- दीपंकर भट्टाचार्य
‘प्रतीकों को हथियाने’ के अभियान के अंग के बतौर भाजपा हिंदुत्व की सेवा में अम्बेडकर पर कब्जा जमाने के लिये बेहद उतावली है. बताया जा रहा है कि अम्बेडकर जातियों के परे एक सशक्त राष्ट्र के पक्ष में खड़े थे और इसी लक्ष्य को भाजपा हिंदुओं के एकीकरण के जरिये हासिल करना चाहती है. अम्बेडकर दलितों के सशक्तीकरण के पक्ष में खड़े थे, और भाजपा के प्रचारकों ने रामनाथ कोविन्द के चुनाव को इस लक्ष्य के प्रति भाजपा की प्रतिबद्धता के सबसे बड़े प्रमाण के बतौर पेश करना शुरू कर दिया है. अम्बेडकर भारतीय गणतंत्र के संविधान के मुख्य निर्माता थे, और भाजपा के लिये यही बात अम्बेडकर को ‘आधुनिक मनु’ बनाती है! अम्बेडकर के प्रतिवाद की अंतिम कार्यवाही थी उनका बौद्ध धर्म को अपनाने का फैसला और इस कार्यवाही का भी आरएसएस के धर्मान्तरण के अभियान में इस्तेमाल करने की कोशिश हो रही है. संघ के लिये बौद्ध धर्म हिंदू धर्म का ही एक विस्तार है और इसीलिये अब ‘घर वापसी’ के रणनीतिकारों के लिये मुसलमानों एवं ईसाइयों का बौद्ध धर्म में धर्मांतरण प्लान-बी या दूसरा विकल्प बनता जा रहा है.
फिर भी अम्बेडकर ही वह व्यक्ति हैं जो संघ-भाजपा की साजिश की सबसे सशक्त आलोचना पेश करते हैं और जिन्होंने वास्तव में हमें उस ‘विपत्ति’ के बारे में सावधान कर दिया था जिसे हम वर्तमान में झेल रहे हैं. दुर्भाग्यवश, पिछले कुछेक वर्षों में भारत की जाति व्यवस्था के बारे में अम्बेडकर की तीखी आलोचना और स्वतंत्र भारत के मूल पाठ संविधान की संरचना को घेरे हुए अंतर्निहित तनावों और अंतर्विरोधों के बारे में उनकी अंतरदृष्टि संपन्न टिप्पणी को सुनियोजित ढंग से पृष्ठभूमि में ढकेल दिया गया है. उनको महज एक और दलित प्रतीक के बतौर, या फिर संविधान का मसौदा बनाने वाली कमेटी की अध्यक्षता करने वाले विद्वान अधि वक्ता के बतौर सीमित कर दिया गया है. महज पहचान की राजनीति के प्रतीक के बतौर, जिनसे उनकी आमूलचूल परिवर्तन की अंतर्दृष्टि को हर लिया गया हो, अम्बेडकर का यह अवैचारिकीकरण, अम्बेडकर का यह सीमांकन या पुन:रचना ही अम्बेडकर को संघ द्वारा हस्तगत करने के शैतानी प्रयासों के सामने कमजोर शिकार बना देती है. अतः वर्तमान शासन की तानाशाही भरी साजिशों का पर्दाफाश करते एवं उनको चुनौती देते हुए लोकतंत्र के हर रक्षक को अनिवार्यतः जाति, राष्ट्र, संविधान और लोकतंत्र के बारे में अम्बेडकर की आमूलचूल परिवर्तन की अंतर्दृष्टि को बुलंद करना और उसका पूरा इस्तेमाल करना होगा.
भारतीय शासक वर्गों की सर्वप्रमुख पार्टी के बतौर भाजपा का उत्थान और हिंदुत्व का आक्रमण अभूतपूर्व रूप से चौतरफा तीखा होने के साथ-साथ समूचे समाज और राजप्रणाली में जोरदार खलबली महसूस की जा रही है. मुस्लिम समुदाय के साथ-साथ दलित भी अपने-आपको हिंदुत्व के आक्रमण का शिकार महसूस कर रहे हैं. यह है कि भाजपा भी दलितों को लुभाने और मुस्लिमों के खिलाफ उन्हें खड़ा करने की जीतोड़ कोशिश कर रही है. एक ओर दलितों का उत्पीड़न तथा दूसरी ओर दलित पहचान को हिंदुत्व के आक्रामक एजेंडा का दुमछल्ला बनाने की कोशिश -- इन दोनों का तालमेल भारत में दलित राजनीति के लिये एक नया चुनौतीपूर्ण मोड़ बन गया है.
