भारत में राष्ट्रवाद का उदय अंग्रेजी उपनिवेशवाद के खिलाफ भारतीय जनता के संघर्ष के दौरान हुआ. लेकिन आरएसएस के ‘राष्ट्रवाद’ ने कभी भी अंग्रेजी शासन से टकराव मोल नहीं लिया, बल्कि वे भारत के मुसलमानों को अपना असली दुश्मन मानते रहे.
जब भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव फांसी के पफंदे पर झूल रहे थे तब शहीदों का मजाक उड़ाते हुए आरएसएस के ‘नायक’ अंग्रेजों की मदद कर रहे थे.
आरएसएस और हिन्दू महासभा के नेताओं के लेखों के कुछ अंश यहां हैं, जो यह दिखाने के लिए पर्याप्त हैं कि अंग्रेजों के खिलाफ चल रहे स्वतंत्रता संग्राम के प्रति इनमें कितनी घृणा थी:
- "अंग्रेजी-सत्ता का विरोध देशभक्ति और राष्ट्रवाद कहा जा रहा है. यह एक प्रतिक्रियावादी विचार है. इस विचार का स्वाधीनता आंदोलन, इसके नेताओं और सामान्य जनता पर भयावह प्रभाव पड़ेगा.”
(एम.एस. गोलवलकर, बंच आॅफ थाॅट्स, बंगलौर 1996, पृ. 138)
- “संघर्ष के बुरे परिणाम निकले. 1920-21 के आंदोलन के बाद लड़के क्रांतिकारी बन गये... 1942 के बाद, लोग सोचने लगे कि कानून का विचार करने की कोई जरूरत ही नहीं है.
”1920-21 के असहयोग आंदोलन और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के प्रभाव के बारे में गोलवलकर के विचार (श्रीगुरुजी समग्र दर्शन, चैथा भाग, नागपुर, पृ. 41)
- “1942 में लोगों के हृदय में उफान था. इस समय भी संघ अपना दैनंदिन कार्यक्रम चलाता रहा. संघ ने सीधे वुफछ भी नहीं करने का निर्णय लिया था.”
(श्रीगुरुजी समग्र दर्शन, चैथा भाग, नागपुर, पृ. 40)
भाजपा और आरएसएस अपने एक भी नेता का नाम नहीं ले सकते जो आजादी की लड़ाई में शहीद हुआ हो ये जेल गया हो. ये सावरकर को वीर कहते हैं, लेकिन उनका रिकार्ड क्या था?
- हिंदुत्व का नेता बनने के पहले तो उन्होंने अंग्रेजों का विरोध किया. लेकिन अपनी दूसरी गिरफ्तारी और मुकदमे के दौरान जब उन्हें 1911 में अंडमान भेज दिया गया तब उन्होंने अंग्रेजों की वफादारी की कसमें खानी शुरू कर दी और अनेक दया याचिकाओं में अपनी रिहाई की भीख मांगने लगे.
- 24 नवंबर 1913 को लिखे गये एक पत्र में उन्होंने अपनी रिहाई के लिए याचना को फिर से दुहराया और कहा कि वे अपने पुराने मार्ग का परित्याग करके “सरकार के प्रति वफादारी का... जबर्दस्त प्रवक्ता... एक भटका हुआ बेटा सरकार के पितृवत दरवाजे के अलावा भला और कहां जा सकता है?”
- जनवरी 1924 में अपनी रिहाई का आदेश प्राप्त किया, जिसमें साफ लिखा था कि “वे सार्वजनिक या व्यक्तिगत रूप से किसी भी रूप में राजनीतिक गतिविधि में सरकार की अनुमति के बिना भाग नहीं लेंगे.”
- अंग्रेज सरकार की छत्रछाया में सावरकर और संघ परिवार सिर्फ एक ही राजनीतिक गतिविधि में भाग लेते थे और वह था सांप्रदायिक दंगे भड़काना. और हाँ, सावरकर के जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि थी कि वे महात्मा गांधी की हत्या का षड्यंत्र करने में शामिल थे.
संघ परिवार के एक अन्य ‘नायक’ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तो भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बंगाल के मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने से इंकार कर दिया. इतना ही नहीं बंगाल सरकार में मंत्री के बतौर उन्होंने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन का दमन करने में अंग्रेजों की मदद करने और उन्हें सलाह देने में सक्रिय सहयोग की पेशकश की. 1942 में उन्होंने लिखा:
- “सवाल यह नहीं है कि बंगाल में इस आंदोलन का मुकाबला कैसे किया जाए. प्रांत में प्रशासन को इस तरीके से चलाना चाहिए जिससे तमाम कोशिशों के बावजूद .. यह आंदोलन प्रांत में अपनी जड़ें जमाने में सफल न हो पाए.”
- “जहां तक इंग्लैंड के बारे में भारत के रुख की बात है तो इस मौके पर इनके बीच किसी भी प्रकार का संघर्ष नहीं होना चाहिए... जो व्यक्ति भी जन भावनाओं को भड़काकर आन्तरिक विक्षोभ और असुरक्षा पैदा करना चाहता है, सरकार को उसका कड़ाई से विरोध करना चाहिए.”
(श्यामा प्रसाद मुखर्जी, लीव्स फ्रॉम अ डायरी, आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, पृ. 175-190)