अभी तक समस्त समाज का इतिहास
स्वतंत्र मनुष्य और दास, पेट्रीशियन और प्लेबियन
इतिहास के पिछले तमाम युगों में हम प्रायः हर जगह विभिन्न सामाजिक दर्जों में बंटा समाज का एक पेंचीदा ढांचा पाते हैं – सामाजिक श्रेणियों की नानारूपी दर्जाबंदी मौजूद रहीं. प्राचीन रोम में पेट्रीशियन, नाइट
किंतु दूसरे युगों की तुलना में हमारे युग की, पूंजीवादी युग की खासियत यह है कि इसने वर्ग विरोधों को सरल बना दिया है. आज पूरा समाज दो विशाल दुश्मन खेमों में, एक दूसरे के खिलाफ खड़े दो विशाल वर्गों में – पूंजीपति और सर्वहारा वर्गों में – अधिकाधिक बंटता चला जा रहा है.
मध्ययुग के भूदासों से प्रारंभिक शहरों के बर्गर
अमरीका की खोज और उत्तमाशा अंतरीप का रास्ता खोज
उद्योग की सामंती प्रणाली, जिसमें औद्योगिक उत्पादन पर बंद शिल्प संघों
इस बीच बाजार बढ़ते गए और माल की मांग भी लगातार बढ़ती गई. ऐसी दशा में मैन्युफैक्चर की प्रथा भी नाकाफी सिद्ध होने लगी. तब भाप और मशीन के उपयोग ने औद्योगिक उत्पादन में क्रांति पैदा कर दी. अतः अब मैन्युफैक्चर का स्थान भारी-भरकम आधुनिक उद्योग ने, और औद्योगिक मध्यम वर्ग का स्थान औद्योगिक धन्नासेठों ने, उद्योग के बड़े-बड़े लश्करों के मालिकों ने, आधुनिक बुर्जुआ ने ले लिया.
आधुनिक उद्योग ने विश्व-बाजार की स्थापना की है, जिसके लिए अमरीका की खोज ने पथ प्रशस्त किया था. इस बाजार ने वाणिज्य, नौ-परिवहन और स्थल संचार की जबर्दस्त उन्नति की. आगे चलकर इस उन्नति का प्रभाव उद्योग के विस्तार पर पड़ा, और जिस अनुपात में उद्योग, वाणिज्य, नौ-परिवहन और रेलवे में वृद्धि हुई, उसी अनुपात में बुर्जुआ वर्ग ने उन्नति की और उसकी पूंजी बढ़ी, और उसने मध्य युग से चले आते हुए प्रत्येक वर्ग को पृष्ठभूमि में ढकेल दिया.
चुनांचे हम देखते हैं कि किस तरह आधुनिक पूंजीपति वर्ग स्वयं एक लंबे विकासक्रम की उपज है, वह उत्पादन और विनिमय की प्रणालियों में हुई सिलसिलेवार क्रांतियों की उपज है.
पूंजीपति वर्ग अपने विकास के हर कदम के साथ राजनीतिक रूप से भी आगे बढ़ता गया. पहले सामंती रईसों के प्रभुत्व में वह एक उत्पीड़ित वर्ग था. मध्ययुगीन कम्यूनों
पूंजीपति वर्ग ने इतिहास में बहुत ही क्रांतिकारी भूमिका अदा की है.
जहां कहीं भी पूंजीपति वर्ग का पलड़ा भारी हुआ, वहां उसने तमाम सामंती, पितृसत्तात्मक और काव्यात्मक संबंधों का खात्मा कर दिया. उसने “जन्मजात श्रेष्ठ” लोगों के साथ आम जनता को बांधे रखनेवाले तमाम किस्म के सामंती बंधनों को निर्ममता से तोड़ दिया और नग्न स्वार्थ के सिवा, “नकद पैसे-कौड़ी” के हृदयहीन व्यवहार के सिवा, मनुष्यों के बीच और कोई दूसरा संबंध बाकी नहीं रहने दिया. उसने तमाम धार्मिक भक्ति, बहादुराना जोश और मूर्खतापूर्ण भावावेग के स्वर्गिक आनंद को हिसाब-किताब के बर्फीले पानी मे डुबो दिया. उसने व्यक्तिगत योग्यता को विनिमय मूल्य में बदल दिया. पिछले दौर में हासिल की गई अनगिनत अमिट स्वतंत्रताओं
जिन पेशों को लोग अब तक इज्जत और श्रद्धा की निगाह से देखते थे उनकी चमक-दमक भी पूंजीपति वर्ग छीन चुका था. उसने तनख्वाह देकर डाक्टर, वकील, पुरोहित, कवि, वैज्ञानिक – सभी को उजरती मजदूर
पूंजीपति वर्ग ने पारिवारिक संबंधों पर छाए भावुकता के पर्दे को फाड़कर फेंक दिया है. उसने इस संबंध को भी महज मुद्रा के संबंध में बदल दिया है.
