और ये कदम अनिवार्यतः तब उठाए गए, जब 1980-दशक के मध्य में वस्तुगत स्थितियां परिपक्व हो गईं. विश्व स्तर पर सोवियत माॅडल तेजी से अपनी चमक खोता जा रहा था और नव उदारवाद ने सामाजिक जनवाद/कल्याणकारी राज्य के ढांचे की जगह लेनी शुरू कर दी थी; राष्ट्रीय रंगमंच पर इंदिरा गांधी की अनुपस्थिति
उस समय तक भौतिक पूर्वशर्तें भी परिपक्व हो गई थीं. राज्य की सेवा और सहयोग प्राप्त कर पिलपिले भारतीय पूंजीपति वर्ग ने वह न्यूनतम आर्थिक शक्ति हासिल कर ली थी जो 1956 के औद्योगिक नीति प्रस्ताव में अब तक सार्वजनिक क्षेत्र के लिए पूर्णतः सुरक्षित बुनियादी उद्योगों में उसके पदार्पण के लिए जरूरी था. तदनुसार, भारी/बुनियादी उद्योग क्षेत्र को धीरे-धीरे उनके लिए खोल दिया गया. 1980-दशक के मध्य में ‘फेरा’ को आंशिक रूप से ढीला बना दिया गया, और विदेशी निवेशकों को पहले से ज्यादा प्रोत्साहन मिलने लगा. राजकोषीय कठोरता कम कर दी गई, जिससे सरकार विदेशी ऋण और निवेश की बढ़ी हुई उपलब्धता का पफायदा उठाकर अधिक खर्च कर सकती थी. विदेशी वित्त की आसान सुलभता ने खाद्य पदार्थों और अन्य जरूरी सामग्रियों के बड़े पैमाने के आयात को संभव बनाया, ताकि महंगाई व परिणामी विक्षोभ को टाला जा सके. मुख्यतः बढ़े हुए राजकीय व्यय और उद्योगपतियों के लिए, टैक्स-रियायतों समेत, नए लागू किए गए प्रोत्साहन-उपायों के चलते राजीव गांधी के शासन-काल में उद्योगों में प्रभावशाली 8 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि हासिल की गई तथा जीडीपी की औसत वृद्धि दर पहली बार 5 प्रतिशत वार्षिक की सीमा पार कर गई.
1980 के दशक में सावधानीपूर्वक दी गई इस ढील या कहिए, उदारीकरण की तार्किक परिणति तो यही होनी थी कि देर-सवेर अर्थतंत्र के ढांचे को और ज्यादा बदला जाता. और, 1991 में – जैसा कि पूंजीवाद का प्रचलन है – संकट के रूप में वह अवसर उपस्थित हो गया!