सितंबर 2012 में डीजल की कीमत एक झटके में 5 रु. प्रति लीटर बढ़ा दी गई; रसोई गैस (एलपीजी) सिलिंडरों पर सब्सिडी आधी कर दी गई; मल्टी ब्रांड रिटेल, नागरिक उड्डयन और ब्राॅडकास्टिंग जैसे क्षेत्र एफडीआइ के लिए खोल दिए गए और सार्वजनिक क्षेत्र की कई लाभकारी इकाइयों के शेयर बिक्री के लिए पेश कर दिए गए.
इनमें से जिस एक चीज पर फौरन लोगों का गुस्सा भड़का वह था एलपीजी सिलिंडरों पर सब्सिडी में भारी कटौती और डीजल की कीमत में अब तक की सबसे ऊंची वृद्धि. सरकार भी इस बात से इनकार नहीं कर सकी कि डीजल की कीमत बढ़ने से परिवहन व्यय में बढ़ोतरी होगी, जिसका बुरा प्रभाव खाद्य पदार्थों की कीमतों पर पड़ेगा. सरकार का यह दावा, कि तेल कंपनियों को हो रहे नुकसान के मद्देनजर डीजल की मूल्य-वृद्धि जायज है, कम से कम दो बातों से शर्मनाक बहानेबाजी के रूप में बेनकाब हो गया. एक, तेल व गैस की तमाम कंपनियों ने काफी मात्रा में शुद्ध मुनाफा बटोरा था. दूसरा, यह बताया गया कि सरकार को डीजल पर इसीलिए भारी सब्सिडी देनी पड़ती है, क्योंकि वह इससे भी बड़ी मात्रा में शुल्क वसूलती है; अगर उसने धनिकों पर टैक्स लगाकर और राजस्व संग्रह को बेहतर बनाकर इस शुल्क को बढ़ाने का फैसला लिया होता, तो किसी सब्सिडी की जरूरत नहीं होती!
सब्सिडियों को सीधे सीधी वापस लेने के अलावा सरकार ने वैसा करने के अप्रत्यक्ष तरीके भी बना लिए हैं. गरीबी रेखा को मनमाने और हास्यास्पद ढंग से नीचे खिसका कर उसने बड़ी तादाद में गरीब लोगों को रियायती कीमतों पर खाद्यान्न तथा आवास जैसी बुनियादी जरूरियातों से वंचित कर दिया है.
मल्टी ब्रांड रिटेल में एफडीआइ को हरी झंडी दिखाने के फैसले ने न केवल सड़कों पर प्रतिवादों को जन्म दिया, बल्कि इसको लेकर सबसे तीखी बहस भी शुरू हो गई. सरकार ने दावा किया कि इससे शीत शृंखला (कोल्ड चेन) में निवेश होगा और फलतः “बिचैलियों के हट जाने” से कीमतें कम हो जाएंगी; यह बताया गया कि फल व सब्जियों के क्षेत्र में, जहां कोल्ड चेन अधिसंरचना की सबसे अधिक जरूरत होती है, विकासशील देशों के आंकड़े संकेत देते हैं कि नए सुपर-बाजारों में कीमतें मौजूदा खुदरा दूकानों की अपेक्षा ऊंची रहती हैं. अधिकारियों ने दावा किया कि वर्तमान समय के खुदरा व्यापारियों को नुकसान नहीं होगा. लेकिन, लैटिन अमेरिका और दक्षिण एशिया के देशों के आंकड़े दिखाते हैं कि विदेशी रिटेल चेन के आने पर छोटे दूकानों की संख्या में काफी कमी हो गई है और खुले वेंडरों की बाजार में हिस्सेदारी भी गिरी है. भारत सरकार ने दावा जताया कि जब नए शाॅपिंग माॅल खुलेंगे, तो अनेक नए रोजगार भी सृजित होंगे. यह समझना काफी आसान है कि यह दावा निरा धोखा है, क्योंकि यह तो सोचा ही नहीं जा सकता है कि पूंजी-और-तकनोलाॅजी-प्रधान शाॅपिंग माॅल किसी भी तरह श्रम-प्रधान किराना दूकानों की बराबरी कर पाएंगे.