पूंजीपति वर्ग ने दिखा दिया है कि प्रतिक्रियावादी लोग मध्य युग में होनेवाले ताकत के नंगे नाच की चाहे जितनी तारीफ करें, वास्तव में उसके साथ उसका पूरक पहलू भी था – घोर आलस्य और निकम्मापन, पूंजीपति वर्ग ही सर्वप्रथम यह साबित कर सका कि मनुष्य की क्रियाशीलता क्या चमत्कार दिखा सकती है. उसने ऐसी आश्चर्यजनक चीजें हासिल की हैं कि उसके सामने मिस्र के पिरामिड, रोम की जलवहन प्रणाली और गोथिक गिरजाघर
पूंजीपति वर्ग उत्पादन के औजारों में लगातार क्रांतिकारी परिवर्तन लाए बिना, यानी नतीजे के तौर पर उत्पादन संबंधों समेत समाज के सारे संबंधों में क्रांतिकारी परिवर्तन लाए बिना जिंदा ही नहीं रह सकता. इसके विपरीत, पिछले युगों के तमाम औद्योगिक वर्गों के लिए उत्पादन की पुरानी प्रणाली को ज्यों का त्यों बनाए रखना ही जिंदा रहने की पहली शर्त थी. उत्पादन में निरंतर क्रांतिकारी परिवर्तन, तमाम सामाजिक स्थितियों में लगातार उथल-पुथल, कभी खत्म न होनेवाली अनिश्चयता – ये चीजें पूंजीवादी युग को पिछले तमाम युगों से अलग कर देती हैं. तमाम स्थिर और जड़ संबंधों को, प्राचीन श्रद्धा से भरे पूर्वाग्रहों ओर मतों की श्रृंखला को मिटा दिया जाता है और सभी नए बननेवाले संबंध भी जड़ बनने से पहले ही पुराने पड़ जाते हैं. जो कुछ भी ठोस है, वह हवा में उड़ जाता है; जो कुछ पवित्र है, वह भ्रष्ट हो जाता है, और आखिरकार मनुष्य ठंडे दिमाग से, अपनी वास्तविक जीवन स्थितियों का, अन्य मनुष्यों के साथ अपने संबंधों का, सामना करने के लिए मजबूर हो जाता है.
अपने माल के लिए बाजार का लगातार विस्तार करते रहने की जरूरत पूंजीपति वर्ग को दुनिया भर में दौड़ाती रहती है. हर जगह अड्डा जमाना, हर जगह बस जाना और हर जगह से संपर्क कायम करना उसके लिए आवश्यक हो जाता है.
अपने ही हित में विश्व बाजार का इस्तेमाल करने के जरिए पूंजीपति वर्ग ने हर देश के उत्पादन और उपभोग का चरित्र सार्वभौमिक बना दिया है. प्रतिक्रियावादियों को इस बात से बेहद तकलीफ होती है कि पूंजीपति वर्ग ने उद्योग के पैरों तले से राष्ट्रीय जमीन खिसका दी है. जमाने के कायम तमाम राष्ट्रीय उद्योग या तो नष्ट कर दिए गए हैं, या लगातार नष्ट किए जा रहे हैं. उनकी जगह ऐसे नए उद्योगों ने ले ली है जिनकी स्थापना सभी सभ्य देशों के लिए जीवन-मरण का सवाल बन जाता है. ये उद्योग घरेलू कच्चे मालों का नहीं बल्कि दूर देश से लाए गए कच्चे मालों का इस्तेमाल करते हैं. इन उद्योगों के उत्पादन की खपत सिर्फ स्वदेश में नहीं बल्कि दुनिया के हर कोने में होती है. पुरानी किस्म की जरूरतों को स्वदेश में हुए उत्पादन से पूरा किया जाता था, अब उनकी जगह ऐसी नई जरूरतों ने ली है, जिन्हें पूरा करने के लिए दूर-दूर के देशों और अंचलों में बनी चीजें मंगानी पड़ती हैं. पिछले जमाने के स्थानीय और राष्ट्रीय अलगाव तथा आत्मनिर्भरता की जगह अब हमें चैतरफा आपसी संबंध, सभी राष्ट्रों की परस्पर निर्भरता देखने को मिलती है. और जो बदलाव भौतिक उत्पादन के क्षेत्र में होता है, वही बौद्धिक उत्पादन के क्षेत्र में भी होता है. अलग-अलग राष्ट्रों में रचित बौद्धिक कृतियां अब सार्वभौमिक संपत्ति बन जाती हैं. अब राष्ट्रीय एकांगीपन और संकीर्णता बरकरार रखना असंभव होता है, और अनगिनत राष्ट्रीय व स्थानीय साहित्यों के बीच अब एक विश्व साहित्य उभरने लगता है.
