सबसेज्यादा तो उन्हें जो वैश्विक स्तर पर वित्तीय समेकन और नकदी को पूरी तरह खत्म करने के पक्ष में हमलावर अभियान चला रहे थे: जैसे कि वीजा और मास्टरकार्ड जैसे कार्ड नेटवर्क आदि. इनके बारे में हमने पिछले अध्याय में चर्चा की थी.
इसके बाद उनके भारतीय वंशजों का नम्बर आता है जिनमें हाल ही में शुरू किए गए 'पेमेंट बैंक', टेलीकॉम ऑपरेटर (इनमें वोडाफ़ोन और रिलायंस आदि ने पेमेंट बैंक क्षेत्र में भी पाँव पसार लिए हैं), इंटरनेट सेवा प्रदाता और ई-बटुवा संस्थाएँ शामिल हैं. ये सब वस्तुओं और सेवाओं के खरीद्दारों और विक्रेताओं के बीच बिचौलिए का काम करके मुनाफा उगाहते हैं.
इससे उन व्यावसायिक बैंकों को भी भारी लाभ पहुँचा जिन्होंने नोटबंदी के बाद अपनी तिजोरियाँ कुछ हद तक भर लीं और यों अदानी और माल्या द्वारा की गयी लूट के नुकसान की कुछ हद तक भरपाई कर ली और अमेरिकी बैंकों जैसे संकट में फँसने से बच गए. जाहिर है कि यह बैंकों के डूब रहे कर्ज़े (एनपीए) की समस्या का कोई समाधान नहीं है क्योंकि यदि कर्ज देने की मौजूदा नीतियाँ जारी रहीं तो बैंकों को फिर लूटा जाएगा.
अन्य क्षेत्रों के बड़े उद्योगों को भी इससे लाभ होने की उम्मीद है क्योंकि नोटबंदी ने असंगठित क्षेत्र के उनके छोटे प्रतिद्वंद्वियों का सफाया कर दिया है. क्या इस तरह के फायदों से अर्थव्यवस्था में आयी चौतरफा मंदी से हुए नुकसान की भरपाई हो सकेगी ? यह देखना अभी बाक़ी है.
इसका खामियाजा किसे भुगतना पड़ा? जाहिर है स्वरोजगार में लगे लोगों, अस्थायी रोजगार वालों, लघु व अतिलघु उद्यमों को चलाने वालों, मजदूरों (खासकर अस्थायी/अनियमित और खेत मजदूरों, जिन्हें काम नहीं मिला), किसानों (जो खेती नहीं कर सके और जिन्होंने महँगी ब्याज दरों पर कर्ज़ा लिया), छोटे व्यापारियों और रेहड़ी-पटरी वालों (जिनके ग्राहक डिजिटल भुगतान की सुविधा देने वाली बड़ी दुकानों में चले गए) को नुकसान हुआ.
वे तकलीफ झेल रहे हैं और उन्हें आगे भी तकलीफ झेलनी होगी. कई लोगों के लिए रोजगार का स्थायी तौर पर नुकसान हुआ है. खेती की पैदावार का दाम गिर जाने के कारण किसान कर्ज और उसका सूद नहीं चुका पाए हैं. वे आर्थिक तबाही और ख़ुदकुशी तक की दिशा में जा रहे हैं. व्यापार में टिके रहने के लिए पी.ओ.एस. (प्वांइण्ट ऑफ सेल, कार्ड से पैसा लेने वाली मशीन) खरीदने वाले व्यापारियों को अतिरिक्त मरचेंट डिसकाउंट रेट (व्यापारी को यह कमीशन बैंक को अदा करना पड़ता है जो बड़े व्यापारियों पर तो खास असर नहीं डालता लेकिन छोटे व्यापारियों को बहुत भारी पड़ता है) का बोझ उठाना पड़ रहा है. साथ ही उन्हें बहुतेरी तकनीकी और खाता सम्बंधी झंझटों से भी निपटना पड़ता है- मसलन हलफनामा या के.वाई.सी. वग़ैरह ... असंगठित क्षेत्र के लिए तकलीफों का यह सिलसिला कभी न खत्म होने वाली कहानी बन गया है.
