हाल के वर्षों में राज्य द्वारा काॅरपोरेट सेक्टर को शर्मनाक हद तक सब्सिडियां दी जा रही हैं. सालाना बजटों में काॅरपोरेट क्षेत्र को दी गई छूटों से हमें यह सीधा संकेत मिलता है और कुल मिलाकर इनकी मात्रा पिछले आठ बजटों में 50 खरब रुपये हो गई है. जैसा कि हमने पहले गौर किया है कि काॅरपोरेट सेक्टर ने भारतीय सार्वजनिक बैंकों से सर्वाधिक ऋण प्राप्त किया है और ऋण लौटाने के मामले में सबसे अधिक गड़बड़ियां भी उसी ने की हैं. निराशाजनक आर्थिक परिदृश्य के बावजूद ये भारतीय बैंक अपने काॅरपोरेट ग्राहकों को विशाल मात्रा में ऋण दे रहे हैं और अत्यंत जोखिम भरे काॅरपोरेट ऋण की मात्रा लगभग 36 खरब रुपये हो गई है.
एक दूसरा उदाहरण देखें. हम प्रायः सुनते हैं कि सुधारों के चलते निजी क्षेत्र अब बुनियादी ढांचे के विकास में बड़ी भूमिका निभा रहा है, जो राष्ट्रीय समृद्धि के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. लेकिन, इस तथ्य को छिपा लिया जाता है कि यह निजी लाभ (और वाहवाही) अर्जित करने के लिए सार्वजनिक गाय को दुहने का ही एक दूसरा तरीका है. उदाहरण के लिए, उड्डयन क्षेत्र में कई निजी खिलाड़ियों ने काफी आत्मविश्वास और धूमधड़ाके के साथ काम शुरू किया, लेकिन प्रायः सब-के-सब नाकाम हो गए और उन पर बैंकों (अधिकांशतः सार्वजनिक क्षेत्र बैंकों) का भारी-भरकम कर्ज लद गया, जिसे वे चुका नहीं रहे हैं – किंगफिशर तो सर्वाधिक सनसनीखेज और ऊपर से ही नजर आने वाला मामला है. निजी विद्युत-परियोजनाओं को उससे भी बड़ी मात्रा में पैसे – 2,69,165 करोड़ रुपये – कर्ज में दिए गए हैं. इनमें से अनेक बिजली कंपनियां गले तक मुश्किलों में डूबी हुई हैं और वे आदतन कर्ज अदा नहीं करती हैं. एक ओर सरकार सब्सिडीयुक्त कोयला-आपूर्ति व अन्य रियायतों के जरिए इन परियोजनाओं की मदद कर रही है, तो दूसरी ओर वह बैंकिंग सेक्टर में समय-समय पर नगद राशि भी डालती रहती है – उसने वित्तीय वर्ष 2010, 2011 और 2012 में क्रमशः 20,157 करोड़, 12,000 करोड़ और 15,000 करोड़ रुपये डाले हैं – ताकि आवश्यक ‘पूंजी पर्याप्तता अनुपात’ बरकरार रहे. दोनों तरीकों से, सरकार सार्वजनिक संसाधनों को ही मनमाने तौर पर निजी क्षेत्रा के हाथों सौंप रही है – प्रत्यक्ष रूप में अथवा परोक्ष रूप से (सार्वजनिक बैंकों के जरिए).
जैसे कि किंगफिशर के मामले में भारतीय स्टेट बैंक को सबसे अधिक नुकसान झेलना पड़ा था, उसी प्रकार अधिकांश अन्य मामलों में भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को ही घाटे का बोझ उठाना पड़ा. कारण यह है कि सरकार उन्हें ही इन भारी जोखिम भरे उद्यमों को कर्ज देने के लिए विवश करती है, जबकि निजी क्षेत्र के बैंक आम तौर पर इससे बचे रहते हैं. यह बात उपलब्ध आंकड़ों से बिलकुल स्पष्ट हो जाती है. वित्तीय वर्ष 2009-12 की अवधि में, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बैंकों में बैंक ऋण लगभग एक-समान दर से बढ़ा – क्रमशः 19.6 प्रतिशत और 19.9 प्रतिशत की दर से. लेकिन पुनर्सूचीकृत ऋण की मात्रा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में 47.9 प्रतिशत की चक्रवृद्धि दर से बढ़ा, जबकि भारतीय निजी बैंकों के लिए यह वृद्धि दर सिर्फ 8.1 प्रतिशत थी. इस मुश्किल भरे दौर में विदेशी बैंकों ने अधिक चतुराई से काम किया. उनके द्वारा दिया गया ऋण 11 प्रतिशत की सुस्त दर से बढ़ा, अर्थात् भारतीय निजी बैंकों की तुलना में 8 प्रतिशत कम; साथ ही, वे जोखिम भरे बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में ऋण देने से एकदम कन्नी काटते रहे. नतीजा यह हुआ कि इस अवधि में उनका पुनर्सूचीकृत ऋण 25.5% कम हो गया. स्पष्ट है कि इस मामले में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के बदतरीन प्रदर्शन का श्रेय उनकी अपनी पूर्वकल्पित अकुशलता को नहीं, बल्कि सरकार की नीतियों को जाता है जिनके अनुसार उन जगहों पर भी बड़ी पूंजी को हर संभव मदद देनी है जहां ऋण-दाता बैंकों को, और अंततः सरकारी खजाने को बड़ा नुकसान होने की संभावना रहती है.