समग्र रूप से सर्वहारा वर्ग के साथ कम्युनिस्टों का क्या संबंध है?
कम्युनिस्ट मजदूर वर्ग की दूसरी पार्टियों के मुकाबले में अपनी कोई अलग पार्टी नहीं बनाते.
समग्र रूप से सर्वहारा वर्ग के हितों के अलावा और उनसे अलग उनके कोई हित नहीं हैं.
वे सर्वहारा आंदोलन को किसी खास पैटर्न पर ढालने या उसे विशेष रूप प्रदान करने के लिए अपना कोई संकीर्णतावादी सिद्धांत कायम नहीं करते.
कम्युनिस्टों और दूसरी मजदूर पार्टियों में सिर्फ यह अंतर है कि:
1. विभिन्न देशों के सर्वहारा के राष्ट्रीय संघर्षों में राष्ट्रीयता के तमाम भेदभावों को छोड़कर वे पूरे सर्वहारा वर्ग के सामान्य हितों को चिन्हित करते हैं और उन्हें सामने लाते हैं;
2. पूंजीपति वर्ग के खिलाफ सर्वहारा वर्ग का संघर्ष जिन विभिन्न मंजिलों से गुजरता हुआ आगे बढ़ता है उनमें हमेशा और हर जगह वे समग्र आंदोलन के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
इसलिए एक ओर, व्यावहारिक दृष्टि से कम्युनिस्ट हर देश की मजदूर पार्टियों के सबसे अगुआ और दृढ़संकल्प वाला हिस्सा होते हैं, ऐसा हिस्सा जो औरों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है; दूसरी ओर, सैद्धांतिक दृष्टि से सर्वहारा वर्ग के विशाल जनसमुदाय की अपेक्षा इस अर्थ में श्रेष्ठ है कि वे सर्वहारा आंदोलन के आगे बढ़ने की दिशा, उसकी स्थितियों और सामान्य अंतिम नतीजों की साफ समझ रखते हैं.
कम्युनिस्टों का तात्कालिक लक्ष्य वही है जो दूसरी सर्वहारा पार्टियों का है – यानी सर्वहारा को एक वर्ग के रूप में संगठित करना, पूंजीवादी प्रभुत्व का तख्ता उलटना और राजनीतिक सत्ता पर सर्वहारा वर्ग का अधिकार कायम करना.
कम्युनिस्टों के सैद्धांतिक निष्कर्ष किसी जगत-सुधारक द्वारा ईजाद किए गए या ढूंढ़ निकाले गए विचारों या सिद्धांतों पर कतई आधारित नहीं है.
ये सैद्धांतिक निष्कर्ष मौजूदा वर्ग संघर्ष से, हमारी नजरों के सामने हो रही ऐतिहासिक गतिविधि से, उत्पन्न वास्तविक संबंधों की ही आम अभिव्यक्ति हैं. मौजूदा मालिकाना रिश्तों को मिटा देने की बात एक कम्युनिज्म की ही निराली विशेषता हरगिज नहीं है.
अतीत में सभी मालिकाना रिश्ते ऐतिहासिक स्थितियों में परिवर्तन होने पर ऐतिहासिक रूप से लगातार बदलते रहे हैं.
उदाहरण के लिए फ्रांसीसी क्रांति ने पूंजीवादी मिल्कियत के हक में सामंती मिल्कियत को उखाड़ फेंका था.
कम्युनिज्म की खास विशेषता यह नहीं है कि वह मिल्कियत को आम तौर पर खत्म कर देना चाहता है, बल्कि उसकी विशेषता है पूंजीवादी मिल्कियत को खत्म कर देना.
लेकिन आधुनिक पूंजीवादी निजी स्वामित्व उत्पादन तथा उपज पर अधिकार जमा लेने की उस प्रणाली की अंतिम तथा सबसे संपूर्ण अभिव्यक्ति है, जो वर्ग विरोध और मुट्ठी भर लोगों द्वारा बहुतों के शोषण पर आधारित है. इस अर्थ में कम्युनिस्टों के सिद्धांत को केवल एक वाक्य में यूँ कहा जा सकता है: निजी संपत्ति का खत्मा.
