रुकी हुई वृद्धि और लगातार बनी रहने वाली ऊंची मुद्रास्फीति के खतरनाक संयोग ने उभरती अर्थव्यवस्थाओं के बीच भारत को  खास तौर पर नकारात्मक उदाहरण बना दिया है. जहां सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर 5 प्रतिशत से भी नीचे बनी हुई है और संगठित क्षेत्र में औद्योगिक उत्पादन अक्टूबर 2012 के मुकाबले अक्टूबर 2013 में 1.8 प्रतिशत कम हो गया; वहीं माहवारी खुदरा मूल्य वृद्धि की दर नवंबर 2013 में 11.24 प्रतिशत तक पहुंच गई. सबसे परेशान करने वाली बात यह है कि हर कोशिश के बावजूद ये दोनों प्रवृत्तियां निरंतर टिकी हुई हैं: लगातार 12 महीनों से औद्योगिक वृद्धि दर निम्न स्तर पर बनी रही है, जबकि खुदरा वस्तुओं की कीमतें अगस्त 2013 में दर्ज 9.52 प्रतिशत के वृद्धि-स्तर से भी लगातार ऊंची उठती रहीं. इससे भी बदतर बात यह थी कि मुद्रास्फीति सिर्फ खाद्य पदार्थों तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि वह विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) और सेवा क्षेत्रों में भी दिखने लगी.

वर्ष 2003-08 के बीच 9 प्रतिशत की औसत वृद्धि दर और 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के लिए 9 प्रतिशत से भी अधिक की शुरूआती आकांक्षा के साथ तुलना करने पर, उपर्युक्त वृद्धि दर के आंकड़े अत्यंत निराशाजनक हैं. यह प्रवृत्ति लगातार बनी हुई है – इस बात को वृद्धि दर के निम्नलिखित आंकड़ों में साफ देखा जा सकता है, जो केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय की ओर से 31 मई 2013 को जारी किया गया है.

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शायद, सबसे चिंताजनक बात यह है कि सकल अचल पूंजी निर्माण की वृद्धि दर में इस दौरान काफी तेज गिरावट आई है: 2010-11 में 15 प्रतिशत से गिरकर 2011-12 में 4.4 प्रतिशत और 2012-13 में 1.7 प्रतिशत. इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि निकट भविष्य में इस प्रवृत्ति में कोई बदलाव आने की संभावना नहीं दिखती है.