एरिक हाॅब्सबाॅम ने जिस युग को ठीक ही ‘क्रांति का युग’ (1789-1848 तक) कहा है उसकी शुरुआत अगर फ्रांसीसी क्रांति के प्रसिद्ध घोषणा पत्र ‘डिक्लेरेशन आफ द राइट्स आॅफ मैन’ की घोषणा से हुई तो उस युग का अंत कम्युनिस्ट घोषणापत्र के प्रकाशन से हुआ. ये दोनों दस्तावेज महान क्रन्तिकारी महत्व के ऐतिहासिक पड़ाव हैं जिसमें फ्रांसीसी क्रांति के महान विचार ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ से कम्युनिस्ट घोषणापत्र के ‘दुनियां के मजदूरो एक हो’ के दुंदुभिनाद तक एक बेहतर समाज की ओर मानव चेतना की अनवरत यात्रा के इतिहास में बड़ी छलांग लगाई गई.
बहरहाल फ्रांसीसी क्रांति या बुर्जुआ क्रांतियों के युग ने कुल मिलाकर आर्थिक आधार में या वैचारिक राजनीतिक ऊपरी ढांचे में प्राक-पूंजीवादी संबंधें और परम्पराओं को पूरी तरह से नहीं उखाड़ फेंका था. उदाहरण के लिए जर्मनी में बुर्जुआ क्रांति अभी होनी थी और घोषणापत्र के प्रकाशन के थोड़े ही दिनों बाद जैसी कि इसमें भविष्यवाणी की गई थी, जब यह हुई भी तो यह सर्वहारा क्रांति की ओर नहीं ले गई (जैसा कि घोषणापत्र में आशा की गई थी) बल्कि इसने अपना गंभीर अनुदार/प्रतिक्रांतिकारी चरित्र प्रकट किया. लेकिन कम्युनिस्ट लीग (जिस संगठन ने घोषणापत्र जारी किया) मुख्य रूप से जर्मनी और इसके बाद फ्रांस, इटली, पोलैंड और नीदरलैंड जैसे योरोपीय देशों में केंद्रित था. जबकि यह उस समय पूंजीवाद के सबसे विकसित राष्ट्र इंग्लैण्ड में केंद्रित नहीं था और जिसने बाद में मार्क्स की पूंजी के लिए आधार उपलब्ध कराया. इन यूरोपीय देशों में मजदूर वर्ग आंदोलन के अलावा विभिन्न अन्य संघर्ष (मालिकों के खिलाफ भू-दासों का, जमींदारों के खिलाफ किसानों का, सामंती कुलीनता के खिलाफ बुर्जुआजी सहित आम लोगों का इत्यादि) काफी महत्वपूर्ण थे. इसीलिए घोषणापत्र में इन प्रगतिशील संघर्षों की नेतृत्वकारी और उदीयमान लोकतान्त्रिक शक्तियों के साथ कम्युनिस्टों की एकता को बहुत महत्व दिया गया है.
स्वाभाविक रूप से ‘क्रांति का युग’ प्रतिक्रांतिकारी दमन का भी युग था. जर्मनी और अन्य देशों से अनेक क्रांतिकारियों (व्यक्तियों व समूहों) को देश निकाला दिया गया या उन्हें देश से भागना पड़ा, और उन्होंने 1830 दशक के बाद से मुख्य रूप से लंदन और पेरिस में इकट्ठा होना और बातचीत करना शुरू किया. इस तरह 1833 में पेरिस में जर्मनी के क्रांतिकारियों द्वारा ‘सोसाइटी आॅफ एक्जाइल्स’ की स्थापना हुई. इसमें विभाजन हुआ और फ्रांसीसी अराजकतावादी ब्लांकी के प्रभाव में जो लोग थे, उन्होंने ‘लीग आॅफ द जस्ट’ का गठन किया. इस संगठन ने 1839 के पेरिस विद्रोह में प्रमुख भूमिका निभाई. इस विद्रोह के निर्मम दमन के बाद कार्ल शाॅपर सहित उनमें से कुछ लोग लंदन चले आये. वहां उन्होंने 1840 में पुलिस दमन से बचने के लिए ‘वर्कर्स एजूकेशन सोसाइटी’ नाम के एक संगठन की स्थापना की.
इस लीग के एक और नेता विल्हेल्म वाइटनिंग स्विटजरलैण्ड गये थे. वहां उन्होंने एक किताब छापी जिसमें मुख्य रूप से लम्पट सर्वहारा पर आधारित क्रांति का आह्नान किया गया था. वहां उन्हें जेल हुई और जर्मनी वापस भेजे जाने पर 1844 में वे लंदन चले आये. इस ऊर्जावान और अत्यन्त प्रभावशाली और अराजकतावादी नेता के आगमन से शाॅपर समेत तमाम प्रवासियों में उत्साह फैल गया और उन्होंने ‘द सोसायटी आॅफ द डेमोक्रेटिक प्रफंट आॅफ आॅल नेशन्स’ की स्थापना की.