नीति-निर्माताओं की सबसे मजबूत दलील यह थी कि काॅरपोरेट रिटेलर सीधे किसानों और छोटे उत्पादकों से खरीदेंगे, जिन्हें बिचैलियों के हट जाने से बेहतर कीमतें मिलेंगी. ऊपर से यह बात सुखद लग सकती है, लेकिन उन्हें इससे कोई खुशी नहीं मिलेगी जो हमारे देश की जमीनी हकीकत से वाकिफ हैं. काॅरपोरेट रिटेलरों के लिए अध्किांश खरीद कंट्रैक्ट फार्मिंग के जरिए होती है, जिसके अंतर्गत किसान बड़े खिलाड़ियों की दया के पात्रा बन जाते हैं. दूसरे तरीके से भी देखें तो छोटे कृषक शायद ही आपूर्ति शृंखला तक पहुंच पाते हैं, क्योंकि ये खरीदार मनमाने ढंग से गुणवत्ता के मानदंड और कीमतें तय करते हैं. इसके अलावा, शक्तिशाली रिटेलर उत्पादकों के लिए बेहतर शर्तों के साथ शुरू कर सकते हैं, और जब एक बार पुराने बिचैलिए प्रतियोगिता से बाहर कर दिए जाएंगे, तो ये रिटेलर अपनी एकाधिकारी स्थिति का इस्तेमाल करते हुए खरीदी के बाजार में छोटे असंगठित आपूर्तिकर्ताओं को निचोड़ने लगेंगे. भारत में और विदेशों में भी कई संस्थाओं व व्यक्तियों द्वारा किए गए अनेकानेक अध्ययनों से ये सारी चीजें पूरी तरह उजागर हो चुकी हैं.
अंततः, सरकार ने छोटे उत्पादकों और रिटेलरों के हितों की सुरक्षा के लिए विभिन्न “प्रतिबंधें और संतुलनों” की बात कही है. ये बातें खोखले वादे हैं, यह उस वक्त साबित हो गया जब, उदाहरण के लिए, यह शुरूआती वादा - कि विदेशी रिटेल शृंखलाओं को कम से कम 30 प्रतिशत उत्पाद भारतीय छोटे और मंझोले उद्यमों से प्राप्त करना होगा – स्वीडेन की विशाल फर्नीचर कंपनी आइकेईए के मामले में फौरन रद्द कर दिया गया.
इस प्रकार, एफडीआइ के पक्ष में दिए गए तमाम तर्कों को एक-एक करके ध्वस्त कर दिया गया है. यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी जनवरी 2013 में एक जनहित याचिका स्वीकार करते हुए केंद्र सरकार से यह जवाब दायर करने को कहा कि वह छोटे व्यापारियों के हितों की रक्षा कैसे करना चाहती है. कोर्ट ने सरकारी वकील से पूछा, “क्या आपके पास कोई ठोस तथ्य है या सिर्फ राजनीतिक जुमलेबाजी है? क्या एफडीआइ नीति का कुछ नतीजा निकला है?” बहरहाल, न्यायालय को यह अधिकार नहीं था कि वह सरकारी फैसले को उलट सके. सरकार को मौका मिला. उसने वालमार्ट और टेस्को जैसे रिटेलर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए लाल कालीन बिछा दिए; जबकि पश्चिम में, लाॅस एंजेल्स में और न्यूयाॅर्क में ये कंपनियां अभूतपूर्व रूप से विशाल प्रतिवाद झेल रही थीं.
पेंशन फंड और बैंकों का दरवाजा वैश्विक वित्तीय पूंजी के लिए खोलने के फैसले का प्रतिवाद सड़कों पर तो उतना नहीं हुआ, मगर जानकार तबकों में इसकी कड़ी आलोचना हुई. ‘बीमा कानून (संशोधन) बिल, 2008’ और ‘बैंकिंग कानून (संशोधन) बिल, 2011’ – जिसने निजीकरण मुहिम को नई गति प्रदान की – के पारित हो जाने के बाद अब ‘पेंशन फंड नियामक और विकास प्राधिकरण बिल, 2014’ की बारी है, जो पेंशन-प्रोविडेंट फंड क्षेत्र में 49 प्रतिशत एफडीआइ की इजाजत देता है. ये उपाय फंड प्रबंधकों को भारतीय मेहनतकश अवाम की मेहनत की कमाई के अरबों रुपये के साथ खेलने, तथा सट्टा बाजारी व अन्य तरीकों से विशाल मुनाफा बटोरने की खुली छूट दे देंगे.
हमारे वित्त-क्षेत्र को और अधिक खोलने के सवाल पर रिजर्व बैंक भारत सरकार के साथ पूरी तरह सहमत है. यह तथ्य 2013 में आर. राजन ने वाशिंगटन में स्पष्ट कर दिया. कुछ ही वर्ष पूर्व अमेरिकी बैंकों और वित्तीय संस्थाओं में आए महाविनाश को भूलते हुए उन्होंने भारतीय बैंकों को निगल जाने के लिए अमेरिका के विशालकाय बैंकों को खुला न्योता दे डाला. उन्होंने अमेरिकी वित्तीय प्रतिष्ठानों के प्रतिनिधियों की एक बैठक में कहा, “वह एक बहुत बड़ा अवसर होगा, क्योंकि तब आप भारतीय बैंकों के, छोटे बैंकों के अधिग्रहण के बारे में भी सोच सकते हैं. ... अगर आप सब्सिडी ढांचे को पूरी तरह स्वीकार कर लेंगे ... (तो) हम आपके साथ राष्ट्रीयकृत बैंकों की तरह सलूक करेंगे.”