नव-उदारवाद का संकट और लोकप्रिय आंदोलनों के समक्ष चुनौतियां पुस्तिका में मार्क्स के संक्षिप्त वक्तव्य (देखें बाॅक्स) से हमने सीखा कि समय-समय पर (सावधिक) आने वाले संकट पूंजीवादी संचय के अभिन्न, जैविक, अनिवार्य अंग होते हैं. इसीलिए, इन संकटों से सचमुच निजात पाने का एकमात्र रास्ता है खुद पूंजीवाद से निजात पाना, समाजवाद की ओर आगे बढ़ना. यकीनन, वह समाजवाद – जो तमाम कठमुल्ला पूर्वधारणाओं से मुक्त हो, एक ऐसी प्रणाली जिसके अंतर्गत उत्पादन के तमाम साधनों पर सामाजिक स्वामित्व हो, जहां हर व्यक्ति को समान अधिकार और अवसर प्राप्त हों, जहां हर किसी का निर्बाध चतुर्दिक विकास सबके विकास की शर्त बन जाए.
बहरहाल, यह तो हमारा दीर्घकालिक लक्ष्य है. लेकिन, आज हमारा देश मानव-दुर्दशा की जिस अथाह गहराई में धंसा हुआ है, वहां से हम यक-ब-यक छलांग लगाकर उस ऊंचाई तक नहीं पहुंच सकते (यद्यपि कि यह दुर्दशा सतही और विकृत पूंजीवादी वृद्धि की चकाचैंध् में आंशिक रूप से छिपी रहती है). हमें सबसे पहले उत्पादक शक्तियों को बेड़ियों से आजाद करना होगा – खासकर कृषि के क्षेत्र में, जहां आज भी 50 प्रतिशत से ज्यादा भारतीय नियोजित हैं – ताकि आर्थिक संगठन के उच्चतर व अधिक कारगर स्वरूप के बतौर समाजवाद के निर्माण के लिए भौतिक शर्तें तैयार हो सकें; और साथ-ही-साथ हमें जिस संसदीय ढोंग से जूझना पड़ रहा है, उससे बिलकुल भिन्न जनता का एक सच्चा, भागीदारीमूलक जनवाद हासिल किया जा सके. इसके लिए जनता की जनवादी क्रांति से कम किसी भी चीज से काम नहीं चलेगा, और इसकी धुरी कृषि क्रांति होगी. इस जनवादी क्रांति का प्राथमिक लक्ष्य होगा तमाम सामंती अवशेषों का सफाया करना, साम्राज्यवादी प्रभुत्व को उखाड़ फेंकना, कारगर कराधान (टैक्सेशन) तथा राष्ट्रीयकरण व अन्य तरीकों से बड़ी पूंजी को सीमित और नियंत्रित करना, तथा शासन के समस्त उपकरणों व तंत्रों का लोकतंत्रीकरण करना. यह क्रांति मजदूरों, किसानों, मध्यम वर्ग व बुद्धिजीवियों के प्रगतिशील हिस्सों के शासन, अर्थात् जनता के जनवादी राज्य को जन्म देगी, जो न केवल हमारी आर्थिक समस्याओं का निराकरण करेगा, बल्कि जो समाज व राजनीति-तंत्र के मुकम्मल जनवादीकरण से लेकर प्रगतिशील सांस्कृतिक रूपांतरण तक के तमाम किस्म के उन कार्यभारों को भी पूरा करेगा, जो आर्थिक समस्याओं से घनिष्ठ रूप से जुड़े रहते हैं. इस प्रकार, विजयी जनवादी क्रांति निर्बाध समाजवादी संक्रमण के लिए भौतिक व सांस्कृतिक पूर्व शर्त तैयार करेगी.
