इस मोड़ पर एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा होता है: ये विभिन्न अवस्थाएं एक-दूसरे से किस प्रकार जुड़ी हैं और उनका चरित्र-निर्धारण हम कैसे करें ? रोचक बात यह है कि, जो लेखक 1991 के सुधारों की भूमिका पर बल देते हैं [मसलन, इंडिया: द इमर्जिंग जायंट (2008) में अरविंद पनगरिया], वे 1980-दशक में उदारीकरण के प्रथम खंड और इस दौरान वृद्धि दर में हुई स्पष्ट बढ़ोत्तरी को कम करके आंकते हैं; जबकि इसे उचित महत्व देने वाले लेखक प्रायः इसे “समाजवाद” से प्रस्थान के बतौर देखते हैं. इस प्रकार अपने नवीनतम प्रकाशन पाॅवर्टी एमिड प्लेंटि इन द न्यू इंडिया (न्यू डेलही, कैंब्रिज युनिवर्सिटि प्रेस, 2012) में अरुण कोहली 1980-दशक में हुए बदलावों को “समाजवाद से अलग हटना” बताते हैं (पृष्ठ 12). इसी प्रकार बी. सुब्रमणियम भी लिखते हैं कि 1980 के दशक में “कांग्रेस निजी व्यवसाय के प्रति अपनी विरोधी-मानसिकता से निकलकर थोड़ी सहयोगी, और अंत में काफी सहयोगी बन गई”वही, पृ. 233 (ग्रोथ एक्सपीरिएंस इन द आॅक्सफोर्ड कंपेनियन).

लेकिन क्या शासक कांग्रेस या केंद्र सरकार 1980 के पहले की अवधि में सचमुच ‘निजी व्यवसाय विरोधी’ रही थी?

मार्क्सवादी दृष्टिकोण से नजदीक से देखने पर इसका नकारात्मक जवाब ही मिलेगा. इस मूलभूत तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट करनेवाले प्रथम व्यक्ति चारू मजुमदार थे. उस समय, जब सरकारी मार्क्सवादी खेमा सार्वजनिक क्षेत्र को मिश्रित अर्थव्यवस्था में समाजवादी तत्व की गरिमा प्रदान कर रहा था, उन्होंने 1965 में ही बता दिया कि यह राजकीय क्षेत्र दरअसल निजी पूंजीपतियों का ही हित-साधन कर रहा था. इन पूंजीपतियों को जल्दी फायदा पहुंचाने वाले हल्के उद्योग स्थापित करने के लिए बुनियादी उद्योगों के उत्पादों की जरूरत थी; लेकिन वे इस्पात, कोयला, बिजली, पेट्रोलियम तथा इस किस्म के अन्य उद्योगों को बड़े पैमाने पर स्थापित करने में असमर्थ थे, क्योंकि इसमें भारी निवेश की जरूरत होती है और इसकी परिपाक (जेस्टेशन) अवधि लंबी होती है. इस अंतराल को भरना और निजी क्षेत्र को इस्पात, बिजली वगैरह शून्य लाभ पर अथवा यहां तक कि रियायती दरों पर भी मुहैया कराना – आजाद भारत में यही भूमिका पूंजीवाद के विकास के प्रथम चरण में सार्वजनिक क्षेत्र को सौंपा गई थी.

वस्तुतः इसमें कुछ भी समाजवाद नहीं था. और न उसमें कांग्रेस सरकार की ओर से निजी (और विदेशी भी) व्यावसायिक हितों के प्रति रत्तीभर भी वैरभाव था – वैरभाव वाली बात शायद आर्थिक राष्ट्रवाद और ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ के समान्य विवरण तक ही  सीमित थी, जो गणतंत्र के उन शुरूआती वर्षों में ‘राजनीतिक रूप से सही’ और साथ ही आर्थिक रूप से लाभदायक भी थी. और, 1980 के दशक में तथा 1990 के दशक में भी नीतियों में जो बदलाव हुए, वे भारत में पूंजीवाद के उसी लगातार जारी विकास-क्रम में अलग-अलग पड़ावों को रेखांकित करते हैं, जिसमें राज्य ने हमेशा अलग-अलग राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संदर्भों के लिए अलग-अलग नीति-समूहों के साथ एकाधिकारी बड़े पूंजीपति वर्ग के हितों को विश्वस्त ढंग से आगे बढ़ाने की कोशिश की है. जहां तक विदेशी पूंजी के प्रति रवैये का प्रश्न है, तो सरकारी नीति में तनाव खुद भारतीय पूंजीपति वर्ग के अंदरूनी टकराव को अभिव्यक्त करते हैं. जैसा कि सोजिन शिन ने 1990-दशक की शुरूआत में कहा है, “एसोशिएट चैंबर्स आॅफ काॅमर्स एंड इंडस्ट्री (एसोचैम) ने विदेशी निवेश के मुक्त प्रवाह की जरूरत के पक्ष में तर्क दिया, जबकि फेडरेशन आॅफ इंडियन चैंबर्स आॅफ काॅमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) ने एफडीआइ नीति के उदारीकरण का विरोध किया”. फिक्की, जिसकी सदस्यता में अधिकांशतः देशी व्यावसायिक समूह शामिल हैं, महसूस करता है कि “इस तरह के निवेश वांछित हैं या नहीं, इसका अंतिम फैसला भारतीय उद्यमियों के हाथों में ही छोड़ देना चाहिए.” तथाकथित बंबई क्लब, जो बजाज, बिड़ला, थापर, मोदी, गोदरेज, सिंघानिया और कुछ अन्य घरानों के प्रतिनिधित्व वाले भारतीय बड़े व्यावसायिक तबके को लेकर बना है, ने भी कुछ शुरूआती प्रतिरोध जताया था.एफडीआइ इन इंडिया: आइडियाज, इंटरेस्ट एंड इंस्टीट्यूशनल चेंजेज, ईपीडब्ल्यू, 18 जनवरी 2014.

इस समग्र ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ, अब हम मौजूदा नीति-समूह और भारत में वर्तमान आर्थिक संकट की उत्पत्ति पर नजर डालेंगे.