इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए यूपीए सरकार ने बड़े व्यावसायिक घरानों की इस चिर लंबित मांग को मान लिया कि उन्हें अपना बैंक स्थापित करने की इजाजत दी जाए. ये घराने काफी खुश हुए, क्योंकि उन्हें आम लोगों की बचतों से आसान ऋण प्राप्त हो जाने वाले थे. ऐसे बैंक विवेकपूर्ण बैंकिंग मानदंडों (अर्थात्, अत्यंत नीची ब्याज दर, कर्ज वसूली के मामले में अत्यधिक नरमी, वगैरह) को तोड़कर अपने खुद के व्यावसायिक उद्यमों को ऋण प्रदान करने के मामले में बेजा फायदा उठाया. इससे बैंक के अन्य शेयरधारकों के हितों का नुकसान हुआ. इसी वजह से नोबेल पुरस्कार विजेता जोसेफ स्टिगलिज ने जनवरी 2013 में मुंबई में कहा कि काॅरपोरेटों को बैंकिंग जगत में घुसने की अनुमति नहीं देनी चाहिए, क्योंकि उससे हितों के बीच टकराव उत्पन्न होते हैं. एक कल्पनाशील विश्लेषक ने चुटकी ली कि किसी बैंक को लूटने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि उसका मालिक बन जाओ!
यह तर्क दिया गया था कि यह कदम अधिक लोगों तक बैंक-सेवा को पहुंचाने में मददगार होगा, इसमें ग्रामीण क्षेत्रों में रहनेवाले लोग भी शामिल थे. क्या पिछले अनुभव इन आशाओं के अनुरूप रहे हैं?
जब 1990 के दशक में विदेशी और घरेलू निजी बैंकों के लिए (यद्यपि अभी के काॅरपोरेट बैंकों के लिए नहीं) दरवाजा खोला गया था, तो अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की संख्या पहले बढ़ी, फिर कम हो गई; क्योंकि चलने-में-अक्षम होने की वजह से बैंक बंद कर दिए गए. कुल ग्रामीण शाखाओं में इन बैंकों की ग्रामीण शाखाओं का अंश 1990 में 58 प्रतिशत से घटकर 2011 में 37 प्रतिशत हो गया. आबादी-आच्छादन की स्थिति भी बदतर ही रही – 1991 में 13,700 प्रति बैंक शाखा से बढ़कर वह 2001 में सिर्फ 15,200 रहा. और इस सदी के पहले दशक के अंत तक 16,000 के आसपास सिमट गया. इसके अलावा, कुल गैर-खाद्य ऋण में प्राथमिक क्षेत्र के ऋण का अंश काफी नीचे गिर गया: 1990 में 40 प्रतिशत से गिरकर 2012 में 33 प्रतिशत हो गया. कृषि और लद्यु उद्योग क्षेत्र के अंश 1990 में क्रमशः 16.4 और 15.4 प्रतिशत से कम होकर 2012 में क्रमशः 12.2 और 6.0 प्रतिशत रह गए.
यह आशा करना व्यर्थ है कि नई नस्ल के काॅरपोरेट बैंक कोई अलग रास्ता अख्तियार करेंगे और कोई उपयोगी सामाजिक मकसद पूरा करेंगे. यकीनन, निजी काॅरपोरेट लूट का एक दूसरा जरिया खोलना ही इसका असली मकसद है और इसे अवश्य पूरा किया जाएगा.
इस परिप्रेक्ष्य में यूपीए के इस नए फैसले का मूल्यांकन करें तो भारतीय अनुभव हमें बताते हैं कि सार्वजनिक स्वामित्व होने से कुछ हद तक लोक सेवकों के बतौर प्रशिक्षित बैंक प्रबंधकों के आचरण पर अच्छा असर पड़ता है, और वे तुरत-फुरत फायदे की लालच में नहीं फंसते हैं. इसी के चलते यहां अमेरिका-जैसा बैंकिंग संकट नहीं आ पाया. बहरहाल, 1993 के बाद की अवधि में तीन तरीकों से सार्वजनिक स्वामित्व के वर्चस्व को ढीला बनाया जा रहा है –
(क) विदेशी बैंकों को ज्यादा मौका देकर (ख) नए निजी बैंकों को लाइसेंस देकर और (ग) राष्ट्रीयकृत और राज्य-स्वामित्व वाले बैंकों में निजी इक्विटी शेयर की मात्रा अत्यधिक बढ़ाने के जरिए इन बैंकों में सार्वजनिक स्वामित्व को काफी हद तक शिथिल करके. इस क्षेत्रा में काॅरपोेरेट घरानों के प्रवेश की अनुमति देने का नवीनतम फैसला इसी दिशा में एक और प्रतिगामी कदम है – इससे बैंकिंग सेक्टर पर काॅरपोरेट नियंत्रण और ज्यादा मजबूत होना है, तथा इससे छोटे व्यवसाय और छोटे खाताधारकों की जरूरतों पर सीधेसीधी चोट पड़नी है.