पूूंजीपति वर्ग उत्पादन के तमाम औजारों में तेजी से उन्नति करके और संचार सुविधाओं का अपार विस्तार करके बर्बर से बर्बर राष्ट्र को भी सभ्यता की परिधि में खींच लाता है. उसके माल की सस्ती कीमत ऐसा तोप का गोला है, जिससे तमाम चीनी दीवारें ढह जाती हैं और विदेशियों से घोर नफरत करनेवाली बर्बर जातियां आत्मसमर्पण के लिए मजबूर हो जाती हैं. पूंजीपति वर्ग तमाम राष्ट्रों को विलुप्त हो जाने का डर दिखाकर उन्हें पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली अपना लेने को बाध्य कर देता है. वह उन राष्ट्रों को मजबूर करता है कि जिसे वह सभ्यता कहता है, उसे वे भी अपने बीच कायम कर लें, यानी खुद पूंजीवादी बन जाए. संक्षेप में, पूंजीपति वर्ग समूची दुनिया को अपने ही सांचे में ढाल लेता है.
पूंजीपति वर्ग ने देहातों को शहरों के मातहत कर दिया है. उसने बहुत बड़े-बड़े शहर बसाए हैं; देहात की अपेक्षा शहरी जनसंख्या में भारी वृद्धि कर दी है, और देहाती जीवन की जड़ता से आबादी के एक बड़े हिस्से को छुटकारा दिला दिया है. जैसे उसने देहातों को शहरों पर निर्भर बना दिया, ठीक वैसे ही उसने बर्बर तथा अर्ध-बर्बर देशों को सभ्य देशों पर निर्भर बना दिया है, कृषक राष्ट्रों को पूंजीवादी राष्ट्रों पर निर्भर बना दिया है और पूरब को पश्चिम का आश्रित बना दिया है.
पूंजीपति वर्ग आबादी के बिखराव को, उत्पादन-साधनों और संपत्ति की बिखरी अवस्था को लगातार खत्म करता जाता है. उसने बिखरी हुई आबादी को एक जगह जमा किया है, उत्पादन के साधनों को केंद्रित किया है और संपत्ति को मुट्ठी भर लोगों के हाथों में संकेन्द्रित कर दिया है. लाजिमी है कि इसका परिणाम राजनीतिक रूप से भी केंद्रीकरण होगा. जो प्रांत पहले स्वतंत्र थे या ढीले-ढाले ढंग से जुड़े हुए थे, जिनके अलग-अलग स्वार्थ, अलग-अलग कानून, अलग-अलग सरकारें और अलग-अलग कर प्रणालियाँ थीं; वे अब जुड़कर एक सरकार, एक कानून संहिता, एक राष्ट्रीय वर्गहित, एक सीमा और एक सीमा-शुल्क प्रणाली के साथ, आज एक राष्ट्र बन गए हैं.
पूंजीपति वर्ग को सत्ता में आए अभी मुश्किल से सौ साल बीते होंगे, उसने इसी बीच इतने बड़े पैमाने पर इतनी विराट उत्पादक शक्तियों को जन्म दिया है, जितनी पिछली तमाम पीढ़ियां कुल मिलाकर भी पैदा न कर सकी थीं. क्या पिछली सदी में किसी को यह गुमान भी था कि सामाजिक श्रम के गर्भ में ऐसी-ऐसी उत्पादक शक्तियां सोई पड़ी हैं जो जग उठने पर प्रकृति की शक्तियों को मनुष्य के मातहत ला देंगी, जो शक्तियां मशीनरी का उपयोग, उद्योग और खेती में रसायन शास्त्र का इस्तेमाल, भाप की ताकत से चलनेवाले जहाज, रेलवे, बिजली का टेलीग्राफ इत्यादि में निहित हैं और जो पूरे महाद्वीप को साफ करके खेती के लायक बना देंगी, नदियों से नहरों का जाल निकाल देंगी और छूमंतर कहते ही पूरी की पूरी आबादी को आँख के सामने खड़ा कर देंगी.
इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्पादन और विनिमय के वे साधन सामंती समाज के दौरान ही पैदा हो गए थे, जिनकी बुनियादी पर पूंजीपति वर्ग का निर्माण हुआ है, लेकिन वे स्थितियां जिनमें सामंती समाज उत्पादन और विनिमय करता था – यानी कृषि और मैन्युफैक्चरिंग उद्योग का सामंती संगठन या यूँ कहिए कि मिल्कियत के सामंती संबंध – उत्पादन और विनिमय के साधनों के विकास की एक खास मंजिल पर आकर, अब तक विकसित हुई उत्पादन शक्तियों से मेल खाने के बजाय अनगिनत बेड़ियां बनकर उन्हें जकड़ने लगे, फिर तो मिल्कियत के उन संबंधों को तोड़ फेंकना ज़रूरी हो गया और उन्हें तोड़ फेंका गया.
उनकी जगह आया मुक्त व्यापार और साथ ही साथ मुक्त व्यापार के अनुरूप एक सामाजिक ढांचा भी अस्तित्व में आया, जिसमें पूंजीपति वर्ग का आर्थिक व राजनीतिक प्रभुत्व कायम हो गया.
