अमेरिका और अन्य विकसित राष्ट्रों में अत्यंत लोभी वित्तीय संस्थाओं के विवेकहीन व्यावसायिक क्रियाकलापों ने 2007-08 में बैंकिंग संकट को जन्म दिया, जो फिर मंदी के रूप में तब्दील हो गया. किंतु, हमारे देश में आर्थिक गिरावट की वजह से आज बैंक-प्रणाली गहरे दबाव में पड़ गयी है. यह बात अब सामने आ रही है कि हमारे बैंक – खासकर, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक – गैर जिम्मेदाराना ढंग से बड़े निजी प्रतिष्ठानों को कर्ज देते रहे हैं और उनसे ऋण व ब्याज वसूल करने के मामले में काफी मुलामियत दिखाते रहे हैं. नतीजतन, भारतीय बैंकों के बट्टे खाते (एनपीए) में भारी वृद्धि हुई और साथ ही, कर्जदारों की सुविधा के लिए मूल तथा ब्याज की वसूली की अवधि और तौर-तरीके बदल दिए गए. बिजली, रियल इस्टेट (जमीन की खरीद-बिक्री), टेक्सटाइल तथा बुनियादी ढांचा जैसे क्षेत्रों के पास विशाल बकाया जमा हो गया.
इसकी समग्र तस्वीर नीचे के बाॅक्स में देखी जा सकती है; लेकिन आइए, पहले हम कुछ खास मामलों पर नजर दौड़ा लेते हैं.
पंजाब नेशनल बैंक का अशोधित ऋण (बैड लोन) 31 दिसंबर 2012 को खत्म हुई तिमाही में 4035 करोड़ रुपया, यानी 40 प्रतिशत, बढ़ गया; जबकि इंडियन ओवरसीज बैंक का अशोधित ऋण लगभग 20 प्रतिशत बढ़ा. 31 मार्च 2013 को खत्म हुई तिमाही में ओवरसीज बैंक का शुद्ध मुनाफा 88 प्रतिशत गिरकर 59 करोड़ रुपया रह गया, जबकि पिछले वर्ष की इसी तिमाही में इसका शुद्ध मुनाफा 529 करोड़ रुपया था. इसके लिए उपर्युक्त दोनों कारण ही प्रमुखतः जिम्मेवार थे. 2011-12 के दौरान सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का कुल एनपीए बढ़कर 39,000 करोड़ रुपया हो गया, जबकि निजी बैंकों का कुल एनपीए महज 5,000 करोड़ रुपया था. भारतीय स्टेट बैंक का कुल अशोधित ऋण पिछले वर्ष
जैसा कि 30 दिसंबर 2013 को भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी वित्तीय स्थायित्व रिपोर्ट (एफएसआर) में बताया गया है, भारतीय बैंक इन्हीं दोनों वजहों से छह महीने पूर्व के मुकाबले आज अधिक जोखिम में पड़ गए हैं. दिसंबर 2013 तक बीते 12 महीनों के दौरान काॅरपोरेट ऋण पुनर्सूचीकरण (सीडीआर) कोषांग ने 77 उपभोक्ताओं के लिए 74,000 करोड़ रुपये के ऋण को नई शक्ल दे डाली, जो पिछले किसी भी वर्ष की तुलना में सबसे अधिक था. मार्च 2013 में, जहां 3.25 लाख करोड़ रुपये पर कुल बाध्यतामूलक अग्रिम अनुपात सकल अग्रिम का 9.2 प्रतिशत था, वहीं सितंबर 2013 में यह अनुपात बढ़कर 10.2 प्रतिशत हो गया. इसके अलावा, बैंकों के बीच परस्पर-संपर्क उस जोखिम को बढ़ा देेते हैं जिसे संक्रमण-प्रभाव (कंटेजियन इफेक्ट) कहा जाता है. इस प्रभाव के तहत अगर एक बड़ा घराना भी अपने ऋण व ब्याज को अदा करने में नाकाम हो जाए, तो समूची बैंकिंग प्रणाली में तबाही मच जाती है. आरबीआइ ने यह भी माना है कि इस समस्या का आंशिक कारण बड़े काॅरपोरेटों के साथ बैंकों का बड़े पैमाने पर लेन-देन का संबंध भी है. संक्षेप में, पश्चिमी मुल्कों के विशालकाय बैंकों की तुलना में छोटे होते हुए भी भारतीय बैंक पहले कम जोखिम भरे होते थे, लेकिन ज्यों-ज्यों उनका आकार बढ़ रहा है उनकी यह खासियत भी उतनी ही तेजी से समाप्त हो रही है.