हम कम्युनिस्टों पर आरोप लगाया गया है कि हम मनुष्य से उसकी अपनी मेहनत से पैदा की गई संपत्ति हासिल करने का उसका हक छीन लेना चाहते हैं, जिस संपत्ति के बारे में कहा जाता है कि वह तमाम वैयक्तिक स्वतंत्रता, क्रियाशीलता और स्वाधीनता का मूल आधार है.
सख्त मशक्कत से कमाई गई, खुद हासिल की गई, खुद पैदा की गई संपत्ति. आपका मतलब क्या छोटे दस्तकार और छोटे किसान की संपत्ति से है, मिल्कियत के उस रूप से है जो पूंजीवादी रूप से पहले था? उसको मिटाने की कोई जरूरत नहीं है; उद्योग के विकास ने उसको पहले ही, नष्ट कर दिया है और जो कुछ रहा-सहा है, उसे भी वह दिनोंदिन नष्ट कर रहा है.
क्या फिर आपका मतलब आधुनिक पूंजीवादी निजी संपत्ति से है?
लेकिन क्या उजरती श्रम मजदूरों के लिए भी कोई संपत्ति पैदा करता है? हरगिज नहीं. वह तो पूंजी पैदा करता है, यानी ऐसी संपत्ति पैदा करता है, जो उजरती श्रम का शोषण करती है, और जिसके बढ़ने की शर्त ही यह है कि वह नए शोषण के लिए उजरती श्रम को नए सिरे से पैदा करती जाए. अपने मौजूदा रूप में संपत्ति पूंजी और उजरती श्रम के विरोध पर कायम है. आइए, इस विरोध के दोनों पहलुओं पर गौर करें.
पूंजीपति होने का मतलब उत्पादन में केवल व्यक्तिगत ही नहीं, बल्कि एक सामाजिक हैसियत रखना है. पूंजी एक सामूहिक उपज है, और समाज के केवल अनेक सदस्यों की संयुक्त कार्रवाई से ही, बल्कि अंततोगत्वा समाज के सभी सदस्यों की मिली-जुली कार्रवाई से ही उसे गतिशील किया जा सकता है.
इस भांति पूंजी व्यक्तिगत न होकर एक सामाजिक शक्ति है.
इसलिए पूंजी जब आम संपत्ति बना दी जाती है, जब उसे समाज के तमाम सदस्यों की संपत्ति का रूप दे दिया जाता है, तब निजी संपत्ति सामाजिक संपत्ति में नहीं बदल जाती. तब संपत्ति का केवल सामाजिक रूप बदल जाता है. उसका वर्ग रूप मिट जाता है.
आइए, अब उजरती श्रम के पहलू पर विचार करें.
उजरती श्रम का औसत दाम न्यूनतम मजदूरी है, अर्थात् जीवन निर्वाह के साधनों की वह मात्र जो मजदूर की हैसियत से मजदूर की जिंदगी कायम रखने के लिए बिलकुल जरूरी हो. इसलिए उजरती मजदूर को अपने श्रम के एवज में जो कुछ प्राप्त होता है, वह ज्यादा से ज्यादा उसे जिंदा रखने और उसका पुनरुत्पादन करने लायक ही हो पाता है. मनुष्य के द्वारा अपने श्रम की उपज की इस प्राप्ति को हम खत्म नहीं करना चाहते हैं, जो महज उसे जिंदा रखने और संतान पैदा करने भर के लिए ही की जाती है और जिसमें ऐसी बचत की गुजाइश नहीं होती जिससे दूसरों के श्रम पर अधिकार किया जा सके. हम तो बस, मजदूरी पाने के इस दयनीय रूप को खत्म करना चाहते हैं, जिसके अंतर्गत मजदूर पूंजी बढ़ाने के लिए ही जिंदा रहता है, और उसे तभी तक जिंदा रहने दिया जाता है जबतक शासक वर्ग के स्वार्थोें को उसकी जरूरत होती है.
पूंजीवादी समाज में जीवित श्रम संचित श्रम को बढ़ाने का एक साधन है. कम्युनिस्ट समाज में संचित श्रम मजदूर के श्रम को व्यापक, संपन्न और उन्नत बनाने का साधन है.