आज हमारी आंखों के सामने इसी किस्म का एक दूसरा नजारा पेश आ रहा है. मौजूदा उत्पादन संबंध, विनिमय संबंध और मिल्कियत के संबंधों की बदौलत, जादू के जोर से उत्पादन और विनिमय के ऐसे दानवाकार साधन खड़ा कर देनेवाला आधुनिक पूंजीवादी समाज, एक ऐसे जादूगर के समान है, जिसने मंत्र पढ़कर पाताल लोक से तमाम शक्तियों को बुला तो लिया है, मगर अब उन्हें काबू करने में असमर्थ है. पिछले कई दशकों के दौरान उद्योग और वाणिज्य का इतिहास, उत्पादन को आधुनिक स्थितियों के खिलाफ, पूंजीपति वर्ग और उसके शासन को बरकरार रखनेवाली शर्तों यानी मिल्कियत के उन संबंधों के खिलाफ, आधुनिक उत्पादक शक्तियों के विद्रोह का ही इतिहास है. यहां पर उन वाणिज्यिक संकटों का जिक्र करना ही काफी है जो नियत समय पर आते रहते हैं और हर बार पहले से बड़ा खतरा बनकर समूचे पूंजीवादी समाज को कसौटी पर खड़ा कर देते हैं. इन संकटों के दौरान न केवल मौजूदा पैदावार के एक बड़े हिस्से को, बल्कि पहले से उत्पन्न उत्पादन शक्तियों के भी एक बड़े भाग को, समय-समय पर नष्ट कर दिया जाता है. इन संकटों के दौरान अति-उत्पादन की एक महामारी फैल जाती है जो पिछले तमाम युगों में महज बेतुकी बात समझी जाती. समाज अचानक अपने को क्षणिक बर्बरता की अवस्था में लौटा हुआ पाता है. ऐसा लगता है कि किसी अकाल या सर्वनाशी युद्ध की वजह से जीवन-निर्वाह के तमाम साधनों की आपूर्ति बंद हो गई है. लगता है कि उद्योग और वाणिज्य खत्म हो गए. मगर क्यों? इसलिए कि दरअसल समाज की वाहक क्षमता के लिहाज से सभ्यता बहुत ज्यादा वजनी हो गई है, जीवन निर्वाह के साधन जरूरत से कहीं अधिक हो गए हैं, उद्योग और वाणिज्य भी हद से ज्यादा हो गए हैं. समाज में मौजूद उत्पादक शक्तियां अब पूंजीवादी मिल्कियत की स्थितियों का विकास करने के बजाय उन स्थितियों पर काफी भारी पड़ने लगती हैं जो उत्पादक शक्तियों को बेड़ी में जकड़े हुए हैं और जैसे ही उत्पादक शक्तियां उन बेड़ियों को तोड़ देती हैं, समूचे पूंजीवादी समाज में अव्यवस्था फैल जाती है, और पूंजीवादी मिल्कियत का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है. पूंजीवादी समाज की स्थिति इतनी संकीर्ण है कि वह खुद अपने द्वारा पैदा की हुई संपत्ति को संभाल नहीं सकता. पूंजीपति वर्ग इन संकटों से छुटकारा कैसे पाता है? एक ओर तो वह उत्पादक शक्तियों के एक बड़े हिस्से को बलपूर्वक नष्ट कर देता है, और दूसरी ओर वह पुराने बाजारों का और भी गहराई से शोषण करता है तथा नए-नए बाजारों पर कब्जा जमा लेता है. अर्थात् वह पहले से ज्यादा व्यापक, पहले से ज्यादा विनाशकारी संकटों का रास्ता साफ करके, और संकटों की रोकथाम करनेवाले साधनों का क्षय करके ही मौजूदा संकट से अपने आपको उबारता है.
जिन हथियारों से पूंजीपति वर्ग ने सामंतवाद को मार गिराया था वे हथियार अब खुद पूंजीपति वर्ग के खिलाफ मोड़ दिए गए हैं.
किंतु पूंजीपति वर्ग ने न सिर्फ उन हथियारों का ही निर्माण किया है जो उसकी मौत का सामान हैं, बल्कि उसने ऐसे लोगों को भी उत्पन्न किया है जो उन हथियारों का इस्तेमाल करेंगे – यानी आधुनिक मजदूर वर्ग – सर्वहारा वर्ग.
जिस अनुपात में पूंजीपति वर्ग का, अर्थात् पूंजी का विकास होता है, उसी अनुपात में सर्वहारा वर्ग का, आधुनिक मजदूर वर्ग का, यानी उन श्रमिकों के वर्ग का विकास होता है जो तभी तक जिंदा रह सकते हैं जब तक उन्हें काम मिलता रहे, और उन्हें काम भी तभी तक मिलता है जब तक उनका श्रम पूंजी में वृद्धि करता है. ये श्रमिक, जो अपने आप को हिस्सा-दर-हिस्सा बेचने को बाध्य हैं, अन्य व्यापारिक वस्तुओं की तरह खुद भी माल हैं, और इसीलिए वे प्रतियोगिता के हर उतार-चढ़ाव तथा बाजार की हर तेजी-मंदी का शिकार बन जाते हैं.