इस सामान्य दिशा के साथ, अब हमलोग आधिकारिक नीति-ढांचे में ‘जन विकल्प’ के कुछ बुनियादी बिंदुओं को समाहित कर सकते हैं:
1. विदेशी पूंजी की पूजा की संस्कृति खत्म करो और इसके बजाय घरेलू मांग सृजन और घरेलू पूंजी निर्माण को तरजीह दो, क्योंकि इसी रास्ते पर चलकर समावेशी – और इसीलिए स्थायी – आर्थिक विकास हासिल किया जा सकता है. विदेशी पूंजी के अधिकाधिक अंतर्प्रवाह की सरकारी लालसा के कारणों को सिर्फ शीर्ष नीति-निर्माताओं की व्यक्तिगत रुचि-अरुचि में खोजना पर्याप्त नहीं होगा, हालांकि यह चीज भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. गहरे स्तरों पर, यह तो इजारेदार पूंजीपति वर्ग के साथ पूर्ण संगति बिठाते हुए भारतीय राज्य द्वारा अपनाए गए विकास के रास्ते का मूलभूत तर्क है – और ये दोनों वैश्वीकरण के युग की दलाल मानसिक बनावट को ही प्रकट कर रहे हैं. पिछले दो दशकों के समग्र अनुभव यह सिद्ध करते हैं कि वृद्धि उत्प्रेरक के बतौर विदेशी पूंजी के बढ़े अंतर्प्रवाह पर निर्भरता के दीर्घकालिक दुष्प्रभाव तात्कालिक व सतही लाभों की अपेक्षा कहीं अधिक भारी पड़ते हैं. इसीलिए, अब वक्त आ गया है कि भारत को इस नशीली दवा की लत जैसी परिघटना से मुक्त हो जाना चाहिए. बीमा, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, पण्य व सट्टा बाजारों समेत अन्य तमाम क्षेत्रों में विदेशी निवेश की सीमा को और आगे बढ़ाने के ताजातरीन फैसले को बिलकुल रद्द कर देना चाहिए.
2. एक ऐसा विकास-माॅडल अपनाया जाए, जो जन-केंद्रिक हो और जो देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के हितों से चालित न हो. वित्तीय पूंजी और रेटिंग एजेंसियों द्वारा लादी गई मौद्रिक रूढ़िवादिता को खारिज करो. इस तरह के तर्क देना बंद करो कि मुद्रास्फीति पर काबू पाने के लिए सरकारी खर्चों में अंधधुंध कटौती करनी होगी
3. मेहनतकश जनता के लिए कमखर्ची के उपाय लादने के बजाय हमारे मंत्रियों, सांसदों और आला अफसरों की विदेश यात्राओं, पांच-सितारा रहन-सहन, वगैरह पर बेशुमार फालतू खर्चों को खत्म किया जाए – मेहनतकशों की आमदनी से तो मांग बढ़ती है और अर्थतंत्र में गति आती है. भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा सिंह पाटिल की विदेश यात्राओं पर 206 करोड़ रुपये खर्च हुए (अब तक का सबसे ज्यादा खर्च), नई सजाई-संवारी कार पर 6 करोड़ रुपये व्यय किए गए, तथा रिटायरमेंट के बाद पुणे में सेना की एक जमीन पर उन्होंने अपने लिए बेहद फैला हुआ बंगला बनवाया. फिर, 2011-12 में अपने यात्रा व्यय के लिए बजट में निर्धारित 47 करोड़ रुपये के मुकाबले, केंद्रीय मंत्रियों ने 400 करोड़ रुपये फूंक डाले, जबकि पिछले वर्ष इस मद में सिर्फ 56 करोड़ रुपये खर्च हुए थे. हमारे देश के शासक राजनेताओं के पास करदाताओं के पैसे से अपने शरीर पर चर्बी चढ़ाने की खास युक्ति मौजूद है. जब अनिवार्य प्रतिबंधें के चलते ‘जंबो’ (भारी-भरकम) मंत्रीमंडल में कटौती करने की कोशिश हुई, तो मंत्रीमंडल से बाहर रह गए नेताओं को कागजी निगमों का अध्यक्ष बनाकर और अन्य मलाईदार पदों पर बिठाकर उन्हें ‘एडजस्ट’ किया जाने लगा. ऐसे आचरणों पर रोक लगानी होगी. लगातार बढ़ते सैन्य बजट और अधिकांशतः गैर-जरूरी अंतरिक्ष कार्यक्रमों पर हो रहे विशाल खर्चों में भी कटौती करनी पड़ेगी, ताकि जन-पक्षीय उत्पादक निवेशों के लिए अधिक धनराशि दी जा सके. और, भ्रष्ट व्यक्तियों तथा उनके आचरणों की हिफाजत के लिए ‘कैग’ (सीएजी) और सर्वोच्च न्यायालय से लड़ने के बजाए सरकार दोषियों को दंडित करने तथा कानून व प्रशासन के चोर दरवाजों को भरने के लिए उपयुक्त कदम उठाए.