इस प्रकार पूंजीवादी समाज में वर्तमान के ऊपर अतीत हावी रहता है; कम्युनिस्ट समाज में अतीत के ऊपर वर्तमान हावी होता है. पूंजीवादी समाज में पूंजी स्वतंत्र है और उसका एक व्यक्तित्व होता है; किंतु जीवित व्यक्ति परतंत्र है और उसका कोई व्यक्तित्व नहीं होता.
फिर भी पूंजीपति वर्ग कहता है कि इस परिस्थिति को खत्म कर देने का मतलब व्यक्तित्व और स्वतंत्रता को खत्म कर देना है. और यह ठीक ही है. इसमें कोई संदेह नहीं कि हम पूंजीवादी व्यक्तित्व, पूंजीवादी स्वाधीनता और पूंजीवादी स्वतंत्रता को जड़-मूल से खत्म कर देना चाहते हैं.
मौजूदा पूंजीवादी स्थितियों के अंतर्गत स्वतंत्रता का अर्थ है मुक्त व्यापार, मुक्त खरीद-बिक्री.
लेकिन अगर खरीद-बिक्री ही मिट जाती है, तो मुक्त खरीद-बिक्री भी मिट जाएगी. हमारे पूंजीपतियों की मुक्त खरीद-बिक्री की बातों को, आप स्वतंत्रता के बारे में उनकी तमाम “बड़ी-बड़ी बातों” को, अगर मध्य युग के सीमित खरीद-बिक्री के या उस समय बंधनों में जकड़े हुए व्यापारियों के मुकाबले में देखा जाए, तो उसका कुछ मतलब हो सकता है; लेकिन कम्युनिस्टों के द्वारा खरीद-बिक्री खत्म करने, उत्पादन की पूंजीवादी स्थितियों और स्वयं पूंजीपति वर्ग को उखाड़ फेंकने के मुकाबले में उनका कोई मतलब नहीं है.
हम निजी संपत्ति को खत्म कर देना चाहते हैं, इसे सुनकर आपके रोंगटे खड़े हो जाते हैं. लेकिन आपके मौजूदा समाज में दस में से सौ आदमियों के लिए निजी संपत्ति अभी से ही खत्म हो चुकी है. चंद लोगों के पास यदि निजी संपत्ति है भी तो उसका एकमात्र कारण यही है कि दस में नौ आदमियों के पास वह नहीं है. इसलिए आप हमारे खिलाफ संपत्ति के ऐसे रूप को खत्म कर देने की इच्छा रखने का जुर्म लगाते हैं जिसके अस्तित्व के लिए जरूरी शर्त यह है कि समाज के अधिकांश भाग के पास कोई संपत्ति न हो.
संक्षेप में आपका आरोप यह है कि हम आपका स्वामित्व खत्म कर देना चाहते हैं, यह तो बिल्कुल ठीक है. हम ठीक यही करना चाहते हैं.
आपका कहना है कि श्रम के ज्यों ही पूंजी में, मुद्रा में या लगान में अर्थात् एक ऐसी सामाजिक शक्ति के रूप में बदलना नामुमकिन हो जाएगा जिस पर इजारेदारी कायम की जा सकती है, यानी ज्यों ही व्यक्तिगत संपत्ति का पूंजीवादी संपत्ति में, पूंजी में रूपांतरण बंद हो जाएगा, त्यों ही व्यक्तित्व का लोप हो जाएगा.
तो आपको यह कबूल करना होगा कि “व्यक्ति” का आपके लिए एक ही अर्थ है – पूंजीपति या संपत्ति का मध्यमवर्गीय स्वामी. इस व्यक्ति को तो अवश्य ही रास्ते से हटा देना चाहिए, उसका होना अवश्य ही असंभव बना देना चाहिए.
कम्युनिज्म किसी आदमी से समाज की उपज को हासिल करने की उसकी ताकत नहीं छीनता. वह केवल इस उपज को हासिल करके दूसरों के श्रम पर अधिकार जमाने की उसकी ताकत छीन लेता है.
यह आपत्ति उठाई गई कि निजी संपत्ति को खत्म कर दिया गया तो सारा कामकाज ठप्प हो जाएगा और दुनिया भर में आलस्य छा जाएगा.