मशीनों के व्यापक इस्तेमाल और श्रम विभाजन के कारण सर्वहारा के काम का वैयक्तिक चरित्र पूरी तरह नष्ट हो गया है, और इसीलिए उनमें काम के लिए कोई आकर्षण नहीं बचा. मजदूर मशीन का पुछल्ला बन जाता है, और उससे केवल सबसे सरल, सबसे नीरस और सबसे आसानी से हासिल होनेवाली दक्षता की मांग की जाती है. इसलिए मजदूर के उत्पादन की लागत लगभग पूर्णतः उसकी अपनी गुजर-बसर तथा वंश वृद्धि के लिए आवश्यक साधनों तक सीमित रह जाती है. लेकिन हर माल की तरह श्रम
आधुनिक उद्योग ने पितृसत्तात्मक उस्ताद कारीगर के छोटे से वर्कशाप को औद्योगिक पूंजीपति के विशाल कारखाने में बदल दिया है. कारखाने में भरे झुंड के झुंड श्रमिकों को सैनिकों की तरह संगठित किया जाता है. औद्योगिक फौज के सैनिकों की भांति उनहें ऊपर से नीचे तक बाकायदा श्रेणीबद्ध अफसरों व सार्जेंटों की कमान में रखा जाता है. वे केवल पूंजीपति वर्ग और पूंजीवादी राज्य के ही गुलाम नहीं हैं, बल्कि उन्हें मशीन द्वारा, ओवरसियर द्वारा और सर्वोपरि, उसी कारखाने के मालिक पूंजीपति द्वारा हर दिन हर घंटे गुलाम बनाया जाता है. यह निरंकुशता जितना खुलकर यह ऐलान करती है कि मुनाफा ही उसका लक्ष्य और उद्देश्य है, उतनी ही वह तुच्छ, घृणित और कटु हो जाती है.
शारीरिक श्रम में दक्षता और मशक्कत की जरूरत जितनी कम होती जाती है, यानी आधुनिक उद्योग का जितना ज्यादा विकास होता जाता है, उतना ही पुरुषों के श्रम की जगह महिलाओं का श्रम लेने लगता है. अब मजदूर वर्ग के लिए आयु के फर्क या लिंग भेद का कोई खास सामाजिक महत्त्व नहीं रह गया है. वे सभी श्रम के औजार हैं, आयु और लिंग भेद के अनुसार कोई अपेक्षाकृत महंगा है तो कोई सस्ता.
कारखानेदार द्वारा मजदूर वर्ग के शोषण का अंत हुआ नहीं और उसे नकद मजदूरी मिली नहीं कि फौरन पूंजीपति वर्ग के अन्य हिस्से- मकान-मालिक, दुकानदार, महाजन आदि – उस पर टूट पड़ते हैं. मध्यम वर्ग के निचले तबके – छोटे सर्वहारा वर्ग की स्थिति में पहुंच जाते हैं. कुछ तो इसलिए कि आधुनिक उद्योग अब जिस पैमाने पर चल रहा है, उसके लिहाज से उनकी छोटी पूंजी नाकाफी है और बड़े पूंजीपतियों के साथ प्रतियोगिता में वह डूब जाती है; और कुछ इसलिए कि उत्पादन के नए-नए तरीके निकल आने के कारण खास किस्म की कुशलता का कोई मूल्य नहीं रह गया है. इस प्रकार आबादी के सभी वर्गों से लोग सर्वहारा में शामिल होते रहते हैं.
सर्वहारा वर्ग विकास की विभिन्न मंजिलों से गुजरता है. जन्म के साथ ही पूंजीपति वर्ग से उसका संघर्ष शुरू हो जाता है. शुरू में मजदूर अकेले-अकेले ही लड़ते हैं. फिर एक फैक्टरी के श्रमिक मिलकर लड़ते हैं, उसके बाद एक इलाके में एक ट्रेड के मजदूर एक साथ उस पूंजीपति के साथ लड़ते हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से उनका शोषण करता है. उनके हमले का निशाना उत्पादन की पूंजीवादी स्थितियां नहीं, बल्कि उत्पादन के औजार होते हैं. वे बाहर से मंगाए गए उन सामानों को नष्ट कर देते हैं, जो उनके श्रम के साथ प्रतियोगिता कर रहे होते हैं. वे मशीनों को चकनाचूर कर देते हैं, फैक्ट्रियों में आग लगा देते हैं. वे ताकत के जोर से मध्य युग के कारीगर की खोई हैसियत को वापस पाना चाहते हैं.