4. दक्षिण एशिया में अमेरिकी एजेंट और आंचलिक अधिपति के जैसा बर्ताव करना बंद करो; आम तौर पर तीसरी दुनिया के देशों, तथा खासकर, पड़ोसी मुल्कों के साथ सच्ची दोस्ती और घनिष्ठतर आर्थिक रिश्ता विकसित करो. साम्राज्यवादी देशों और भारत में परमाणु ऊर्जा लाॅबी द्वारा राष्ट्र पर लादी गई ऊंची लागत व ऊंची जोखिम वाली परमाणु ऊर्जा परियोजनाओं को रद्द करो; मुकेश अंबानी सरीखे लोगों को राष्ट्रीय संसाधन सौंपना बंद करो तथा श्रमिकों व जनता की कारगर निगरानी के तहत सार्वजनिक क्षेत्र में ऊर्जा उत्पादन की वृद्धि करो; अमेरिकी दबाव की परवाह किए बगैर ईरान जैसे सस्ते ऊर्जा स्रोतों तक पहुंच बनाओ.
5. ‘सेज’ कानून तथा नए भूमि अधिग्रहण कानून जैसे कृषक-विरोधी विधेयकों को रद्द करो, ‘विकास के लिए’ पीड़ादायक बेदखली खत्म करने हेतु खेतिहर जमीन सुरक्षा विधेयक पारित करो, कारगर भूमि सुधार कदम उठाओ और शहरी भू-हदबंदी कानूनों को लागू करो – ये ऐसे चंद उपाय हैं जो समावेशी विकास को बढ़ावा देंगे. कृषि (सिंचाई, भंडारण व विपणन के बुनियादी ढांचों) तथा मुर्गीपालन, डेयरी व कीटकर्म जैसे सहायक क्षेत्रों में सार्वजनिक निवेश को कई गुना बढ़ाना होगा, ताकि भारतीय अर्थतंत्र की बुनियाद मजबूत हो सके और सभी भारतीयों के लिए स्वास्थ्यकर भोजन सुनिश्चित किया जा सके.
6. अस्थायी/ठेका श्रमिकों के नियमितीकरण के लिए कालबद्ध और चरणवार कार्यक्रम अपनाओ. इसके लिए सरकारी/अर्ध-सरकारी प्रतिष्ठानों में कार्यरत श्रमिकों – जैसे कि निर्माण मजदूरों तथा सामाजिक क्षेत्रों में नियोजित मानदेय कर्मियों – से यह प्रक्रिया शुरू करो. इस तरह के कदम घरेलू बाजार को बढ़ाने और परिणामस्वरूप मुद्रास्फीति का मुकाबला करने में काफी सहायक होंगे.
खुले और व्यापक सलाह-मशविरों के जरिए वैकल्पिक आर्थिक कार्यक्रम बनाने, उसे बड़े पैमाने पर प्रचारित करने तथा इसे लागू करवाने के लिए संघर्ष करने की आवश्यकता है. जाहिर है, इसमें उपरवर्णित प्रस्ताव तो जरूर होने चाहिए, लेकिन वह इतने तक ही सीमित नहीं रहेगा. इस संघर्ष में प्रगतिशील और जनवादी ताकतों को एकताबद्ध करने के साथ-साथ वामपंथ को फौरी सरोकार के हर एक मुद्दे को मुकम्मल सामाजिक रूपांतरण के व्यापकतर व उच्चतर एजेंडा से लगातार जोड़ते हुए लोकतांत्रिक आंदोलनों पर अपनी छाप छोड़नी होगी. उदाहरण के बतौर, भ्रष्टाचार के मुद्दे को ही ले लीजिए.