उपनिवेशोत्तर भारत में मुख्यधारा की दलित राजनीति, जो अपनी अग्रगति के लिये मुख्य औजार के बतौर आरक्षण पर निर्भर रहने का आदी हो गई थी, वह इस मोड़ का सामना करने के लिये कत्तई प्रस्तुत नहीं थी. जहां दलितों के एक छोटे से हिस्से को आरक्षण की प्रणाली से लाभ पहुंचा था, वहीं अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का एक बड़ा हिस्सा जमींदारी विलोप तथा हरित क्रांति के परिणामस्वरूप कृषि की उत्पादकता में वृद्धि से लाभान्वित हुआ था. स्वाधीनता के शुरूआती कुछेक दशकों के दौरान जाति एवं वर्ग दोनों लिहाज से शक्ति संतुलन उल्लेखनीय हद तक बदल चुका था, जिसमें मुख्य रूप से पिछले जमाने के सवर्ण सामंती जमींदारों के साथ-साथ मध्यवर्ती जातियों के बीच एक सशक्त धनी किसान अथवा कुलक वर्ग का उत्थान हुआ और साथ ही व्यापारियों एवं पूंजीपतियों के उत्थान ने पिछले दौर के घरेलू पूंजी के संकीर्ण आधार के सामने चुनौती खड़ी कर दी. जिस समय अन्य पिछड़ा वर्गों के लिये आरक्षण पर मंडल आयोग की सिफारिशों को अंततः लागू किया गया, उसके पहले ही ओबीसी सत्ता समूह भारत के विशाल भागों में वर्चस्वशाली सामाजिक शक्ति के बतौर उभर चुके थे. मंडल आयोग के आने से विभिन्न क्षेत्रों में, सर्वाधिक उल्लेखनीय तौर पर प्रान्तीय सरकारों और पंचायती राज संस्थाओं में, इस शक्ति को मजबूत करने में केवल मदद ही मिली.
अगड़ी जातियों के प्रारम्भिक प्रतिघात, जिसे संघ ब्रिगेड द्वारा बड़े पैमाने पर भड़काया गया था और जिसका नेतृत्व भी उन्होंने किया था, के खिलाफ अधिकांश दलितों ने नई ओबीसी शक्ति का ही समर्थन किया. मगर जल्द ही दलित आकांक्षाओं और अधिकारों को हासिल करने की तलाश ने उनको सरजमीन पर आक्रामक ओबीसी शक्ति के खिलाफ खड़ा पाया. उत्तर प्रदेश में मायावती को मुलायम सिंह यादव की सपा से नाता तोड़ना पड़ा, तो बिहार में राम विलास पासवान को लालू प्रसाद के वर्चस्व की छत्रछाया में ही अपने लिये अलग स्थान हासिल करने की कोशिश करनी पड़ी. ओबीसी शक्ति के वर्चस्व का मुकाबला करने के क्रम में मुख्यधारा के अधिकांश दलित नेता भाजपा की ओर झुक गये जिसने तब तक मंडल के मुखौटे की आड़ में अपनी ब्राह्मणवादी विचारधारा को छिपाना शुरू कर दिया था और ‘गठजोड़ धर्म’ पर अमल करने के वादे पर संत्रयकारियों को अपने साथ जोड़ लिया था. हमने देखा कि गुजरात के जनसंहार के बाद मोदी के पक्ष में प्रचार अभियान के लिये मायावती वहां गई और उत्तर प्रदेश में उन्होंने भाजपा के साथ सत्ता की भागीदारी की, जबकि कई दलित नेता भाजपा में न सही तो एनडीए में शामिल हो गये. यह प्रवृत्ति 2014 के चुनाव के दौरान और उसके बाद भी जारी रही, जब उदित राज भाजपा में शामिल हुए, राम विलास पासवान फिर से एनडीए में जा घुसे और बिहार के कामचलाऊ मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने भी भाजपा से हाथ मिलाने के लिये नीतीश कुमार के खिलाफ विद्रोह कर दिया.
बसपा ने “वोट हमारा, राज तुम्हारा -- नहीं चलेगा, नहीं चलेगा” का सही नारा दिया था, मगर उसने “राज” को बदलने की चुनौती का बहुत ही सरलीकृत उपाय पेश किया : “वोट से लेंगे पीएम-सीएम -- आरक्षण से एसपी-डीएम”. सत्ता के ढांचे की तह में मौजूद आर्थिक शोषण का सवाल, उत्पादन और सम्पत्ति सम्बंधों के सवाल बिल्कुल अनछुए छोड़ दिये गये. भूमि सुधार के एजेंडा का परित्याग, और उसे पूरा न किये जाने के चलते ग्रामीण भारत में मौजूद दलितों की विशाल बहुसंख्या, जो मुख्यतः भूमिहीन मजदूर हैं, की आर्थिक स्थितियों में ठहराव आने और यहां तक कि उनके बदतर होने के सवाल को बसपा के विमर्श में कोई जगह नहीं मिली. फिर भी बसपा को चुनावी रंगमंच पर उत्कृष्ट सफलता मिली और मायावती चार-चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं और ऐसा लगा था कि मुख्यधारा की दलित राजनीति के लिये इतना काफी है.