इस मंजिल में मजदूरों की स्थिति देश भर में बिखरे असम्बद्ध समुदाय जैसी रहती है जो अपनी ही आपसी होड़ के कारण टुकड़ों-टुकड़ों में बंटा होता है. अगर कहीं वे मिलकर अपनी कोई ठोस संस्था बनाते भी हैं, जो यह उनकी अपनी सक्रिय एकता का परिणाम नहीं, बल्कि यह पूंजीपति वर्ग की एकता का परिणाम होता है, क्योंकि उसे अपने खुद के राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समूचे सर्वहारा वर्ग को गतिशील करना पड़ता है; और वक्ती तौर पर वह ऐसा करने में समर्थ भी होता है. इसलिए इस मंजिल में सर्वहारा वर्ग अपने दुश्मनों से नहीं लड़ते, बल्कि वे अपने दुश्मनों के दुश्मनों से, निरंकुश राजतंत्र के अवशेषों से, भूस्वामियों से, गैर-औद्योगिक पूंजीपतियों और निम्न पूंजीपतियों से लड़ते हैं. इस प्रकार इतिहास की समस्त गतिविधि की लगाम पूंजीपति वर्ग के हाथों रहती है और इसमें हासिल प्रत्येक जीत पूंजीपति वर्ग की ही जीत होती है.
लेकिन उद्योग के विकास के साथ-साथ सर्वहारा वर्ग की संख्या में ही वृद्धि नहीं होती है, बल्कि वह बड़ी-बड़ी जमातों में संकेन्द्रित हो जाता है, उसकी ताकत बढ़ जाती है और उसे अपनी इस ताकत का एहसास भी होने लगता है. जिस अनुपात में मशीनें श्रम के तमाम भेदों को मिटाती हैं, और करीब सभी जगह मजदूरों को एक ही निम्न स्तर पर गिरा देती हैं, उसी अनुपात में सर्वहारा वर्ग की कतारों के भिन्न-भिन्न हित और जीवन-स्थितियां अधिकाधिक समान होती जाती हैं. पूंजीपति वर्ग की बढ़ती हुई आपसी होड़ और उससे पैदा होने वाले व्यापारिक संकटों के कारण मजदूरी में और अधिक उतार-चढ़ाव आने लगते हैं. मशीनों में लगातार सुधार, जो निरंतर तेज गति से बढ़ता जाता है, मजदूरों की जीविका को ज्यादा से ज्यादा अनिश्चित बना देता है. अलग-अलग मजदूरों की अलग-अलग पूंजीपति से होने वाली टक्करें अब अधिकाधिक रूप से दो वर्गों के बीच की टक्करों का चरित्र अख्तियार करती जाती हैं और तब मजदूर पूंजीपतियों के खिलाफ अपने संगठन (ट्रेड यूनियनें) बनाने लगते हैं, वे मजदूरी की दर को न गिरने देने के लिए एकजुट हो जाते हैं. समय-समय पर होने वाले इन विद्रोहों के लिए पहले से तैयारी रहने हेतु वे स्थायी संगठनों का निर्माण करते हैं. जहां-तहां यह लड़ाई बलवों का रूप धारण कर लेती है.
जब-तब मजदूरों की जीत भी होती है, मगर केवल वक्ती तौर पर. उन लड़ाइयों का असली फल तात्कालिक नतीजों में नहीं, बल्कि मजदूरों की लगातार फैलती एकता में है. आधुनिक उद्योग द्वारा पैदा किए गए संचार के बेहतर साधनों से इस एकता को बढ़ने में मदद मिलती है, क्योंकि इससे विभिन्न इलाकों के मजदूर एक दूसरे के संपर्क में आ जाते हैं. एक ही चरित्र के अनगिनत स्थानीय संघर्षों को केंद्रित करके उन्हें राष्ट्रीय वर्ग संघर्ष का रूप देने के लिए बस इसी किस्म के संपर्क की तो जरूरत थी. लेकिन प्रत्येक वर्ग-संघर्ष एक राजनीतिक संघर्ष होता है और जिस एकता को हासिल करने के लिए मध्य युग के बर्गरों को तब सड़कों की दयनीय दशा के कारण सदियां लग गईं, उसी एकता को आधुनिक सर्वहारा ने रेलवे की मदद से चंद वर्षों में हासिल कर लिया.
मजदूरों के बीच आपसी होड़ के कारण सर्वहारा का एक वर्ग के रूप में संगठन, और परिणामतः उनका एक राजनीतिक पार्टी के रूप में संगठन, बराबर गड़बड़ी में पड़ जाता है. मगर हर बार यह संगठन फिर से उठ खड़ा होता है – पहले से ज्यादा मजबूत, दृढ़ और शक्तिशाली बनकर. खुद पूंजीपति वर्ग के बीच विभाजन का इस्तेमाल करके वह मजदूरों के खास-खास हितों को कानूनी तौर पर मनवा लेता है. इंग्लैंड में दस घंटे के काम का दिन वाला कानून (1846) इसी तरह पास हुआ था.
