रुपया के गिरते मूल्य के साथ चिंता का दूसरा बड़ा कारण है हमारा बढ़ता विदेशी कर्ज, जो 31 मार्च 2013 तक 390 अरब डाॅलर हो गया, यानी पिछले एक वर्ष के दौरान इसमें 12.9 प्रतिशत वृद्धि हुई. जीडीपी के साथ विदेशी कर्ज का अनुपात 31 मार्च 2012 को 19.7 प्रतिशत था, जो 31 मार्च 2013 को बढ़कर 21.2 प्रतिशत हो गया. सितंबर 2013 के अंत तक यह विदेशी कर्ज 400 अरब डाॅलर से भी ज्यादा हो गया.
मार्च 2012 के अंत में हमारे पास मौजूद विदेशी मुद्रा भंडार से हम 85.2 प्रतिशत विदेशी ऋण का भुगतान कर सकते थे; ठीक एक वर्ष बाद उससे 74.9 प्रतिशत कर्ज का ही भुगतान हो सकता था और सितंबर 2013 के अंत में हम सिर्फ 69.3 प्रतिशत कर्ज ही अदा कर सकते थे. इसमें लगभग आधा (172 अरब डाॅलर) तो अल्पकालिक ऋण था, जिसे अगले वर्ष मार्च के आसपास अदा करना था. मार्च 2008 के कर्ज (54.7 अरब डाॅलर) के मुकाबले यह तिगुना कर्ज है.
अल्पकालिक विदेशी ऋण में इस भारी वृद्धि का एक महत्वपूर्ण कारण है 2003-08 के उभार के दौरान भारतीय काॅरपोरेटों द्वारा कम ब्याज दरों पर विशाल मात्रा में लिया गया ऋण (इनमें से अधिकांश ऋणों की मियाद 5-7 वर्षों की थी). इन काॅरपोरेट कर्जदारों के लिए रुपये के मूल्य में गिरावट का मतलब यह है कि उन्हें अब उधार लिए गए हर डाॅलर के लिए पहले से कहीं ज्यादा रुपया खर्च करना होगा. स्वभावतः उन्होंने खतरे की घंटी का बटन दबा दिया और उसकी गूंज सत्ता के गलियारे में दौड़ने लगी.
राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य से देखें तो हमारी शुद्ध विदेशी देनदारियां, अर्थात् कुल अंतरराष्ट्रीय देनदारियों (भारत के विदेशी ऋणों व भारत में विदेशी निवेशों के सकल मूल्य) और कुल अंतरराष्ट्रीय परिसंपत्तियों (भारत द्वारा दूसरे देशों को दिए गए ऋण तथा किए गए विदेशी निवेशों का सकल मूल्य) के बीच का फर्क, भी कुछ कम चिंताजनक नहीं है. फर्क का आंकड़ा मार्च 2009 में 66.6 अरब डाॅलर से नाटकीय ढंग से बढ़कर दिसंबर 2012 में 282 अरब डाॅलर हो गया – यानी, चार वर्षों से कम की अवधि में लगभग चार गुना बढ़ गया! नई विदेशी ऋण-सेवा का खर्च चालू खाता घाटे में जुड़ता जाता है, जो अगले दौर में और भी बड़े पूंजी अंतर्प्रवाह को जरूरी बना देता है.
लेकिन हमारे राजनेता और अधिकारी हमें भरोसा दिलाते नहीं थकते कि अपने विदेशी कर्ज के मुकाबले हमारे पास ‘पर्याप्त’ विदेशी मुद्रा भंडार है. वे हमसे यह बात नहीं कहते हैं कि यह भंडार भी विदेशी ऋण और निवेश के अंतर्प्रवाहों से ही बना है, जिस पर भारत को ऊंचा ब्याज दर देना होता है; जबकि इस भंडार को सुरक्षित परिसंपत्तियों में (जैसे कि अमेरिका के सरकारी ऋण के बतौर) विदेश में जमा करना पड़ता है, जिसपर भारत को काफी कम आदमनी होती है. जैसा कि एन.के. चंद्रा ने 2008 में बताया था कि भारत की वार्षिक राष्ट्रीय आय के प्रतिशत के रूप में देखें तो वर्ष 2007 के अंत तक भारत में विदेशी निवेश व कर्ज के चलते भारत से शुद्ध वार्षिकी निकासी (ड्रेन) ब्रिटिश राज के अंतर्गत होने वाली वार्षिक प्रतिशत निकासी के समतुल्य हो गई थी.