आज बसपा की चुनावी असफलताओं एवं दलितों पर अत्याचार की घटनाओं में नये सिरे से आई तेजी ने दलितों के अंदर विकल्प की तलाश और अम्बेडकर के पुनर्पाठ की चाहत को जगा दिया है. रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या के खिलाफ आम छात्रों और खासकर वामपंथी छात्र आंदोलन की गर्मजोशी भरी प्रतिक्रिया ने इस प्रक्रिया को गति प्रदान की है. हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय (एचसीयू) एवं जेएनयू के छात्रों ने “जस्टिस फॉर रोहित” अभियान का नेतृत्व किया और राजद्रोह के आरोप लगाकर एवं पुलिस दमन के सहारे इस अभियान का दमन करने की मोदी सरकार की कोशिशों को उलटे मुंह की खानी पड़ी. दूसरा मोड़ था ऊना -- दादरी से लेकर लातेहार तक इसी बीच संघ के नेतृत्व में गौरक्षक गिरोहों द्वारा हिंसा की कई घटनाएं हो चुकी थीं, मगर ऊना ने सशक्त प्रतिवाद को जन्म दिया और तुरंत मुसलमान भी इसमें शामिल हो गये. दलित-मुस्लिम एकता की इस स्वागतयोग्य सम्भावना के साथ साथ ऊना ने दलित-वामपंथ के बीच सहयोग की रोमांचक वैचारिक-राजनीतिक सम्भावना को भी पेश किया. सहारनपुर कांड ने भीम आर्मी को सामने ला खड़ा किया, और संघ परिवार की हिंसक परियोजना के खिलाफ जुझारू प्रतिरोध खड़ा करने की जरूरत अत्यंत विस्तृत पैमाने पर महसूस की जा रही है.
ऊना के प्रतिरोध ने पेशों के “आरक्षण” की जाति-आधारित व्यवस्था को ठुकरा दिया है, जिसके आदेशानुसार दलितों को मैला ढोने से लेकर मरे हुए पशुओं के शव उठाने जैसे तमाम किस्म के अधम कार्यों को अंजाम देना पड़ता है, जबकि साथ ही में इस आंदोलन ने आर्थिक विकास के वैकल्पिक मार्ग की कुंजी के बतौर भूमि के पुनर्वितरण पर पूरा जोर दिया है. ऐसा करके इस प्रतिरोध ने अम्बेडकर की आमूलचूल परिवर्तन वाली आर्थिक अंतर्दृष्टि को पुनर्जाग्रत किया है, जिसे अम्बेडकर ने इंडिपेंडेन्ट लेबर पार्टी के दौर में बिल्कुल स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया था, जब उन्होंने ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद को ऐसे जुड़वां दुश्मनों के बतौर चिन्हित किया था जिन्हें उत्पीड़ितों के लिये सच्चा लोकतंत्र कायम करने के लिये अवश्य ही पराजित करना होगा, और दलित आंदोलन में वामपंथ की ओर झुकाव बढ़ने तथा उसके साथ ही कम्युनिस्टों द्वारा वर्गीय राजनीति के वास्तविक व्यवहार में दलितों की दावेदारी को क्रांतिकारी सम्भावना को तहेदिल से स्वीकार करने के आधार पर ही दलित आंदोलन और कम्युनिस्ट आंदोलन परस्पर नजदीक आ सकते हैं, परस्पर सहयोग कर सकते हैं और यहां तक कि दलित मुक्ति एवं सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई में एकरूप हो जा सकते हैं.
अम्बेडकर इस बात को स्पष्ट रूप से कहते थे कि दलितों की मुक्ति खुद जाति के विनाश में -- किसी किस्म के संगतिपूर्ण समायोजन अथवा सुधार की पैरवी के विपरीत, जाति के सम्पूर्ण विनाश में -- निहित है. इस आमूल परिवर्तन की पैरवी करते वक्त अम्बेडकर को किसी अन्य से नहीं बल्कि सबसे प्रभावशाली नेता और स्वाधीनता आंदोलन की गोलबंदी के केन्द्र गांधी से लोहा लेना पड़ा था. अम्बेडकर ने जाति को श्रम-विभाजन अथवा “वर्णाश्रम” के बतौर देखने के विचार को खारिज किया था और जाति की परिभाषा श्रेणीबद्ध असमानता की व्यवस्था के रूप में दी थी. अपने-आपमें श्रम-विभाजन का विचार सामाजिक गतिशीलता का विरोधी नहीं होता, लेकिन जाति सामाजिक गतिशीलता को खारिज करती है और चाहती है कि समाज उसको ईश्वर के विधान से बनी व्यवस्था के रूप में स्वीकार कर ले. ईश्वरीय विधान से बनी अलंघनीय श्रेणीबद्ध सामाजिक विभाजन की यह धारणा ही जाति को सम्पूर्ण रूप से प्रतिगामी बना देती है, और अम्बेडकर के मन में इसमें सुधार करने का कोई भ्रम नहीं था.
जाति के विनाश का आह्वान अम्बेडकर को भारत के हर अन्य सामाजिक सुधारक अथवा सामाजिक टिप्पणीकार से अलग खड़ा कर देता है. और अम्बेडकर अपने बाद के वर्षों में मार्क्स से चाहे जितना दूर हटे हों, दलित मुक्ति के अंतिम लक्ष्य के बतौर जाति के विनाश का विचार अंतर्वस्तु के बतौर उन्हें मार्क्स के साथ ला खड़ा करता है, क्योंकि मार्क्स ने सर्वहारा की मुक्ति के लिये इसी किस्म की दिशा की पैरवी की थी. ठीक जैसे मार्क्स की रचनाओं में सर्वहारा किसी वर्ग समाज में अपनी अंतिम मुक्ति के बारे में सोच नहीं सकता, वैसे ही अम्बेडकर के दलित जातियों में बटे समाज में चैन से नहीं रह सकते. दलितों की मुक्ति के लिये जाति का सिर से पैर तक विनाश करना ही होगा.