इसके अनुसार तो पूंजीवादी समाज को घोर आलस्य के कारण न जाने कब का रसातल पहुंच जाना चाहिए था, क्यांकि इस समाज के जो सदस्य मेहनत करते हैं वे कुछ नहीं हासिल करते और जो हासिल करते हैं वे काम नहीं करते. कुल मिलाकर इस आपत्ति का मतलब घुमा-फिराकर यही कहना है कि अगर पूंजी नहीं रह जाएगी तो उजरती श्रम भी नहीं रह जाएगा.
भौतिक वस्तुओं के उत्पादन और उन्हें हासिल करने की कम्युनिस्ट प्रणाली के बारे में जो आरोप लगाए गए हैं, वही आरोप उसी तरह से बौद्धिक रचनाओं के उत्पादन और उसे हासिल करने की कम्युनिस्ट प्रणाली के बारे में भी लगाए जाते हैं जिस तरह से पूंजीपति वर्ग के वर्ग स्वामित्व के विलोप का मतलब है उत्पादन का ही विलोप हो जाना, उसी तरह से वर्ग संस्कृति का विलोप उसे सारी संस्कृति का विलोप प्रतीत होता है.
जिस संस्कृति के विनाश के बारे में वह इतना रोता-धोता है, वह अधिकांश जनता के लिए महज मशीन की तरह काम करने की ट्रेनिंग मात्र है.
लेकिन हमसे उलझने का तब तक कोई लाभ नहीं है जब तक पूंजीवादी मिल्कियत को नष्ट करने के हमारे इरादे को आप आजादी, संस्कृति, कानून, आदि की अपनी पूंजीवादी धारणाओं के मापदंड से नापते हैं; आपके विचार खुद ही पूंजीवादी उत्पादन और पूंजीवादी मिल्कियत की स्थितियों की उपज हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कि आपका कानून केवल आपके वर्ग की इच्छा है जिसे कानून बनाकर आपने सब के ऊपर लाद दिया है – एक ऐसी इच्छा जिसका मूलभूत चरित्र और जिसकी दिशा आपके वर्ग के अस्तित्व की आर्थिक शर्तों के द्वारा निर्धारित होती है.
आप अपनी स्वार्थपूर्ण गलतफहमी के चलते उन सामाजिक रूपों को जो आपकी मौजूदा उत्पादन प्रणाली और मिल्कियत के रूप द्वारा उत्पन्न होते हैं तथा उन ऐतिहासिक संबंधों को जो उत्पादन की प्रक्रिया में पैदा और खत्म होते हैं, प्रकृति और तर्कबुद्धि के शाश्वत नियमों में बदल देते हैं – यह ऐसी गलतफहमी है जिसके शिकार आपके पहले के सभी शासक वर्ग होते आए हैं. पुराने जमाने के संपत्ति संबंध में जो चीज आपको स्पष्ट दिखाई पड़ती है, सामंती संपत्ति के मामले में जिस चीज को आप स्वीकार करते हैं, उसे खुद अपने पूंजीवादी संपत्ति के मामले में मंजूर करना आपके लिए निश्चिय ही गुनाह है.
परिवार का विनाश! कम्युनिस्टों के इस कलंकपूर्ण प्रस्ताव से कट्टर उग्रवादी तक भड़क उठते हैं.
मौजूदा परिवार, पूंजीवादी परिवार, किस आधार पर खड़ा है? पूंजी पर, निजी फायदे पर. अपने पूर्ण विकसित रूप में इस तरह का परिवार पूंजीपति वर्ग के बीच पाया जाता है. इस चीज का संपूरक सर्वहारा वर्ग में परिवार के वस्तुतः अभाव और बाजारू वेश्यावृत्ति के रूप में मिलता है.
यह पूरक जब मिटेगा तो एक प्रक्रिया में पूंजीवादी परिवार भी मिट जाएगा और पूंजी के मिटने के साथ-साथ ये दोनों मिट जाएंगे.
क्या आप हम पर यह आरोप लगाते हैं कि हम माता-पिता द्वारा बच्चों का शोषण किया जाना बंद करना चाहते हैं? इस अपराध को हम स्वीकार करते हैं.
लेकिन आप कहेंगे कि घरेलू शिक्षा की जगह सामाजिक शिक्षा कायम करके हम एक सर्वाधिक पवित्र संबंध को नष्ट कर देते हैं.