ऐसा नहीं है कि संगठित क्षेत्र जोकि मुख्यतः कारपोरेट क्षेत्र है, को कोई नुकसान नहीं हुआ. उनकी कच्चे माल की आपूर्ति बाधित हुई (कच्चा माल मुख्यतः असंगठित क्षेत्र से मिलता है) और माँग में गिरावट आयी. यह गिरावट सिर्फ नकदी की कमी के चलते नहीं बल्कि बड़ी तादात में लोगों की आमदनी घटने और रोजगार खत्म होने के चलते भी हुई. निर्माण, बुनियादी ढाँचा और रीयल स्टेट के क्षेत्रों में आयी गिरावट अभी जारी ही है. लेकिन जहाँ बड़े उद्योगों के पास लम्बे समय में अपने घाटे की भरपाई करने के साधन मौजूद रहते हैं वहीं असंगठित क्षेत्र के पास इस किस्म की सहनशक्ति नहीं होती और वे अक्सर स्थायी रूप से ऐसे धक्कों से पंगु हो जाते हैं.
क्या सरकार और उसके आर्थिक सलाहकारों को उन बेशुमार अड़चनों का अंदाजा नहीं रहा होगा जो हमारे मुल्क के पूर्ण डिज़िटलीकरण को लगभाग असम्भव सा काम बना देती हैं? इस पर यक़ीन करना मुश्किल है. 2016 में रिजर्व बैंक द्वारा प्रकाशित "कांसेप्ट पेपर ऑन कार्ड एक्सेपटेंस इंफ़्रास्ट्रक्चर" में इन कठिनाइयों को विस्तार से बताया गया था और कहा गया था कि ऐसी जमीनी हालात में डिजिटलीकरण छोटे व्यापारियों के हितों को दरकिनार करके बड़े व्यापारियों के हितों को साधने वाला होगा. इसलिए यह सोचना मुश्किल है कि वे सचमुच इस बात पर यक़ीन करते थे कि जबरन डिज़िटलीकरण के चलते तेज गति से और समेकित विकास हो जाएगा. उनका असली मकसद तथाकथित 'अनौपचारिक' क्षेत्र की क़ीमत पर औपचारिक क्षेत्र को बढ़ावा देना था. जबकि अनौपचारिक क्षेत्र ही 'हम भारत के लोग' की समाजार्थिक जीवन धारा है. और अब हम इसी चीज को साक्षात देख रहे हैं जिसे मार्क्स ने आदिम संचय का पैशाचिक दृश्य कहा था.
मार्क्स की रचनाओं में 'आदिम संचय' दो अर्थों में इस्तेमाल हुआ है- (क) एक ऐतिहासिक दौर, जिसने "उस प्रक्रिया, जो एक ओर जीवन-यापन के सामाजिक साधनाें तथा उत्पादन के साधनों को पूँजी में बदल देती है और दूसरी ओर प्रत्यक्ष उत्पादकों को वेतनभोगी मजदूरों में बदल देती है", के जरिए पूँजीवाद के उदय की पूर्वशर्त पैदा की है और (ख) ऐसी प्रक्रिया, जिसका अक्सर इस्तेमाल पूँजीवाद के समूचे इतिहास में इस अलगाव को बरकरार रखने तथा "लगातार बढ़ते हुए पैमाने पर" पुनरुत्पादन करते रहने, तथा संकट या मंदी के समयों में बाजार की मध्यस्थता से सामान्य: होने वाले पूँजी संचय के सामने खड़ी बहुतेरी बाधाओं को लाँघने के उद्देश्य से किया जाता है.
बहुत दिन नहीं हुए जब हम भारतीयों को आदिम संचय की एक के बाद एक आने वाली लहरों की आपदा झेलनी पड़ी थी. इसमें डच, पुर्तगाली, स्पेनी और बर्तानवी ईस्ट इंडिया कम्पनी के द्वारा की गयी लूट-खसोट, अंग्रेजी शासन के दौरान औनिवेशिक दोहन, विकासशील अंग्रेजी उद्योगों के साथ असमान स्पर्धा में भारत के महान हस्तशिल्प की तबाही और अनौद्योगिकीकरण व आजादी के बाद औद्योगीकरण के नाम पर बड़े बाँधों के निर्माण आदि के दौरान हुआ विस्थापन और बेदखली तथा हाल ही के समय में दादरी, रायगढ़, सिंगूर आदि में जमीन हड़पने की घटनाएँ इसमें शामिल हैं. इन्हीं ऐतिहासिक क्षणों के बारे में मार्क्स ने 'पूँजी' में कहा था कि "जब बड़ी तादात में लोगों को अचानक व बलपूर्वक उनके जीवन-यापन के संसाधनों से उखाड़ कर बेदखल कर दिया जाता है और श्रम बाजार" में स्वतंत्र "बंधनमुक्त" सर्वहारा के रूप में धकेल दिया जाता है. नोटबंदी और जबरिया डिजिटलीकरण का हमला ऐसी ही आपदाओं में से एक हैं.