चूंकि जाति ने अपनी वैधता समूचे श्रेणीक्रम को ईश्वरीय विधान मानने की अवधारणा से हासिल की है, इसीलिये अम्बेडकर ने इस तथाकथित ईश्वरीय परिकल्पना को सम्पूर्ण रूप से खारिज करने पर सर्वाधिक जोर दिया था. ब्राह्मणवाद अथवा मनुवादी सिद्धांत का यह निर्णायक विरोध ही अम्बेडकर के सामाजिक एवं राजनीतिक दर्शन का निर्धारक तत्व बना रहा. लेकिन अम्बेडकर के मन में यह बात भी स्पष्ट थी कि ब्राह्मणवाद ने तत्कालीन सम्पत्ति सम्बंधों एवं सत्ता के ढांचे को वैधता प्रदान की थी और दूसरी ओर इन चीजों ने ब्राह्मणवाद का पक्षपोषण किया था, इसीलिये जाति का विनाश करने के लिये सिर्फ ब्राह्मणवाद को खारिज करने से ही काम नहीं चलेगा, बल्कि मौजूदा सत्ता के ढांचे पर भी जीत हासिल करनी होगी. अम्बेडकर द्वारा 1930 के दशक में स्थापित इंडिपेन्डेंट लेबर पार्टी ने ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद दोनों को नई पार्टी के जुड़वां दुश्मन बताया था. निजी सम्पत्ति का विलोप और भूमि का राष्ट्रीयकरण अम्बेडकर के आर्थिक दर्शन के केन्द्रीय तत्व थे, और हालांकि जिस संविधान को भारत ने अंतत: ग्रहण किया, वह इतनी दूर तक नहीं जा सका, पर अम्बेडकर ने कभी भी सामाजिक न्याय के लिये लड़ाई में अत्यधिक असमतापूर्ण भूमि सम्बंधों एवं सम्पत्ति एवं आय के असमान वितरण के खिलाफ लड़ाई के महत्व को कम करके नहीं आंका,
अम्बेडकर ने जाति व्यवस्था पर गांधी के साथ अपने वाद-विवाद में एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही है. वर्णाश्रम अथवा श्रम-विभाजन के गांधीवादी सिद्धांत को खारिज करते हुए उन्होंने बताया कि “... जाति व्यवस्था केवल श्रम-विभाजन नहीं है, यह श्रमिकों का विभाजन है. सभ्य समाज को निस्संदेह रूप से श्रम विभाजन की आवश्यकता होती है. लेकिन किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिकों का इस तरह से जकड़नभरे खांचों में अप्राकृतिक रूप से विभाजन नहीं पाया जाता. जाति व्यवस्था सिर्फ श्रमिकों का विभाजन ही नहीं, जो श्रम-विभाजन से बिल्कुल भिन्न है -- यह एक श्रेणीक्रम है जिसमें श्रमिकों के विभिन्न विभाजनों को एक के ऊपर एक रखकर श्रेणीक्रम में बांधा गया है (बी.आर. अम्बेडकर, जाति का विनाश). इसलिये अम्बेडकर ने सुझाया कि जाति व्यवस्था का मुकाबला करने की कुंजी है सभी जातियों के मजदूरों को एकताबद्ध करना.
यह हमें वर्ग और जाति की परस्पर अंतःक्रिया का एक महत्वपूर्ण सूत्र प्रदान करता है -- वर्ग को जाति की संस्था के जरिये चलाये जा रहे उत्पीड़न और भेदभाव के यथार्थ को स्वीकार करना होगा और उस पर जीत हासिल करनी होगी. इस किस्म की सामाजिक संवेदनशीलता के साथ समझे जाने और बुलंद किये जाने से जाति गोलबंदी और गतिशीलता की ऐसी सचेत सामाजिक इकाई बन जाती है जो उस जकड़बंदी और ठहराव को चुनौती दे सकती है और उसे तोड़ सकती है जो जाति के श्रेणीबद्ध और पीढ़ीक्रम से चले आ रहे मकड़जाल के इर्दगिर्द घनीभूत हुए हैं. मगर वर्ग संघर्ष के विरोधी और यहां तक कि वर्ग संघर्ष के कई पैरवीकारों ने भी वर्ग संघर्ष को केवल आर्थिक क्षेत्र तक सीमित रखने की कोशिश की है, जिसने वर्ग संघर्ष की उसी पुरानी घिसी-पिटी समझ को पुख्ता किया है जिसके चलते वे भारत में जाति-आधारित सामाजिक उत्पीड़न और अन्याय के यथार्थ के प्रति उदासीन रहते हैं.