हमने पिछले पृष्ठों पर देखा कि निजी निवेश के नियामक से हटकर उसके आज्ञाकारी सहायक की भूमिका में राज्य की स्पष्ट कदमवापसी, निगमों के उत्तरोत्तर विशाल होकर नियंत्रण से परे हो जाने और लुटेरी वित्तीय पूंजी के लगातार बढ़ते अंतर्प्रवाह की स्थितियों में अब हमें लगभग वैध्ता प्राप्त संस्थाबद्ध भ्रष्टाचार के नए माॅडल के दर्शन हो रहे हैं. ऐसे भी उदाहरण हैं जहां सरकारी हुक्मरान और मंत्रीगण निजी स्वार्थों के साथ सांठगांठ कर लेते हैं, ताकि सार्वजनिक उपक्रमों को तहस-नहस करके उनकी कीमत पर निजी आर्थिक हितों के लिए बाजार में अधिकाधिक जगह बनाई जा सके. बीएसएनएल का उदाहरण दिमाग में तुरंत कौंध जाता है, जिसकी तुलना केजी बेसिन गैस भंडार से की जा सकती है, जिसकी खोज सार्वजनिक पैसे से ओएनजीसी ने की थी और फिर उसे इन अनमोल सार्वजनिक संसाधनों की निजी लूट के वास्ते रिलायंस इंडिया लिमिटेड के हाथों सौंप दिया गया.
ऐसी स्थिति में जहां राजनीतिक और काॅरपोरेट भ्रष्टाचार एक-दूसरे की बदौलत फूलते-फलते हों, इस चार के गिरोह – नवउदारवाद, काॅरपोरेट लूट, क्रोनीवाद और भ्रष्टाचार – के खिलाफ एक साथ लड़ना होगा, क्योंकि वे मिलकर ही हमारा शोषण व उत्पीड़न करते हैं. ज्यादा अहम बात यह है कि इसमें नीतियों के बुनियादी बदलाव, विकास व शासन की दिशा और तंत्रा के प्रतिमान में परिवर्तन के लिए संघर्ष निहित है; और नीतियों व प्रतिमानों के बदलाव के केंद्र में हमें जनता के आर्थिक व राजनीतिक सशक्तीकरण को रखना होगा. इसीलिए, हमें कृषि, जंगल व समुद्र-तटीय भूमि की सुरक्षा और इन जमीनों पर ग्राम सभाओं के संपूर्ण अधिकार; काले धन और नाजायज संपत्ति की जब्ती; तथा खनिज संसाधनों – जिनकी निकासी भ्रष्टाचार और काॅरपोरेट लूट की उर्वर भूमि साबित हुआ है – के राष्ट्रीयकरण की ठोस मांग पेश करनी होगी.
फिर, आंदोलन को सिर्फ बड़े घोटालों और बड़े दायरे के मुद्दों तक ही सीमित नहीं रखना होगा, बल्कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली, नगर निकायों व पंचायतों के क्रियाकलापों, मनरेगा जैसी योजनाओं आदि में सर्व-व्याप्त दैनंदिन के भ्रष्टाचार के खिलाफ भी उतनी ही शिद्दत से लड़ना होगा. जमीनी स्तर से संघर्ष निर्मित करने तथा अपने जीवंत अनुभवों के आधार पर इस आंदोलन में व्यापक जनता को शामिल करने के लिए ऐसी लड़ाई बहुत जरूरी है. और यह भी महत्वपूर्ण है कि इसे एकल मुद्दा आधारित संघर्ष नहीं रहने देना होगा, बल्कि इसे मुकम्मल बदलाव की भविष्य दृष्टि से युक्त व्यापकतर आंदोलन के अंग के बतौर आगे बढ़ाना होगा.
निष्कर्षतः, यह आर्थिक संकट तमाम किस्म के सामाजिक व राजनैतिक विक्षोभों को जन्म दे रहा है और निरंतर अधिकाधिक विक्षोभों को जन्म देता रहेगा. सर्वाधिक विशेषाधिकार-संपन्न तबकों को छोड़कर शेष सभी तबकों के अंदर मोहभंग, हताशा और गुस्सा पैदा हो रहा है. विकास के वैकल्पिक विमर्श को सामने लाने का यह सही वक्त है. वामपंथ को आर्थिक गड़बड़ी पैदा करने के लिए सरकारों व शासक पार्टियों की आलोचना तक ही खुद को सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि उसे वैकल्पिक विमर्श पेश करने के लिए भी इस स्थिति का भरपूर इस्तेमाल करना चाहिए. आर्थिक न्याय और मुकम्मल लोकतंत्र के लिए चल रहे संघर्ष को इस पूर्णता तक पहुंचाना होगा.