पुराने समाज के विभिन्न वर्गों के बीच टक्करें कुल मिलाकर सर्वहारा वर्ग के विकास में कई तरह से मदद पहुंचाती हैं. पूंजीपति वर्ग खुद को लगातार संघर्षों में फंसा पाता है, पहले सामंती रईसजादों के विरुद्ध, बाद में खुद पूंजीपति वर्ग के उन हिस्सों के विरुद्ध जिनके हित उद्योग की प्रगति के प्रतिकूल हो जाते हैं और विदेशी पूंजीपतियों के खिलाफ तो हमेशा ही. इन तमाम संघर्षों में वह सर्वहारा वर्ग से अपील करने, उनसे मदद मांगने और इस प्रकार उन्हें राजनीतिक मंच पर खींच लाने के लिए मजबूर हो जाता है. अतः पूंजीपति वर्ग खुद ही सर्वहारा वर्ग को राजनीतिक व सामान्य शिक्षा के तत्त्वों से लैस कर देता है यानी उनके हाथ में पूंजीपति वर्ग से लड़ने के लिए हथियार थमा देता है.
इसके अलावा जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, उद्योग की उन्नति के कारण शासक वर्गों के कुछ हिस्सों को पूरे के पूरे समूह के तौर पर, या तो सर्वहारा के स्तर पर पहुंचा दिया जाता है या कम से कम उनका अस्तित्व तो संकट में पड़ ही जाता है. ये लोग भी सर्वहारा को जागरुकता और प्रगति के लिए तत्त्वों से लैस करते हैं.
आखिरकार, वर्ग संघर्ष जब निर्णायक घड़ी के नजदीक पहुंच जाता है, तब शासक वर्ग के अंदर, दरअसल समूचे समाज के अंदर, चल रही विघटन की प्रक्रिया इतना उग्र और प्रत्यक्ष रूप धारण कर लेती है कि शासक वर्ग का एक छोटा हिस्सा अपने वर्ग से अलग होकर क्रांतिकारी वर्ग के साथ आ मिलता है, जिसके हाथ में भविष्य होता है. इसलिए, जिस तरह पिछले युग में सामंतों का एक हिस्सा पूंजीपति वर्ग से जा मिला था, उसी तरह पूूंजीपति वर्ग का एक हिस्सा, खासकर पूंजीवादी विचारकों का एक हिस्सा – जो समय रूप से इतिहास की गति को सैद्धांतिक रूप से समझने के स्तर पर पहुंच चुका है – सर्वहारा वर्ग से जा मिलता है.
आज पूंजीपति वर्ग के मुकाबले में जितने वर्ग खड़े हैं उन सबमें सर्वहारा वर्ग ही असली क्रांतिकारी वर्ग है. अन्य वर्गों का आधुनिक उद्योग के सामने क्षय होता रहता है और अंत में वे विलुप्त हो जाते हैं. सर्वहारा ही आधुनिक उद्योग के मौलिक और विशिष्ट उपज हैं.
निम्न मध्यम वर्ग के लोग – छोटे कारखानेदार, दुकानदार, कारीगर और किसान – ये सब मध्यम वर्ग के अंश के बतौर अपने अस्तिव को खत्म होने से बचाने के लिए पूंजीपति वर्ग से टकराते हैं. इसलिए वे क्रांतिकारी नहीं बल्कि रूढ़िवादी हैं. इतना ही नहीं, चूंकि वे इतिहास के चक्के को पीछे घुमाने की कोशिश करते हैं, इसलिए वे प्रतिक्रियावादी भी हैं. संयोग से अगर वे क्रांतिकारी होते भी हैं, तो सिर्फ इसलिए कि उन्हें बहुत जल्द सर्वहारा वर्ग की स्थिति में चले आना है. इस प्रकार वे अपने वर्तमान हितों की नहीं, भविष्य के हितों की हिफाजत करते हैं; वे अपना दृष्टि बिंदु त्यागकर सर्वहारा का दृष्टिबिंदु अपना लेते हैं.
जहां तहां “लंपट सर्वहारा”
सर्वहारा वर्ग की मौजूदा स्थिति में पुराने समाज की तमाम स्थितियों का नामोनिशान तक मिट चुका है. सर्वहारा के पास कोई संपत्ति नहीं है. अपनी पत्नी और बच्चों के साथ उसका संबंध पूंजीवादी पारिवारिक संबंधों से बिल्कुल भिन्न है. आधुनिक औद्योगिक श्रम या पूंजी की आधुनिक किस्म की गुलामी, इंग्लैंड हो या फ्रांस, अमरीका हो या जर्मनी, सभी जगह एक सी है और उसने सर्वहारा के राष्ट्रीय चरित्र के सारे चिन्ह मिटा दिए हैं. कानून, नैतिकता, धर्म – ये सब उसके लिए पूंजीवादी ढकोसले मात्रा हैं जिनकी आड़ में पूंजीवादी हित ही घात लगाए बैठे होते हैं.