और आपकी शिक्षा? क्या वह भी सामाजिक नहीं है और उन सामाजिक स्थितियों से निर्धारित नहीं होती है, जिनमें आप समाज के प्रत्यक्ष या परोक्ष हस्तक्षेप से स्कूलों आदि के जरिए शिक्षा देते हैं? शिक्षा में समाज का हस्तक्षेप कम्युनिस्टों की ईजाद नहीं है; कम्युनिस्ट तो केवल इस हस्तक्षेप के चरित्र को बदल देना चाहते हैं ओर शासक वर्ग के प्रभाव से शिक्षा का उद्धार करना चाहते हैं.
जैसे-जैसे आधुनिक उद्योग की क्रिया द्वारा सर्वहारा वर्ग में समस्त पारिवारिक संबंधों की धज्जियां उड़ती जा रही हैं और मजदूरों के बच्चे तिजारत के मामूली सामान और श्रम के औजार बनते जा रहे हैं, वैसे-वैसे परिवार, शिक्षा और माता-पिता और बच्चों के पवित्र आपसी संबंध के बारे में पूंजीपतियों की बकवास और भी घिनौनी बन जाती है. लेकिन पूरा का पूरा पूंजीपति वर्ग एक स्वर से चीख पड़ता है – तुम कम्युनिस्ट तो औरतों को सर्वोपभोग्य बना दोगे.
पूंजीपति अपनी पत्नी को उत्पादन के औजार के सिवा और कुछ नहीं समझता. उसने सुन रखा है कि (कम्युनिस्ट समाज में) उत्पादन के औजारों का सामूहिक उपयोग होगा. इसलिए, स्वभावतः वह यही निष्कर्ष निकाल सकता है कि उस समाज में सभी चीजों की तरह औरतें भी सर्वोपभोग्य हो जाएंगी.
वह सपने में भी नहीं सोच सकता कि दरअसल मकसद यह है कि औरतों की उत्पादन-के-औजार-जैसी स्थिति को खत्म कर दिया जाए.
बाकी तो बात यह है कि औरतों को सर्वोपभोग्य बना देने के खिलाफ पूंजीपतियों के सदाचारी गुस्से से अधिक हास्यास्पद बात और कुछ हो नहीं सकती. वे यह समझने का दावा करते हैं कि साम्यवाद के अंतर्गत स्त्रियों की सर्वोपभोग्यता खुल्लमखुल्ला और सरकारी तौर पर स्थापित की जाएगी. लेकिन कम्युनिस्टों को यह स्थापित करने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि यह चीज तो बाबा आदम के जमाने से चली आ रही है.
हमारे पूंजीपतियों को मजदूरों की बहू-बेटियों को अपनी मर्जी के मुताबिक इस्तेमाल करने से संतोष नहीं होता, वेश्याओं से भी उनका मन नहीं भरता, इसलिए एक-दूसरे की बीवियों पर हाथ मारने में उन्हें विशेष आनंद प्राप्त होता है.
पूंजीवादी विवाह वास्तव में पत्नियों की साझेदारी की ही एक व्यवस्था है, इसलिए कम्युनिस्टों के खिलाफ अधिक से अधिक यही आरोप लगाया जा सकता है कि वे स्त्रियों की सर्वोपभोग्यता की मौजूदा पाखंडी गुप्त प्रथा को खुला कानूनी रूप दे देना चाहते हैं. बाकी तो यह अपने-आप स्पष्ट है कि उत्पादन की वर्तमान प्रणाली जब खत्म हो जाएगी, तब उस प्रणाली से उत्पन्न स्त्रियों को सर्वोपभोग्यता का, बाजारू और घरेलू, दोनों प्रकार की वेश्यावृत्ति का अनिवार्यतः अंत हो जाएगा.
कम्युनिस्टों पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे स्वदेश और राष्ट्रीयता को मिटा देना चाहते हैं.
मजदूरों का कोई स्वदेश नहीं होता, जो उनके पास है ही नहीं, उसे उनसे नहीं छीना जा सकता है. चूंकि सर्वहारा वर्ग को सबसे पहले राजनीतिक प्रभुत्व हासिल करना है, राष्ट्र में प्रधान वर्ग का स्थान पाना है, खुद अपने को राष्ट्र के रूप में संघटित करना है, अतः इस हद तक वह स्वयं राष्ट्रीय चरित्र रखता है. मगर इस शब्द के पूंजीवादी अर्थ में नहीं.
