चलिए, इस तलाश में हम आगे बढ़ते हैं. अगर हम हाल के अंतरराष्ट्रीय अनुभवों पर थोड़ा नजर डालें तो हमारी इस कोशिश में मदद मिल सकती है. चूंकि भारत का संदर्भ अमेरिका व जर्मनी जैसे दुनिया के सबसे धनी देशों के संदर्भ से काफी भिन्न है, इसीलिए उनकी चर्चा करना फलदायी नहीं होगा. जहां तक ग्रीस, साइप्रस, आइसलैंड जैसे समस्या-ग्रस्त देशों का सवाल है, तो वहां का मूल सबक यही है कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के दबाव के अंतर्गत इन देशों में लादे गए कठोर कमखर्ची के उपायों ने बिलकुल उलटे नतीजे दिए हैं. खर्च में कटौती के परिणामस्वरूप इन देशों के अर्थतंत्र वर्षों से सिकुड़ते जा रहे हैं, जबकि आम जनता की कठिनाइयां बढ़ रही हैं, जिससे बाध्य होकर वे सरकारों को उखाड़ फेंक रहे हैं – पिछले वर्ष अप्रैल (2013) में आइसलैंड की निर्वाचित छद्म वामपंथी सरकार इसका ताजा उदाहरण है – और सड़कों पर शक्तिशाली प्रतिवाद उत्पन्न कर रहे हैं (जैसा कि हाल में टर्की और ब्राजील में हुआ). अगर इन देशों के अनुभव हमें कुछ सिखाते हैं, तो यही कि हमें क्या नहीं करना चाहिए.
लैटिन अमेरिका से, निश्चय ही, सकारात्मक सबक लिए जा सकते हैं. खासकर वेनेजुएला व क्यूबा के नेतृत्व में और बोलीविया व इक्वाडोर जैसे अन्य देशों के सहयोग से ‘बोलीवेरियन अलायंस फाॅर आॅवर अमेरिकाज’ (अल्बा) अमेरिकी वर्चस्व वाली व्यापार-प्रणाली का विकल्प निर्मित कर रहा है, जिसका उद्देश्य है परस्पर सामाजिक कल्याण, वस्तु व्यापार और आर्थिक सहयोग पर आधारित आंचलिक आर्थिक एकीकरण हासिल करना. लैटिन अमेरिकी एकीकरण को और गहरा बनाने तथा अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने के लिए ‘सेलैक’ (द कम्युनिटी आॅफ लैटिन अमेरिकन एंड कैरिबियन स्टेट्स) भी ‘अल्बा’ के नक्शे-कदम पर चल रहा है, जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा को छोड़कर अमेरिकी महादेशों के 33 संप्रभु देश शामिल हैं. ये काफी प्रेरणादायी और शिक्षाप्रद सामूहिक प्रयत्न हैं. और यह ऐसी चीज है जिसका प्रयास व अनुकरण भारतीय उप-महाद्वीप के देश कर सकते हैं, और जो इनमें सबसे बड़े देश हैं उन्हें इसमें अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए.
फिर, हम अपने प्रमुख उत्तरी पड़ोसी देश के अनुभवों से भी कुछ उपयोगी अंतदृष्टि प्राप्त कर सकते हैं. भारत और चीन, दोनों ही, प्राचीन एशियाई देश हैं जिनके बीच सदियों से घनिष्ठ सांस्कृतिक व आर्थिक संबंध रहे हैं; वर्तमान में दोनों देश वैश्वीकरण, आर्थिक सुधार और तीव्र पूंजीवादी विकास के उत्कृष्ट नमूने बने हुए हैं. फिर भी, जैसा कि हम शीघ्र देखेंगे, ढांचागत भिन्नताओं से परे, यहां की दो सरकारों के राजनीतिक रुख और आर्थिक नीतियों में भी सूक्ष्म किंतु महत्वपूर्ण विभेद मौजूद हैं, जिसके चलते सुधार के बिलकुल भिन्न नतीजे सामने आए हैं.