ठीक 100 साल पहले लेनिन ने अपनी किताब 'साम्राज्यवाद: पूँजीवाद की चरम अवस्था' में "मुद्रा पूँजी... से औद्योगिक एवं उत्पादक पूँजी के अंतर" की चर्चा की थी जोकि "साम्राज्यवाद या वित्तीय पूँजी के वर्चस्व के दौर में" "विराट रूप" धारण कर लेता है. उन्होंने आगे कहा था कि "पूँजी के सभी रूपों पर वित्तीय पूँजी के वर्चस्व का मतलब है- निवेश पर सूदख़ोरी करने वाले या वित्तीय अल्पसंख्या का प्रभुत्व..."
पिछली शताब्दी के आखिर के दशकों में नव उदारवाद के आगमन के बाद वित्तीय पूँजी ने अपने को और भी मजबूत किया है और राज्य के नियम कायदों से अपने लिए बड़ी आजादी हासिल कर ली है. 2007 में शुरू होने वाले संकट के बाद विकसित पूँजीवादी देशों में जनता के दबाव के चलते कुछ प्रतिबंध लागू किए गए पर अब इनमें सेज्यादातर को वापस लिया जा रहा है. उदाहरण के लिए डॉनल्ड ट्रम्प ने डोड फ़्रैंक के वाॅल स्ट्रीट सुधार, और उपभोक्ता सुरक्षा कानून को पूरी तरह खारिज न करते हुए भी बहुत हद तक शिथिल करने का वादा किया है. संचार तकनीक में हुई तेज प्रगति के चलते माइक्रोसॉफ्ट, वीजा, मास्टरकार्ड जैसी वित्तीय-तकनीकी कम्पनियों ने राष्ट्रीय अर्थतंत्रों के भीतर और बाहर भी वित्तीय प्रक्रियाओं के दायरे को बढ़ाने का ज़िम्मा ख़ुद ही सम्भाल लिया है. डिजिटलीकरण को बढ़ाने के ठोस प्रयास (जिनकी चर्चा हम पहले कर आए हैं) इसी अन्तर्राष्ट्रीय पहल का हिस्सा हैं.
विभिन्न देशों में कैशलेस अर्थव्यवस्था को थोपने और बड़ी कारपोरेट कम्पनियों के साझे स्वार्थों के साथ नोटबंदी की कदमताल यहीं तक हैं. भारत में नोटबंदी-डिजिटलीकरण के खास रूप और अंतर्वस्तु को देखने पर उसके कुछ विशिष्ट पहलू भी उभरते हैं.