पूंजीपति वर्ग के विकास, वाणिज्य की स्वतंत्रता, विश्व बाजार के कायम होने और उसके अनुरूप उत्पादन प्रणालियों तथा जीवन की स्थितियों में आई समानता के कारण जनगण के राष्ट्रीय भेदभाव और विरोध दिनों-दिन मिटते जाते हैं.
सर्वहारा वर्ग का प्रभुत्व होने पर ये और भी तेजी से मिटेंगे. सर्वहारा वर्ग की मुक्ति की पहली शर्त यह है कि कम से कम प्रमुख सभ्य देश मिलकर एक साथ कार्रवाई करें.
जिस अनुपात में एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का शोषण खत्म होगा, उसी अनुपात में एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण भी खत्म होगा. जिस अनुपात में एक राष्ट्र के अंदर वर्गों का विरोध खत्म होगा, उसी अनुपात में राष्ट्रों का आपसी वैरभाव भी दूर होगा.
धार्मिक, दार्शनिक और आमतौर पर विचाराधारात्मक दृष्टि से कम्युनिज्म के खिलाफ जो आरोप लगाए जाते हैं, वे इस लायक नहीं हैं कि उन पर गंभीरता के साथ विचार किया जाए.
क्या यह समझने के लिए गहरी सूझबूझ की जरूरत है कि मनुष्य के विचार, मत और उसकी धारणाएं – संक्षेप में उसकी चेतना – उसके भौतिक अस्तित्व की स्थितियों, उसके सामाजिक संबंधों और सामाजिक जीवन के प्रत्येक परिवर्तन के साथ बदलती हैं?
विचारों का इतिहास इसके सिवा और क्या साबित करता है कि जिस अनुपात में भौतिक उत्पादन में बदलाव होता है, उसी अनुपात में बौद्धिक उत्पादन का चरित्र भी बदल जाता है? हर युग में शासक वर्ग के ही विचार प्रभुत्वशाली विचार रहे हैं.
जब लोग समाज में क्रांति ला देने वाले विचारों की बात करते हैं तब वे केवल इस तथ्य को बताते हैं कि पुराने समाज के अंदर एक नए समाज के तत्त्व पैदा हो गए हैं और पुराने विचारों का विघटन अस्तित्व की पुरानी स्थितियों के विघटन के साथ कदम मिलाकर चलता है.
पुरानी दुनिया जिस समय अपनी अंतिम सांसें गिन रही थी, उस समय प्राचीन धर्मों पर ईसाई धर्म की विजय हुई. जब अठारहवीं शताब्दी में ईसाई मत बुद्धिवादी विचारों के सामने धराशाई हुआ, उस समय सामंती समाज ने तत्त्कालीन क्रांतिकारी पूंजीपति वर्ग से अपनी मौत की लड़ाई लड़ी थी. धर्म की आजादी और विवेक की स्वाधीनता की बातें ज्ञान की दुनिया में मुक्त होड़ के प्रभुत्व को ही जाहिर कर रही थीं.
कहा जाएगा कि “यह ठीक है कि इतिहास के विकासक्रम में धार्मिक, नैतिक, दार्शनिक, राजनीतिक और कानून संबंधी विचार बदलते आए हैं, लेकिन धर्म, नैतिकता, दर्शन, राजनीति और कानून तो सदा इस परिवर्तन से बचे रहे हैं.
“इसके अलावा स्वाधीनता, न्याय, आदि ऐसे शाश्वत सत्य भी हैं जो हर सामाजिक अवस्था में समान रूप से लागू होेते हैं लेकिन उन्हें नए आधार पर स्थापित करने के बजाए कम्युनिज्म सभी शाश्वत सत्यों को खत्म कर देता है, वह समस्त धर्म और समस्त नैतिकता को मिटा देता है. इसलिए वह पिछले तमाम ऐतिहासिक अनुभवों के विपरीत आचरण करता है.”