अम्बेडकर जाति के अंतर्विवाह के ढांचे को भी बार-बार चिन्हित करते हैं. इसलिये अम्बेडकर ने सामूहिक भोज अथवा पूजा-स्थलों में सार्वजनिक प्रवेश की कदाचित की जाने वाली समावेशी घटनाओं से कहीं ज्यादा जोर अंतर्जातीय विवाहों जैसे जाति की सीमाओं का ज्यादा कारगर ढंग से निषेध करने के तरीकों पर दिया है. फिर भी, जाति की सीमाओं का इस किस्म का “अतिक्रमण” तभी नियमित रूप से हो सकता है जब ज्यादा सामाजिक गतिशीलता और स्वाधीनता हासिल हो जाय, खासकर जब महिलाओं को प्रेम और शादी के सवालों समेत अपनी जिंदगी के बारे में तमाम फैसले लेने की आजादी मिल जाये. दूसरे शब्दों में, ठोक जैसे जातिगत जकड़बंदी और पितृसता एक दूसरे को पुख्ता करती हैं, वैसे ही एक का कमजोर होना दूसरे को भी कमजोर करेगा. अतः लैंगिक न्याय के लिये लड़ाई को जाति के विनाश के लिये लड़ाई के एक प्रमुख कार्यभार के रूप में देखना होगा.
ब्राह्मणवादी विचारधारा को खारिज करना, सामंतवाद और पूंजीवाद की सत्ता के ढांचों का प्रतिरोध करना, वर्ग एकता कायम करने का प्रयास करना और लैंगिक न्याय तथा पुरुष-वर्चस्व से महिलाओं की आजादी के लिये संकल्पबद्ध लड़ाई करना -- ये सभी कार्यभार जाति के विनाश की अम्बेडकर अंतर्दृष्टि और रणनीति के अभिन्न अंग हैं. मगर वास्तविक व्यवहार में सामाजिक न्याय की मुख्यधारा की राजनीति का उदय हुआ जाति-आधारित आरक्षण और जाति-आधारित सोशल इंजीनियरिंग या चुनावी समीकरणों के जोड़-तोड़ से, और उसके ही इर्द-गिर्द वह घूमती रही, और जाति के विनाश के वैचारिक जोर को वस्तुतः प्रष्ठभूमि में निर्वासित कर दिया गया है.
इसने एक ऐसी किस्म की पहचान की राजनीति को जन्म दिया है जो ब्राह्मणवादी विचारधारा के वर्चस्व के साथ पूर्णत: सामंजस्यपूर्ण है. सचमुच, हमने बिहार में भाजपा को जद(यू) के साथ संश्रय में सोशल इंजीनियरिंग की कला में महारत हासिल करते और फिर इसे विभिन्न अन्य राज्यों में, खासकर उत्तर प्रदेश में बड़े करीने से इस्तेमाल करते देखा, और आज हम उस प्रहसन की स्थिति को साकार होते देख रहे हैं जहां सबसे आक्रामक किस्म के कारपोरेट नियंत्रण के साथ ब्राह्मणवादी या मनुवादी विचारधारा के सबसे भयावह पुनर्जागरण के सम्मिश्रण का नेतृत्व पिछड़ी जाति से आया एक प्रधानमंत्री कर रहा है, जिसे अब एक दलित राष्ट्रपति की सरपरस्ती भी हासिल हो जायेगी.
अम्बेडकर को सभी लोग भारतीय संविधान का जनक मानते हैं. उन्होंने आधुनिक भारत की एक लोकतांत्रिक रूपरेखा को जन्म देने के लिये पश्चिमी लोकतंत्रों के संवैधानिक साहित्य का व्यापक सर्वेक्षण किया था और अतीत में भारत में सामूहिक क्रियाकलापों का, सबसे उल्लेखनीय रूप से बौद्ध संघों के आचार-व्यवहार का गहराई से अध्ययन किया था. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह है कि अम्बेडकर ने हमें संविधान को चारों ओर से घेरे हुए अंतर्विरोधों के बारे में एक समझ दी है. जिस दिन संविधान को औपचारिक रूप से ग्रहण किया गया, उस दिन अम्बेडकर ने इस ऐतिहासिक अवसर पर लोकतंत्र की प्रशंसा के गीत गाते हुए उत्सव नहीं मनाया बल्कि इसके विपरीत, इस मौके का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने हमें उन अंतविरोधों के बारे में चेतावनी दी जो वास्तविकता में भारत में लोकतंत्र की संवैधानिक बुनियाद को ही खतरे में डाल सकते हैं.
25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में दिये गये अपने अंतिम ऐतिहासिक भाषण में अम्बेडकर ने विभिन्न आलोचनाओं के जवाब में मसौदा कमेटी और संविधान का पक्ष लेते हुए अपने वक्तव्य की शुरूआत की थी, मगर उसका अंत उन्होंने भारत में लोकतंत्र के भविष्य के बारे में, लोकतंत्र को इसी रूप में बरकरार रखते हुए भी वास्तव में तानाशाही को जन्म देने के खतरे के बारे में अत्यंत जोरदार शब्दों में और खुले तौर पर चेतावनी देते हुए किया था. उस भाषण में तीन मुख्य चेतावनियां दी गई हैं : (1) क्या राज्य और जनता संविधान के आधार पर अपने क्रियाकलाप करेंगे, या फिर अराजकता हावी हो जायेगी; (2) क्या भारत नायक-पूजा की प्रथा का मुकाबला करने में समर्थ होगा, जो लोकतंत्र के पतन और तानाशाही के उदय का सबसे प्रामाणिक नुस्खा है; और (3) क्या स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के तीन सिद्धांतों -- जो संविधान के मूलाधार हैं -- को व्यवहार में बुलंद किया जायेगा या फिर बढ़ती असमानता और उसके परिणामस्वरूप स्वतंत्रता और बंधुत्व को नकारने से राजनीतिक लोकतंत्र की आधारशिला का ही विध्वंस हो जायेगा. आज ये तीनों चेतावनियां पहले के किसी भी वक्त की तुलना में ज्यादा आवश्यक लग रही हैं.
