(हजोंग कबीले की एक महिला रसमोनी जो 1946-47 के तेभागा आन्दोलन में पुलिस बर्बरता में शहीद हुयी थी, की याद में समीर राय द्वारा नक्सलबाड़ी आन्दोलन के दौर में 1968 में लिखी गयी कविता के अंश)
कामरेड, क्या उम्र है हमारी,
क्यों न जरा जायजा लिया जाय।
मेरी माँ आग की दीन कंपकंपाती लपट की बगल में बैठी,
हीरेन, नृपेन, श्यामल और समीर की उम्रें गिन रही है –
क्यों नहीं थोड़ी और परवाह कर गिने
हजोंग की रसमोनी हतभागी मर गयी
नेशनल लाइब्रेरी और हजोंग की पहाड़ियों के सिवा
बंगाल में उसकी कोई तस्वीर नहीं है
क्यों न इसका नाम शांतिलता, जियाद की बीबी फातिमा को बताएं
... क्यों न रसमोनी का नाम अपनी जेबों में धीरे से सहेज कर
कुछ मील दूर गाँव में चले आयें.
शान्तिलता, जियाद की बीबी फातिमा –
कमान से कहीं ज्यादा सटीक और तीखी हो सकती हैं.
कामरेड, इतिहास की पुरानी किताब से आओ
रसमोनी की तस्वीर निकालें
और आगे बढ़ें, दबे पांव अंधेरे से भी ज्यादा गुपचुप.
1946 में कोयम्बतूर मिल हड़ताल में महिला मिल कामगारों ने बर्बर पुलिसिया दमन का सामना करते हुए बहुत सक्रिय और जुझारू भूमिका निभाई. इसी साल कोलकाता में एक विधेयक के खिलाफ, जिसमें काम के घंटों को नियमित करने के नाम पर हजारों महिला कामगारों की छंटनी का प्रस्ताव किया गया था, जूट मजदूरों के संघर्ष में महिला कामगारों ने इसी तरह की सक्रिय और जुझारू भूमिका निभाई. 1947 में मुम्बई में धनराज काटन मिल की महिला कामगारों ने भी भयंकर पुलिस दमन झेलते हुए महिलाओं की एकमुश्त छंटनी के खिलाफ बहादुराना संघर्ष किया.
1946 में बंगाल के तेभागा आन्दोलन में, जिसमें किसान और बटाईदार अपनी उगायी फसल की दो तिहाई मांग के लिये संघर्ष कर रहे थे, महिलायें संघर्ष के अग्रिम मोर्चे पर थीं. पुलिस की गोलीबारी में शहीद किसानों में कौशल्या, कामरानी और जसोदा जैसी महिलायें तथा हजोंग कबीले की रसमोनी, शंखमनी और रेवती जैसी बहुत सी महिलायें भी थीं.
काकद्वीप के चन्दनपीरी गांव में 1948 में एक जुलूस का नेतृत्व करते हुए अहल्या और तीन अन्य किसान महिलायें पुलिस की गोलियों से शहीद हुईं.
तेभागा आन्दोलन से पहले मैमन सिंह जिले में हुए टांका आन्दोलन में दो नौजवान मुस्लिम किसान महिलाओं ने अपने हाथों में कुल्हाड़ी लेकर सशस्त्र पुलिस बल का सामना किया था.
कम्युनिस्ट नेतृत्व के तेलंगाना आन्दोलन में रज़ाकारों (सामन्ती शासकों की गुण्डावाहिनी) और भारतीय सेना के खिलाफ औरतें अपने लड़ाकू पुरुष साथियों के साथ कंधे से कंध मिलाकर लड़ीं.
तेभागा, तेलंगाना और किसान सभा आन्दोलनों के क्रम में कम्युनिस्ट महिलाओं ने घरेलू हिंसा, अपने श्रम से अर्जित आमदनी पर अधिकार आदि सवालों को उठाने में अग्रणी भूमिका अदा की.