आज तक जिन-जिन वर्गों का पलड़ा भारी हुआ, उन्होंने पूरे समाज को अपने ढंग की शोषण प्रणालियों के अधीन लाकर, अपने पहले से हासिल दरजे को पक्का करने की कोशिश की है. मगर सर्वहारा खुद अपनी अब तक की शोषण-प्रणाली का अंत किए बगैर और इस तरह पहले की तमाम शोषण-प्रणालियों का अंत किए बगैर समाज की उत्पादक शक्तियों का मालिक नहीं बन सकता. उसके पास सुरक्षित रखने या पक्का करने लायक अपनी कोई चीज नहीं है, उसका उद्देश्य तो निजी मालिकाने को पुरानी तमाम गारंटियों और जमानतों को नष्ट कर देना है.
पिछले तमाम ऐतिहासिक आंदोलन या तो अल्पमत के आंदोलन रहे हैं या वे अल्पमत के हित में रहे हैं. मगर सर्वहारा आंदोलन विशाल बहुसंख्यकों का, विशाल बहुसंख्यकों के हित में चलने वाला सचेत और स्वतंत्र आंदोलन है. हमारे मौजूदा समाज का सबसे निचला स्तर, यानी सर्वहारा वर्ग, अपने ऊपर लदे शासक समाज के सभी परतों को पलटे बगैर हिल-डुल नहीं सकता, सिर उठाकर खड़ा नहीं हो सकता.
शुरू में पूंजीपति वर्ग के खिलाफ सर्वहारा का संघर्ष, अंतर्वस्तु के लिहाज से तो नहीं, मगर रूप के लिहाज से राष्ट्रीय संघर्ष होता है. हर देश के सर्वहारा वर्ग को लाजिमी तौर पर पहले अपने देश के पूंजीपति वर्ग से निपटना होगा.
सर्वहारा वर्ग के विकास की सबसे सामान्य मंजिलों का ब्यौरा देते हुए यहां हमने वर्तमान समाज के अंदर कमोबेश छिपे तौर पर चल रहे गृहयुद्ध का उसी बिंदु तक चित्रण किया है जहां यह युद्ध खुली क्रांति में तब्दील हो जाता है और पूंजीपति वर्ग को बलपूर्वक उखड़ फेंकने के जरिए सर्वहारा वर्ग के प्रभुत्व की बुनियाद रखी जाती है.
जैसा कि हम देख चुके हैं, अब तक हर किस्म का समाज उत्पीड़क और उत्पीड़ित वर्गों के बीच विरोध पर कायम रहता है. मगर किसी वर्ग का उत्पीड़न करने के लिए जरूरी है कि उसे ऐसी सुविधाएं दी जाएं जिससे वह कम से कम गुलाम वर्ग के रूप में तो जिंदा रह सके. भूदास खुद को कम्यून की सदस्यता हासिल करने के स्तर तक उन्नत कर सका ठीक उसी तरह सामंती निरंकुशता के मातहत निम्न पूंजीपति वर्ग पूंजीपति बन गया. मगर इसके विपरीत, आधुनिक मजदूर वर्ग उद्योग की उन्नति के साथ-साथ ऊपर उठने के बजाय अपने वर्ग के अस्तित्व के लिए जरूरी स्थितियों से भी नीचे गिरता जाता है. वह कंगाल हो जाता है और यह कंगाली आबादी और दौलत से भी ज्यादा तेजी से बढ़ती है. और अब यह स्पष्ट हो जाता है कि पूंजीपति वर्ग समाज का शासक वर्ग बने रहने लायक नहीं रहा, वह समाज पर अपने अस्तित्व की शर्तों को अनिवार्य नियम के बतौर लादने लायक नहीं रहा. पूंजीपति वर्ग शासन करने लायक इसलिए नहीं रहा, क्योंकि वह मजदूर को ऐसी स्थिति में गिरने से नहीं रोक पाता, जब उसकी कमाई से अपना पेट भरने के बजाय खुद उसका पेट पालने पर मजबूर हो जाता है. पूंजीपति वर्ग के मातहत अब समाज का चलना नामुमकिन हो जाता है, या यूं कहिए कि पूंजीपति वर्ग का अस्तित्व अब समाज से कतई मेल नहीं खाता.
पूंजीपति वर्ग के अस्तित्व और प्रभुत्व की लाजिमी शर्त है पूंजी का निर्माण और उसकी वृद्धि, और पूंजी की शर्त है उजरती श्रम, उजरती श्रम पूर्णतः मजदूरों की आपसी होड़ पर निर्भर करता है. पूंजीपति वर्ग अनजाने ही उद्योग की उन्नति की ओर बढ़ता जाता है, जिससे आपसी होड़ के कारण मजदूरों में पैदा होनेवाले अलगाव की जगह उनकी एकजुटता के फलस्वरूप क्रांतिकारी संगठन पैदा हो जाता है. इस तरह आधुनिक उद्योग का विकास पूंजीपति वर्ग के पैरों तले उस जमीन को ही खिसका देता है जिस पर खड़े होकर वह उत्पादन करता है और पैदावार को हड़प लेता है. इसलिए पूंजीपति वर्ग सर्वोपरि अपनी कब्र खोदने वालों को पैदा करता है. उसका पतन और सर्वहारा की विजय दोनों समान रूप से अनिवार्य हैं.