हम एक ऐसी सरकार का सामना कर रहे हैं जो आदतन संसदीय लोकतंत्र की संस्थाओं का उल्लंघन करते हुए काम करना पसंद करती है (इसका सिर्फ एक उदाहरण लें, तो संसद में उठाई गई आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए तथा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आधार को अनिवार्य बनाने के खिलाफ पारित आदेश का उल्लंघन करते हुए जनता पर आधार कार्ड थोपना है), हमारे सामने ऐसी परिस्थिति आन खड़ी है जहां अनगिनत आपराधिक मुकदमों के आरोपी को मुख्यमंत्री बना दिया जाता है और वही तय करने लगता है कि देश का कानून उसके खिलाफ मुकदमा लड़ेगा कि नहीं, और अब हमें ऐसे सत्ता-संरक्षित गिरोहों का सामना करना पड़ रहा है जो सड़कों पर और यहां तक कि रेलगाड़ी में नागरिकों की पीट-पीटकर हत्या करने लगे हैं.
अम्बेडकर ने उम्मीद की थी कि अगर सभी पार्टियों को आर्थिक एवं सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये संवैधानिक उपाय अपनाने की गारंटीशुदा छूट मिल जायेगी तो आंदोलन से निपटने या झगड़े सुलझाने (उन्होंने इस संदर्भ में नागरिक अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह जैसी सुविख्यात गांधीवादी तरकीबों का जिक्र तक किया था) के असंवैधानिक तरीके गैर-जरूरी हो जायेंगे. मगर चाहे कश्मीर और उत्तर-पूर्व में ऐतिहासिक रूप से अनसुलझे विवादों को निपटाने का मामला हो या फिर कृषि संकट और मेहनतकश जनता के लिये सम्मानजनक आजीविका या फिर जातिगत एवं लैंगिक उत्पीड़न तथा साम्प्रदायिक हिंसा के शिकार लोगों को न्याय देने के मुद्दे हों, राजसत्ता ने सुनियोजित ढंग से संवैधानिक उपायों का दमन किया है और कानून से परे जाकर दमन को बढ़ावा दिया है.
अम्बेडकर ने जो दूसरी चेतावनी दी थी उसका स्रोत या जॉन स्टुअर्ट मिल द्वारा लोकतंत्र कायम रखने के इच्छुक सभी लोगों को सावधान करने के लिये दी गई हिदायत कि वे “अपनी स्वतंत्रताओं को किसी महान व्यक्ति के कदमों तले सुपुर्द न कर दें, या उन पर भरोसा करके उनको ऐसी शक्तियां न दे दें कि वह उनकी संस्थाओं का विध्वंस करने में सक्षम हो जायं”. अम्बेडकर ने हमें याद दिलाया था कि यह चेतावनी “किसी अन्य देश के मुकाबले भारत के मामले में कहीं ज्यादा जरूरी है, क्योंकि भारत में भक्ति या जिसे कहा जा सकता है धर्मनिष्ठा या नायक-पूजा का पंथ, वह राजनीति में इतनी ज्यादा मात्रा में अपनी भूमिका निभाता है, जितनी दुनिया के किसी भी देश की राजनीति में नहीं निभाई जातो.”
अम्बेडकर के अनुसार “धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का रास्ता हो सकती है”, लेकिन राजनीति के क्षेत्र में उन्होंने सही तौर पर हमें चेतावनी दी थी कि “भक्ति या नायक-पूजा पतन का और अंततः तानाशाही में पहुंच जाने का रास्ता है.” हमने देखा कि किस तरह इस नायक-पूजा ने भारत में 1970 के दशक के मध्य में इमरजेन्सी की शक्ल में आपदा ला दी थी, जब एक चाटुकार कांग्रेस अध्यक्ष ने इंदिरा गांधी को भारत के समतुल्य बताया था और आज वही पूजा प्रथा एक बार फिर नरेन्द्र मोदी के इर्द-गिर्द खतरनाक ढंग से पनप रही है. मोदी-पूजा केवल वैचारिक विरोधियों अथवा राजनीतिक विपक्ष के खिलाफ ही निर्देशित नहीं है, उसका लक्ष्य हर ऐसा भाजपा नेता है (चाहे वह आडवाणी हो या राजनाथ सिंह) जो अधिकृत कथानक से रत्ती भर भी भिन्न ध्वनि करता प्रतीत हो सकता हो.