इस आरोप का असली मतलब क्या है? पिछले प्रत्येक समाज का इतिहास वर्ग-विरोधों के विकास का इतिहास है – उन वर्ग-विरोधों का, जो विभिन्न युगों में भिन्न-भिन्न रूप धारण करते रहे हैं.
पर उनका रूप चाहे जो भी रहा हो, पिछले सभी युगों में एक चीज हमेशा मौजूद थी – समाज के एक हिस्से द्वारा दूसरे हिस्से का शोषण, अतः यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि पिछले युगों की सामाजिक चेतना चाहे जितने ही किस्मों और रूपों में प्रकट हुई हो, वह कुछ आम रूपों या सामान्य विचारों के दायरे में बंधी रही है. वर्ग-विरोधों के पूर्ण रूप से समाप्त होने के पहले यह दायरा पूरी तरह नहीं मिट सकता. कम्युनिस्ट क्रांति संपत्ति के परंपरागत संबंधों को जड़ से उखाड़ देती है; फिर इसमें आश्चर्य क्या कि इस क्रांति के विकास का मतलब है समाज के परंपरागत विचारों से आमूल संबंध विच्छेद?
लेकिन कम्युनिज्म के खिलाफ पूंजीपतियों के आरोपों की कथा अब समाप्त की जाए.
ऊपर हम देख आए हैं कि मजदूर वर्ग की क्रांति का पहला कदम सर्वहारा वर्ग को ऊपर उठाकर शासक वर्ग के आसन पर बैठाना और जनवाद के लिए होने वाली लड़ाई को जीतना है.
सर्वहारा वर्ग पूंजीपति वर्ग से एक-एक कर सारी पूंजी छीन लेने, उत्पादन के सारे औजारों को राज्य, अर्थात् शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा वर्ग, के हाथों में केंद्रित करने तथा समग्र उत्पादक शक्तियों को यथाशीघ्र बढ़ाने के लिए अपने राजनीतिक प्रभुत्व का इस्तेमाल करेगा.
निस्संदेह, शुरू में यह काम संपत्ति के अधिकारों पर, और पूंजीवादी उत्पादन की स्थितियों पर निरंकुश हमलों के बिना नहीं हो सकता. आर्थिक दृष्टि से ऐसे उपाय भले ही अपर्याप्त और अव्यावहारिक लगते हों, पर अपने विकासक्रम में ये अपनी सीमा को लांघ जाएंगे, पुरानी समाज व्यवस्था को और भी गहराई में बदलना अनिवार्य बना देंगे और उत्पादन प्रणाली में संपूर्ण क्रांति लाने के साधन के रूप में अनिवार्य होंगे. निस्संदेह, भिन्न-भिन्न देशों में ये उपाय भिन्न-भिन्न होंगे.
फिर भी सबसे विकसित देशों में आमतौर पर ये उपाय लागू हो सकेंगे.
विकासक्रम में जब वर्गों के भेद मिट जाएंगे और सारा उत्पादन पूरे राष्ट्र के एक विशाल संघ के हाथ में संकेंद्रित हो जाएगा, तब सार्वजनिक सत्ता अपना राजनीतिक चरित्र खो देगी. राजनीतिक सत्ता, शब्द के असली अर्थ में, एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग का उत्पीडन करने की संगठित शक्ति ही है. पूंजीपति वर्ग के खिलाफ अपने संघर्ष के दौरान, परिस्थितियों से मजबूर होकर सर्वहारा को यदि अपने को एक वर्ग के रूप में संगठित करना पड़ता है, यदि क्रांति के जरिए वह स्वयं अपने को शासक वर्ग बना लेता है, और इस तरह उत्पादन की पुरानी स्थितियों का बलपूर्वक अंत कर देता है, तो उन स्थितियों के साथ-साथ वह वर्ग-विरोध का और आमतौर पर खुद वर्गों के अस्तित्व की शर्तों का खात्मा कर देता है और इस प्रकार वह एक वर्ग के रूप में स्वयं अपने प्रभुत्व को भी समाप्त कर देता है.
तब वर्गों और वर्ग विरोधों से बिंधे पुराने पूंजीवादी समाज के स्थान पर एक ऐसे संघ की स्थापना होगी जिसमें हर व्यक्ति का स्वतंत्र विकास ही तमाम लोगों के स्वतंत्र विकास की शर्त होगी.