पादन के साधनों के मालिकों और इससे वंचितों के बीच की विषमता की शक्ति उतनी ही ज्यादा ‘एक ओर संपत्ति का संचय’ और ‘इसके विपरीत सिरे पर मुफलिसी, थकाऊ काम की पीड़ा, दासता, अज्ञान, क्रूरता व मानसिक अध:पतन का संचय’ को अंजाम देगी.”
जहां आम जनता मंदी और धीमे विकास के प्रभाव से कराह रही है, वहीं क्रोनी-वाद और भ्रष्टाचार अभूतपूर्व गति से फल-फूल रहा है, तथा धनी व शक्तिसंपन्न तबका खुले-गुप्त तरीके से विशाल संपदा इकट्ठा कर रहा है. यकीन मानिए, यह न कोई दैवी चमत्कार है और न सिर्फ कु-शासन का परिणाम भर है. सच्ची बात तो यह है कि आजादी के बाद विकास का जो रास्ता अपनाया गया है, उसने भारत को एक उभरती आर्थिक शक्ति तो जरूर बना दिया, लेकिन हमारे सामंती-औपनिवेशिक बंधनों को नहीं मिटाया, अर्थात् इसने हमारे समाज के अंदर ढांचाबद्ध पिछड़ेपन और विकृतियों को कोई चुनौती नहीं दी.
महंगे उपभोगों के साथ रंगरेलियां मनाने वाले शिखर पर विराजमान मुट्ठी भर धनिकों और समस्त संपदा का निर्माण करने के बावजूद वंचना की अंधेरी गहराइयों में फंसे विशाल जनसमुदाय के बीच का क्रूर विषमता अत्यंत अन्यायपूर्ण समाज व्यवस्था और अत्यंत असमान विकास रणनीति का परिणाम है, जिसके अंतर्गत कृषि क्षेत्र को नीचे गिरने दिया जा रहा है जो अभी भी हमारी विशाल बहुसंख्या के लिए जीवन-निर्वाह और रोजगार का स्रोत बना हुआ है, लेकिन जहां अर्ध-सामंती लघु कृषक अर्थव्यवस्था की प्रधानता बरकरार है और जो चिरस्थायी संकट से ग्रस्त है; जिसके अंतर्गत अधिकांश परंपरागत उद्योग गतिरोध झेल रहे हैं जबकि निर्यात बाजारों, विदेशी हितों या कुलीनवर्गीय उपभोग के लिए निर्मित क्षेत्र आम तौर पर फल-फूल रहे हैं; और जिसके अंतर्गत सट्टा कारोबार और रियल इस्टेट (भू-संपदा) के क्षेत्रों को विकास का इंजन समझा जाता है, जबकि हमारे प्राकृतिक व मानव संसाधनों को लगातार काॅरपोरेट-साम्राज्यवादी लूट का शिकार बनाया जा रहा है.
इस संपूर्ण नीति-समूह को विखंडित करना – जो उन वर्ग शक्तियों के हिंसक प्रतिरोध का मुकाबला करके ही किया जा सकता है, जिनका हित-साधन ये नीतियां करती हैं – और संतुलित, समतावादी, इको-फ्रेंडली (पर्यावरण के अनुकूल), जन-केंद्रिक और सतत विकास का नया माॅडल अपनाना – यही वह रास्ता है जिसपर चलकर संकट को खत्म किया जा सकता है और, ईंट-दर-ईंट, जनता का समृद्ध भारत बनाया जा सकता है. यह पुस्तिका कार्यकर्ताओं व इससे सरोकार रखने वाले नागरिकों के सामने इस अत्यावश्यक राजनीतिक विमर्श/आंदोलन के बुनियादी अर्थतंत्र को स्पष्ट करने का ही एक प्रयास है.