एक ओर लीग आॅफ जस्ट तथा (इंग्लैण्ड में) चार्टिस्टों और विभिन्न देशों में अन्य तमाम जुझारू ताकतों के बीच आपसी सहयोग जारी था और इसीलिए समाजवाद/साम्यवाद के विविध विचारों के बीच बहस भी चल रही थी. इस प्रक्रिया में लीग के अधिकांश सदस्यों ने मार्क्स और एंगेल्स द्वारा विकसित वैज्ञानिक समाजवाद की विभिन्न काल्पनिक ‘प्रणालियों’ पर श्रेष्ठता को महसूस करना शुरू किया. हैनरिक बावेर, जोसेफ माॅल और कार्ल शाॅपर ने 1846 के अंत में एक “मजबूत पार्टी” की स्थापना के लिए अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट कांग्रेस का प्रस्ताव रखते हुए एक सर्कुलर जारी किया. वह कांग्रेस जून 1847 में लंदन में हुई. तब मार्क्स ब्रुसेल्स में थे, वे कांग्रेस में तो नहीं आये लेकिन ब्रुसेल्स के प्रतिनिधि विल्हेल्म वुल्फ को विस्तृत परामर्श दिया, एंगेल्स ने पेरिस के प्रतिनिधि के बतौर कांग्रेस में भागीदारी की.
कांग्रेस ने नया नाम “कम्युनिस्ट लीग” ग्रहण किया और अपने कार्यक्रम के आधार पर क्रांतिकारी प्रश्नोत्तरी के रूप में एंगेल्स द्वारा तैयार ‘कन्फेेशन आॅफ फेथ (या क्रीडो)’ को भी स्वीकार किया. उस समय मजदूरों की सोसाइटियां के अपने कार्यक्रमों को प्रश्नोत्तरी के इस रूप में सूत्रबद्ध करने की परम्परा थी. मार्क्स और एंगेल्स ने प्रस्तावित किया था कि कांग्रेस काल्पनिक समाजवादी लक्ष्य “सभी मनुष्य भाई हैं” की जगह सचेत वर्गीय एकता की घोषणा “दुनिया के मजदूरो एक हो” को अपनाये. इसे कांग्रेस ने मान लिया. पुराने नारे से वास्तविक स्थिति के बारे में भ्रम पैदा होता था और इस बात की गलतफहमी रहती थी कि पर्याप्त प्रचार करने से पूंजीपतियों और जमींदारों को मजदूरों व किसानों के भाइयों में बदला जा सकता है. नये नारे में सामने मौजूद ठोस राजनीतिक कार्यभार का संकेत था कि पुरानी सामाजिक व्यवस्था को बलपूर्वक उखाड़ फेंकने और नये समाज के निर्माण के लिए वर्ग संघर्ष हेतु मजदूरों को दुनिया के पैमाने पर एकताबद्ध होना होगा. सच में यह आश्चर्यजनक प्रगति थी.
कांग्रेस के तुरन्त बाद मार्क्स के नेतृत्व में ब्रुसेल्स में कम्युनिस्ट लीग की एक कमेटी मार्क्स के नेतृत्व में स्थापित हुई. हालांकि केन्द्रीय कमेटी लंदन में थी लेकिन व्यवहारिक रूप से इसी कमेटी ने अगुआ वैचारिक केन्द्र के रूप में काम करना शुरू किया. मार्क्स और एंगेल्स ने महसूस किया कि लीग के गैरकानूनी और अपेक्षाकृत संकुचित सांगठनिक ढांचे – जिसे अपनाना यूरोप के तानाशाही शासकों के कारण लीग की मजबूरी थी – के चारों ओर मजदूरों की खुली सोसाइटियों का जाल होना चाहिए. उन्होंने जल्दी ही बु्रसेल्स में जर्मन मजदूरों की सोसाइटी की स्थापना की और ब्रुसेल्स डेमोक्रेटिक एसोसियेशन की स्थापना में सक्रिय भूमिका निभाई. मजदूरों की सोसाइटी में दिये गये मार्क्स के भाषण ही बाद में मजदूरी, श्रम और पूंजी के नाम से छपे और उन्हें डेमोक्रेटिक एसोशियेसन के दो उपाध्यक्षों में से एक चुना गया. इस एसोसियेशन ने विभिन्न देशों में लोकतांत्रिक शक्तियों का व्यापक मोर्चा बनाने का बेहतरीन काम भी किया.
एंगेल्स ने कम्युनिस्ट कन्फेशन आॅफ फेथ को संशोध्ति करके थोड़ा बढ़ाया और इसका नाम रखा गया ‘प्रिंसिपल्स आॅफ कम्युनिज्म’. इसे ही लीग के कार्यक्रम की रूपरेखा माना गया. बहरहाल जल्दी ही एंगेल्स ने महसूस किया कि “प्रश्नोत्तरी का रूप छोड़ दिया जाय और इसे कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो कहा जाय” (कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स, संकलित पत्र व्यवहार). मार्क्स तुरन्त तैयार हो गये और नवम्बर-दिसम्बर 1847 में लंदन में सम्पन्न कम्युनिस्ट लीग की दूसरी कांग्रेस ने इसे छापने का फैसला किया.
लीग में चार्टिस्ट आन्दोलन के नेता पहले ही सदस्य हो चुके थे और कांग्रेस में इंग्लैण्ड समेत अधिकांश यूरोपीय देशों के प्रतिनिधियों ने भागीदारी की. मार्क्स विभिन्न गलत विचारों के खिलाफ जोरदार ढंग से लड़े और एंगेल्स के सक्षम समर्थन से अपने प्रस्तावों के समर्थन में बहुमत तैयार कर लिया. मार्क्स और एंगेल्स द्वारा पेश एक प्रस्ताव पर कांग्रेस ने तय किया कि अपने बाहरी संबंधें में लीग को कम्युनिस्ट पार्टी के बतौर खुल्लमखुल्ला बोलना चाहिए और मार्क्स तथा एंगेल्स को इसका मेनिफेस्टो तैयार करने का जिम्मा दिया गया (जैसा कि 1872 के जर्मन संस्करण की भूमिका में दर्ज है).