अम्बेडकर ने जिस तीसरी चीज पर जोर दिया था वह है “महज राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट न हो जाना” बल्कि राजनीतिक लोकतंत्र को “सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना .... जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के उसूल बनाता हो”. अम्बेडकर ने हमें चेतावनी दी थी कि “स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के ये तीन उसूल मिलकर इस मायने में एक त्रिमूर्ति का निर्माण करते हैं कि इन्हें एक-दूसरे से अलग करना लोकतंत्र के मूल उद्देश्य को ही शिकस्त देना है.” अम्बेडकर ने बहुत स्पष्ट ढंग से यह बात उठाई थी कि “हमें इस तथ्य को स्वीकार करना शुरू करना होगा कि भारतीय समाज में दो चीजें बिल्कुल गैरहाजिर हैं. इनमें से एक है समानता. सामाजिक धरातल पर हम भारत में एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जो श्रेणीबद्ध असमानता के उसूल पर आधारित है, जिसका अर्थ होता है कुछ लोगों को ऊपर उठाना और कुछ अन्य को नीचे गिराना. आर्थिक धरातल पर हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जिसमें ऐसे लोग भी शामिल हैं जिनके पास अकूत सम्पत्ति है और वे भी हैं जो अत्यंत दरिद्रता में गुजर बसर कर रहे हैं.” कुल मिलाकर इसका परिणाम था एक ओर औपचारिक राजनीतिक समानता और दूसरी ओर विशाल सामाजिक एवं आर्थिक असमानता के बीच बुनियादी जद्दोजहद.
अम्बेडकर ने असमानता को संवैधानिक लोकतंत्र के भविष्य के सामने एक प्रमुख संभावित खतरे के रूप में बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में चिन्हित किया है : “हम कितने दिनों तक अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में समानता लाने से इन्कार करते रहेंगे? अगर हम लम्बे अरसे तक समानता को नकारते रहेंगे तो हम ऐसा करके केवल अपने लोकतंत्र को खतरे में डालेंगे. हमें जितना जल्द संभव हो इस अंतविरोध को समाप्त करना होगा अन्यथा जो लोग असमानता से पीड़ित हैं ये राजनीतिक लोकतंत्र के उस ढांचे के परखचे उड़ा देंगे जिसकी रचना करने में इस सविधान सभा ने इतनी मेहनत की है.” जिस जमाने में अम्बेडकर इन पंक्तियों को लिख रहे थे उस दौर में जो आर्थिक असमानता गहराई में जड़े जमाये बैठी थी वह अब नव उदारवादी राजनीति के हाल के वर्षों में तेजी से बढ़कर आसमान छू रही है. 2014 से लेकर 2016 के बीच की अवधि में भारत की आबादी के शीर्षस्थ 1प्रतिशत लोगों की सम्पत्ति में लगभग 10 प्रतिशत का इजाफा हुआ है और यह सकल राष्ट्रीय सम्पत्ति के 60 प्रतिशत के नजदीक पहुंच गई है. आर्थिक असमानता के लगातार बढ़ते जाने के साथ-साथ हर किस्म की विषमताएं -- ग्रामीण क्षेत्र बनाम महानगर, कृषि संकट बनाम कारपोरेट लूट और समृद्धि, उन्नत इलाके बनाम पिछड़े इलाके -- खतरनाक हद तक बढ़ गई हैं. इस विशाल आर्थिक असमानता के साथ जातिगत अत्याचार और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के नये सिरे से तीखे होने की परिघटना को जोड़ दीजिये तो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की त्रिमूर्ति पूरी तरह से कल्पनालोक की कहानी लगती है.
अम्बेडकर इस चीज के बारे में बिल्कुल स्पष्ट थे कि भारत में एक राष्ट्र के बतौर निर्मित होने के लिये आवश्यक बंधुत्व का अभाव है -- “मेरी राय है कि यह यकीन करके कि हम एक राष्ट्र हैं, हम एक बड़ा भारी भ्रम पाल रहे हैं. कई हजार जातियों में बंटी जनता भला कैसे राष्ट्र कहला सकती है? जितनी जल्दी हम इस बात को महसूस कर लें कि अभी तक हम सामाजिक और मनोवैज्ञानिक मायनों में एक राष्ट्र नहीं बन सके हैं, उतना अच्छा होगा. क्योंकि तभी हम एक राष्ट्र के बतौर निर्मित होने की जरूरत महसूस कर सकेंगे और गम्भीरता के साथ उस लक्ष्य को हासिल करने के लिये तरीके व रास्ते खोज सकेंगे.” अम्बेडकर की नजर में जातियों से जर्जर किसी समाज में सच्ची राष्ट्रीयता आ ही नहीं सकती. बिना किसी अस्पष्टता के वे घोषणा करते हैं कि जातियां राष्ट्र विरोधी हैं : “सर्वप्रथम इसलिये कि वे सामाजिक जीवन में अलगाव लाती हैं. वे इसलिये भी राष्ट्र-विरोधी हैं क्योंकि वे जातियों के बीच आपस में ईर्ष्या और वैर-भाव को जन्म देती हैं.” यह हिंदू राष्ट्र के विचार को ही खारिज कर देता है. अम्बेडकर बताते हैं कि हिंदुओं की महा-एकता केवल हिंदू-मुस्लिम दंगों के दौरान ही प्रासंगिक हो जाती है, अन्यथा हिंदू समुदाय में, जो महज बहुतेरी जातियों का घोलमठ्ठा है, किसी अन्य मायनों में एकजुटता या सामुदायिकता नहीं मौजूद है.
