ये दोनों दस्तावेज नोटबंदी के बाद सरकार की आर्थिक सोच में मौजूद तनावों का ख़ुलासा कर देते हैं. आर्थिक सर्वेक्षण पहले की तरह ही वित्त मंत्रालय द्वारा तैयार किया गया है. इसमें कुछ योगदान सरकार के पैरोकार अर्थशास्त्रियों का भी है जो नाम के वास्ते ही सही, स्वतंत्र अर्थशास्त्री कहलाना पसंद करते हैं. आर्थिक सर्वेक्षण नोटबंदी के अस्थायी नुकसान को अंशत: स्वीकार करता है और उससे निपटने के लिए सार्वत्रिक बुनियादी आय (यूनिवर्सल बेसिक इनकम, यूबीआई) जैसी अधकचरी योजनाओं की सिफारिश करता है. जबकि मुख्यत: प्रधानमंत्री कार्यालय की देख-रेख में तैयार किया गया बजट प्रस्ताव इन चिंताओं को सिरे से खारिज कर देता है.
करीब तीन महीने तक नोटबंदी को अमीर विरोधी और गरीबपरस्त प्रचारित करने के बाद अंतत: सरकार ने अमीरों पर कर लगाने और नोटबंदी की चोट झेल रहे गरीबों के लिए रोजगार पैदा करने वाली कल्याणकारी योजनाओं में खर्च बढ़ाने से इंकार कर दिया. इससे बदहाल आम आदमी को थोड़ी मदद मिलती और ध्वस्त हुई अर्थव्यवस्था को नया जीवन मिल सकता था. बहुप्रचारित यूबीआई को बजट में कोई जगह नहीं मिली. इस कठिन घड़ी में भी सरकार सकल घरेलू उत्पाद में केंद्र सरकार द्वारा किए जाने खर्च में लगातार कटौती करने पर अड़ी रही. 2011-12 में 14.9 फीसदी खर्च घटकर 2016-17 में 13.4 फीसदी पर पहुँच गया था और इस साल के बजट में इसे घटाकर 12.7 फीसदी कर दिया गया. वित्तीय अनुशासन अब भी सबसे बड़ी चिंता बना हुआ है क्योंकि यही वित्तीय पूँजी की पहरेदारों (अन्तर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों) की माँग रहती है. इस तरह मोदी का गरीब विरोधी चेहरा खुलेआम सामने आ गया है.