अम्बेडकर ने राष्ट्रवाद और संवैधानिक लोकतंत्र के एक अन्य प्रमुख पहलू पर भी विस्तार से विचार किया है -- अल्पसंख्यकों के अधिकार. 24 मार्च 1947 को लिखित ‘राज्यों एवं अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर स्मारपत्र’ (मेमोरेंडम ऑन द राइट्स ऑफ स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज), जिसे मौलिक अधिकार, अल्पसंख्यक आदि विषयों पर संविधान सभा की सलाहकार समिति द्वारा गठित मौलिक अधिकार सम्बंधी उप-कमेटी के सामने पेश किया गया था, में अम्बेडकर ने बहुसंख्यकवाद पर तीखा हमला करते हुए लिखा है, “भारत के अल्पसंख्यकों के दुर्भाग्य से भारतीय राष्ट्रवाद ने एक नया सिद्धान्त गढ़ लिया है जिसे बहुसंख्यकों की मर्जी के अनुसार अल्पसंख्यकों पर राज करने का बहुसंख्यकों का दैवी अधिकार भी कहा जा सकता है. अल्पसंख्यकों द्वारा सत्ता में भागीदारी के किसी भी दावे को साम्प्रदायिकता कहा जाता है, जबकि बहुसंख्यकों द्वारा समूची सत्ता पर एकाधिकार कायम करना राष्ट्रवाद कहलाता है.
चूंकि भारत का तानाबाना इतनी बड़ी तादाद में धार्मिक, भाषाई और आंचलिक अल्पसंख्यकों द्वारा निर्मित है, इस वजह से अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच को बहुतेरी रेखाएं एक-दूसरे को जगह-जगह पर काटती हैं और राष्ट्र निर्माण के किसी भी प्रयास के लिये भाजपा का हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान का प्रतिमान सचमुच सबसे नुकसानदेह आघात साबित हो सकता है. इसीलिये अपनी गहरी अंतर्दृष्टि से अम्बेडकर ने हमें सर्वाधिक स्पष्ट शब्दों में इस खतरे के बारे में पहले ही चेतावनी दी थी : “अगर हिंदू राज सचमुच साकार होता है तो वह निस्संदेह रूप से इस देश के लिये सबसे बड़ी विपत्ति साबित होगा. हिंदू लोग चाहे जो कहें, हिंदू धर्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिये भयानक खतरा है. वह लोकतंत्र से कहीं भी संगतिपूर्ण नहीं है. हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोकना ही होगा.”
आज भारत को हिंदू राष्ट्र अथवा राष्ट्रीय राज्य घोषित करके खुलेआम संवैधानिक तख्तापलट तो नहीं किया गया लेकिन उससे कुछ ही पीछे खड़ी मोदी सरकार भारत को उसी दिशा में ठेलने की हरचंद कोशिश कर रही है. मुसलमानों को सुनियोजित ढंग से विधायी परिक्षेत्र में राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मंच से बाहर ठेला जा रहा है. राजनीतिक तौर पर इस राजनीतिक अदृश्यता के साथ सम्मिलित किया गया है जीवन के लगभग हर क्षेत्र में सर्वत्रव्यापी असुरक्षा का माहौल. भोजन और आजीविका से लेकर शिक्षा एवं संस्कृति तक, सभी जगह भारत में मुस्लिम समुदाय पर कातिल हमले सुनियोजित ढंग से बढ़ते जा रहे हैं. मगर यह आक्रामक बहुसंख्यकवादी शासन उतना ही दलित-विरोधी और गरीब-विरोधी भी है जितना कि यह मुस्लिम विरोधी है.
आज जब भारत में संवैधानिक लोकतंत्र अम्बेडकर के जमाने से लेकर अपने सबसे अंधकारपूर्ण मोड़ पर पहुंच चुका है, तो हर मोर्चे पर फासीवादी आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिये सशक्त लड़ाकू गठजोड़ कायम करना बहुत महत्वपूर्ण है. यहां मुद्दा मौजूदा राज को महज चुनाव के जरिये गद्दी से बेदखल करने का नहीं है, बल्कि भारत का स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आधार पर पुनर्निमाण करने का है, जिसका सपना अम्बेडकर ने देखा था. अम्बेडकर ने संवैधानिक लोकतंत्र में अंतर्निहित जिन अंतर्विरोधों को बहुत सही तौर पर चिन्हित किया था, उनके तीखे होने ने राष्ट्र को अपने संकट की मौजूदा स्थिति में डाल दिया है. संघ-भाजपा फासीवादी शक्तियां चाहती हैं कि यह संकट और बढ़े तो उसका वे अपने कारपोरेट-साम्प्रदायिक एजेंडा को थोपने में पूरी तरह से इस्तेमाल कर सकें. इस फासीवादी चुनौती पर जीत हासिल करने का अर्थ है इस संकट का एक प्रगतिशील और जोरदार लोकतांत्रिक समाधान को हासिल करना. भारत की सच्चे लोकतांत्रिक आधार पर पुनर्कल्पना और पुनर्निर्माण के इस कार्यभार को पूरा करने में अम्बेडकर की आमूल परिवर्तनवादी अंतर्दृष्टि हमारे लिये स्पष्टता और शक्ति हासिल करने का बहुमूल्य स्रोत है.
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BOOK
मोदी राज के तीन वर्ष : अम्बेडकर का पुनर्पाठ
दीपंकर भट्टाचार्य
Modi Raj Ke Tin Varsh :
Ambedkar Ka Punarpath
प्रकाशित
पहला संस्तरण : अक्टूबर, 2017
पुस्तक केंद्र
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